गुरुवार, 21 मार्च 2019

आलेख

अमूर्त की व्याख्या शब्दों से संभव नहीं है


एक दिन एक मित्र ने कबीर के इस दोहे का अर्थ पूछा -
’कबीर कुत्ता (कूता) राम का, मोती मेरा नाव।
डोरी लागी प्रेम की, जित खींचे तित जाँव।।‘
(इस दोहे में तीसरा और चैथा चरण कहीं-कहीं इस प्रकार मिलता है -
’गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाँव।।’)
मित्र से मैंने कहा - ’’भाई! इसका अर्थ तो बहुत सरल है, और आप इसका अर्थ नहीं जानते होगे, ऐसा भी नहीं हो सकता।’’
मित्र ने कहा - ’’जो सरल होता है वही सबसे कठिन भी होता है। कबीर साहब ऐसे ही सरल ढंग से बड़ी गूढ़ बातें कह गये हैं। मैं इसका गूढ़ार्थ समझना चाहता हूँ।’’
क्या हो सकता है कबीर के इस वचन का गूढ़ार्थ?

कबीर साहब  कहते हैं - राम (ईश्वर) रूपी कुत्ता जिसका नाम मोती है  उसके गले में तो प्रेम की डोरी बंधी हुई। वह उसी की ओर खिंचा चला जाता है, वह उसी का हो जाता है जो इस डोरी को, प्रेम की डोरी को अपनी ओर खींचता है। अर्थात् भाव यह कि आपके अंदर प्रेम का भाव न हो तो कुत्ता भी आपके साथ न आये, ईश्वर कैसे आ सकता है।

हम नाना तरह से ईश्वर को पुकारते हैं, उसका स्मरण और जाप करते हैं, उसे जंगल-जंगल, मंदिरों और तमाम पूजा स्थलों में, हम ढूँढते हैं अपने स्वार्थ को लेकर, प्रेम को लेकर नहीं। उसे ढूँढते हैं , उससे कुछ मांगने के लिए, कुछ देने के लिए नहीं। ईश्वर को ढूँते है उससे धन, संपत्ति, ऐश्वर्य, सुख और न जाने क्या-क्या मांगने के लिए, देने के लिए नहीं; और उसे देना भी क्या है - केवल प्रेम। प्रेम  वह धन है जो बाँटने बढ़ता ही है, कम कभी होता नहीं। और ईश्वर को कभी हम प्रेम दे नहीं पाते, वह हमारे निकट कैसे आयेगा? हम तोे केवल मांगने के लिए ईश्वर के सामने उपस्थित होते हैं, अपने तमाम स्वार्थों को लेकर, प्रेम रूपी धन लेकर हम ईश्वर के सामने कभी उपस्थित हुए ही नहीं, कैसे वह हमारे साथ आयेगा। और प्रेम भी क्या चीज है -
’’प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।’’
अर्थात् प्रेम न तो किसी बाड़ी में उगता है और न ही यह किसी बाजार में बिकता है, इस खजाने को तो अपने प्राणों के मोल पर ही प्राप्त किया जा सकता है। अपना सिर देकर अर्थात् विनम्र होकर, आपा रहित होकर ही प्राप्त किया जा सकता है। और इसके लिए हम तैयार नहीं हैं।

क्या है प्रेम? प्रेम कोई मूर्त चीज नहीं है जिसका वस्तु की तरह विनिमय किया जा सके। प्रेम का विषय अकादमिक भी नहीं है कि जिसे विद्यालयों में, किताबों को पढ़कर सीखा जा सकता है। प्रेम सीखने और सिखाने की वस्तु भी नहीं है। कोई गुरू अपने शिष्य को, कोई माता-पिता अपने बच्चे को प्रेम करना नहीं सिखाता, सिखा ही नहीं सकता। प्रेम केवल देने की चीज है और देकर ही इसे पाया जा सकता है। यह एक संवेग है। प्रकृति प्रदत्त मूल भाव है जो हमारे हृदय में सदा बना रहता है। हृदय में स्थित इस भाव को हम अपनी संवेदनाओं के द्वारा स्वयं अनुभव करते हैं। अपनी संवेदनाओं के द्वारा इसे हम स्वयं घनीभूत करते हैं। प्रेम बाहर की वस्तु नहीं है। प्रेम पुस्तकों और ग्रंथों का विषय नहीं है। प्रेम निज संवेदनात्मक अनुभूति का आंतरिक विषय है। यह हमारे अंदर  होता है और अंदर ही जागृत और विकसित होता है।

पुस्तकों और ग्रंथों के माध्यम से जब हम प्रेम को नहीं पा सकते तो इनके द्वारा ईश्वर को कैसे पा सकते हैं?
प्रेम की तरह ईश्वर भी पुस्तकों और ग्रंथों का विषय नहीं है। प्रेम का अनुभव करनेवाला सहज ही ईश्वर का भी अनुभव कर लेता है।
’’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय।।’’
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