.......... अखण्ड घना था।’’
इस साल होली की तिथि ने खूब छकाया, जनता को ही नहीं सरकार को भी। किसी लेख में पढ़ा था - किसी विदेशी ने कहा, ’भारत भी विचित्र देश है, यहाँ का पाँचवीं फेल तिलकधारी यहाँ के डाॅक्टरों और इंजीनियरों को बेवकूफ बना लेता है।’ इस तरह की बातें होती रहती हैं। इन बातों में दम भी खूब होता है, और शायद इसीलिए मुझे इन बातों में मिथकों की आत्मा का स्थायी निवास नजर आता है। सवाल केवल आज का नहीं है और न ही डाॅक्टरों और इंजीनियरों का है, हजारों साल से यह परंपरा चली आ रही है और हम सब बेवकूफ बनते आ रहे हैं। सम्राट अशोक और उसके वंशजों के समय तथागत के बढ़ रहे प्रभावों को रोकने के लिए मनु स्मृति की रचना की गई। और अब अंबेडकर को साधने-थामने के लिए मनु स्मृति भाग-2 रचने की पृष्ठभूमि तैयारी होती नजर आने लगी है। सवाल है, तिलकधारियों की थाली की मलाई कम नहीं होनी चाहिए और श्रमशील लोग सूखी रोटी के लिए हमेशा तरसते रहें।
भ्रम में न रहें, इस साल की होली की शुरुआत महीनों पहले से हो चुकी है। बाजार में वंदेमातरम ब्राण्डवाला रंग पुराना हो चुका है, अब सहिष्णुता-असहिष्णुता, राज्यभक्ति, राज्यद्रोह, और भारतमाता की जय ब्राण्डवाले रंगों की भरमार है और इस साल की होली इन्हीं रंगों-बदरंगों से मनाया जा रहा है। समरसता, करुणा, प्रेम और भाईचारे के रंगों के लिए मन तरसता है। प्याज और दाल की तरह इनकी भी कालाबाजारी हो सकती है, यह कल्पनातीत है। ऐसे में कुछ सिरफिरे साहित्यकारों की कुछ पँक्तियों की तरफ बरबस ही ध्यान चली जाती है। कामायनी का अंतिम छंद है - ’’समरस थे जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था। चेतनता एक विलसती, आनंद अखण्ड घना था।’’ अखण्ड आनंद की प्राप्ति जीवन का अंतिम लक्ष्य है। समरस समाज के बिना यह संभव नहीं है और समाज में समरसता आती है - चेतना के विलास से, चेतना के नृत्य से। विलास करती, नृत्य करती चेतना जागरण की अवस्था होती है, प्रेम और करुणा से भरी हुई हृदयवाली होती है। पर आज की स्थिति और स्थिति की वास्तविकता प्रसाद की इस कल्पना से सर्वथा भिन्न है।
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