सोमवार, 5 मई 2014

आलेख

परसाई के चिचार

’भारत को चाहिए: जादूगर और साधु’ नामक निबंध  का अंश।


साधु कहता है- ’’शरीर मिथ्या है। आत्मा को जगाओ। उसे विश्वात्मा से मिलाओ। अपने को भूलो। अपने सच्चे स्वरूप को पहचानो। तुम सत्-चित्- आनंद हो।’’

आनंद ही ब्रह्म है। राशन ब्रह्म नहीं। जिसने ’अन्न ब्रह्म’ कहा था, वह झूठा था। नौसिखिया था। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्न नहीं ’आनंद’ ही ब्रह्म है।

पर भर पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक-सा है? नहीं है तो ब्रह्म एक नहीं अनेक हुए। यही शास्त्रोक्त भी है - ’एको ब्रह्म बहुस्याम’। ब्रह्म एक है पर कई हो जाता है। एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दूकान की लाईन में खड़ा रहता है, तीसरा रेल्वे के पुल के नीचे सोता है। सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।

शक्कर में पानी डालकर जो उसे वजनदार बनाकर बेचता है; वह भी ब्रह्म है और जो मजबूरी में उसे खरीदता है, वह भी ब्रह्म है।

ब्रह्म, ब्रह्म को धोखा दे रहा है।

साधु का यही काम है कि मनुष्य को ब्रह्म की ओर ले जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि ’ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’।
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