रविवार, 13 सितंबर 2015

कविता

अथवा


न जाने आजकल क्यों
हो गया है टोटा
ऊँचाईयों का।

न गाँवों में दिखती है, न शहरों में
सब तरफ पड़ा है सूखा
ऊँचाईयों का।

क्या किसी ने इन्द्रजाल किया है;
या किया है सम्मोहित पूरी दुनिया को;
कि हो गई गायब नजरों से
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

क्या लोग अब इतने ऊँचे हो गये है;
कि जिसे देख -
सहमकर, शरमाकर हो गई हैं बौनी
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

आज की ऊँचाईयों को देखकर भी;
नहीं होता आभास ऊँचाईयों का अब;
इतनी महत्वहीन और मूल्यहीन हो गई हैं आज;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

आधुनिकता की दौड़ में आँखें मूंदकर दौड़ती
एकदम नयी और अतिआधुनिक हो गई हैं
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

बदलते हुए मूल्यों के इस जमाने में;
बदल गई है परिभाषा ऊँचाइयों की, या
बदलकर कुछ और हो गई हैं;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

बिक गई होंगी बाजार के हाथों;
और सज गई होंगी शोरूमों में;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

पता नहीं
क्या हुआ, कैसे हुआ
पर कुछ तो जरूर हुआ है
सारी ऊँचाइयों को एकाएक।


यही तो रोमांच है, मेरे दोस्त!
मानव इतिहास के सर्वाधिक विश्मयकारी
इस इन्द्रजाल के तिलिस्म का।
000
kuber

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें