गुरुवार, 7 जून 2018

कविता

1- और वह उठ गया


वह उछलकर बिस्तर पर बैठ गया
और आँखें मिचमिचाते हुए 
दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा
फिर बाप से पूछा - 
’’समय हो गया?’’

उसके इस प्रश्न में चिंता थी
व्याकुलता थी, आतुरता थी 
और न जाने क्या-क्या थी

क्या-क्या थी, मैं क्या समझूँ?
पर बाप समझता था
उसने आश्वस्त भाव से कहा -
’’थोड़ा और सो ले
समय होने पर मैं जगा दूँगा।’’

वह फिर सो गया, पर नींद न आयी उसे
यह पिता की आश्वस्ति थी 
फिर भी शंकाएँ घर कर गयी थी उनकी आँखों में, 
और वह उठ गया।

जब वह उठ रहा था, 
ठीक उसी समय 
मैं भी अपने लाडले से कह रहा था -
’’अब उठ भी जा, समय हो गया है।’’

पहले उसने कई करवटें बदली
जम्हाई ली और आँखें मिचमिचाईं
दीवार पर टंगी घड़ी को खोजने की कोशिश की
और फिर सो गया
सोते-सोते वह बुदबुदा रहा था - 
’’हो जाने दो....’’

’’समय हो गया?’’
और, ’’हो जाने दो ...’’
के अर्थ को हर बाप समझता है
पर 
समझाने में असमर्थ रहता है।
000kuber000

2- भात


मैं अब भी 
भात को ’भात’ ही कहता हूँ

मैंने अपने बच्चोें को भी सिखाया था 
ठीक यही शब्द
भात के लिए
पर कहता है वह इसे ’चाँवल’

और उसके बच्चे कहते हैं - ’राइस’
उसने अपने बच्चे को सिखलाई है - 
’राइस’
भात के लिए

पर
मैं अब भी 
भात को ’भात’ ही कहता हूँ

’भात’ मुझे अपने खेतों से जोड़ता है।
000kuber000

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