सोमवार, 14 सितंबर 2015

समीक्षा


अनुभव प्रकाशन गाजयाबाद द्वारा मेरी सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’
राष्ट्रीय पटल पर उभरते समीक्षक श्री यशवंत की ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पर समीक्षा

समीक्षा

माइक्रोकविता और दसवाँ रस

समीक्षक: यशवंत

माइक्रोकविता और दसवाँ रस अर्थात् भावनात्मक भ्रष्टाचार का पोस्टमार्टम


संघवाद ढाई हजार साल पुराना है। यह साम-दाम-दण्ड- भेद द्वारा संचालित हो रहा है; जिसमें थुथरो विजयी हुआ। हजारों ए. के. 47 के समक्ष थुथरो-संघ मिसाईल का काम करता है। मतलब बिल्ली की विष्ठा लीपने-पोतने के काम आ ही जाती है। स्थापित सुखर्रे-पंथियों ने कभी भी ’अमीरी हटाओ’ का नारा नहीं दिया; इसकी मशाल नहीं जगाई, नहीं जलाई। कुपंथी, जनपंथियों के मार्ग से गुजरकर राजपंथ तक पहुँच जाते हैं; जहाँ जानवरों की भयंकरता है। वे दूसरों पर हमला नहीं करते। मनुष्य एकमात्र ऐसा जीव है। संघसेवक आक्रमण करते हैं। देश से 1971 से गरीबी हटा रहे हैं; नहीं हटी। फिर सस्ता चाँवल का उपकार करके दांत निपोर दिए। जो दांत निपोरने की कला में माहिर होता वह सफलता के कदम चूमता है। बांकी सब ठेंगा चूमते हैं। हँसने-हँसाने की कला में जनता दक्ष है। आज नमो जप रहे हैं; हें हें हें ... कर रहे हैं।

दांत निपोरने की कला महानतम् है। मौलिक दांत बगैर साधना के पा सकते हैं। ये दांत आपको कल्पवृक्ष बना देंगे। परन्तु इसकी एक ही शर्त होगी - आपको कुतरना-काँटना आना चाहिए। यहाँ चूहे का कुतरना, कुत्ते का काँटना संदर्भित नहीं है, वरन् साँप का काँटने से संबंध प्रसंग है। बेचारे दांत रहकर खा नहीं सकते, खा भी लिए तो चबा नहीं सकते; दुर्भाग्य ही है। इसी कारण ये लोग दलबदल करते हैं। ईज्जत-बेईज्जत होते हैं। दांतों के कारण घट पर धार चलती है। अ-दांतों से घर के न घाट के हो जाते हैं। मतलब, संबंध दातों से मनुष्य का नहीं, कुत्तों से है। शायद दांत वालों ने ही लिखा - कुत्ते से सावधान। जनता दांत वाली हो जाय तो देशरक्षा की जा सकती है; बिना युद्ध के। गौतम की अहिंसा भी गौरवान्वित होगी।

’कामरेड का रिक्शावाला’ और ’यह अवैधानिक है’ को पढ़ते हुए कुमार प्रशांत की कविता याद आई - ’’बेचारे वामपंथी इस मेले में खो गए हैं। किताबी क्रांति इतनी अधूरी और भ्रष्ट में डालने वाली होती है और इसीलिए इतिहास गवाह है कि किताबों से क्रांति नहीं होती; क्रांतियाँ अपनी किताब आप लिखती हैं।’’1
’अभी मैं उन्हीं (ईश्वर) से मिलकर आ रहा हूँ, बिलकुल फिट हंै। यह देश उन्हीं के भरोसे चल रहा है।’ यह कथन ’समय के भविष्य’ का है। ’खाने-पीने के बाद यह तो हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। ये भगवान भरोसे नहीं है। ऊँट के देखे नहीं। एक करवट में बिठा दिया। एक अंग्रेजी कहावत है - ’चाय के प्याले और होठ के बीच कई फिसलने हांेती हैं।’ वामपंथ इसी प्रकार नाव खेता है, भारतीयों का। सामाजिक परिवर्तन मरने-मारने से होता है और आर्थिक विकास मोटाने से। छप्पन इंच का छाती मोटा-मोटाकर बोलता है।

धर्मनिरपेक्षता का कोई पहिया नहीं तो छद्मनिरपेक्षता कायम होगी ही। ’नैतिकता की तोंद’ को खाने में पूरी निष्ठा के साथ, ईमानदारी के संग भारत में भोग सकते हैं। मिठास-भाव गरीबी में मिलता है? मिलबाँटकर खाते हैं, मानवीय गुण जो है। पर  कुत्ते हैं कि समझते ही नहीं। कुत्तों की एक जात होती है।  आदमियों की अनेक जाति भारत में होने से वे कुत्ते हैं? कुत्ते स्वयं सेवक ही होते हैं। यह गुण  मनुष्यों में होना चाहिए। कड़ी से जुड़ने का गुण न हो तो जुड़ेंगे कैसे?

गुल्लक मजेदार होता है। हताशा कांे दूर करता ही है। कौड़ी-कौड़ी माया जोड़ी बड़ों में होती है, बच्चों में नहीं। भारतीय प्रजातांत्रिक पार्टियों के पास रोजगार का कोई भविष्य नहीं, पर आपके समय का भविष्य अवश्य है। फेंकन-डारन-सकेलन का भविष्य कैसा, जब वर्तमान ही नदारत हो। भूत तो रहा ही इनके हाथों, भूत की डरावनी शक्ल में ही सही।

कथनी-करनी का अंतर ’आजकल’ में अवश्य है। कदाचित नहीं। ’समय का भविष्य’ और ’भविष्य’ मिलाकर पढ़े तो व्यंग्य सटीक बैठता है, जिसमें अनिश्चितता है। ’पानी’ का शानी पानी-पानी होकर संबंधों को ’लोप’ करता हुआ कि समय नहीं है। अर्थ - समय नहीं। वर्तमान आदमी ही जब लोप है तो समय विलोपित होना नई बात कहाँ? विलोपित व्यक्ति को बचाकर मानव संसाधनों को कैसे लूटें? इसका ब्यौरा ’रिकार्ड चर्चा’ में बतौर भूमिका है। और आगे ... परसाई जी के इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर के आधार पर, निराधार चल रही भारतीय योजनाओं पर संतुलित वर्णन पढ़ने को मिलेगा - ’मास्टर चोखेलाल भिड़ाऊ चांद पर’ में। विडबंना है, भारत की विदेश नीतियाँ और भारत के लिए विदेश नीतियाँ, इण्डिया विदेश नीतियाँ हैं। तब भारत कैसे विश्व गुरू? काहे का विश्व गुरू? आपकी स्थिरता बची रहेगी? नाट्य शैली में लिखा व्यंग्य इण्डिया वालों को तंग करेगा। पर भारत वालों के लिए व्यावहारिक क्रांति अवश्य देगा। भरती का चक्कर चपरासी द्वारा हो सकता है, अफसर द्वारा नहीं।

’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ साहित्यकारों के लिए उपादेय है। रचनाकर्म साधना नहीं, साधारण है; स्पष्ट करेगी। परंतु साधारण का साधारणीकरण ही काव्य होता है। यह विश्लेषण ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ में मिलेगा। इसे जानने के पहले हम कविता पर मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी याद कर लें - ’’कविता की एक बहुत प्रसिद्ध परिभाषा है - ’पोएट्री इज द बेस्ट वडर््स इन द बेस्ट आर्डर।’ अब इसमें जो वडर््स हैं उन्हें हम थोड़ी देर के लिए नागरिक मान लें। रचना और किताब के नागरिक शब्द ही होते हैं तो ’कविता सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम विधान है।’ जाहिर है, सर्वोत्तम शब्द कौन हैं, कौन नहीं, कवि ही तय करेगा।’’2 लगे हाथ रचना में प्रयुक्त शब्द और उसके अर्थ भी समझ लें क्योंकि ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ के लिए यह परम आवश्यक है।

’’अपनी बोली-बानी के साथ किसी आदमी का किसी रचना में उपस्थित होना एक तरह से अपनी पूरी दुनिया के साथ  उसमें उपस्थित होना है, क्यांेकि शब्द का अर्थ से, आर्थ का अनुभव से, अनुभव का जीवन के यथार्थ से, जीवन के यथार्थ का जीवन की परिस्थितियों से, जीवन की परिस्थितियों का सामाजिक स्थितियों से और सामाजिक स्थितियों का इतिहास की प्रक्रिया से गहरा संबंध होता है। अगर यह ठीक से न समझा जाय तो कोई रचनाकार न ठीक से लिख सकता है और न आलोचक उसे ठीक से समझ सकता है।’’3 इस हिसाब से कुबेर जी के व्यंग्य लेख का शीर्षक होना था - ’माइक्रोकविता और बारहवाँ रस’। परंतु कुबेर जी ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पेश करते हैं।

सूरदास के साथ ही वात्सल्य रस का निर्माण हो चुका था। ’’स्वरूप गोस्वामी ने भक्तिरस जैसे नए रस की बात की।’’4 पूर्वप्रचलित नौ रसों तथा उक्त दो को मिलाकर ग्यारह रस मान्य लगते हैं; तो माइक्रोकविता दसवाँ रस कैसे होगी? खैर ’माइक्रोकविता’ में दिलचस्प ’रस’ की बातें मिलती हैं। काव्यशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र दोनों के ज्ञान अनुशासन अलग हैं। पर वे अनुभव की जगह पर मिलकर एक होते हैं। इसे संस्कृत में रस कहते हैं। आचार्य वामन ने सर्वप्रथम सौन्दर्य शब्द का प्रयोग किया। ज्ञान-अनुभव ने कबीर की व्यंग्य कविता को दार्शनिक बनाया अतः लोगों की जबान पर पाँच सौ वर्षों से है। काव्य सौन्दर्य से उदात्तता का उदाहरण कुबेर जी ने दिया है -

समोसा और कचोरी में क्या अंतर होता है?
अपने अक्ल का घोड़ा दौड़ाइये
इस सवाल का जवाब बताइये
सहीं जवाब देकर
इनाम में यह चाॅकलेट पाइये।
0
अब चाॅकलेट कौन खायेगा रखे रहिए,
घर में अंकल के काम आयेगा
पर दोनों का सेंपल दिखाइये
सबके हाथों में एक-एक पकड़ाइये
अंतर तभी तो समझ में आयेगा।
000

ये हैं माइक्रोकविता की बानगी -
लेता
देता
नेता।
0
हल्दी
मेंहदी
चल दी
0
खिलाना
पिलाना
बनाना।

माइक्रोकविता का विशेष गुण है - इसके लिए सवैया, छप्पय जैसे किसी लंबे-चैड़े छंदों की आवश्यकता नहीं है। शार्टकट से इसकी निष्पत्ति होती है। राखी सावंत के कपड़ों से इसका अंदाजा लगा सकते हैं। यह चरमोत्कर्ष का वीर्यदान है।

माइक्रोकविता में रस निष्पत्ति का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है -
1. स्थायी भाव - माथापच्ची
2. विभाव
1. आलंबन विभाव - अनैतिकता, दुराचार, भ्रष्टाचार, असत्य भाषण तथा इन मूल्यों को धारण करने वाले राजपुरूष, उनके कर्मचारी और व्यापारीगण, उत्तरधुनिकता के रंग में रंगी हुई युवापीढ़ी आदि।

2. उद्दीपन विभाव - ऊबड़-खाबड़ तुकांतों वाली, न्यूनवस्त्रधारित्री व अतिउदाŸा विचारों वाली आधुनिक रमणी के समान, पारंपरिक अलंकारों से विहीन छंद-विधान।

3. अनुभाव - इन कविताओं को पढ़ते वक्त ’माथा पीटना’, ’बाल नोचना’ तथा ’छाती पीटाना’, उबासी आना, जम्हाई आना, सुनते वक्त श्रोताओं द्वारा एक-दूसरे के कान में ऊँगली डालना, चेहरे का रंग उड़ना आदि।

4. संचारी भाव -  निर्लज्जता, बेहयाई, व्यभिचार-कर्म करके गर्व करना, चोरी और सीना जोरी आदि।

रस - बौखलाहट रस
’माइक्रोकविता’ कुबेर की दृष्टि में आचार्य शुक्ल की रस दशा से मेल भी खाती है, अर्थात् ’लोकबद्ध’ होती है। बौखलाहट को जो लोक हृदय में लीन कर दे तो सहृदय की जो दशा होगी, वह एक अलग प्रकार की ’रस दशा’ तो होगी ही।

’माइक्रोकविता’ का रसात्मक रस, रस-साहित्य के काव्यशास्त्र एवं सौन्दर्यशास्त्र की रसात्मक मीमांसा है। द्विजेत्तर द्वारा रचित ’बौखलाहट रस’ निर्माण होने से अन्यों नेे तत्काल आड़े हाथों नहीं लिया; नहीं तो ’बौखलाहट रस’ कब का साहित्य के मान्य रसों में शामिल हो जाता। शायद अद्विजेत्तरों द्वारा माथा पीटा जा रहा होगा कि काश! इसका इजाद हमने किया होता। खैर बकरे-मुर्गे कब तक खैर मनाते रहेंगे? एक दिन हलाल तो होना ही था। आमीन!

नेता, मंत्री, अधिकारी, व्यापारी की प्रतिष्ठा का कारण ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ नामक औषधि का सेवन है। जेब सेल्फ-हेल्प की चीज है। जेब न हो तो आपकी जान नहीं। इन लोगों के द्वारा धारित वस्त्रों में जेबों की अधिकता से लगता है, दिल और जेबें उभर आती हैं और ’माइक्र्रोकविता’ तथा ’बौखलाहट रस’ तैयार करती हैं।

’भेड़िया धसान’ लोग ईश्वर की बात करेंगे। जैसे कुछ साल पहले ’हिग्सबोसोन’ कण को ईश्वर मान लिया गया। (हिग्सबोसोन मूलतः बोस के रिसर्च की भारतीय देन है।) शिष्टचार नहीं होने पर व्यक्ति-आदमी विशिष्ट बनता है। ईश्वर को मानने वाले शिष्टाचार निभाते हैं, अतः वे भेड़िया धसान बनकर ही रहते हैं। ’बेरोजगारवाद का घोषण पत्र’ पढ़कर वामपंथी सहित सभी दलों को नाराजगी नहीं होगी क्योंकि भेड़िया धसानों की फैक्ट्री इन्हीं से चलती है।

राष्ट्रीयकरण होना वामपंथियों में उत्तम बात है। प्रजापंथ में भी उत्तम है। अधिकारियों, इंजिनियरों और चिकित्सकों की राष्ट्रीयता स्वयं चलती है। कोई आंदोलोन नहीं। ये कुर्सियाँ तोड़ते हैं; आरोप लगता है बेचारे राष्ट्रनिर्माताओं पर। कुबेर जी ने इसे गहरे दोैर-तोर से पेश किया है। तोता रटंत यथार्थ पर आधारित होकर तर्कसंगत बैठता है; पर घपले भावनात्मक करता है, करवाता है, जैसे आज नमो के शिकंजे में जनता जा रही है। (कल पिंजरे से निकल आये, अलग बात है।) यथार्थ छिप गया जैसा है। अर्थलोप होकर, अर्थोपकर्ष हो गया है। ’’भ्रष्ट लोग आते हैं, (धमाका) लालच देते हैं, भ्रष्टाचार का जाल फैलाते हैं, लालच में आकर भ्रष्टाचार के जाल में नहीं फँसना चाहिए।’’ भावनात्मक भ्रष्टाचार पर कोई चिंतन ही नहीं करता। करे कैसे? शिक्षा व्यवस्था गले तक सड़ चुकी है’ औरे रूदक्कड़ पैमानों में नप कर उदारता पूर्वक चहुँ ओर बदबू बिखेर रही है। रोने के नये-नये तरीकों का इजाद करना कला बन गई है। बिना खद-पानी, निराई-गुड़ाई बगीचे के पौधे रोते पाये जाते हैं। जो आसुरी शक्तियों के शिकार हो गये। कपि-भक्ति काम नहीं आई। इनके लिए संघर्ष-शक्ति उचित है। संवेदनाओं की समाधियाँ नहीं चाहिए। कर्माधियों की जरूरत है। ढोंगी परंपरा ढोने से नहीं, खोने से चलेगी’ इसी में भलाई है। पंच तत्व शरीर के पीछे छठवाँ तत्व लोप तत्व है। अधेरा, इसके ज्ञान बिना पंचतत्व शक्तिविहीन है।  छठवाँ तत्व नेताओं को मालूम पड़ जाय तो ’संतन को सीकरी से काहो काम?’ होगा? यह एक प्रश्न है। जिसे कुबेर जी ने व्यंग्य के माध्यम से उठाया है। देवभूमि और भोगभूमि के यथार्थ का अंतर भी दर्शाया है। ’नेता जे. बी. पी. की आत्मा’ खोजवादी व्यंग्य है कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। होती तो यम के दरबार में पेश की जाती। इसे पढ़कर ’भोलाराम का जीव’ याद कर सकते है। भारतीय आत्माएँ स्वीस बैंकों में कैद हो गई हैं। इसे मुक्त कर पाना न यमराज के वश में है और न ही ईश्वर के वश में। ब्रेकिंग न्यूज में ईश्वर के बहीखाते में मनुष्य की जाति और वर्ण का उल्लेख नहीं है। विलुप्त प्रजाति का भारतीय मानव अजायबघर में रखने लायक है। व्यंग्य संग्रह में ईश्वर और यमराज गशखाकर गिर पड़ते है। मरना तो इन्हें पड़ेगा ही। यह शास्वत है; जब तक ये जिंदा हैं, असमानता, भ्रष्टाचार, जमाखोरी के आलम चलते रहेंगे। चैन की सांस कोई नहीं ले पायेगा। विभिन्न विचारधाराओं को छोड़कर कुबेर जी को सादर धन्यवाद देता हूँ कि इन्होंने सारे शिष्टाचारों को ताक में रखकर अपना आचार तैयार किया है। सिद्ध किया है कि व्यंग्य बौखलाहट रस का आचार या मुरब्बा ही नहीं, संजीवनी बूटी और स्वस्थ होने का शिलाजीत भी है। किसी को खट्टा-मीठा, गुड़-गोबर, ताजातरी या बासी लगे, यह उनका, पाठक का वाद है। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह किताब दसवें रस की कतई नहीं है; बारहवें रस की है। सातवें आसमान में चढ़ावा करना ठीक नहीं है। कोई मान्यता दे या न दे, मैं तो ’बौखलाहट रस’ को मान्यता देता हूँ; और आप से निवेदन करता हूँ कि आप इसमें सहभागिता निभएँ। भाईचारा बढ़एँ, आपसी संबंध बनाएँ, ताकि अस्थापित बारहवाँ रस स्थापित हो सके। आमीन।
संदर्भ:-

1. वोट डालने से पहले, हरिभूमि, 16 अप्रेल 2014, पृ. 08.
2. लोकतंत्र के संकटों की पहचान, मैनेजर पाण्डेय, संबोधन, जनवरी-मार्च 2014, पृ. 27-28
3. वही, पृ 28
4. भारत में तुलनात्मक काव्यशास्त्रीय अध्ययन के विकल्प, अवधेश कुमार, आलोचना, अक्टूबर-दिसंबर 2013, पृ. 40.
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यशवंत
शंकरपुर, वार्ड नं. 7, गली नं. 4
राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
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