रविवार, 25 मई 2014

आलेख

मातृभाषा और राजभाषा: विजयदान देथा

(डाॅ.. प्रेमकुमार द्वारा लिये गए साक्षातकार का अंश)

(अभिनव प्रयास, जनवरी-मार्च: 2014, पृष्ठ 11-12 से साभार)

शुरू में स्पष्ट कर दूँ कि हिन्दी हिन्दुस्तान के किसी भूखण्ड की भाषा नहीं है। जो भी भूखण्ड है, उनकी अपनी मातृभाषा है - अवधी, मैथिली, भोजपुरी, मालवी इत्यादि। ऐसी ही स्थिति उर्दू की भी है। हिन्दी किसी परिवार की भाषा हो सकती है, पर वृहत्त् समुदाय की नहीं है। यह जन्म के साथ नहीं सीखी जाती, इसकी शिक्षा दी जाती है। इसलिए किसी भी मातृभाषा और हिन्दी का कोई विरोध नहीं है। निहित स्वार्थ वाले - वह चाहे प्रकाशक हो या लेखक हो, ये लोग ही विरोध दिखाते हैं। पहली बात यह कि कोई कहे कि मेरी मातृभाषा अमुक है, तो आप यह कहने वाले कौन हैं कि अपकी मातृभाषा हिन्दी है। हिन्दी राजभाषा है - सब भाषाओं का संपर्कसूत्र है। मातृभाषाओं के आधार पर ही हिन्दी का शब्द भण्डार बढ़ सकता है। धरती के पर्याय, वनस्पत्तियों के प्रकार आदि से संबंधित अनेक शब्द मातृभाषाओं से ही आयेंगे। हस्तशिल्प के, लोहार, सुनार, कुम्हार आदि के औजारों के - ऐसे हजारों शब्द। उनका प्रचलन किसमें होगा - जिसमें वे सांस लेते है। अखबारों या छापेखाने से हिन्दी का शब्द भण्डार नहीं बढ़ेगा।
000

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें