शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

धम्मपद के सूत्र

धम्मपद के सूत्र

(ओशो साहित्य, एस धम्मो सनंतनो, भाग 7 से संकलित)


(1)
यो च पुब्बे पमज्जित्वा पच्छा सो नप्पमज्जति।
सो’ मं लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो व चंदिमा।।150।।

अर्थ:- जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता, वह मेघ से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।
संदर्भ:- बुद्ध के शिष्यों में समंजनी नाम का एक भिक्खु था। बुद्ध कहा करते थे - सदा स्वच्छ रहो। सुनकर समंजनी को सफाई का पागलपन हो गया, हमेशा झाड़ू लिये चलता। एक दिन भिक्षु रेवत ने कहा कि आवुस, सदा बाहर की ही सफाई में लगे रहोगे। अंदर की सफाई कब करोगे। समंजनी को सत्य का बोध हुआ और वह समाधिस्थ हो गया। तथागत ने तब यह सूत्र कहा।
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(2)
यस्स पापं कतं कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो’ मं लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो व चंदिमा।।151।

अर्थ:- जिसका किया हुआ पाप उसी के बाद किये हुए पुण्य से ढंक जाता है, वह मेघ से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।
संदर्भ:- भिक्षु बनने के बाद अंगुलीमाल जब भिक्षा मांगने गया तब लोगों ने उसे पत्थर मार-मारकर मार डाला। उसके देह छोड़ने पर अन्य भिक्षुओं ने पूछा - भंते! अंगुलीमाल मरकर कहाँ उत्पन्न हुए होंगे? इसके जवाब में तथागत ने ये सूत्र कहे।
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(3)
अधं भूतो अयं लोको तनुकेत्थ विपस्सति।
सकुंतो जालमुत्तो’ व अप्पो सग्गाय गच्छति।।152।।

अर्थ:- यह सारा लोक अंधा बना है। यहाँ देखने वाला कोई विरला है। जाल से मुक्त हुए पक्षी की भांति विरला ही स्वर्ग जाता है।
संदर्भ:- एक जुलाहे की बेटी तथागत के दर्शन करने के लिए आई।
तथागत ने पूछा - बेटी कहाँ से आती हो?
    भंते! नहीं जानती हूँ।
    कहाँ जाओगी?
    भंते! नहीं जानती हूँ।
    क्या नहीं जानती हो?
    भंते! जानती हूँ।
    जानती हो?
    भंते! जरा भी नहीं जानती हूँ।
इस वार्तालाप को सुनकर लोगों को आश्चर्य हुआ। तब तथागत ने भिक्षुओं को इस वार्तालाप का रहस्य समझाते हुए उपरोक्त सूत्र कहे।।
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(4)
हंसादिच्चपथे यंति आकासे यंति इद्धिया।
नीयंति धीरा लोकम्हा जेत्वा मारं सवाहिनिं।।153।।

अर्थ:- हंस सूर्यपथ से जाते हैं। ऋद्धि से योगी भी आकाश में गमन करते हैं। धीरपुरूष सेना सहित मार को पराजित कर लोक से निर्वाण चले जाते हैं।
संदर्भ:- एक दिन तीस खोजी भिक्षु बुद्ध के पास आए। आनंद द्वार पर था। उसने भिक्षुओं को अंदर जाते हुए देखा परंतु जब वे वापस नहीं आए और अंदर भी कहीं दिखाई न दिए तब उसने बुद्ध से प्रश्न किया कि वे कहाँ चले गए। तब उत्तर में तथागत ने ये सूत्र कहे।
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(5)
पथव्या एकरज्जेन सगस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्तिफलं वरं।।154।

अर्थ:- पृथ्वी का अकेला राजा होने से (चक्रवर्ती होने से) या स्वर्ग के गमन से (देवता होने से) अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्रोतापति-फल (स्रोतापन्न - जो ध्यान में उतर गया, समाधिस्थ हो गया अर्थात जो स्रोत की तरफ चल पड़ा।) श्रेष्ठ है।
संदर्भ:- अनाथपिंडक नामक एक महादानी धनिक था। वह बुद्ध का भक्त था। उसका काल नाम का एक पुत्र था, वह बुद्ध को सुनने कभी न जाता था। वह कुछ काम भी नहीं करता था। पिता ने बेटे को धन का लालच देकर बुद्ध के पास भेजा कि कुछ तो इसकी आदत सुधर जायेगी। पर बेटा जो गया तो वापिस नहीं लौटा। वह भिक्षु हो गया। तब बुद्ध ने यह सूत्र कहा था।
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(6)
यस्स जित नवजीयति जितमस्स नो याति कोचि लोके।
तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्सथ।।155।।

अर्थ:- जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता, और जिसके जीते को कोई नहीं पहुँच सकता, उस अनंतदृष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?
(7)
यस्स जालिनी विसत्त्किा तन्हा नत्थि कुहिंचि नेतवे।
तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्सथ।।156।।

अर्थ:- अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती, उस अनंतदृष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?
संदर्भ:- छः वर्ष की कठोर तप के पश्चात् तथागत को जब बुद्धत्व की प्राप्ति हुई, उसके तप को डिगाने के लिए मार (शैतान) आया। बुद्ध स्थिर रहे। तब मार ने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। वे भी तथागत को डिगा न सकीं। तब तथागत ने ये सूत्र कहे।
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(8)
ये ज्ञानपसुत्ता धीरा नेक्खम्मूपसमे रता।
देवापि तेसं पिह्यंति संबुद्धानं सतीमतं।।157।।

अर्थ:- जो धीर ज्ञान में लगे हैं, परम शांत निर्वाण में रत हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं।
संदर्भ:-बुद्ध ने श्रावस्ती के किनारे तीन माह का वर्षावास किया। वे तीन माह तक समाधिस्थ रहे। तीन माह बाद जब वे वापस आए तो भिक्षुओं ने पूछा - इतने दिनों आप कहाँ रहे। तथागत ने कहा - देवताओं के आग्रह पर मैं देवलोक गया हुआ था, वहीं से वापस आ रहा हूँ। भिक्षुओं को आश्चर्य हुआ तब तथागत ने यह सूत्र कहा था।
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(9)
किच्छो मनुस्सपटिलाभो किच्छ मच्चान जीवितं।
किच्छं सद्धम्मसवणं किच्छो बुद्धानं उप्पादो।।158।।

अर्थ:- मनुष्य का जन्म पाना कठिन है; मनुष्य का जीवन दुर्लभ है; सद्धर्म का श्रवण करना दुर्लभ है; और बुद्धों का उत्पन्न होना दुर्लभ है।
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(10)
सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा।
सच्चित्तपरियोदपनं एतं बुद्धान सासनं।ं159।।

अर्थ:- सभी पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना, और अपने चित्त का शोधन करना - यही बुद्धों का शासन है।
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(11)
खंती परमं तपो तितिक्खा निब्बानं परमं वदंति बुद्धा।
नहि पब्बजितो परूपघाती समणो होति परं विहेठयंतो।।160।।

अर्थ:- तितिक्षा और क्षांति परम तप हैं। बुद्ध निर्वाण को परम कहते हैं। दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता और दूसरों को सताने वाला श्रवण नहीं होता।
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(12)
अनूपवादो अनूपघातो पातिमोक्खे च संवरो।
मत्तंजुता च मत्तस्मिं पंतंज सयनासनं।
अधिचित्ते चआयोगो एतं बुद्धान सासनं।।161।।

अर्थ:- निंदा न करना, घात न करना, पातिमोक्ष में सम्वर रखना, भोजन में मात्रा जानना और चित्त योग में लगाना - यही बुद्धों का शासन है।
संदर्भ:- बुद्ध ने सर्पराज के निवेदन पर उसके निर्वाण हेतु यह उपदेश दिया था।
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(13)
न कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विज्जति।
अप्पस्सादा दुखाकामा इति विंचाय पंडितो।।162।।
(14)
अपि विब्बेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति।
तण्हक्खयरतो होति सम्मासंबुद्धसावको।।163।।

अर्थ:- यदि रूपयों की वर्षा भी हो रही हो तो भी मनुष्य की कामों से तृप्ति नहीं होती। सभी काम अल्पस्वाद और दुखदायी हैं, ऐसा जानकर पंडित देवलोक के भोगों में भी रति नहीं करता। और सम्यक संबुद्ध का श्रावक तृष्णा का क्षय करने में लगता है।

संदर्भ:- दहर नाम का एक भिक्षु था। पिता की इच्छा थी कि मरने से पहले वह अपने पुत्र को देख ले परन्तु उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई। मरने से पहले उसने छोटे बेटे को, जो साथ मे रहता था, आज्ञा दी कि आधी संपत्ति वह अपने बड़े भाई को दे देगा। दहर जब गाँव आया तो छोटे भाई ने उसे पिता की मृत्यु का समाचार और उसकी इच्छा के बारे में बताया। पिता की आज्ञानुसार उसकी संपत्ति उसे देना चाहा। परंतु दहर ने संपत्ति लेने से मना कर दिया। संघ में लौटकर वह बड़े गर्व के साथ अन्य भिक्षुओं से इस त्याग के बारे में बताता था। उसका मन अभी धन से ही बंधा था। उसके मन से इस विकार को दूरकरने के लिए तथागत ने यह सूत्र कहा था।
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(15)
वहु वे सरणं यंति पब्बतानि वनानि च।
आरामरूक्खचेत्यानि मनुस्सा भयतज्जिता।।164।।

अर्थ:- आदमी भय के कारण भगवानों की पूजा कर रहा है। भय के कारण उसने मंदिर बनाए, भय के कारण प्रार्थनाएँ खोजीं।
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(16)
नेतं खो सरणं खेमं नेतं सरणमुत्तमं।
नेतं सरणमाग्गम सब दुक्खा पमुच्चति।।165।।

अर्थ:- यह उत्तम शरण नहीं है, यह मंगलदायी शरण नहीं है, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती।

(17)
यो च बुद्धंच धम्म्ंच संघंच सरणं गतो।
चत्तरि अरियसच्चानि सम्मप्पंचाय पस्सति।।166।।
(18)
दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कमं।
अरियंचट्ठंगिके मग्गं दुक्खूपसमगामिनं।।167।।
(19)
एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं।
एतं सरणमाग्गम सब दुक्खा पमुच्चति।।168।।

अर्थ:- जो बुद्ध, संघ, धर्म की शरण में गया जिसने चार आर्य-सत्यों को प्रज्ञा से पहचाना, बोध से पहचाना, कि दुख है, कि दुख से मुक्ति है, कि दुख की उत्पत्ति का कारण है, कि दुख से उत्पन्न हुई अवस्था से पार जाने को लिये अष्टांगिक मार्ग है; यह है ऊँची शरण। यह है झुकने योग्य झुकना। यह है समर्पण का द्वार।
संदर्भ:- कौशल नरेश प्रसेनजित के पिता के पुरोहित का नाम अग्निदत्त था। अग्निदत्त प्रकांड पंडित था। पिता की मृत्यु के बाद प्रसेनजित के बहुत आग्रह करने पर भी वह राज्य में नहीं रूका और परिव्राजक बन गया। अग्निदत्त बुद्ध की शिक्षाओं का विरोध करता था। उसके मन में अपने पाण्डित्य का बड़ा अभिमान था।
तथागत ने अपने शिष्य मौद्गलायन को बुलाकर कहा कि जाओ, अग्निदत्त को जगाओ। मौद्गलायन अग्निदत्त के आश्रम में गया। वहाँ पर अग्निदत्त के शिष्यों ने मौद्गलायपन का भरपूर तिरस्कार व अपमान किया। रात में मौद्गलायन पास ही के रेगिस्तान में, जहाँ पर एक भयंकर सर्प निवास करता था, जाकर समाधिस्थ हो गया। अग्निदत्त के शिष्यों को खुशी हुई क रात में सर्प दंश से यह मौद्गलायन जरूर मर जायेगा।
सुबह अग्निदत्त और उनके शिष्यों को घोर आश्चर्य हुआ जब वह भयंकर सर्प अपनी हिंसावृत्ति का त्यागकर समाधिस्थ मौद्गलायन के पीछे से उसके सिर के ऊपर फन फैलाए उसकी रक्षा कर रहा था।
देखकर अग्निदत्त के शिष्यों को बोध हुआ और वे सभी शरणगत हो गए परंतु अग्निदत्त का घमंड नही गया। तभी वहाँ पर तथागत का आगमन हुआ और अग्निदत्त को उपदेश देते हुए इस सूत्र को कहा था।
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(20)
दुल्लभो पुरिसाजंचो न सो सब्बत्थ जायति।
यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमेधति।।169।।

अर्थ:- पुरूषश्रेष्ठ दुर्लभ है, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह धीर जहाँ उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।

(21)
सुखो बुद्धानं उप्पादो सुखा सद्धम्मदेसना।
सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो सुखो।।170।।

अर्थ:- बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी है। सद्धर्म का उपदेश सुखदायी है। संघ में एकता सुखदायी है। एकतायुक्त तप सुखदायी है।

(22)
पूजारहे पूजयतो बुद्धे यदि व सावके।
पपंचसमतिक्कंते तिण्णसोकपरिद्दवे।।171।।

(23)
ते तादिसे पूजयतो निब्बुते अकुतोभये।
न सक्का पुंजं संखातुं इमेतंपि केतचि।।172।।

अर्थ:- जो संसार-प्रपंच को अतिक्रमण कर गये, जो शोक और भय को पार कर गये, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरूषों की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है कि यह किसी से कहा नहीं जा सकता।
संदर्भ:- एक बार भगवान तथागत अपने भिक्ष़्ाुओं सहित श्रावस्ती से वाराणसी जाते हुए एक वृक्ष के नीचे ठहरे। वृक्ष के नीचे एक छोटा सा चबूतरा था। एक ब्राह्मण किसान जो खेत में काम कर रहा था, भगवान का दर्शन करने के लिए आया। उसने पहले उस चबूतरे को प्रणाम किया और तब तथागत को प्रणाम। शास्ता (तथागत) ने पूछा - ब्राह्मण! क्या जानकर ऐसा किया?
ब्राह्मण ने कहा - भगवन! इस चबूतरे की पूजा करना हमारी परंपरा है।
तथागत ने कहा - ब्राह्मण! तूने यह ठीक किया।
भगवान के इस कथन में शिष्यों को विरोधाभास जान पड़ा। उन्होंने भगवान के समक्ष अपनी शंकाओं को रखा।
तथागत ने भिक्षुओं को आँखें बंद करके ध्यान करने के लिय कहा। सबने ध्यान में देखा कि उस चबूतरे के नीचे एक अखंड ज्योति जल रही थी।
भगवान ने कहा - मुझसे पहले कश्यप बुद्ध हुए हैं। यह उन्हीं की ज्योति है। मुझसे पहले भी अनेक बुद्ध हुए हैं और बाद में भी अनेक बुद्ध होंगे। यह धरती सदैव बुद्धों से भरी रहती है। तब बुद्ध ने उपरोक्त सूत्र कहे थे।
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(24)
सुसुखं वत! जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो।
वेरिनेसि मनुस्सेसु विहराम अवेरिनो।।173।।

अर्थ:- बैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर हम विहार करते हैं।

(25)
सुसुखं वत! जीवाम आतुरेसु अनातुरा।
आतुरेसु मनुस्सेसु विहराम अनातुरा।।174।।

अर्थ:- आतुरों के बीच अनातुर होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आतुर मनुष्यों के बीच अनातुर होकर हम विहार करते हैं।

(26)
सुसुखं वत! जीवाम उस्सेकेसु अनुस्सुका।
उस्सेकेसु मनुस्सेसु विहरम अनुस्सुका।।175।।

अर्थ:- आसक्तों के बीच अनासक्त होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आसक्त मनुष्यों के बीच अनासक्त होकर हम विहार करते हैं।
संदर्भ: - शाक्य और कोलीय राज्यों के बीच रोहिणी नदी बहती थी।  दोनों ही राज्य उस नदी पर बने बांध से खेतो की सिंचाई करते थे। एक बार दोनों राज्य के नौकर सिंचाई हेतु बांध पर पहुँचे। पहले सिंचाई कौन करेगा इस बात पर दोनों ओर के नौकरों में विवाद हो गया। बात राजाओं तक पहुँची और दोनों ओर की सेनाएँ युद्ध हेतु उपस्थित हो गई। वहीं पर भगवान तथागत का शिविर था। युद्ध शुरू होने से पहले तथागत दोनों सेनाओं के बीच जाकर खडे  हो गये। पूछा - युद्ध किस बात पर?
राजाओं ने प्रणाम करते हुए कहा - पता नहीं। शायद सेनापतियों को मालूम होगा।
सेनापतियों से पूछा गया। उन्होंने कहा - पता नहीं। शायद उन नौकरों को पता होगा जो सिंचाई करने गए थे।
उन नौकरों से पूछा गया। नौकरों ने कहा - भगवन! पानी के लिए।
भगवन ने कहा - पानी के लिए? यह तो संभव ही नहीं है। जरूर कोई और बात होगी?
तब नौकरों ने कहा - भगवन! इस बात पर कि पहले कौन सींचेगा।
तथागत ने कहा - अच्छा, पहले के कारण। यह असली कारण है युद्ध का। कारण पानी नहीं है। तब तथागत ने उपरोक्त सूत्र कहे थे।
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(27)
सुसुखं वत! जीवामयेसं नो तत्थि किंचिना।
पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभस्सरा यथा।।176।।

अर्थ:- जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो! वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं। आभास्वर (बौद्धों के अनुसार देवातों का लोक जहाँ देव गण केवल प्रेम का भोजन करते हैं।) के देवताओं की भांति हम भी आज प्रीतिभोजी (प्रेम का भोजन करने वाला) होंगे।
संदर्भ:-एक दिन भगवान पंचशाला नामक गाँव में भिक्षाटन के लिए गये। मार (शैतान) सदा भगवान को पराजित करने की कोशिश में लगा रहता था। उसके प्रभाव से गाँव में किसी ने भी भगवान को भिक्षा नहीं दिया। खाली भिक्षा पात्र लिए जब भगवान गाँव के बाहर आए तब मार ने कहा - कहो श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली?
भगवान ने कहा - नहीं। तू भी सफल रहा और मैं भी।
मार ने कहा - दोनों ही सफल कैसे हो सकते हैं? यह तो असंगत और तर्कहीन बात है।
भगवान ने कहा - बात तर्कहीन नहीं है। तू सफल हुआ, लोगों को भ्रमित करने में और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में।
तब मार ने एक और जाल फेंका। कहा - गाँव में पुनः प्रवेश करें। इस बार शायद कुछ मिल जाय। भूखा रहने से तो यही अच्छा है।
मार बुद्ध को दूसरी बार अपमानित होते देखना चाहता था जिससे बुद्ध को क्रोध आ जाय। तब भगवन ने उपरोक्त सूत्र कहा था।
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(28)
जयं वेरं पसवति दुक्खं सेति पराजितो।
उपसंतो सुखं सेति हित्वा जयपराजयं।।177।।

अर्थ:- विजय बैर को उत्पन्न करती है। पराजित पुरूष दुख की नींद सोता है। लेकिन जो उपशांत है, वह जय और पराजय को छोड़कर सुख की नींद सोता है।
संदर्भ:- प्रसेनजित अजातशत्रु से युद्ध में तीन बार हार गया। इस अपमान और दुख के कारण उसकी हालत विक्षिप्तों की भांति हो गई। भिक्षुओं ने यह बात तथागत को बताई। तब तथागत ने भिक्षुओं  के समक्ष उपरोक्त सूत्र कहा।
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समाप्त
संकलनकर्ता:- कुबेर

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