कविता
चोट
आदमी तब भी हँसता और रोता है
कहीं आ, जा और खा रहा होता है
बेतहाशा भाग रहा होता है
जब वह सो रहा होता है।
कहीं आ, जा और खा रहा होता है
बेतहाशा भाग रहा होता है
जब वह सो रहा होता है।
आदमी तिलमिला रहा होता है
जब वह चोट खा रहा होता है
चोट खाकर आदमी तिमिलाता है
चोट खाकर आदमी जागता है।
जब वह चोट खा रहा होता है
चोट खाकर आदमी तिमिलाता है
चोट खाकर आदमी जागता है।
सोये हुए नसों पर चोट करो।
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