हम अपने समाज को सुंदर से सुंदर बनाने की चेतना संस्कृति से ही पाते हैं।
सुप्रसिद्ध प्रगतिवादी चिंतक एवं समीक्षक डाॅ. गोरेलाल चंदेल की चर्चित कृति ’संस्कृति की अर्थव्यंजना’ के ’लेखकीय’ का अंश
..... बिना संस्कृति के मनुष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है। अर्थ यह हुआ कि मनुष्य अथवा समाज की कोई न कोई संस्कृति अवश्य होती है। संस्कृति ने ही मनुष्य को भाषा सिखाई है। अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाने की शक्ति दी है। दूसरों के विचारों को सुनने और समझने की ताकत दी है। आपस में, समूह में रहकर अपने अस्तित्व को बनाये रखने तथा प्रकृति और समाज विरोधी शक्तियों से संघर्ष करने में सक्षम बनाया है। जिन मनवीय गुणों पर हमारा समाज और राष्ट्र का ढांचा खड़ा हुआ है; समाज और राष्ट्र के शक्तिशाली बनने के सूत्र मौजूद हंै; उन गुणों का विकास संस्कृति ही करती है। प्रेम, संवेदना, सहकार, सहयोग, सहानुभूति, दया, ममता, और परदुखकातरता के गुणों को संस्कृति ही देती है। कुल मिलाकर संस्कृति ही हमारी सभ्यता का अधार है। हम अपने समाज को सुंदर से सुंदर बनाने की चेतना संस्कृति से ही पाते हैं। ...
डाॅ. गोरेलाल चंदेल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें