छत्तीसगढ़ : सृजनशीलता के विविध आयाम
डॉ. गोरेलाल चंदेल
(’संस्कृति की अर्थव्यंजना’ नामक संग्रह से साभार)
छत्तीसगढ अपनी विरासतों के लिए देश-विदेश में जाना जाता है। ये विरासत लोकजीवन और लोकसंस्कृति की तो है ही साथ ही साहित्य सृजन की भी लंबी परंपरा इस अंचल की है। राष्ट्रीय साहित्यिक परिदृश्य और विभिन्न कालों की वैचारिकता, चिंतन की मूलधारा तथा सामाजिक चेतना का प्रभाव इस अंचल के साहित्यकारों में दिखाई देता है। इस अचल के रचनाकार अपनी रचनाधर्मिता के प्रति न केवल ईमानदार रहे हैं वरन् सामाजिक चेतना की गहराई तथा संवेदनात्मक दृष्टि से समाज तथा सामाजिक जीवन की बारीकियों को पकड़ने में भी सक्षम दिखाई देते हैं। यही वजह है कि छत्तीसगढ अंचल के रचनाकारों को हिन्दी साहित्य के रचनाकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करनें में कोई संकोच नहीं होता।
1634 से छत्तीसगढ क्षेत्र में हिन्दी साहित्य के सृजन का इतिहास मिलता है। इसके पूर्व संस्कृत साहित्य की पुष्ट परंपरा इस क्षेत्र में रही है। कई शिलालेख एवं ताम्रपत्रों में संस्कृत साहित्य की विरासत आज भी मौजूद है। 1634 में रतनपुर के ख्यातिनाम कवि गोपाल चन्द्र मिश्र की खूब तमाशा, जैमिनी अश्वमेघ, भक्ति चिंतामणि, सुदामा चरित और राम प्रताप जैसी कृति सामने आती है। इस युग की रवनाओं में हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन कवियों का स्पष्ट प्रभाव दिखई देता है। 1650 से 1850 तक भक्त कवियों की एक लंबी परंपरा इस अंचल में दिखाई देती है। 1650 से 1850 के काल को छत्तीसगढ के कवियों का आरंभ काल माना जा सकता है। इस काल के प्रमुख कवियों में गोपाल चन्द्र मिश्र, माखनचन्द्र मिश्र, रेवाराम बाबू, उमराव बख्शी और रघुवर दयाल को माना जा सकता है। इन कवियों ने साहित्य की तत्कालीन मूलधारा के अनुरूप भक्ति को केन्द्रिय शक्ति के रूप में निरूपित करते हुए कविताएँ लिखी। इस काल के कवियों ने भक्ति के माध्यम से सामन्तवादी व्यवस्था की प्रताड़ना से हताश और निराश जनमानस में एक नई चेतना और नई ऊर्जा पैदाकर नवजागरण का शंखनाद किया।
1850 से 1915 तक का काल छत्तीसगढ के काव्य साहित्य में मध्ययुग के नाम से जाना जा सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन से उसकी संगति भले ही न बैठ पाए किन्तु काव्य की अवधारण और विषयवस्तु की दृष्टि से इस काल में उसी तरह की कविताएँ लिखी गईं जिस तरह की कविताएँ हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल में लिखी र्गइं। इसकी शुरूआत आरंभकाल के कवि माखनचन्द्र मिश्र से हो चुकी थी। उन्होंने ’छंद विलास’ नामक ग्रंथ लिखकर ’लक्षण ग्रंथ’ की रचना का श्रीगणेश किया था। रघुवर दयाल ने ’छंद रत्नमाला’, उमराव बख्शी ने ’अलंकार माला’, खेमकरण ने ’सुभात विलास’ और भानु कवि ने ’छंद प्रभाकर’ की रचना कर हिन्दी साहित्य के लक्षण ग्रंथों की वृद्धि में अपना योगदान दिया। मध्यकाल के प्रमुख कवियों में बिसाहू राम, बनमाली प्रसाद श्रीवास्तव, जगन्नाथ प्रसाद भानु, दशरथ लाल, सैयद मीर अली मीर, पुन्नी लाल शुक्ल, विश्वनाथ प्रसाद दुबे, लोचन प्रसाद पाण्डेय, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, प्यारे लाल गुप्त, मावली प्रसाद श्रीवास्तव, बल्देव प्रसाद मिश्र, राजा चक्रधर सिंह, द्वारिका प्रसाद तिवारी ’विप्र’ आदि हैं। इस युग की कविता में साहित्य की मूलधारा के साथ ही साथ जन-संस्कृति की मनोरम झांकी दिखाई देती है। लोक का दुख, पीड़ा, शोषण तथा आशा-निराशा के अतिरिक्त जन मानस में मैजूद जीवन शैली और उनके सामाजिक संबंधों को लेकर बेबाक कविता लिखने की परंपरा दिखाई देती है। इसी युग में सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को संपूर्णता में अभिव्यक्ति देने वाले महाकाव्यों की रचना हुई। बिसाहू राम, सुखलाल पाण्डेय, बलदेव प्रसाद मिश्र, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, मधुकर आदि को प्रमुख महाकाव्यकार के रूप में देखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ के काव्य साहित्य के 1915 से 1950 के काल को आधुनिक युग की संज्ञा दी जा सकती है। इस काल में छत्तीसगढ से हिन्दी साहित्य के सर्वथा नये युग का सूत्रपात होता है। काव्य के क्षेत्र में नई अभिव्यंजना शैली, नए चिंतन, नए प्रतीकों और बिंबों का उद्भव और विकास इसी युग में होता है। साहित्येतिहास में इस काव्यधारा को छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रथम कवि और जनक के रूप में पं. मुकुटधर पाण्डेय को माना जाता है। बावजूद इसके इस काल के कवियों ने अपने आप को सामाजिक जीवन से अलग नहीं किया। अन्य छायावादी कवियों की तरह काव्य के माध्यम से वायवीय छाया बुनने के बजाय इन कवियों ने जमीन से जुड़कर सामाजिक यथार्थ की बुनावट को पहचानने की कोशिश की। उनकी संवेदनात्मक दृष्टि और संवेदनात्मक ज्ञान से जीवन के सत्य को पकड़ने और पहचानने का निरंतर प्रयास किया। इस काल के अन्य कवियों में पं. शेषनाथ शर्मा ’शील’, कुंजबिहारी चौबे, रामेश्वर शुक्ल ’अंचल’, स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, घनश्याम प्रसाद ’श्याम’, केदार नाथ चंद, लाला जगदलपुरी, जयनारायण पाण्डेय, हेमनाथ यदु, गोविन्द लाल अवधिया, वेणुधर पाण्डेय आदि प्रमुख हैं।
1950 के बाद के युग को छत्तीसगढ के साहित्य इतिहासकारों ने नये स्वर-युग का नाम दिया है। वस्तुतः इस नामकरण की सार्थकता भी है। इस युग में कविता वस्तु और शिल्प की दृष्टि से नये अर्थगांभीर्य के साथ सामने आई। अपने युग के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक घटनाओं पर कविता की स्पष्ट प्रतिक्रिया दिखाई देने लगी थी। कविता का सामाजिक उद्देश्य और सामाजिक प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट होती जा रही थी। भाववादी कविता का दौर लगभग समाप्त हो रहा था और इसके स्थान पर यथार्थवादी कविता सामने आ रही थी। यह सही है कि इस दौर की कविता जटिल सामाजिक यथार्थ की पारदर्शिता की कसौटी पर पूर्णतः खरी भले ही न उतरती हो, संवेदना के तलदर्शी स्वरूप की कमी भले ही इन कविताओं में दिखाई देती रही हो, जीवन सत्य को परत-दर-परत खोलने में कविता भले ही उतनी सक्षम न दिखाई देती रही हों, फिर भी इन कविताओं में काव्यात्मक ईमानदारी के साथ ही साथ समाज के साथ ईमानदार जुड़ाव अवश्य दिखाई दे रहा था। इस युग के कवियों में हरि ठाकुर, गुरूदेव कश्यप, सतीष चौबे, नारायण लाल परमार, ललित मोहन श्रीवास्तव, देवी प्रसाद वर्मा, राजेन्द्र मिश्र, राधिका नायक, विद्याभूषण मिश्र, अशोक वाजपेयी, मोहन भारती, प्रभंजन शास्त्री, मुकीम भारती, सरोज कुमार मिश्र, प्रभाकर चौबे, ललित सुरजन आदि प्रमुख थे।
सामाजिक चेतना और संवेदना की तलदर्शिता तक पहुँचने का प्रयास करने वाले इस काल के वरिष्ठ कवियों की ऊपरी सतह को तोड़कर, अंदर तक जाकर गहरी संवेदना तथा सामाजिक चेतना की पहचान नई पीढ़ी के कवियों ने की। इन कवियों की कविताओं में समाज के तलदर्शी यथार्थ को न केवल अभिव्यक्ति मिली वरन् वर्ग विभाजित समाज की वर्गीय संरचना भी अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ सामने आई। नई पीढ़ी के ऐसे कवियों में जीवन यदु, एकांत श्रीवास्तव, बसंत त्रिपाठी, रवि श्रीवास्तव, महावीर अग्रवाल, शरद कोकाश, आलोक वर्मा, स्व. लक्षमण कवष आदि प्रमुख हैं। इन कवियों ने सामाजिक संरचना को बेहद सरल बिंबों में बांधकर प्रस्तुत किया। मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले इन कवियों की सामाजिक प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट रही है।
छत्त्ीसगढ़ में हिन्दी काव्य साहित्य की तरह ही गद्य साहित्य की भी समृद्ध परंपरा रही है। कथा साहित्य के क्षेत्र में 1901 में ’छत्त्ीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधवराव सप्रे की कहानी ’टोकरी भर मिट्टी’ को मील के पत्थर के रूप में माना जाता है। कथ्य, तथ्य और भाषा शैली की दृष्टि से कई समीक्षकों ने इसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। इसी क्रम में लोचन प्रसाद पाण्डेय की कहानियों को याद किया जा सकता है। ’गरूड़माला’ में प्रकाशित उनकी ’जंगल रानी’ कहानी पर उन्हें स्वर्ण पदक मिला था। 1905 में लोचन प्रसाद पाण्डेय की ’दो मित्रा’ नम से कथा संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसे इस अंचल का प्रथम कहानी संग्रह कहा जा सकता है। मुुकुटधर पाण्डेय और कुलदीप सहाय की कहानियाँ उस दौर की महत्वपूर्ण पत्रिका ’माधुरी’ में प्रकाशित हो रही थी। मावली प्रसाद श्रीवास्तव की कहानी साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई और सरस्वती कहानी प्रतियोगिता में उन्हें तृतीय पुरस्कार मिला। पदुमलाल पुन्नलाल बख्शी तो हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे ही। इसके अतिरिक्त प्यारेलाल गुप्त, शिवप्रसाद, काशीनाथ पाण्डेय, घनश्याम प्रसाद, केशव प्रसाद वर्मा, केदारनाथ झा ’चन्द्र’ प्रमुख कहानीकार हैं। बाद की पीढ़ी में मधुकर खेर, प्रदीप कुमार प्रदीप, नारायण लाल परमार, लाला जगदलपुरी, पालेश्वर शर्मा, प्रमोद वर्मा, रमाकांत श्रीवास्तव, चन्द्रिका प्रसाद सक्सेना, इन्द्रभूषण ठाकुर, देवी प्रसाद वर्मा आदि कहानीकारों ने इस अंचल के कथासाहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
1956 में कथासाहित्य के क्षेत्र में एक नया आन्दोलन प्रारंभ होता है, जिसे नई कहानी अन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इस अंचल के शरद देवड़ा और शानी को नई कहानी आन्दोलन का महत्वपूर्ण कहानीकार माना जा सकता है। सचेतन कहानी आन्दोलन के कहानीकार के रूप में इस अंचल के महनकर चौहान और श्याम व्यास का नाम प्रमुख कहानीकार के रूप में लिया जा सकता है। कथासाहित्य के क्षेत्र में श्रीकान्त वर्मा बेहद चर्चित नाम रहे हैं। कई समीक्षक उसे अकहानी आन्दोलन के साथ जोड़ते हैं। श्रीकान्त वर्मा इसी अंचल के कथाकार थे। महिला कहानीकारों में शशि तिवारी और मेहरून्निसा परवेज की कहानियाँ हिन्दी कथासाहित्य के क्षेत्र में काफी चर्चित रहीं। इसके अतिरिक्त प्रभाकर चौबे, नरेन्द्र श्रीवास्तव, श्याम सुन्दर त्रिपाठी ’पथिक’, जयनारायण पाण्डे, गजेन्द्र तिवारी आदि इस अंचल के प्रमुख कहानीकार रहे हैं।
नई पीढ़ी के कहानीकारों में लोक बाबू, परदेसी रामवर्मा, मनोज रूपड़ा, कैलाश बनवासी, नासिर अहमद सिकन्दर, आनंद हर्षुल, ऋषि गजपाल आदि की कहानियाँ इस दौर की सशक्त कहानियाँ मानी जाती हैं। इनकी कहानियों में सामाजिक अंतर्विरोध, समाज की वर्गीय संरचना, सामाजिक विडंबना, शोषक और शोषित के चरित्र का यथार्थपरक चित्रण हुआ है तथा कहानियों से जनमानस में नई सामाजिक चेतना जागृत करने में उन्हें सफलता मिली है।
छत्तीसगढ़ अंचल के निबंध विधा पर लेखन की परंपरा भी काफी पुष्ट रही है। प्रारंभिक दौर में धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर निबंध लेखन हुआ। प्रारंभिक दौर के निबंधकारों में बिसाहू राम और अनंत राम पाण्डेय प्रमुख हैं। इस दौर में अनंतराम पाण्डेय के समालोचनात्मक निबंध भी देखने को मिलते हैं। वास्तव में निबंध की सुदृढ़ परंपरा माधवराव सप्रे से शुरू होती है। उन्होंने ’छत्तीसगढ़ मित्रा’ के माध्यम से निबंध के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, पं. राम दयाल तिवारी और बाबू कुलदीप सहाय ने इस विधा को आगे बढ़ाया। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने विविध विषयों पर निबंधों की रचना कर निबंध विधा का विस्तार किया। उन्होंने आत्म परक, संस्मरणात्मक तथा मनोवैज्ञानिक विषयों पर बेहद सहज, सरल निबंधों की रचना की तथा सरस्वती के संपादक के रूप में निबंध साहित्य को नई दिशा देने की कोशिश की। पं. मुकुटधर पाण्डेय ने छायावादी निबंधों की रचना कर हिन्दी साहित्य को चिंतन का सर्वथा नया आयाम दिया। यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, केशव प्रसाद वर्मा, जयनारायण पाण्डेय, शारदा तिवारी, नारायण लाल परमार, पं. रामकिशन शर्मा डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, धनंजय वर्मा आदि विद्वानों को निबंधकार के रूप में राष्ट्रीय ख्याति मिली।
समकालीन निबंध लेखन में अधिकांशतः समीक्षात्मक लेखों के रूप में निबंध लेखन हो रहा है। हिन्दी की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के समीक्षात्मक लेख निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। डॉ. राजेश्वर सक्सेना, डॉ. धनन्जय वर्मा, डॉ. प्रमोद वर्मा. प्रभाकर चौबे, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, रमेश अनुपम, डॉ. गोरेलाल चंदेल, जय प्रकाश साव आदि के समीक्षात्मक लेख पहल, सापेक्ष, वसुधा, वर्तमान साहित्य, साक्षात्कार, पल-प्रतिपल, जिज्ञासा आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, एकांकी आदि विधाओं में भी छत्तीसगढ़ में लगातार उच्चस्तरीय लेखन हो रहा है।
विगत 15-20 वर्षों से छत्तीसगढ़, प्रदेश की साहित्यिक गतिविधयों का केन्द्र रहा है, कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस अंचल में नई-नई साहित्यिक प्रतिभाओं की रचनाओं पर निरंतर गोष्ठियाँ एवं सेमीनार आयोजित हो रहे हैं और उनकी रचनात्मकता को विकसित होने का अवसर मिल रहा है। अंचल की रचनाशीलता को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य रायपुर से प्रकाशित दैनिक देशबंधु और उसके संपादक ललित सुरजन ने किया है। साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन में भी उनकी अग्रणी भूमिका रही है। इसी दिशा में ’सापेक्ष’ पत्रिका और श्री प्रकाशन के माध्यम से महावीर अग्रवाल का प्रयास भी सराहनीय है। छत्तीसगढ़ अंचल में साहित्यिक संभावनाओं की कमी नहीं है; केवल उनकी सृजनशीलता को प्रकाश में लाने के साधनों की आवश्यकता है।
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