बुधवार, 20 मार्च 2019

आलेख

कबिरा आप ठगाइए

आजकल असहिष्णुता का आलम बना हुआ है। जरा-जरा सी बात पर लोगों का क्रोध आसमान छूने लगता है। इसी हफ्ते की बात है। कबीर पंथियों के एक सम्मेलन में मुझे पाँच मिनट बोलने का अवसर दिया गया। कुछ वक्ता पाँच मिनट तो भूमिका में ही उड़ा देते हैं। मैंने भूमिका को ही उड़ा देने में बुद्धिमानी समझी। कबीर के केवल एक दोहे की व्याख्या हेतु मैंने अनुमति ली। दोहा है -
’’कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय। आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।’’ 

लोगों की बुद्धिलब्धि, जैसे - एक सामान्य निरक्षर व्यक्ति, एक पढ़ा-लिख व्यक्ति, एक पंडित, एक दार्शनिक और एक साहित्यकार, के हिसाब से मैंने इसकी पाँच व्याख्याएँ प्रस्तुत की। साहित्यकार के हिसाब से इस दोहे की व्याख्या करते हुए मैंने कहा कि कबीर ने इस दोहे में उन लोगों को लताड़ा है जो साधुओं, सन्यासियों, गुरूओं और संतों का वेष धारण करके धर्म के नाम पर लोगों को ठगते हैं। 

इसके पहले दार्शनिक की व्याख्या में प्रसंगवश मैंने कबीर के पुत्र कमाल का उल्लेख किया था। ये दोनों बातें मंच पर बैठे आधा दर्जन से अधिक साधुओं को चुभ गई होंगी। महाराष्ट्र से पधारे हुए एक युवा साधू, जो बड़े जोशीले अंदाज में मंच का संचालन कर रहे थे, और जो लगातार वक्ता को प्रवक्ता कहे जा रहे थे, ने मुझे आदेश दिया कि - बहुत हो गया, अब समाप्त करो। 

मेरे बाद राजस्थान के किसी कबीर मठ से पधारे एक परम पूज्य मठाधीश को आमंत्रित किया गया। मेरी व्याख्या से संभवतः यही गुरुवर सर्वाधिक बौखलाए हुए थे। अगले एक घंटे तक अपने आक्रामक धर्मोपदेश में वे कमाल और कमाली को कबीर का पुत्र-पुत्री बतानेवालों को धिक्कारते हुए यह सिद्ध करते रहे कि कबीर गृहस्थ नहीं बल्कि ब्रह्मचारी थे। 

पिछले साल के इसी सम्मेलन में एक धर्मगुरु ने अपने शोधकार्य के संबंध में जानकारी देते हुए बताया था कि लगभग बीस वर्षों की अथक मेहनत के बाद उन्होंने कबीर के जन्म और जीवनवृत्त की गुत्थियों को हल कर लिया हैं।

इसी तरह के एक सत्संग में एक महंत साहेब ने मुझे बीच में टोककर इस बात पर मेरी धुलाई की थी कि कबीर साहब को केवल कबीर कहकर संबोधित करना सद्गुरू का अपमान है। या तो सद्गुरु कबीर साहेब कहना चाहिए या कबीर साहेब कहना चाहिए। 

सवाल है - कबीर के उपदेशों के विपरीत मठ-मंदिर, माला-सुमरनी, पूजापाठ, आरती, घंटे-घड़ियाल आदि के फेर में उलझे कबीर पंथ के साधुओ और सन्यासियों के लिए कबीर का जीवनवृत्त, उनका गृहस्थ होना या ब्रह्मचारी होना अथवा उन्हें सद्गुरु और साहेब मानकर उनकी पूजा करना अधिक महत्वपूर्ण है कि उनके उपदेशों को समझना, आत्मसात करना और अपने जीवन में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है?
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