शनिवार, 6 जून 2015

आलेख

कबीरपंथी होने की सार्थकता मनुष्य होने में है - कुबेर

(2 जून 2015 को कबीर प्राकट्य दिवस के अवसर पर शंकरपुर, राजनांदगाँव में निवेदित विचार)


आदरणीय संतों एवं मित्रों, कबीर साहब ने कहा है -
’सब कहते कागद की लेखी,
मैं कहता आँखन की देखी।’
कागद की लेखी आप सभी जानते हैं और मुझसे बेहतर जानते हैं। उन बातों को दुहराने से कोई लाभ होगा, इसे मेरा मन स्वीकार नहीं करता; अतः मैं अपसे वही बात कहूँगा जो मेरी अपनी आँखन देखी है। सद्गुरू कबीर प्राकट्य दिवस पर इस चर्चा की सार्थकता भी इसी में है। मैं अपने कुछ अनुभव आपके साथ साझा करना वाहूँगा।

दो साल पहले की बात है, भिलाई में एक मित्र के घर चाय का दौर चल रहा था। मित्र महोदय ने अचानक एक अनापेक्षित प्रश्न उछाल दिया - ’मृत्यु के बारे में आप क्या जानते हैं?’

प्रश्न सुनकर मैं अवाक रह गया क्योंकि इसके लिए मैं तैयार नहीं था। कुछ झण पश्चात मैंने कहा - ’मित्र! मृत्यु के बारे में तो मैं कुछ भी नहीं जानता क्योंकि आज तक मैं कभी मरा नहीं हूँ। इसीलिए इसका मुझे कोई अनुभव भी नहीं है।’

चैकने की बारी अब मित्र की थी। उनसे कुछ कहते नहीं बना। कुछ समय तक खामोशी छायी रही। इस तरह के दार्शनिक प्रश्न के द्वारा हम सामने वाले ही योग्यता को माप भी सकते हैं और अपनी योग्यता का लोहा भी मनवा सकते हैं। मित्र महोदय की योजना क्या थी, वे ही बेतर जानते होंगे। खामोशी को तोड़ते हुए मैंने कहा - ’मित्र! इस विषय पर आप भी घंटे-दो घंटे का बढ़िया प्रवचन कर सकते हैं और मैं भी, परन्तु उस प्रवचन में न तो आपका अनुभव होगा और न ही मेरा। वही सब कुछ होगा जिसे या तो हमने कहीं से पढ़ी है या सुनी है या फिर वे काल्पनिक बातें होंगी, जो हमारे विचारों में आते होंगे। ये सब बातें सत्यता से परे होंगी। दशकों से लोग ऐसा करते आ रहे हैं परन्तु क्या मृत्यु को कोई जान पाया है? मृत्यु को तो मरने वाला ही जान सकता है, और मरने के बाद आपना अनुभव बताने के लिए लौटकर कोई आता नहीं है। जिस बात का हमें कोई अनुभव न हो उस पर चर्चा करने से कोई लाभ भी तो नहीं है। मृत्यु पर चर्चा करके न तो मृत्यु को सुंदर बनाया जा सकता है और न ही जीवन को। कुछ करने और कुछ बनाने के लिए कर्म की आवश्यकता होती है। मृत्यु में कोई कर्म संभव नहीं है। कर्म जीवन में संभव है। जीवन का हमें अनुभव है। जीवन की चर्चा करके हम अपने जीवन और मृत्यु दोनों को ही सुंदर बना सकते हैं। परन्तु हमने आज तक कभी जीवन की बातें की ही नहीं, अनुभव की बातें की ही नहीं। तथागत ने ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कहा था और अव्याकृत विषयों पर वे चर्चा नहीं करते थे।

आदरणीय संतों एवं मित्रों, कबीर साहब ने भी जीवन भर जीवन की बातें कही है, की है। जीवन को सुंदर और मृत्यु को आनंददायी बनाने की बातें की है। उन्होंने जो कुछ कहा उसे अपने जीवन में उतारा और अपने जीवन को सुंदर और मृत्यु को आनंददायी बनाकर दिखाया भी है। रोते हुए तो हम आते ही हैं, इस पर हमारा कोई बस नहीं है, परन्तु जाते वक्त हम हँसते हुए जा सकें, यह हमारे ही बस में है। ’कुछ ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये।।’ इसका जतन हमें करना चाहिए, कबीर को मानने की सार्थकता इसी में है।

’राम नाम रस भीनी चदरिया
दास कबीरा ने ओढ़ी चदरिया,
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।’
’ईश्वर ने हम सबको शरीर रूपी यह चादर दिया हुआ है। कबीर साहब ने इसे राम नाम के रस से (प्रेम-रस से) सिक्त किया, सुवासित किया। धर्म, संप्रदाय, जाति, छुआछूत, ऊँच-नीच, पाखण्ड, आडंबर, आदि के दागों से बचाकर रखा और इसीलिए वे इस चादर को ज्यों की त्यों लौटा सके।’
क्या हम भी ऐसा नहीं कर सकते?

आदरणीय संतों एवं मित्रों, पिताजी के निधन पर चैंका हुआ। चैंका स्थल पर मैंने पिताजी का फ्रेम किया हुआ फोटो रखना चाहा। महंत साहब ने इसकी अनुमति नहीं दिया। चैंका के बाद मैंने महंत साहब से इसका कारण जानना चाहा। महंत साहब ने कहा - कबीरपंथ में निर्गुण ईश्वर की उपासना किया जाता है। मैंने कहा - साहेब! हम सब कबीरपंथियों के घरों में कबीर साहब की, धर्मदास साहब और उनके वंशजों के बड़े-बड़े फोटों दीवारों में टंगे होते हैं और रोज उसकी पूजा-आरती होती है। इन फोटों को हम दामाखेड़ा से ही खरीदकर लाते हैं। इसका विरोध तो आपने कभी नहीं किया। एकमात्र बीजक ही कबीर साहेब का प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसमें चैंका-आरती का कहीं कोई विधान नहीं है। कान फूॅँकने और कंठीमाला पहनाने की विधि का भी कोई उल्लेख नहीं है। यह सब कहाँ से आया? महंत साहब ने कहा - यह सब धनी धर्मदास साहब का बनाया हुआ है। मैंने कहा - तब तो हम धर्मदास पंथी हुए, कबीर पंथी नहीं। सुनकर महंत साहब बहुत विचलित हुए। प्रगट में क्रोधित नहीं हुए पर उनका क्रोध उनके व्यवहार से प्रगट हो रहा था। उसने कहा - लगता है, आप भटके हुए हैं। आपके खानपान और विचार शुद्ध नहीं लगते। आप कंठी माला नहीं पहने हो, चंदन का टीका भी नहीं लगाते हो, गुरू बनाये हो कि नहीं? कैसे कबीर पंथी हो?
मैंने कहा -
बैस्नो भया तो कया भया, बूझा नहीं विवेक।
छाप-तिलक बनाई कर, दग्ध्या लोक अनेक।।

हम भी पाहन पूजते होते, हिन्दू बनके रोज।
सद्गुरू की कृपा भयी, डारया सिर के बोझ।।

टोपी पहिरे, माला पहिरे। छाप-तिलक अनुमाना।
साखी शब्दे गावत भूले। आतम खबर न आना।।
साहेब, जिस प्रकार आज मैंने अपने तीन साल के बेटे को आपका शिष्य बनाया है, ठीक वैसा ही, कभी मेरे माता-पिता ने भी मेरे साथ किया होगा। कंठीमाला मैं तो पहनता ही था, घर के दीवरों, दरवाजों, खिड़कियों, बर्तन-भांड़ों, सूपा-बाहरी को भी  पहनाता था। चंदन का टीका भी लगाता था। परन्तु न जाने कब और कैसे सद्गुरू की कृपा हुई और सिर के ये सारे बोझ जो सबसे बड़े बंधन भी थे, आप ही आप छूट गये। आप पूछते हैं - गुरू बनाया कि नहीं? साहेब! मैं तो रोज ही कोई न कोई गुरू बनाता हूँ। ये पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, खेत-खार, कीट-पतंग, गुनगुनाता हुआ यह हवा, मस्ती में नचती -फुदकती हुई ये पक्षियाँ, रोज ही इनमें से कोई न कोई, सिर का बोझ कम करने वाला एक संदेश मुझे दे जाता है और इन्हें मैं गुरू बना लेता हूँ। ये ऐसे गुरू हैं जिन्हें कभी गुरूदक्षिणा भी नहीं देना पड़ता।

साहेब! यदि मस्जिद की मीनार पर चढ़कर मुल्ला का जोर-जोर से अजान पढ़ना व्यर्थ है तो चैंका आरती में झांझ-मजीरे का यह कानफोड़ू आवाज सार्थक कैसे है? पत्थर पूजने से ईश्वर नहीं मिलता तो आटे का इतना बड़ा दीपक बनाकर पूजने से ईश्वर कैसे मिल सकता है। ज्ञान या जीवात्मा का प्रतीक चाहिए तो मिट्टी का छोटा सा दीया ही काफी है।

मेरी बातें सुनकर महंत साहब काफी नाराज भी हुए और कई तरह से स्पष्टीकरण देते रहे। आदरणीय संतों और मित्रों! कबीर साहब की मुक्ति, आसक्तियों से मुक्ति में निहित है। आसक्तियाँ हमारे बंधन हैं। सद्गुरू हमंे इन बंधनों से मुक्त होने में हमारी सहायता करते हैं। बांधने वाला व्यक्ति कभी भी सद्गुरू नहीं हो सकता।

आदरणीय संतों और मित्रों! आशकरण अटल की एक बड़ी प्यारी कविता है - ’क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?’ एक मित्र हैं। वे खेती नहीं करते, व्यापर करने वाले संप्रदाय से संबंधित हैं। किसी चर्चा के दौरान एक दिन उन्होंने कहा - खेती में बड़ी हिंसा होती है, इसलिए हम लोग खेती नहीं करते हैं। मैंने कहा - बंदर जिस दिन खेती करना सीख लेंगे, उस दिन उनके पास भी लिपि होगी, भाषा होगी, धर्मग्रंथ होंगे, धर्म, दर्शन, साहित्य और सभी प्रकार की कलाएँ होंगी और उनका अपना ईश्वर भी होगा। उनका ईश्वर हमारे ईश्वर के समान नहीं होगा। उनका ईश्वर उनके समान ही होगा। हमारे ही ईश्वर एक जैसे कहाँ होते हैं?
मित्र ने कहा - क्या मतलब? ऐसा कैसे कह सकते हो?

मैंने कहा - ऐसा इसलिए कह सकता हूँ कि मनुष्य जब खेती करना नहीं जानता था, वह भी बंदरों के समान ही था। मनुष्य ने खेती करना सीखा। उसके पास आज धर्म, दर्शन, सभ्यता, संस्कृति, और ज्ञान-विज्ञान, सब कुछ है। बाकी पशु खेती करना नहीं सीख पाये, उनके पास ये नहीं हैं। धर्म, दर्शन, सभ्यता, संस्कृति, और ज्ञान-विज्ञान, के मामले में हम आज जहाँ हैं वह सब खेती की बदौलत ही है। भूख कभी भी हमें पशु के स्तर से ऊपर उठने नहीं देता है। पेट अनाज से भरता है और अनाज खेती से आता है। खेती के लिए ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, कौशल और तकनीक की आवश्यकता पड़ती है। यह ज्ञान केवल किसानों के पास होता है। किसानों के इसी ज्ञान की नींव पर आज के हमारे धर्म, दर्शन, सभ्यता, संस्कृति, और ज्ञान-विज्ञान टिके हुए हैं। यह ज्ञान सभी ज्ञानों से श्रेष्ठ है। कृषि एक पवित्र कार्य है। इसमें हिंसा देखना मूर्खता के सिवा और कुछ भी नहीं है। कृषि और कृषकों की महानता को हमारे नेताओं ने पहचान लिया, मान लिया, लेकिन हमारे धर्माचार्यों की आँखों में अभी भी अपने थोथे ज्ञान के अहंकार की पट्टी बंधी हुई है।

आदरणीय संतों और मित्रों! कबीर साहब ने सदा इसी व्यावहारिक ज्ञान की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने सदा हमें पोथी आधारित ज्ञान की व्यर्थता से अवगत कराया है।

’क्या हमारे पूर्वज बंदर थे’ एक हास्य प्रधान परन्तु बड़ी सुंदर और मार्मिक कविता है। डार्विन का सिद्धांत है - बंदर मनुष्य के पूर्वज हैं। बच्चे ने स्कूल में यह सिद्धांत पढ़ा। घर आकर विभिन्न लोगों से पूछा - कया हमारे पूर्वज बंदर थे? सबसे  अलग-अलग और विचारोत्तेजक जवाब मिले। अंत में उसने ओशो से पूछा - कया हमारे पूर्वज बंदर थे? ओशो ने कहा -
’प्रश्न सामयिक है, मजेदार है
लेकिन एक बार बंदर से भी पूछकर देख लो
कि क्या उसे आज के मनुष्य का
पूर्वज बनना स्वीकार है?
वह इन्कार कर देगा, शर्म के मारे डूब मरेगा
या कोई आदमी जैसा चालाक बंदर रहा
तो अदालत में मानहानि का दावा कर देगा
कि हुजूर!
हम बंदरों की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाया जा रहा है
इस भ्रष्ट और हिंसक मनुष्य को
हमारा वंशज बताया जा रहा है।

मनुष्य होना एक दुर्लभ घटना है
मनुष्य अभी मनुष्य नहीं बना है।’

अंत में कवि कहते हैं -
हरएक की बात ने मन को छुआ
उत्तर तो नहीं मिला, पर एक और प्रश्न उठ खड़ा हुआ
अब मैं यह नहीं पूछता कि क्या आदमी पहले बंदर था?
वह प्रश्न खड़ा है वहीं का वहीं
अब मैं पूछता हूँ - आदमी आदमी भी है कि नहीं?

आदरणीय संतों और मित्रों! आप भी इस प्रश्न का उत्तर सोचें। अपने आप से पूछें - क्या हम आदमी बन पाये हैं। कबीर
साहब आजीवन आदमी को आदमी बनाने का प्रयास करते रहे।  यदि कुछ अंशों में सही, यदि हम आदमी बन सके तो ही हमारा कबीरपंथी होना सार्थक हो सकता है।
सकल संत को साहेब बंदगी साहेब।
कुबेर
9407685557

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