मंगलवार, 5 जून 2018

कविता


(भूखमापी यंत्र से) 

त्रिभुज

पहले मैं आम आदमी था
(यह मैं नहीं लोग कहते हैं)
और आज?
तीस साल बाद
जबकि लोग मुझ पर तरस खाते हैं
बेचारा कहकर बुलाते हैं
मुझे शक होता है
अपने आदमियत पर।

मैं लोगों से चीख-चीख कर पूछता हूँ
सचमुच!
आज का मैं बेचारा
कल आदमी था?

मेरे प्रश्न
निर्जीव दीवारों से टकराकर
लौट आते हैं -
वादियों की अनुगूँज की तरह
पर
अपनी स्निग्धता खोकर।

लोग मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं देते
अफसोस होता होगा उन्हें शायद
अपने पूर्व कथन पर?

पर
इस संक्रमण काल में दोस्तों
आपको मैं विश्वास दिला दूँ
कि
उस त्रिभुज के बाहर
मैं कभी निकल नहीं पाया हूँ -
शारीरिक और मानसिक रूप से;
जिसके तीनों बिंदुओं पर हैं
क्रमशः -
घर
आफिस
और बाजार।
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उलझती रेखाएँ

सरल
समानांतर
आड़ी, तिरछी और वक्र रेखाएँ
उलझे हुए परस्पर
जिसमें से उभर-उभर आती है
प्रतिक्षण एक नवीन आकृति।

एक के बाद दूसरी
आकृतियों का उभरना और मिटना
(सिलसिलेवार घटना)
इसके पूर्व कि -
वांछित आकृति उभरती मैं देख पाता
व्याप्त हो जाता है घोर तमस
और वह पूर्ण परिवेश
जो सिनेमा हाल में हो जाता हे निर्मित
लाइट गुल हो जाने पर।
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kuber

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