शुक्रवार, 22 मार्च 2019

कविता

(विश्व जल दिवस पर एक कविता - अपने कविता के खजाने से)

पानी

कुछ दिन पहले तक यहाँ 
पानी की कोई कमी नहीं थी
अब हम बे-पानी हो चुके हैं
विगत की कहानी हो चुके हैं।
पानी ढूँढना पड़ता है अब
चिराग लेकर गाँव-गाँव, शहर-शहर
पानी मिलता तो है
पर यदाकदा
जीवाश्म की शक्ल में।
किसने सोचा था
कि इतने जल्दी हम बे-पानी हो जायेंगे?
विगत की कहानी हो जायेंगे।
कोई था जो सशंकित था
और चेताया भी था
’’सदा राखिये पानी’’।
हमने समझा इस चेतावनी को
एक असभ्य का गैर-जरूरी प्रलाप
और गुजर जाने दिया सिर से
क्योंकि
सभ्य बनने के लिये हमें पानी की नहीं
पैसों की जरूरत थी?
हमने गिरवी रख दिया
प्रकृति के इस अनुपम,
अमूल्य उपहार को
पैसों के लिये
तथाकथित पैसेवालों के पास।
अब हमने समझा है
’’बिन पानी सब सून’’ के अर्थ को।
पानी जरूरी है, -
सभ्यता और संस्कार के लिए
आदमी होने और
आदमी-सा व्यवहार के लिए
परिवार, समाज और संसार के लिए।
पर हमारा पानी कब का चुक चुका है
शेष रह गई है -
प्लास्टिक की मल्टीनेशनल बोतलें
कूड़ों के ढेर की शक्ल में।
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