सोमवार, 21 सितंबर 2015

आलेख

Gajanan Madhav  Muktibodh
गजानन माधव मुक्तिबोध
जन्म: 13 नवंबर 1917,
श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
निधन : 11 सितंबर 1964, दिल्ली
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प्रमुख कृतियाँ:
कविता संग्रह : - चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल
कहानी संग्रह : - काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी
आलोचना : - कामायनी: एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी
इतिहास :-  भारत: इतिहास और संस्कृति
रचनावली :-  मुक्तिबोध रचनावली (सात खंडों में)
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मुक्तिबोध: ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरने वाला कवि


मुक्तिबोध को मैंने कितना पढ़ा? मुक्तिबोध को पढ़ना हिम्मत का काम है और उन्हें समझना सामथ्र्य का। मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए आपके पास संपूर्ण माक्र्सवाद के ज्ञानकोष का होना आवश्यक है, और मैं इसमें अपूर्ण हूँ। मैंने विपात्र, सतह से उठता आदमी, कामायनी: एक पुनर्विचार, भारत: इतिहास और संस्कृति तथा मुक्तिबोध रचनावली के प्रथम दो खण्डों को पढ़ने की हिम्मत जुटाई। मुक्तिबोध अपनी कविताओं को लिखते हुए जिन ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरते होंगे; मेरे जैसा सतही पाठक का उन ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरना कतई संभव नहीं है। और, उनकी यह ’अग्निक्रिया’ जिन द्वंद्वों की निष्पत्ति होगी उन द्वंद्वों की चक्रव्यूह में प्रवेश कर पाना भी मेरे लिए असंभव है। मेरी इस असंभवता को इस काव्यांश के जरिये समझा जा सकता है-
’किन्तु द्वंद्व स्थिति में स्थापित यह
मेरा वजनदार लोहा
उन भयंकर अग्निक्रियाओं में ढकेला जाकर
पिघलते हुए, दमकते हुए
तेज: पुंज गहन अनुभव का -
छोटा सा दोहा बनता है।’     (ओ, अप्रस्तुत श्रोता)
 
मुक्तिबोध के संबंध में मेरी समझ एक आम पाठक की समझा के स्तर से अधिक कदापि नहीं है और अपनी इसी सतही समझ के आधार पर मुझे लगता है मुक्तिबोध न बैठने वाला, न सोने वाला, न थकने वाला, सतत चलने वाला, सतत जागने वाला, विलक्षण निरीक्षण शक्ति वाले, आशावादी परंतु बेचैन, विलक्षण और संवेदनाओं से भरे हुए कवि हैं। उनकी संवेदनाएँ विलक्षण हैं। वे अपने वर्तमान से असंतुष्ट थे (जो कि आज भी यथावत है) क्योंकि यहाँ वे पाते हैं - मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर। बेखबर मस्जिदें। सूनी राहें। सर्द अंधेरा। उदास तारे। फिक्र और दर्द। अंधियारा पीपल। कुत्तों की आवाजें।
’सूनी है राह, अजीब है फैलाव
सर्द अंधेरा
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे
हर बार सोच और हर बार अफसोस
हर बार फिक्र के कारण बढ़े हुए दर्द का
मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अंधियारा पीपल देता है पहरा
हवाओं की निःसंग लहरों में कांपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज
कांपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फासले
बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर।’ (अंधेरे में)

और इन्हीं सबके बीच उन्हें कुछ बेहतरी की खोज थी। खोज वे बाहर नहीं भीतर करते हैं क्योंकि उनकी नजरों में बाहर कोई नहीं है। अपने इसी बेहतर की खोज में वे अंत में पुर्जे सुधारने वाला मेकेनिक भी बन जाते हैं।
मैं कनफटा हूँ, बैठा हूँ
सेब्रेलेट, डाज के नीचे में लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुर्जे सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ। (मैं तुम लोगों से दूर हूँ)
 
अपनी बेचैनी के साथ चलते हुए वे अपने विलक्षण अनुभवों से और अपनी गहन संवेदनओं से जो भी अर्जित करते, वे उसके लिए वजनदार लोहा के समान थे जिसे वे अपने ज्ञान की अग्निक्रियाओं के द्वारा अनुभव का - छोटा सा दोहा बना लेते थे। और अनुभव के इन्हीं दोहों से वे पुर्जे ठीक करने के लिए अपने औजार भी बनाते और दुनिया को बेतर बनाने की लड़ाई लड़ने के लिए अश्त्र-शस्त्र भी। मुक्तिबोध जिसकी भी तलाश कर लेते, उसे वे एक विशेषण से अलंकृत कर देते। जमाना बुरा नहीं केवल विलक्षण है। तुम मेरे बंधु और मित्र हो। मंदिरों के ऊँचे शिखर वीरान है।  मस्जिद के गुंबद बेखबर हैं। राह सूनी है। अंधेरा सर्द है। तारे उदास हैं। पीपल अंधियारा है। कुत्तों की आवाजें भयावह हैं।  चांद का मुख टेढ़ा है। (मुक्तिबोध को पूरा और गोल चांद कभी क्यों नहीं दिखाई दिया?) धूल भूरी-भूरी खाक से बने हैं। (कहाँ से आते हैं उड़कर ये खाक?)
’वे राहों के पीपल अशांत
बेनाम मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर
प्राचीन बेखबर मस्जिद के गुंबद विशाल’  (सांझ और पुराना मैं)
 
मुक्तिबोध के लिए दुनिया के सारे लोग उनके अपने हैं। वे कहते हैं - तुम मेरे बंधु और मित्र हो। और इसीलिए, उनके शत्रु भी इन्हीं लोगों में से ही हैं।
’क्षमा करो, तुम मेरे बंधु और मित्र हो
इसीलिए सबसे अधिक दुःखदायी
भयानक शत्रु हो।’ (इसी बैलगाड़ी को)
 
बंधु और मित्रों में ही दुःखदायी और भयानक शत्रु को देखना अथवा दुःखदायी और भयानक शत्रुओं को भी  बंधु और मित्रों के रूप में देखना, यह एक अजीब निर्वैरता का भाव है। ठीक वैसा ही है यह भाव, जैसा कि महाभारतकार ने अपने अनुशासनपर्व में और धम्मपद में तथागत ने अपने शिष्यों से कहा है -
सुसुखं वत! जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो।
वेरिनेसि मनुस्सेसु विहराम अवेरिनो।।173।।
(बैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर हम विहार करते हैं।)
 
मुक्तिबोध के अंदर निर्वैरता का यह भाव उनकी संवेदनाम्तक ज्ञान की ही परिणति हो सकता है। मुक्तिबोध के ’अंधेरे के बारे में, ब्रह्म राक्षस के बारे में, उसके टेढ़े मुख वाले चंद के बारे में और भेरी-भूरी खाक धूल के बारे में बहुत चर्चाएँ होती हैं परन्तु उन भयंकर अग्निक्रियाओं के बारे में भी चर्चा होनी चाहिए जिसमें वे स्वयं को ढकेला करते थे। उस निर्वैरता की भी चर्चा होनी चाहिए जिसके मूल में उनकी संवेदनात्मक ज्ञान का प्रकाशित उत्स है।
 
मुक्तिबोध न कभी निराश हुए न कभी हताश। वे आशावादी थे। क्योंकि उनके लिए ’जमाना बुरा नहीं केवल विलक्षण है।
’जमाना बुरा नहीं केवल विलक्षण है
मनुष्य-सौजन्य कारण ही
चांद है, सूर्य है, लोग हैं व हम-तुम हैं।’ (गीत)
 
पर उनकी बेचैनी और उनकी व्याकुलता बड़ी प्रबल है। इसीलिए उनका साहित्य रक्त भरे महाकाव्य, के पन्नों की तरह खून और अंधेरों से भरे हुए हैं। लोग इन्हें अंधेरे का कवि कहते हैं। इन्हें रक्त से महाकाव्य के पन्ने लिखने वाला कवि किसी ने नहीं कहा। मैं जहाँ तक सोचता हूँ - मुक्तिबोध न अंधेरों के कवि हैं और न ही रक्त-विप्लव के कवि हैं, वे ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरने वाले, ’अग्निक्रियाओं’ के आविष्कारक, अध्येयता और इन क्रियाओं को बेहतर बनाने के अनुसंधान के लिए निरंतर बेचैन रहने वाले कवि हैं।
 
हमारी परंपरा रही है, वर्तमान से कभी कोई संतुष्ट नहीं रहा। वर्तमान सबको डराता है। वर्तमान हमारी सच्चाई होती है। सच्चाई सबको कड़ुवी लगती है। वर्तमान अप्रिय लगता है। वर्तमान से पलायन करने की प्रवृत्ति बड़़ी पुरानी है। इसीलिए हमारे कवियों ने अपने काव्य के विषय पौराणिक मिथकों से लिये। इतिहास में मिथकों का सम्मिश्रण कर लेना और उसे एक कलात्मक कृति का रूप दे देना आपेक्षाकृत आसान है। भविष्य के लिए भी आदर्श रूपी मिथकों का निर्माण कर लेना आसान है। परन्तु वर्तमान हमें डराता है। इसीलिए वर्तमान कभी भी साहित्य के केन्द्र में नहीं रहा। मुक्तिबोध ने वर्तमान को साहित्य के केन्द्र में बिठाया। मुक्तिबोध ने भी इतिहास से अपने विषय लिये। परंतु इन विषयों को उन्होंने अपनी अग्निक्रिया की धम्मनभट्ठी में तपाकर देखा। तपकर जो कठोर फौलाद की शक्ल में ढल गये, उसे उन्होंने सहेज लिया, सहेजकर उसे दुनिया को बेहतर बनाने अश्त्र-शस्त्रों में ढाल लिया। मिथकों का फौलाद में ढलना संभव न था। ये भस्मीभूत होकर भूरी-भूरी खाक धूल में तब्दील होकर बिखर गये। अंधेरा, और अंधेरे में विचरने वाले ब्रह्मराक्षस रूपी शोषण, भूख, गरीबी, अन्याय और असमानता जैसे शास्वत सत्य उनके विचारों के ताप से पिघलकर स्पात की शक्ल में ढल गए और उसके साहित्य के अमर पात्र बन गये।
 
राम और कृष्ण इतिहास बन चुके हैं। युटोपिया की बातें करना साहित्यिक हल्कों में एक फैशन बन चुका है। मुक्तिबोध ने युटोपिया की बातें कभी नहीं की। वेे जानते थे, राम और कृष्ण अपने पुराने रूप में भविष्य में कभी लौट नहीं सकते। भविष्य में और भी राम और कृष्ण आयेंगे, पर वे पिछले से बेतर होंगे, पिछले से भव्य और अधिक सुंदर होंगे क्योंकि वर्तमान हमेशा ही अतीत से सुंदर और बेहतर होता है। मुक्तिबोध आजीवन इसी बेहतरी की तलाश करते रहे। 
 
ईश्वर, मृत्यु और पुनर्जन्म के विषय में बातें करना टाइम पास के लिए फल्ली खाने के सिवा और कुछ भी नहीं है। पिछले पांच हजार सालों से हम यह फल्ली खाते आ रहे हैं। मुक्तिबोध ने जीवन की बातें की। जीवन को सुंदर बनाने की बातें की। क्योंकि जीवन को सुंदर बनाये बिना मृत्यु कभी भी सुंदर और सुखद नहीं हो सकती। अपनी मृत्यु को सुदंर बनाने वाले कभी मरते नहीं हैं। मुझे नहीं लगता कि मुक्तिबोध मर चुके हैं। क्योंकि मरे हुए व्यक्ति की मैयत में शामिल तो हुआ जा सकता है परंतु उसका अनुशरण नहीं किया जा सकता। उसके आसपास, जिंदा लोगों की भीड़ हमेशा जुटी हुई नहीं हो सकती। आज जितनी भीड़ मुक्तिबोध के आसपास है, उतनी शायद और किसी के पास नहीं है। आज का हर साहित्यिक किसी न किसी प्रकार मुक्तिबोध का अनुशरण कर रहा होता है। क्योंकि मुक्तिबोध एक व्यक्ति नहीं, एक परंपरा हैं।
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kuber

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