शनिवार, 7 जून 2014

आलेख

महापंडित राहुल सांकृत्यायन  

(विभिन्न श्रोतों से संकलित)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का बचपन का नाम केदार नाथ पाण्डेय था। इनका जन्म 09 अप्रेल 1893 को ग्राम - कनैला, जिला आजमगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ था। अनके पिता का नाम गोवर्धन पाण्डेय, था जो धार्मिक प्रवृत्ति का  छोटा किसान था। माता का नाम कुलवंती था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण नाना श्री रामशरण पाठक तथा नानी ने इनका लालन-पालन किया था।

राहुल जी का विवाह बचपन में ही कर दिया गया था। यह विवाह राहुल जी के जीवन की एक संक्रान्तिक घटना थी जिसकी प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही घर छोड़ दिया। घर से भाग कर ये एक मठ में साधु हो गए। लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव के कारण ये वहाँ भी टिक नही पाये। चैदह वर्ष की अवस्था में ये कलकत्ता भाग आए। उन्होंने, अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेशधारी सन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने (लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में इण्डोलाॅजी के प्राध्यापक, 1937-38 तथा 1947-48) संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान लोला येलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ।

1923 से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ। उन्होंने लद्दाख, किन्नौर तथा कश्मीर सहित भारत के विभिन्न राज्यों की यत्राएँ की। नेपाल, तिब्बत, श्री लंका, इरान, चीन, १९३५ में जापान, कोरिया, मंचूरिया तथा 1937 में सोवियत संघ की यात्राएँ की। बौद्ध भिक्खु के रूप में उन्होंने चार बार तिब्बत की यात्राएँ की। वहाँ से उन्होंने भारतीय दर्शन से संबंधित संस्कृत व पालि भाषा के अनेक बहुमूल्य ग्रंथों की पाण्डुलिपियों को बाइस खच्चरों में लादकर भारत लाया। वे जहाँ भी गये, वहाँ के जनजीवन से घुलमिलकर वहाँ की भाषाएँ सीखी और वहाँ की संस्कृति, दर्शन इतिहास और साहित्य का अध्ययन किया। इसी प्रकार वे अपने लेखन के लिए सामग्रियाँ जुटाते रहे और निरंतर लिखते रहे।

संस्कृत, हिन्दी, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश भोजपुरी, उर्दू, परसियन, अरबी, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, सिंहली फ्रेंच, तथा रसियन सहित छत्तीस भाषाओं के वे ज्ञाता थे। हिन्दी से उन्हे विशेष अनुराग था। उन्हीं के शब्दों में ’’मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।‘‘

महापण्डित के अनुसार हिन्दी साहित्य का इतिहास 750 ई. से शुरू हाता है। इस काल को वे ’सिद्ध-सामंत काल’ कहते हैं। उनके अनुसार - ’’इसका (हिन्दी का) साहित्य 750 इसवी से शुरू होता है, और सरहपा, कन्हापा, गोरखनाथ, चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल, प्रेमचंद जैसे प्रलेखक दिए हैं, इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल, भूत से भी अधिक प्रशस्त है।’’

महापंडित राहुल सांकृत्यायन को 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, तथा 1963 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।

सन् 1910 में घर छोड़ने के पश्चात वे पुनः सन् 1943 में ही अपने ननिहाल पन्दहा लौटे। वस्तुतः बचपन में अपने घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण पिताजी से मिली डाँट के पश्चात् उन्होंने प्रण लिया था कि वे अपनी उम्र के पचासवें वर्ष में ही घर में कदम रखेंगे। वे 1950 में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह कमला सांकृत्यायन से हुआ। इसके कुछ बर्षांे बाद वे दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे जहाँ 14 अप्रैल 1963 को मधुमेह के कारण उनका देहांत हो गया।

डाॅ. नामवर सिंह कहते हैं - ’’राहुल की सबसे बड़ी विशेषता है, संस्कृत के पंडित होते हुए, ब्राह्मण होते हुए अपने ब्राह्मणत्व का अतिक्रमण किया। सनातनी होते हुए हुए भी उस वैदिक परंपरा का अतिक्रमण किया। बौद्ध होते हुए उसने सिद्धों, नाथों की परंपरा का अतिक्रमण किया। ..... राहुल पण्डित केवल बुझी हुई लुकाठी नहीं थे, वे चिंगारी थे।’’

’मेरी जीवन यात्रा’ की शुरूआत में राहुल सांकृत्यायन ने बुद्ध के उपदेश का उल्लेख करते हुए लिखा है -

कुल्लुपमं देसेस्सरमि वो भिक्खे, 
धम्मं तरणत्थाय नो गहणत्थाय।

’’हे भिक्खुओं! यह धर्म नाव के समान उतरने के लिए है। पार उतर जाने के बाद सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं।’’

इसी उपदेश का वे अनुशरण करते रहे।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित छोटी-बड़ी ग्रंथों की संख्या लगभग 150 है जो 50,000 पृष्ठों में मुद्रित है। अनेक ग्रंथ अभी भी अप्रकाशित हैं। ’मध्य एशिया का इतिहास’ जो 5000 पृष्ठों का है तथा दो भागों में प्रकाशित है, उनकी सबसे बड़ी कृति है। इस कृति के लिए उन्होंने 20 वर्षों तक परीश्रम करके सामग्री जुटाया। उनकी सर्वाधिक चर्चित कृति ’वोल्गा से गंगा’ है। यह 20 कहानियों का संग्रह है। कहानियों में प्रागैतिहासिक काल से लेकर 1942 तक के मानव सभ्यता के आठ हजार सालों के विस्तृत फलक की घटनाओं को लिया गया है। ’कनैला की कथा’  उनकी जन्म भूमि कनैला गाँव के इतिहास और घटनाओं से संबंधित कहानियों का संग्रह है। इस संग्रह की ’त्रिवेणी’ नामक कहानी में कनैला के इतिहास का वर्णन है। सरयूपार, गोरखपुर जिला में मल्लव नामक गाँव था। यहाँ के ब्राह्मण मल्लविद्या में दक्ष होते थे और शायद इसी कारण वे मालव कहलाए। मालव ब्राह्मणों ने कनैला के मूल निवासियों को पराजित कर उन्हें गुलाम बनाया और स्वयं मालिक बन बैठे। पराजित मूल निवासी आज भी वहाँ दलित के रूप में निवास करते हैं।

डाॅ. नामवर सिंह के अनुसार - ’मध्य एशिया का इतिहास’, ’वोल्गा से गंगा’ तथा ’कनैला की कथा’ इन तीनों का अध्ययन करके  महापंडित राहुल सांकृत्यायन की समस्त कृतित्व के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
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