(5 सितंबर 2018 को गांधी सभागृह, राजनांदगाँव में छत्तीसगढ़ के महान् संगीत व कला साधक श्री खुमान लाल साव के राज्य स्तरीय नागरिक अभिनंदन के अवसर पर दिया गया वक्तव्य)
खुमान सर: जैसा मैंने पाया
कुबेर
जीवित किंवदंती -
किसी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में जनमानस में जब जिज्ञासा, श्रद्धा और प्रेम-पल्लवित विभिन्न प्रकार की प्रमाणित-अप्रमाणित और कल्पित बातें प्रचलित हो जाती हैं तब उसे हम लिजेण्डरी परसन अर्थात किंवदंती पुरूष कहने लगते हैं। जिस विभूति का नागरिक अभिनंदन करने के लिए आज हम यहाँ उपस्थित हुए हैं, भारत शासन के संगीत एवं नाटक अकादमी सम्मान से विभूषित अदारणीय श्री खुमानलाल साव, जिन्हें छत्तीसगढ़ की कला जगत अतीव सम्मान और श्रद्धा के साथ ’खुमान सर’ कहकर संबोधित करती है, आज जीवित किंवदंती बन चुके हैं। जिन्होंने ’मन डोले रे माघ फगुनवा’, ’मोर संग चलव जी’, ’धनी बिना जग लागे सुन्ना’, ’ओ गाड़ीवाला रे’ जैसे अनेक सुमधुर गीतों की रचना की और जिन गीतों को सुनते-गुनगुनाते मेरा बचपन बीता, और आज भी ये गीत उसी तरह मेरे मन में रचे-बसे हैं, उनके प्रति श्रद्धा भाव जागृत होना और ऐसे श्रद्धेय का सानिध्य प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा जागृत होना सहज मानवीय स्वभाव है।
कुछ वर्ष पहले मैं डाॅ. नरेश वर्मा के साथ, संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन, के द्वारा छत्तीसगढी भाषा और संस्कृति विषय पर, राज्य स्तरीय एक कार्यशाला में शामिल होने के लिए रायपुर गया था। कार्यक्रम टाऊन हाल में आयोजित था। वापसी में खुमान सर ने हमें अपने साथ ले लिया। और इस तरह अपने श्रद्धेय का सानिध्य प्राप्त करने की मेरी वर्षों पुरानी लालसा पूरी हुई। उस दिन उन्होंने राजनांदगाँव के रामाधीन मार्ग और शहीद रमाधीन का पूरा इतिहास बताया। खुमान सर की रससिक्त बातों से समय के प्रवाह का पता भी नहीं चला और हम ठेकवा पहुँच गए।
कला व साहित्य को परखनेवाला राजशाही संस्कार -
साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का वार्षिक कार्यक्रम भवानी मंदिर प्रांगण, करेला में चल रहा था। अप्रेल का महीना था। सम्मेलन में पधारे समस्त साहित्यकारों को अचंभित करते हुए खुमान सर का अचानक आगमन हुआ। इतनी बड़ी विभूति को आमंत्रित न करने की अपनी चूक के कारण मुझे बड़ी आत्मग्लानि हुई। मंच पर आसीन होने के लिए मिन्नतें की गईं पर वे यह कहते हुए, ’’तुंहर कार्यक्रम के समाचार पेपर म पढ़ेन, देखे के मन होइस त आ गेन’’, बड़े सहज भाव से दर्शक दीर्घा में बैठे रहे।
शायद 2013 की बात है, हमारे आदरणीय प्राचार्य श्री मुकुल के. पी. साव, जो खुमान सर के यशस्वी भतीजे हैं, ने वैवाहिक निमंत्रणपत्र देते हुए मुझे कि - ’’ठेकवा में शादी है, चाचाजी ने व्यक्तिगत रूप से कहा है, आपको जरूर आना है।’’ अचंभित होने का यह मेरा दूसरा अवसर था। खुमान सर के परिवार का यह स्नेहिल आमंत्रण पाकर उस समय जो खुशी और और सम्मान का अनुभव मुझे हुआ उसे व्यक्त करने के लिए आज मेरे पास शब्द नहीं है। शादी समारोह में जाकर मैंने देखा, सारा मंडप कलाकारों, साहित्यकारों, और बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। मेरी आँखों में मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के वे पन्ने एक-एककर रूपायित होने लगे, जिनमें बादशाहों, राजाओं-महाराजाओं के दरबार में नवरत्नों की ससम्मान उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। विभिन्न कला-क्षेत्रों के कलाकारों, साहित्यकारों, और विद्वानों के प्रति सम्मान का भाव, उनसे जुड़ने और उन्हें जोड़ने के जो आदर्श और संस्कार इतिहास के इन पन्नों में मिलते हैं, वही आदर्श और वही संस्कार कला के इस बादशाह खुमान सर के व्यक्तित्व में भी देखे जा सकते हैं।
अतिशयोक्ति अलंकार के अप्रतिम प्रयोक्ता -
खुमान सर से जब भी मैं मिलकर आता हूँ, आदरणीय मिलिंद साव से उस मुलाकात और मुलाकात में हुई बातचीत की चर्चा जरूर करता हूँ। मिलिंद सर मेरे वरिष्ठ सहकर्मी हैं और संगीत और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए वे अपरिचित नहीं हैं, अक्सर कहते हैं - ’’खुमान चाचा के पास अतिशयोक्ति कथन की कमी तो है नहीं, आप जैसा श्रोता चाहिए, बस।’’
अतिशयोक्ति कथन के लिए भी तो अतीव कल्पनाशक्ति चाहिए। यह एक विरल प्रतिभा है। यह प्रतिभा कलाकारों में ही संभव है। कला और कल्पना का अस्तित्व अभिन्न होता है। मूर्तिकला, चित्रकला, अभिनय, संगीत, साहित्य अथवा कला का कोई भी क्षेत्र हो, कलाकार की कल्पना की उड़ान जितनी ऊँची और महान होगी, उसकी कलाकृति भी उतनी ही उच्चकोटि की और महान् होगी। काव्य में जहाँ भी अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन होता है वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार माना जाता है। भारतीय साहित्य में कालिदास, जयदेव, तुलसीदास, जायसी, बिहारी और सेनापति जैसे महान् कवियों की महानता में अतिशयोक्ति अलंकार का योगदान कम नहीं है। महान् कलाकृतियों के सृजन के मूल में महान् कल्पना तत्व ही होते हैं। खुमान सर की कालजयी, सुमधुर संगीत रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में कहें तो यहाँ भी उनकी अतीव कल्पना प्रतिभा से प्रसूत उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण कथन ही इनकी महान् रचनाओं के मूल श्रोत है।
अनुशासन की कठोरता और हृदय की कोमलता -
मदराजी महोत्सव 2016, के सिलसिले में हमें दुर्ग जाना था। प्रस्थान के लिए दो बजे का समय नियत किया गया था। किसी अपरिहार्य कारणों से मुझे आधे घंटे का विलंब हो गया। खुमान सर निर्धारित समय पर तैयार होकर प्रतीक्षा कर रहे थे। पहुँचने पर उन्होंने कहा - ’’कुबेर अस का? बड़े आदमीमन ल देरी हाइच जाथे।’’
प्रेम, अपनत्व और दण्डभाव से युक्त उनके इस उलाहने के प्रत्युत्तर में आत्मसमर्पण करने के अलावा मेरे पास और कोई दूसरा उपाय नहीं था। समय की पाबंदी और अनुशासन के मामले में बाहर से वे जितना कठोर दिखाई देते हैं, उनका अंतरमन और हृदय उतना ही कोमल, मधुर और रागात्मकता से परिपूर्ण है। यही कोमलता, यही मधुरता और यही राग तत्व उनकी संगीत रचनाओं को कोमल, मधुर रागात्मक और कालजयी बनाते होंगे। उनका व्यक्तित्व श्रीफल की तरह है, बाहर से कठोर परंतु भीतर से मधुर, कोमल, रसयुक्त और स्वस्थ है।
5 सितंबर का अद्भुत संयोग -
भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति तथा दूसरे राष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक शिक्षक और महान् दार्शनिक थे इसीलिए उनके जन्मदिन 5 सितंबर को सारा राष्ट्र शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। हमारे छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में यह सुखद संयोग है कि छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत और लोककला के महान् विभूति खुमान सर भी मूलतः एक शिक्षक और एक गुरु ही हैं और उनका भी जन्म दिन 5 सितंबर ही है। मैं आशान्वित हूँ कि भविष्य में छत्तीसगढ़ राज्य में 5 सितंबर, शिक्षक दिवस को न केवल डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन से बल्कि खुमान सर के जन्मदिन से भी संदर्भित किया जायेगा।
ईश्वर से प्रार्थना है, खुमान सर की कलायात्रा यूँ ही अविरल गति से जारी रहे।
कुबेर
5 सितंबर 2018,
गांधी सभागृह,
राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़
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