गुरुवार, 7 जनवरी 2016

व्यंग्य

राजा बोले सो न्याय


सरकार कहती है - नेताओं की आलोचना राष्ट्रद्रोह है।

मूर्खों! सरकार सच ही कहती है। सांच को आँच कैसी? लोक-मान्यता है - ’राजा बोले सो न्याय’। राजा ने जो कह दिया, वही न्याय है। राजा का कहा ईश्वर का कहा होता है। कह दिया सो कह दिया। आलोचना करने वाले तुम कौन होते हो। अभागों! करमजलों! सच है, नेताओं की आलोचना करना घोर पाप है, जघन्य अपराध है। तब बोलो, इसे राष्ट्रद्रोह क्यों नहीं माना जायेगा?

मूर्खों! देश में अब तक जितने नेता हुए हैं, सब भकले रहे होंगे। उनकी बाहुओं में बल नहीं रहा होगा; सुन लेते होंगे अपनी आलोचनाएँ। अरे! सच कह रहा हूँ, इसमें सोचना क्या? जो इतने वर्षों में अच्छे दिन नहीं ला पाये वे भकले ही तो रहे होंगे। पर छोड़ो, ये अतीत की बातें हैं। अब उन भकले नेताओं के दिन लद चुके हैं। वह जमाना बीत चुका है। अच्छा जमाना आने वाला है। अच्छा जमाना लानेवाले सारे शूरवीर अपनी-अपनी जगहों पर अच्छी तरह जम चुके हैं।  शुरुआत हो चुकी है। तो समझ गये न! इस शुभबेला में शुभ-शुभ ही बोलो भाई।

उन भकले लोगों की आज तक की सरकारें भी खोंटी रही होंगी, लिहाजा अपने नेताओं की आलोचनाएँ सह लेती होंगी। अब की सरकार अक्लवालों की सरकार है; एकदम खरी और खांटी। अक्लवालों की आदते भी अलग होती हैं। ये ईंट का जवाब पत्थर से देते हैं। तो नेताओं की आलोचना करने वालों, अब पहले इन पत्थरों से अपना सिर तुड़वाओ, उस दर्द को सहकर अपनी सहनशक्ति की क्षमता को सार्वजनिक रूप से दिखलाओ, तब अपना सम्मान और पुरस्कार लौटाने के लिए आगे आओ, समझे। तो मैं कहता हूँ - नेताओं की आलोचना करनेवाले, अपने आप को बुद्धिमान समझनेवाले सारे टुच्चे लोग अच्छी तरह समझ लें, खरी और खांटी सरकार का कहना खरी और खांटी ही होगी, खोंटी नहीं। ऐसी खांटी सरकार के किसी कथन में किसी भी प्रकार की खोंट निकालना, या उसमें किसी खोंट के बारे में सोचना भी राष्ट्रद्रोह है, समझे।

बाबाजी ने भी कहा है - ’समरथ को नहीं दोष गोसाईं’। कहाँ सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिसंपन्न सरकार और कहाँ नेताओं की आलोचना करने वाले बुद्धिजीवी टाईप के लोग, टुच्चे कवि और साहित्यकार। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। अपनी हैसियत देखी है, अभागों? नेताओं की आलोचना करने से पहले अपनी औकात भी तो देख लेते।

अरे! टुच्चे कवियों और साहित्यकारों, नेताओं की आलोचना करने से पहले कुछ नहीं तो अपने पूर्वजों की चलाई परंपराओं को ही देख लेते। अपने अन्नदाताओं को प्रसन्न करने के लिए वे कितनी अच्छी-अच्छी कविताएँ लिखा करते थे। शिकार में राजा ने खरगोश भी मार लिया तो वह खरगोश उन्हें बबर शेर से कम नहीं दिखता था। अय्यासी के लिए लाई गई लाचार कन्याओं और महिलाओं में उन्हें सोलह श्रृँगार किये विभिन्न प्रकार के नायिकाओं की छबियाँ दिखई देती थी। भूखी, नंगी-प्यासी जनता की कराहें उन्हें अपने अन्नदाताओं की प्रशस्तियाँ प्रतीत होती थी। अपनी कायरता को ढंकने के लिए झूठी वीरता न दिखालाकर उस पर भक्तिरस का मुलम्मा चढ़ाते थे।

......छोड़ो यार कबीर-सबीर को। निराला-फिराला, मुक्ति-सुक्तिबोध और धूमिल-सूमिल को। अरे! कुछ तो समझा करो यार।
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