बुधवार, 2 मार्च 2016

आलेख

गम्मत की आत्मा - व्यंग्य



सामान्यतः लोक द्वारा सृजित-सिंचित कलाओं को लोककला कहते हैं। लोककलाओं की जड़ों की पैठ लोक-परंपराओं की चिर-ऊर्वर भूमि में गहराई तक होती हैं। लोक का अनुभव और उनकी सीमाहीन और तर्कातीत, प्रकृति-प्रेरित कल्पनाओं की अनोखी दुनिया, इन कलाओं में रंग भरता है। लोक की आस्था और विश्वास इन कलाओं को स्वरूप देती हैं। उनकी भावनाएँ, उनके हृदय के प्रेम-विषाद्, हर्ष-उल्लास, सुख-दुख, इन कलाओं में आत्मतत्व का संचार करते हैं। लोक इसी माध्यम से अपनी सहमतियों-असहमतियों, अभिलाषाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को व्यक्त करती है। इसी माध्यम से वह अपने शोषण और अपमानों का विरोध करती है। और इसी माध्यम से वह वे सभी काम और सभी बातें करती है जिसे विषम सामाजिक संरचनाओं की बाध्यताओं के कारण उनके लिए क्रियात्मक रूप में कर सकना और कह सकना संभव नहीं होता है। लोककलाओं के द्वारा यह सब सहजतापूर्वक संभव हो जाता है। इसलिए संभव हो जाता है क्योंकि इसमें कलात्मक सौन्दर्य, सौम्यता और शिष्टता होती है। लोककलाओं की अभिव्यक्ति में निहित कलात्मक सौन्दर्य; कला और सौन्दर्य, दोनों की पराकाष्ठा है। 
लोकसाहित्य लोककला की एक विधा है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित ’नाचा’ यहाँ का सशक्त लोकसाहित्य है। नाचा नाटक का विलक्षण लोकनाट्य-रूपान्तरण है। इसका मंच, इसके पात्र, पात्रों की वेशभूषा, वादक और वाद्ययंत्र, सबकुछ लोकसामथ्र्य की सहज-सुलभ सीमा में होते हैं। इसमें प्रदर्शन केवल कला का होता है, वैभव का नहीं। नाचा का मंचन सार्वजनिक चैक-चैराहों पर रात्रि दस बजे से सूर्योदय तक होता है। इसमें नाट्य प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ नृत्य और गीत-संगीत का भी समावेश होता है। नाचा के ’नाट्य प्रस्तुतिकरण’ वाले हिस्से को ’गम्मत’ कहा जाता है। ’व्यंग्य’ गम्मत की आत्मा होती है। गम्मत की कथानक और कथोपकथन (संवाद) अलिखित होते हैं अर्थात इसका कोई लिखित स्क्रिप्ट नहीं होता है। गम्मत के कथानक का विषय लोक अनुभव पर आधारित समाज में व्याप्त आडंबर, अन्याय, पाखण्ड, शोषण आदि के यथार्थ होते हैं जिनकी जड़े सामाजिक, धर्मिक और आर्थिक विषमता की गर्हित पृष्ठभूमि की पीड़ाओं में होती हैं। गम्मत के पात्रों को (लोककलाकार को) कथानक भलीभांति पाता रहता है। कथानक के किस बिंदु पर कौन-सा मर्म छिपा है और किस तरह उस मर्म पर प्रहार करना है, इसका भी उसे अच्छी तरह ज्ञान रहता है। इसी के अनुरूप वे किसी आशुकवि की तरह अपने संवाद अपनी-अपनी व्युत्पन्न मेधा के बल पर त्वरित रूप से गढ़ते चले जाते हैं। इनके संवादों की तरह इनके अभिनय-कौशल भी नैसर्गिक होते हैं। नाचा के कलाकार जितना कुछ अपने संवादों के माध्यम से अभिव्यक्त कर पाते हैं, उससे अधिक वे अपने अभिनय कौशल के द्वारा आंगिक भाषा (बाॅडी लेंगुएज) के माध्यम से अभिव्यक्ति करने में सफल होते हैं। कह सकते हैं कि गम्मत में जितना कुछ मुखर रूप से सम्प्रेषित होता है उससे कहीं अधिक मौन की भाषा के रूप में सम्प्रेषित होता है और यही मौन-संप्रेषण दर्शकों के दिलो-दिमाग में चिर-स्थायी रूप से गूंजित होते रहता है। गम्मत में किसी तरह का उपदेश या व्याख्यान नहीं होता, केवल विचारों का कलात्मक संप्रेषण होता है। व्यंग्य कर्म का उद्देश्य ही यही है।
देवार, पोंगवा पंडित, भाई बँटवारा आदि कुछ प्रसिद्ध गम्मत हैं, जो आज भी जनमानस में जिंदा हैं। ’’पोंगवा पंडित’’ गम्मत में देवार जाति की महिला पात्र द्वारा गाये जाने वाले इन गीतों में निहित व्यंग्य को देखिए -
1.   
छुआ ल काबर डरे भाई गा,
एके तरिया म बाव्हन कनौजिया जम्मों असनान करे।
जम्मो जात पानी म थंूकय, त कामा भेद परे....।
खातू म उपजे धान कोदइया, मैला म आलू फरे।
मल-मूत्र खुसरे पेट भीतर, बाहिर बर साबुन धरे।
फेर छुआ ल काबर .........।
(भाइयों! छुआ से क्यों डरते हो? एक ही तालाब में ब्राह्मण और कनोजिया (एक अनुसूचित जाति) दोनों नहाते हैं। सभी जाति के लोग नहाते हैं और उसके पानी को जूठा करते हैं। तब किस बात में भेद करते हो? खाद से अनाज पैदा होता है। आलू मैला में पैदा होता है। सबका शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ है। मन साफ न हो तो साबुन लगाकर बाहर की सफाई से क्या होगा?
2.   
ले महराज बता देहु तुंहर कोन घराना आय।
जात सिकारी ल नीच बताथे, देखब म महराज छुआथे।
तउने के लइका बालमिकी ये, जेखर ज्ञान सुहाय।
ले महराज ...........
मुनी परासर ल जग जानिन, तेखर आए दाई जमादारिन।
जनम धरिन हे नीच पेट ले, सुनत अचम्भा छाय।
ले महराज ............
ब्यास मुनि महभारत गाइस, ब्रम्ह ज्ञान के देव कहाइस।
ब्रम्ह रिसी जेला काहत लागे, जातन में फरक खाए।
ले महराज ..........
दासी के बेटा मुनि नारद, अइसे होइस ज्ञान बिसारद।
’स्वर्ण’ छुआ में झन हो गारद, भेद बिगन ते पाय ।
ले महराज ............
(हे पंडितजी! बतलाइए, आपका खनदान क्या है? शिकारी को नीच जाति मानते हो पर रामायण के रचयिता बाल्मीकि तो इसी खनदान में पैदा हुए थे। जग प्रसिद्ध परासर मुनी के माता-पिता जमादार थे। महाभारत के रचयिता ब्रह्मज्ञानी व्यास भी छोटी जाति के थे। परम ज्ञानी नारद दासीपुत्र था। आपका खानदान क्या इनसे श्रेष्ठ है?)
0
जाति-पांति के आधार पर मनुष्य के साथ भेदभाव और अन्याय को लोक कलाकार नकारता है। किसी गम्मत में पिता-पुत्र के बीच एक रोचक संवाद है, जिसमें जाति व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है। संवाद कुछ इस तरह है -
’’बेटा! एसो तोर बिहाव करबोन का रे।’’
’’हव ददा! फेर टूरी मिलही तब न!’’
’’मिलही कइसे नहीं, चल खोजेबर जाबोन।’’
’’हव! चल।’’
0
’’ये नोनी ह बड़ सुंदर हे बेटा, इही ल बहू बना लेतेन का?’’
’’ये ह कोन ठाकुर (जात के) आय?’’
’’बम्हनीन ए बेटा, बम्हनिन।’’
’’नइ जमे येकर संग।’’
’’काबर? अतेक ऊँच जात ल फेल करथस?’’
’’जिंदगी भर पांव परत-परत माथा ह खिया जाही। ऊपर ले अपन बेद-शास्त्र के फुटानी मारही। खेत-खार ल कोन ह कमाही?’’
0
’’येकर संग करबे।’’
’’ये हा कोन ठाकुर आय?’’
’’अइसन-तइसन नो हे। राजपूतिन आय, समझे!’’
’’टार ग, कइसन-कइसन ल देखाथस!’’
’’काबर?’’
’’रोज लड़ई-झगरा मताही। हलकान हो जाबोन।’’
’’बने कहिथस।’’
0
’’ये देख, दूझन अउ हें। कोनों पसंद हे?’’
’’ये मन कोन ठाकुर आंय?’’
’’येदे ह कुर्मिन आय अउ येदे ह तेलिन आय।’’
’’यहू मन नइ जमें।’’
’’काबर रे?’’
’’ये ह कुरमईन, कुरमईन लागही अउ वो ह तेलईन, तेलईन लागही।’’
0
’’हदास होगेन यार तोर मारे। अब आखिरी टुरी बाचे हे। येकरे संग कर ले। हमला का करना हे?’’
’’ये ह कोन ठाकुर ये?’’
’’मेहतरीन (भंगी)।’’
’’इहीच ल तो खोजत रेहेंव ददा। येकरेच संग करहूं बिहाव।’’
’’कस रे, तोला बम्हनिन, रसपूतनिन, कुर्मिन-तेलिन जइसन सुंदर-सुंदर टूरी मन नइ भाइस। येमा का खासियत हे?’’
’’देख ददा! जतका देखेन वो मन अपन घर के घला साफ-सफाई नइ कर सकंय। ये बिचारी ह खोर-गली अउ जम्मों गाँव के साफ-सफाई करथे। तेकरे सेती एकर संग बिहाव करहूं।’’
(अर्थात:- ’’बेटा! इस साल तुम्हारा ब्याह कर दें क्या?’’
’’ठीक है पिता जी, पर लड़की भी तो मिलना चाहिए।’’
’’मिलेगी कैसे नहीं? चलो ढूँढ़ते हैं।’’
0
’’इस सुंदर लड़की से शादी करोगे? ब्राह्मण की बेटी है, हाँ।’’
’’नहीं। हमेशा इनसे झुककर रहना पड़ेगा। केवल वेद-शास्त्र की बातें करेगी। खेती तो करेगी नहीं।’’
0
’’ये राजपूतिन बेटी है। इनसे करोगे?’’
’’नहीं, यह रोज रार मचायेगी। मुसीबत कौन मोल लेगा?’’
0
’’ये कुर्मिन और ये तेलिन है। इनसे करोगे?’’
’’नहीं। इनमें भी जातिगत भावनाएँ भरी हुई हैं।’’
0
’’उच्च जाति की लड़कियाँ पसंद नहीं आती। आखिरी लड़की बची है। इनसे शादी कर लो, हमें क्या? मेहतर जाति की है।’’
’’वाह पिता जी! इसे ही तो ढूँढ़ रहा था। इन्हीं से ब्याह करूँगा।’’
’’इसमें क्या खासियत है?’’
’’बाकी लड़कियाँ तो अपने घर की भी साफ-सफाई नहीं कर पातीं। और यह तो पूरी दुनिया की सफाई करती हैं। पिता जी! इनसे श्रेष्ठ भला और कौन होगी?’’)
000
लोक अपनी परिथितिजन्य असहायता और मजबूरी की वजह से शोषकों के विरूद्ध प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं होता है। विकल्पहीन लोक के लिए अपने मन की पीड़ा, प्रतिरोध और प्रतिशोध को व्यक्त करने के लिए लोककलाओं की विभिन्न विधाओं के अलावा और क्या बचता है? वह इसी का आश्रय लेता है। लोक द्वारा प्रतिरोध के लिए लोककलाओं में रची गई घटनाएँ और बिंब इतने प्रतीकात्मक और इतने कलात्मक होते हैं कि ये लोककलाएँ शोषकों के बीच भी समान रूप से उतने ही लोकप्रिय होते हैं। इन लोककलाओं का श्रवण, दर्शन अथवा कथन करते समय, लोकसाहित्य का रसास्वादन करते हुए, स्वयं शोषक वर्ग भी हास्य और मनोरंजन से सराबोर हो जाता है। यही लोक के प्रतिरोध और प्रतिकार की सफलता है। ऊपरी तौर पर लोक साहित्यों का प्रमुख लक्ष्य केवल मनोरंजन ही प्रतीत होता है और ऐसा प्रतीत होना लोकसाहित्य, उसकी भाषा और उसकी शैली का चमत्कार ही है। इसे लोक का निष्क्रिय प्रतिरोध ही माना जायेगा, पर लोक के इस प्रतिरोध को खारिज कर पाना संभव भी नहीं है।
000
kuber

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें