शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

आलेख

दुलारसिंह साव  ''मदराजी ''
01 अप्रेल 1910 - 24 सितंबर 1984


 नाचा का पुराना रूप - खड़े साज (चित्रांकन)

दाऊ दुलार सिंह साव ''मंदराजी''


छत्तीसगढ़ की पहली संगठित नाचा पार्टी के जनक स्व. दाऊ दुलार सिंह साव मंदराजी का जन्म राजनांदगाँव से पाँच किलोमीटर दूर स्थित ग्राम रवेली में 01 अप्रेल 1910 ई. में एक संपन्न मालगुजार परिवार में हुआ था। तब गाँव में पाठशाला नहीं थी अत: प्राथमिक शिक्षा उन्होंने कन्हारपुरी की प्राथमिक शाला में प्राप्त की फिर वे आगे नहीं पढ़ सके। स्कूल का साथ छूटने पर दाऊजी समय व्यतीत करने के लिए गाँव के कुछ लोक कलाकारों के संपर्क में आये और उन्हीं से चिकारा एवं तबला बजाना सीखा तथा गाने का भी अभ्यास किया।

सम्पन्न मालगुजार परिवार के चिराग का नाच-गाने की ओर रमना दाऊजी के पिता को बिल्कुल भी पसंद नहीं था लेकिन पिता के विरोध के बावजूद मंदराजी दाऊ गाँव में होने वाले सामाजिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। बाद में उनकी यही रूचि और ललक ने जुनून का रूप धारण कर लिया और वे पूरी तरह लोकरंगकर्म के प्रति समर्पित हो गये।

नाचा के प्रति पूरी तरह समर्पित और नाचा को परिष्कृत करने को अपने जीवन का उद्देश्य बना लेने वाले मंदराजी ने सन् 1928-29 में कुछ लोक कलाकारों को एकत्रित कर अपने गांव में रवेली नाचा पार्टी की स्थापना की। रवेली नाचा पार्टी के 1928 से 1953 तक लगभग पच्चीस वर्षों के कार्यकाल में छत्तीसगढ़ के अनेक मूर्धन्य एवं नामी कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। पच्चीस वर्षों में मंदराजी दाऊ ने नाचा में युगान्तरकारी परिवर्तन किये। रवेली नाच पार्टी के प्रारंभिक दिनों में खड़े साज का प्रचलन या यानि वादक पूरे कार्यक्रम के दौरान मशाल की रोशनी में खड़े होकर ही वादन करते थे। दाऊजी ने इसमें परिवर्तन करके नाचा को वर्तमान स्वरूप में लाया। 

लोकसाहित्य की विभिन्न विधाएँ लोककला के लालित्य रूप हैं जो लोक द्वारा सृजित-सिंचित होते हैं। इनकी जड़ों की पैठ लोक-परंपराओं की चिर-ऊर्वर भूमि में गहराई तक होती हैं। लोक का अनुभव और उनकी सीमाहीन और तर्कातीत, प्रकृति-प्रेरित कल्पनाओं की अनोखी दुनिया, इन कलाओं में रंग भरता है। लोक की आस्था और उनका विश्वास इन कलाओं को स्वरूप देते हैं। लोक की भावनाएँ, उनके हृदय के प्रेम-विषाद्, हर्ष-उल्लास, सुख-दुख आदि इन कलाओं में आत्मतत्व का संचार करते हैं। लोक इसी माध्यम से अपनी सहमतियों-असहमतियों, अभिलाषाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को व्यक्त करती है। इसी माध्यम से वह अपने शोषण और अपमानों का विरोध करती है। और इसी माध्यम से वह, वे सभी काम और सभी बातें करती है जिसे विषम सामाजिक संरचनाओं की दबावों-बाध्यताओं के कारण उनके लिए क्रियात्मक रूप में कर सकना और कह सकना संभव नहीं होता है। लोककलाओं के द्वारा यह सब सहजतापूर्वक संभव हो जाता है। इसलिए संभव हो जाता है क्योंकि इसमें कलात्मक सौन्दर्य, सौम्यता और शिष्टता होती है। लोकसाहित्य में लोक का विरोध-प्रतिरोध तो होता है पर प्रतिशोध के लिए इसमें कोई स्थान नहीं होता है और इसीलिए लोककलाओं की अभिव्यक्ति में निहित कलात्मक सौन्दर्य - कला और सौन्दर्य, दोनों की पराकाष्ठा होती है। कह सकते हैं - लोकसाहित्य लोक ह्रदय की सहज-सरल सामूहिक अभिव्यक्ति है जो विभिन्न सांस्कृतिक-सामाजिक अवसरों के अनुरूप अलग-अलग रूपविधानों में प्रगट होती है। छत्तीसगढ़ की नाचा यहाँ के लोक द्वारा सृजित-सिंचित  और पालित एक ललितकला है।
 

व्यंग्य  :  गम्मत की आत्मा 

(KUBER)

छत्तीसगढ़ में प्रचलित 'नाचा' यहाँ का सशक्त लोकसाहित्य है। नाचा नाटक का विलक्षण लोकनाट्य-रूपान्तरण है। इसका मंच, इसके पात्र, पात्रों की वेशभूषा, वादक और वाद्ययंत्र, सबकुछ लोकसामथ्र्य की सहज-सुलभ सीमा में होते हैं। इसमें प्रदर्शन केवल कला का होता है, कलात्मकवैभव का होता है, वित्तजनित वैभव का नहीं (मंचीय साज-सज्जा में)। नाचा का मंचन गाँव के चौपालों, सार्वजनिक चौक-चौराहों पर रात्रि दस बजे से सूर्योदय तक होता है। इसमें नाट्य प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ नृत्य और गीत-संगीत का भी समावेश होता है। नाचा के 'नाट्य प्रस्तुतिकरण' वाले हिस्से को 'गम्मत' या 'नकल' कहा जाता है। 'व्यंग्य'''''' गम्मत की आत्मा होती है। गम्मत के कथानक और कथोपकथन (संवाद) अलिखित होते हैं अर्थात इसका कोई लिखित स्क्रिप्ट नहीं होता है। गम्मत के कथानक का विषय लोक अनुभव पर आधारित समाज में व्याप्त आडंबर, अन्याय, पाखण्ड, शोषण आदि के यथार्थ होते हैं जिनकी जड़ें सामाजिक, धर्मिक और आर्थिक विषमता की गर्हित पृष्ठभूमि की पीड़ाओं में होती हैं। गम्मत के आत्मनिर्देशित लोक-कलाकारों को (पात्रों को) कथानक भलीभांति पता होता है। कथानक के किस बिंदु पर कौन-सा मर्म छिपा है और किस तरह उस मर्म पर प्रहार करना है, इसका भी उसे अच्छी तरह ज्ञान रहता है। इसी के अनुरूप वे किसी आशुकवि की तरह अपने संवाद अपनी-अपनी व्युत्पन्न मेधा के बल पर त्वरित रूप से गढ़ते चले जाते हैं। इनके संवादों की तरह इनके अभिनय-कौशल भी नैसर्गिक होते हैं। नाचा के कलाकार जितना कुछ अपने संवादों के माध्यम से अभिव्यक्त कर पाते हैं, उससे अधिक वे अपने अभिनय कौशल के द्वारा आंगिक भाषा (बॉडी लेंगुएज) के माध्यम से अभिव्यक्ति करने में सफल होते हैं। कह सकते हैं कि गम्मत में जितना कुछ मुखर रूप से सम्प्रेषित होता है उससे कहीं अधिक मौन की भाषा के रूप में सम्प्रेषित होता है और यही मौन-संप्रेषण दर्शकों के दिलो-दिमाग में चिर-स्थायी रूप से गूंजित होता रहता है। गम्मत में किसी तरह का उपदेश या व्याख्यान नहीं होता, केवल विचारों का कलात्मक संप्रेषण होता है। व्यंग्यकर्म का उद्देश्य ही यही है।

देवार, पोंगवा पंडित, भाई बँटवारा आदि कुछ प्रसिद्ध गम्मत हैं, जो आज भी जनमानस में जिंदा हैं। 'पोंगवा पंडित' गम्मत में भंगी जाति की महिला चरित्र का अभिनय करनेवाले कलाकार द्वारा गाये जानेवाले इन गीतों में निहित व्यंग्य को देखिए -
1.   
छुआ ल काबर डरे, भाई गा छुआ ल काबर डरे,
एके तरिया म बाव्हन कनौजिया जम्मों असनान करे।
जम्मों जात पानी म थंूकय, त कामा भेद परे....।
खातू म उपजे धान कोदइया, मैला म आलू फरे।
मल-मूत्र खुसरे पेट भीतर, बाहिर बर साबुन धरे।
फेर छुआ ल काबर .........।
(भाइयों! छुआ से क्यों डरते हो? एक ही तालाब में ब्राह्मण और कनोजिया (एक अनुसूचित जाति) दोनों नहाते हैं। सभी जाति के लोग नहाते हैं और उसके पानी को जूठा करते हैं। तब किस बात में भेद करते हो? खाद से अनाज पैदा होता है। आलू मैला में पैदा होता है। सबका शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ है। मन साफ न हो तो साबुन लगाकर बाहर की सफ ाई से क्या होगा?
2.   
ले महराज बता देहु तुंहर कोन घराना आय।
जात सिकारी ल नीच बताथे, देखब म महराज छुआथे।
तउने के लइका बालमिकी ये, जेखर ज्ञान सुहाय।
ले महराज ...........
मुनी परासर ल जग जानिन, तेखर आए दाई जमादारिन।
जनम धरिन हे नीच पेट ले, सुनत अचम्भा छाय।
ले महराज ............
ब्यास मुनि महभारत गाइस, ब्रह्म ज्ञान के देव कहाइस।
ब्रह्म रिसी जेला काहत लागे, जातन में फ रक खाए।
ले महराज ..........
दासी के बेटा मुनि नारद, अइसे होइस ज्ञान बिसारद।
'स्वर्ण' छुआ में झन हो गारद, भेद बिगन ते पाय ।
ले महराज ............
(हे पंडितजी! बतलाइए, आपका खनदान क्या है? शिकारी को नीच जाति मानते हो पर रामायण के रचयिता बाल्मीकि तो इसी खनदान में पैदा हुए थे। जग प्रसिद्ध पारासर मुनी के माता-पिता जमादार थे। महाभारत के रचयिता ब्रह्मज्ञानी व्यास - जगप्रसिद्ध ब्रह्मऋषि, की जाति में भी फर्क है। परम ज्ञानी नारद दासीपुत्र था। आपका खानदान क्या इनसे श्रेष्ठ है?)

असमानता और घृणा की अमानवीय भावना पर आधारित, शोषक समाज की स्थापना करनेवाले, जाति और वर्ण व्यवस्था को न तो कभी लोक ने स्वीकार किया और न ही लोक कलाकारों ने। इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए किसी गम्मत में पिता-पुत्र के बीच एक रोचक संवाद है। संवाद कुछ इस तरह है -
''बेटा! एसो तोर बिहाव करबोन का रे।''
''हव ददा! फेर टूरी मिलही तब न!''
''मिलही कइसे नहीं, चल खोजेबर जाबोन।''
''हव! चल।''
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''ये नोनी ह बड़ सुंदर हे बेटा, इही ल बहू बना लेतेन का?''
''ये ह कोन ठाकुर (जात के) आय?''
''बम्हनीन ए बेटा, बम्हनिन।''
''नइ जमे येकर संग।''
''काबर? अतेक ऊँच जात ल फेल करथस?''
''जिंदगी भर पाँव परत-परत माथा ह खिया जाही। ऊपर ले अपन बेद-शास्त्र के फुटानी मारही। खेत-खार ल कोन ह कमाही?''
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''येकर संग करबे।''
''ये हा कोन ठाकुर आय?''
''अइसन-तइसन नो हे। राजपूतिन आय, समझे!''
''टार ग, कइसन-कइसन ल देखाथस!''
''काबर?''
''रोज लड़ई-झगरा मताही। हलकान हो जाबोन।''
''बने कहिथस।''
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''ये देख, दूझन अउ हें। कोनों पसंद हे?''
''ये मन कोन ठाकुर आंय?''
''येदे ह कुर्मिन आय अउ येदे ह तेलिन आय।''
''यहू मन नइ जमें।''
''काबर रे?''
''ये ह कुरमईन-कुरमईन लागही अउ वो ह तेलईन-तेलईन लागही।''
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''हदास होगेन यार तोर मारे। अब आखिरी टुरी बाचे हे। येकरे संग कर ले। हमला का करना हे?''
''ये ह कोन ठाकुर ये?''
''मेहतरीन, जमादारिन।''
''इहीच ल तो खोजत रेहेंव ददा। येकरेच संग करहूँ बिहाव।''
''कस रे, तोला बम्हनिन, रसपूतनिन, कुर्मिन-तेलिन जइसन सुंदर-सुंदर टूरी मन नइ भाइस। येमा का खासियत हे?''
''देख ददा! जतका देखेन वो मन काम के न धाम के। अपन घर के घला साफ-सफाई नइ कर सकंय। अउ ये बिचारी ह, खोर-गली अउ जम्मों गाँव के साफ-सफाई करथे। तेकरे सेती एकर संग बिहाव करहूँ।''

(अर्थात:- ''बेटा! इस साल तुम्हारा ब्याह कर दें क्या?''
''ठीक है पिता जी, पर लड़की भी तो मिलना चाहिए।''
''मिलेगी कैसे नहीं? चलो ढूँढ़ते हैं।''
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''इस सुंदर लड़की से शादी करोगे? ब्राह्मण की बेटी है, हाँ।''
''नहीं। हमेशा इनसे झुककर रहना पड़ेगा। केवल वेद-शास्त्र की बातें करेगी। खेती तो करेगी नहीं।''
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''ये राजपूतिन बेटी है। इनसे करोगे?''
''नहीं, यह रोज-रोज रार मचायेगी। मुसीबत कौन मोल लेगा?''
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''ये कुर्मिन और ये तेलिन है। इनमें से किसी के साथ करोगे?''
''नहीं। इनमें भी जातिगत भावनाएँ भरी हुई हैं।''
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''उच्च जाति की लड़कियाँ पसंद नहीं आती। आखिरी लड़की बची है। इनसे शादी कर लो, हमें क्या? मेहतर जाति की है।''
''वाह पिता जी! इसे ही तो ढूँढ़ रहा था। इन्हीं से ब्याह करूँगा।''
''इसमें क्या खासियत है?''
''बाकी लड़कियाँ तो अपने घर की भी साफ-सफाई नहीं कर पातीं। और यह तो पूरी दुनिया की सफाई करती हैं। पिता जी! इनसे श्रेष्ठ भला और कौन होगी?'')
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लोक अपनी परिस्थितिजन्य असहायता और मजबूरी की वजह से शोषकों के विरूद्ध प्रत्यक्ष लड़ाई लडऩे की स्थिति में नहीं होता है। विकल्पहीन लोक के लिए अपने मन की पीड़ा, प्रतिरोध और प्रतिशोध को व्यक्त करने के लिए लोककलाओं की विभिन्न विधाओं के अलावा और क्या बचता है? वह इसी का आश्रय लेता है। लोक द्वारा प्रतिरोध के लिए लोककलाओं में रची गई घटनाएँ और बिंब इतने प्रतीकात्मक और इतने कलात्मक होते हैं कि ये लोककलाएँ शोषकों के बीच भी समान रूप से उतने ही लोकप्रिय होते हैं। इन लोककलाओं का श्रवण, दर्शन अथवा कथन करते समय, लोकसाहित्य का रसास्वादन करते हुए, स्वयं शोषक वर्ग भी हास्य और मनोरंजन से सराबोर हो जाता है। यही लोक के प्रतिरोध और प्रतिकार की सफलता है। ऊपरी तौर पर लोक साहित्यों का प्रमुख लक्ष्य केवल मनोरंजन ही प्रतीत होता है और ऐसा प्रतीत होना लोकसाहित्य, उसकी भाषा और उसकी शैली का चमत्कार ही है। इसे लोक का निष्क्रिय प्रतिरोध ही माना जायेगा, पर लोक के इस प्रतिरोध को खारिज कर पाना संभव भी नहीं है।

कामायनी का अंतिम छंद है - 
''समरस थे जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती, आनंद अखण्ड घना था।''
अखण्ड आनंद की प्राप्ति जीवन का अंतिम लक्ष्य है। समरस समाज के बिना यह संभव नहीं है और समाज में समरसता आती है - चेतना के विलास से, चेतना के नृत्य से। विलास करती, नृत्य करती चेतना जागरण की अवस्था होती है, प्रेम और करुणा से भरी हुई हृदयवाली होती है। नाचा में प्रेम है, करूणा है, और हास-परिहास करती चेतना का विलास भी है। मदराजी की टीम में काम करने वाले कलाकार विभिन्न जाति-वर्ग  से आते थे। ये सभी मदराजी के अपने परिवार के सदस्य की तरह होते थे। गत वर्ष मदराजी लोकोत्सव के मंच से जयंती यादव (जयंत्री देवार) ने इस वाक्य को बार-बार दुहराया -  ''रवेली मोर मायके आय। काबर कि मोर दू झन बाप रिहन, एक जनम देवइया अउ दूसर मोला बेटी के दुलार देवइया - दाऊ दुलारसिंह, मदराजी।''  मदराजी का घर कलाकारों का अपना ही घर होता था। सारे लोग एक परिवार के रूप में साथ-साथ रहते थे। मदराजी सबके पितातुल्य थे, तब फिर कैसी असमानता और कैसा शोषण? मदराजी दाऊ ने अपने नाचा के माध्यम से समरास समाज की स्थापना का जो प्रयास किया था उसका मूल्यांकन होना अभी शेष है। मदराजी की कल्पना के समरस समाज का साकार रूप उनकी नाचापार्टी में, नाचा के आयोजन में - आयोजन-स्थल में देखा जा सकता था, और वहाँ अनुभव किया जा सकता था चेतना के विलास का, अखण्ड आनंद की सघनता का।

नाचा को जीनेवाले और नाचा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देनेवाले दुलारसिंह साव, जिसे यहाँ की जनता सम्मान और आत्मीयता के साथ मदराजी दाऊ के नाम से पुकारती है, और उसकी परंपरा को जीनेवाले नाचा के अन्य कलाकारों का (जयंती यादव जैसे कुछ को छोड़कर) अवसान हो चुका है। इनके साथ ही नाचा के स्वर्णिमयुग का भी अवसान हो चुका है। नाचा का वर्तमान दौर आधुनिकता का दौर है। बाजार के दबावों ने नाचा से जुड़े कलाकरों के मन में व्यावसायिकता की भावना पैदा कर दी है। लोकशिक्षण और लोकप्रतिरोध जैसे इसके प्राथमिक उद्देश्य अब गौण हो चुके हैं। कलाकारों में स्वान्त:सुखाय की भावना के स्थान पर अब व्यावसायिकता की भावना आ गयी है। लोककलामंचों की लोकप्रियता के कारण नाचा का स्वरूप भी बदल चुका है। यही करण है कि अब नाचा का उपयोग सरकारी योजनाओं-नीतियों के  प्रचार-प्रसार में, मंत्रियों-नेताओं की आम सभाओं में भीड़ जुटने के लिए और चुनावों के समय राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में मतयाचना के लिए होने लगा है। बाजार के पास धन है और लोगों के मन में धन की चाहत। आज धन की चाहत और बाजार ने कला को एक वस्तु बना दिया है जिसका उत्पादन और विपणन किया जा सकता है। अब कला कलाकार की अर्जित संपत्ति है जिसे बेचकर वह धन अर्जित कर सकता है। एक मदराजी था - सरस्वती का वरद्पुत्र, जिसने कला के लिए अपनी संपत्ति को मिटाया, स्वयं को मिटाया और अब आज के कलाकार हैं, जो कला और कला की गरिमा को बाजार के हाथों बेशर्मी से बेच रहे हैं ।
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लोकनाट्य का लोकगीत

(देवार गम्मत का एक गीत) - यशवंत
यह गीत मैंने 1984 में नाचा के सुप्रसिद्ध जोकर श्री नोहरदास साहू (चिरचारी, कुही) से संकलित किया गया था।

कैंचू रे! कैंचू रे! मोला रे कहिथें
कैंचू रे सूरा चराँव।
कोई देथे ठोमा रे खोंची रे संगी .....
कोई देथे गारी रे आज।

अँगना बटोरेंव, सुपली बटोरेंव
बटोरेंव गजमुंगा के दार।
खा लेबे डउका रे भुँडी कोदेला के भात .....।

नइ खावंव डउकी रे
पर जाही ठेंगा दू-चार।

ठेंगा दू-चार ल मारबे रे डउका
चल देहूँ नैहर मंय तीर।

नैहर तीर म जाबे रे डउकी
कर लेहूँ दूसरा बिहाव।

दूसरा बिहाव ल रे करबे रे डउका
बोली-बचन नइ पास।

बोली-बचन नइ पाहूँ रे डउकी
चढ़ जाहूँ डोंगरी पहाड़।
डोंगरी-पहाड़ में चढ़बे रे डउका
गिर जाबे थोथना के भार।

थोथना के भार म गिरहूँ रे डउकी
झोंक लेबे अँचरा के भार .....।

उपर्युक्त देवार गीत संवाद शैली में है। यहाँ पति कैंचू तथा पत्नी (जाहिर है कैंची ही होगी) के बीच के प्रेमसिक्त नोकझोंक का सुंदर चित्रण है। सामाजिक वर्चस्वता ने समयानुसार उपरोक्त गीत में पति-पत्नी को दाने-दाने के लिए तरसाया फिर भी पति-पत्नी के बीच प्रेम और समर्पण में अंतर नहीं आया। हाँ! पुरूष वर्चस्व का पिंजरा यहाँ भी सुरक्षित ही है। स्त्री का विरोध लगातार जारी है। श्रम करके वह पति को भुंडी-कोदेला का भोजन परोसती है। पति भोजन को नकार देता है। पत्नी मायके चले जाने का धमकी देती है। पति भी दूसरा विवाह कर लेने का धमकी देता है। पत्नी उलाहना देती है, दूसरा विवाह कर तो लोगे परन्तु मुझ जैसी बोली-बचन (प्रेम करने) वाली दूसरा कहाँ पाओगे? हमेशा ताने ही सुनोगे। पति कहता है, फिर तो मैं डोंगरी-पहाड़ में चढ़ जाऊँगा। पत्नी कहती है, वहाँ से गिर नहीं जाओगे? पति कहता है, गिर भी गया तो क्या? मुझे झोंकने के लिए अपना आँचल फैलाकर वहाँ तुम ही तो खड़ी मिलोगी।

उपर्युक्त गीत में आपसी नोकझोंक के माध्यम से पति-पत्नी के बीच के प्रेम और समर्पण की जो अभिव्यक्ति हुई है वैसा तथाकथित सभ्य समाज में दुर्लभ है। इतना ही नहीं, इस गीत में अंतर्निहित भावनाओं पर गौर करें तो इसमें सामाजिक शोषण और अत्याचार के प्रति सौम्य और कलात्मक प्रतिरोध की भी अभिव्यक्ति हुई है।
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सामाजिक व्यवस्था का प्रतिरोध है ''जमादारिन''

गम्मत

जमादारिन (पोंगवा पंडित)

लखन लाल साहू ''लहर''

(महराज अऊ यजमान गाना गावत निकलथें)
    रामा हो भजो, भजो सियारामा ........... 2
    चित्रकूट के घाट में भय संतन के भीड़।
    तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक लेत रघुवीर।।
    रामा हो भजो, भजो सिया रामा ..........2
    राधा-राधा रट ले, सब बाधा मिट जाए।
    रूपिया म गहूॅ मिले, काहे भूखन मर जाए।।
    रामा हो भजो भजो सिया रामा...........2
महराज -
    जौन हे तौन कलजुग के बिसय में।
    मोर सही पोंगवा पंडित काहत लागे,
    जेखर जिबिहा में साक्षात सरसती बिराज रहे हैं।
    जौन हे तौन कलजुग के बिसय में .........
    जेकर पासन में हे भगवान,
    गरूड़ घलो बिराज रहे हैं।
    फिर भी पार नही पा रहे हैं।
    जौन हे तौन कलजुग के बिसय में ...........
    न करे पूजा पाठ न देवय कोनो     दान,
    भूखन मरै पोंगवा पंडित देखौ हिन्दू धरम के सुजान ........
    जौन हे तौन कलजुग के बिसय में ......
यजमान - (देखइया मन डाहर अंगरी देखावत) देखे भगवान! अतिक   बड़ थोर बदनाम। धन हो भगवान, हावव गरीब मन के साथी। जेन ल पनही नइ मिलय तेन ल चढ़ावत हव हाथी।
महराज - चुप रे! ...... ते काकर लइका अस। चुटुर-चुटुर मारत  हस। कहाँ रथस रे ......?
यजमान -     में हा ओखरे लइका ओ महराज (भीड़ म अंगरी देखावत)
महराज - काकर?
यजमान - ओकर लइका आंव.....।
महराज - चश्मा पहिर के बइठे हे तेकर?
यजमान - उहँू, वहा दे कोन्टा म बइठे हे तेकर।
महराज - बने बताना रे ........।
यजमान - ते दिमाग ल झन खा महराज। में ओखर लइका आंव, बताहूँ  ते अकबका जबे।
महराज - तभो ले काकर लइका आस .......।
यजमान - में हा दानिया के लइका ओं महराज।
महराज - दानिया ल तो जानत हँव बेटा। गजब दानी हे रे। ओखर  राहत ले दूसर दुआरी जाए के मउका नी लगय।
यजमान - में हा ओकरेच नाम से आय हँव महराज!
महराज - कइसे?
यजमान - मोर ददा ह मर के देवता हो गेहे। वो ह मरे के बखत केहे    रिहिस। आप हमर सदा दिन के पुरोहित अव। तेखरे सेती पूजा पाठ करायबर ददा भेजिस त आए हँव महराज!
महराज - कस रे, तोर ददा ह मर के देवता हो गेहे कथस, त वो ह तोला कइसे भेजही......?
यजमान - सपना म किहिस न महराज  ......।
पंडित -  अइसे का, न त?
यजमान - (महराज ल घर कोती लेगत-लेगत गोठियाथे) कस महराज आँखी के देखब ल बिसवास करथो के कान के         सुनब ल?
महराज - आँखी में देखबे ते सही ए। कान के सुनब म कभू-कभू  फरक हो जथे बाबू।
यजमान - बिसवासम् से फलदायकम् महराज।
    गोरसी म भर ले आगी,
    तोप दे ओमा राख।
    चल तो महराज
    अपन थोथना ल ओमा राख।
महराज - अलकरहा गोठियाथस रे। मोर थोथना ह तो जर जही रे ....।
यजमान - कइसे जरही महराज। ओ तो दिखत नइये। अऊ आप तो आँखी के देखब ल बिसवास करथो न महराज। गोरसी के  खपे राख म घलो बिसवास हे महराज।
महराज - कइसे?
यजमान - (राख के गोंटी ल निमार के मंतर पढ़त पढ़त महराज डहर  राख ल उड़ात-उड़ात फंूकथे)
    हाँक  दे हंकार दे
    इतवार होय चाहे सोम्मार के
    भाग जा रे नानजात के .... फँू फँू  फूँ .....।
महराज - अहा बड़ा भारी काम करिस बेटा तोर फूँक  ह रे ...... मोर   तो हाथ गोड़ के सफ्फा पीरा माडग़े बेटा।
यजमान - (राख ल देखावत पूछथे) येला अऊ का कथे महराज तेला  जानथो।
महराज - ले तहीं बता डार न रे भई।
यजमान - येखर नाव हे भूत वल्द भभूत। तभे तो तोर हाथ गोड़ के  पीरा माडग़े महराज, इही तो बिसवास आय।
महराज - अइसने तिरथ-बरथ म घलो गजब बिसवास हे बेटा। कभू   तिरथ-धाम घुमेहस रे ......।
यजमान - भइगे महराज, तुंहरे असन महराज के बात ल मान के तिरथ घुमेबर चलदेंव, सोमनाथ घुमेंव, रामेश्वर घुमेंव। उहाँ के भगवान ल देखेंव निहीं, त जानेंव महराज। उसनेच भगवान  तो हमर हांड़ी-खोली म हे। में तुरते लहुटगेंव महराज। हमर गाँव के चढ़ती में नदिया में नहायेंव अऊ घर आगेंव महराज। एकदम जोरसे भूख लगत राहय। कनौजी ल देखेंव ते साग उरकगे राहय। बासी ल निकाल डरे राहंव खाहूँ कहिके। हबले सुरता आगे संकर भगवान के पूजा नइ करे हँव अऊ खाय ल बइठगेंव। तुरते गेंव संकर भगवान के  पूजा के समान लाए बर।
महराज - कहाँ, दुकान?
यजमान - नहीं, बखरी।
महराज  - बखरी में कहाँ पूजा के समान मिलही रे।
यजमान - उहाँ सब मिलथे महराज। बखरी डाहर गेंव, लायेंव दू ठन  बंगाला, चार ठन मिरचा, अऊ मुठाभर धनिया। चढ़ायेंव शंकर भगवान में। धरेंव शिवजी ल अऊ मंतर ल पढ़ेंव -   ''भूखे भजन न होय गोपाला। लेव तुंहर कंठी माला '' कहिके। शिवजी जब तांडव नाचिस न महराज, दू मिनट में  चटनी बनगे। निकालेंव कटोरी भर अऊ झोरेंव बासी ल, मोर आत्मा ठंडा होगे महराज ...........।
महराज  - ये तो सिल-लोड़हा ए रे नानजात, कहाँ शंकर भगवान ए।
यजमान - धो दे चिक्कन अऊ अइसे खड़ा कर दे तहन बनगे शंकर भगवान।
महराज  - अइसे का?
यजमान - ये दे हमर घर आगेन महराज।
महराज - लघिंयात आगेन बेटा। बातेबात म पता घलो नी चलिस रे।
यजमान - आव महराज। आव, ये दे करा बइठव।
महराज - सुन तो बेटा, पूजा के तइयारी ल जल्दी करते रे।
यजमान - हव महराज, जल्दी करत हँव।
महराज - जा जल्दी दीया बार के लान।
यजमान - (दीया के जगा चिमनी जलाके ले जथे) ये दे महराज लान  डरेंव।
महराज - ये कहाँ दीया ए रे ...... अइसन जगा म चिमनी काम नइ  आय। चिमनी ल गरूवा कोठा म जलाथे बाबू।
यजमान - तोला अंजोर से मतलब हे न महराज। दीया घलो अंजोर  करथे, चिमनी घलो अंजोर करथे  दूनों में का फरक हे  भला।
महराज - तभो ले बेटा, अइसन जगा माटी के दीया ह सोभा देथे रे .....
यजमान - ओतेक अकन माटीतेल भराय हे ते फोकट थोरे ए महराज।
महराज - लान रे परलोखिया कहींके। रख ये दे डाहर तोर ढिबरी ल
यजमान - ये दे, ले जल्दी पूजा-पाठ ल करव।
महराज - अरे एकठन जिनिस ल अऊ भुलागेंव बेटा।
यजमान - काय जिनिस ल भुलागेव महराज?
महराज - अरे ठाकुर जी ल भुलागेंव रे  ......।
यजमान - ये देखे न, उही पायके कथों मेंहा। घेरीबेरी रेंगई मोला पसंद नइये।  चरवाहा ल का मतलब भेजे के। खुद ठाकुर जी ल         आना रिहिस भई। (देखइया मन डाहर मुंहु करके)
महराज - में चरवाहा नोहंव रे, में ठाकुर जी के मूर्ति के बात करथौं बेटा।
यजमान - अच्छा मुर्गी के बात करथौ? ले जावत हौं लायबर। (चलदिस)
महराज - ला डरे बेटा, मिलिस रे?
यजमान - नी मिलिस महराज एक्कोठन। सफ्फा ढिला गेहे।
महराज - काय ढिला गेहे रे?
यजमान - मुर्गी ह महराज।
महराज - हतरे बइमान।
यजमान - तिही तो अइसने के हेस महराज।
महराज - में उसन नइ काहंव बेटा, ठाकुर जी के मूर्ति मने भगवान के  बात ए रे।
यजमान - त तुंहर ठाकुर जी भगवान ह बोलथे-गोठियाथे घलो महराज?
महराज - अरे हव रे।
यजमान - तुंहर भगवान ह बाहिर-बट्टा घलो जात होही न महराज?
महराज - ते दिमाग झन चांट रे। जा जल्दी ठाकुर जी ल लान।
यजमान - ले जावथौं महराज (चलदिस)।
महराज - अरे ठाकुर जी ल लान डरे बेटा, ले येदे  करा रख दे।
यजमान - हव महराज रखत हंव।
महराज - ले अगरबत्ती जला बेटा।
यजमान - हव महराज। (बीड़ी ल सुलगाथे)
महराज - ये काय रे बइहा, तोला अगरबत्ती जलायबर के हेंव न।
यजमान - बीड़ी ताय महराज। अगरबत्ती के कतेक धुआँ। हमला  धुआँ से मतलब हे।
महराज - हत्रे परलोखिया। यहा पनही ल पहिरके घला बइठगेहे।  निकालना एला रे। पूजा-पाठ के समे पनही नइ पहिरे बेटा।
जजमान - नवा चपपल ए न महराज। कुछू नइ होय। मन चंगा त कठौती म गंगा महराज।
महराज - वोला जान डरेंव बेटा। तभो ले धरम के काम म अइसन नइ  करे जाए रे।
जजमान - लेव महराज, जल्दी पूजापाठ ल सुरू करव।
महराज - हव बेटा, सुरू करतेच हंव रे (महराज ह पूजापाठ सुरू करथे)।
जजमान - पूजापाठ तो होगे महराज, अऊ का बांचे हे?
महराज - हवन करना हे बेटा।
जजमान - लेव महराज हवन के तैयारी घला हो गेहे, ये दे समानमन  माड़े हे।
महराज - (महराज ह मंतर पढ़के हवन सुरू करथे)
    ओम तमो मासे, आसढ़ मासे, सावन मासे, भ्राद्र मासे,  कुकरा मासे, कुकरी मासे, बोकरा मासे मिर्ची मसाला             समर्पयामि, स्वाहा ......।
जजमान - स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा।
जमादारिन - (देखइया मनके बीच ले गाना गावत-नाचत जमादारिन ह पहुँचथे)
    सोचने की लाख बातें, सोंचे इंसान ....
    होगा वही जो ...... चाहे भगवान ...
    होनी के हाथ में लेके खिलौना .....
    चाहे बचाए मुझे, चाहे मिटाए ......
महराज - (जमादारिन संग महराज ह गाना गावत नाचथे)
    चाहे बचाए मुझे चाहे मिटाए .......।
    सोचने की लाख बातें ...... सोचे इंसान .......
जजमान - ते सोजबाय हवन ल तो कर ले महराज, ताहने नाचत रहिबे   (महराज ल डेनियाके लेगथे अऊ बइठारथे)।
महराज - ओम तमो मासे, असाढ़ मासे, सावन मासे, भादो मासे,  कुंवार मासे, कातिक मासे, अग्हन मासे .... कुकरा  मासे,         कुकरी मासे, बोकरा मासे  मिर्ची मसाला समर्पयामि .....         स्वाहा ...........।
जजमान - स्वाहा - स्वाहा - स्वाहा .....।
जमादारिन - अई, इहां काय होथे महराज?
जजमान - (महराज के बोले के पहिली) इहाँ मासेच मास होथे वो।  लेबे का एकात किलो?
महराज - चुप रे बइमान, धन्य हे बिधाता अइसन भाग, जे  बपरी पूजा पाठ के बेरा आए हे तेकर सन दिल्लगी करथस बेटा।
जजमान - तिही तो मासेच मास केहेस महराज, ते पाय के कहि परेंव।
महराज - (जमादारिन डाहर मुंहु करके) तैं कोन जात अस बाई?
जमादारिन -हमन उत्तीम जात अन महराज
    (मजाक करत करत कहिथे)
महराज - अरे जाना रे, बइठे बर कहि लान बे, बपरी बर।
    (जजमान ल कहिथे)
जजमान  - पडऱी वाले कमरा ल लानत हौ महराज।
महराज - हव, ले जा, जल्दी लान।
जजमान - ले जाथो लायबर।
महराज - कस बाई तुमन कोन जात आव?
जमादारिन -में नीच जात ओं महराज।
महराज - (जजमान ल बुलावत कथे) अरे आरे, जल्दी आ रे, नीच जात ओं कथे रे, झन लान कहीं बइठेबर।
जजमान - (जावत रहिथे तेन लहूूट जाथे) ऐमन नीच जात ए महराज?
महराज - हव रे, सफ्फा छुआ जही रे। कस बाई, तुमन सिरतोन म  नीच जात अव ओ?
जमादारिन - हव महराज, में मेहतरीन अँव, गली साफ करइया। घर भीतरी के कचरा-मैला ल सकेल-बटोर के बाहिर डाहर  फेंकथौं महराज।
जजमान  - (देखइया मन डाहर मँुहु करके कहिथे) ये बाई ह घर के कचरा-मैला ल बाहिर म फेंकथे अऊ महराज ह बाहिर के ला सकेल बटोर के अपन घर म भितराथे। कस महराज?
महराज - अरे चुप रे, सोजबाय आरती के तैयारी कर, टेम होवत हेे।
जजमान - त आरती के तइयारी करन महराज?
महराज - हव बेटा जल्दी तइयारी कर।
जजमान - आरती के तइयारी होगे महराज। ये दे उतारत हँव
    रनबन रन     बन हो,
    तुम खेलव दुुलरवा .......
    रन बन रन बन हो .......        
    हात, हात, हात ।
    (गाना गावत अपन खुद के आरती उतारथे)
महराज - अरे येला नी गाय बेटा।
जजमान - भोरहा होगे महराज। ले दूसरा सुनात हंव।
महराज - ले सुना डार।
जजमान - गउरा सुते, मोर गउरी सुते, हो सुते वो सहर के लोग  बाजा सुते, मोहरी सुते, सुते हो बजइया लोग  दुधनुक धुंग-धुंग चक, दुधनुक धुंग-धुंग चक
महराज - अरे उसन आरती नइ उतारे रे। सुंदर ठाकुर जी खुस होय तइसन आरती उतारथे बेटा। अइसे ..... (आरती उतार के बताथे)
जमादारिन     - महूँ आरती करन लगव का महराज?
महराज - अहाँ ह ह ...... । तोर कोई जरूरत नइये आय के। तें दुरिहा घुंच के रहा। अरे खेदार तो ऐला रे, हमरे डाहन आये ला धरत हे। सफ्फा छुआ जही बेटा।
जजमान -  ए बाई तै दुरिहा घुंच के रहा। कहीं जिनिस ल छुबे झन। बिन बलाय आगेहस अऊ तोरे कहाँ के।
जमादारिन - छूबो, छूबो, छूबो, छूये सरीक छुबो रे। जेन ल मानना हे ते मानत राहव रे छुआ।
महराज  - ला बेटा, जल्दी आरती सुरू करथन रे।
जजमान - हव महराज।
महराज - (महराज शंख बजाय के बाद आरती शुरू करथे) फंू फंू .
जजमान - महराज उल्लू हे, महराज उल्लू हे।
महराज - काय रे?
जजमान - महराज उल्लू हे।
महराज - मोला उल्लू कथस रे, नानजात।
जजमान - अभी नरियाइस तेला काहत हँव महराज।
महराज - वो उल्लू नोहे बेटा, ये शंख के अवाज ए, शंख के।
जजमान - अइसे का, हम उल्लू समझत रेहेन।
महराज - पूजा पाठ तो होगे बेटा, चढ़ोत्तरी चढ़ा दे रे ....।
जजमान - अरे चढ़ोत्तरी घलो चढ़ायबर लागथे महराज। मोर करा तो भोंगरी कउड़ी नइये महराज।
महराज - सिरतोन म एक्को पइसा न धरे हस रे?
जजमान - गउ इमान से महराज नी धरे हंव भई।
महराज - धरे होबे रे बइमान। लबारी मारथस का रे? देखा (महराज जजमान के थैली में हाथ डालके देखथे)।
जजमान - नइये न महराज, देखे त बिसवास होइस।
महराज - अरे हव रे, कहीं भोंगरी नइये।
जमादारिन - में पइसा चढ़ांव का महराज? (पइसा ल महराज ल  देखाथे)
महराज - अइसे, चढ़ा सकत हस। ले दे (पइसा बर हाथ ल लमाथे)
जमादारिन - ये ले महराज (पइसा दे के ओखी करत फेर टुहू देखाथे)
महराज - दे न पइसा ल वो, ठाकुर जी में चढ़ा दे (महराज पइसा ल देखके ललचाथे)।
जमादारिन -ये दे महराज (टूहू देखाथे)।
महराज -     देस न दुवास मुँहु ल पंछावत हस
    रहि-रहिके नोट ल देखावत हस
    दे पइसा ल (झपट के रख ले थे)।
जजमान - देखे महराज ल, अब तोला छुआ नइ लागिस?
    कतिक देखाइस गुस्सा अऊ लात
    नोट ल देखिस ताहन भुलागे जात अऊ पात।
महराज - पइसा में छुआ नइ लागय रे। ले परसाद ल झोंक बेटा।
जजमान - हव महराज, ले देवव परसाद ल।
जमादारिन - देव न महराज, महूँ ल परसाद। में तो आरती म पइसा घला चढ़ाये हंव।
महराज - ले झोंक (परसाद देय ल धरथे)।
जमादारिन - ले देवव महराज, परसाद (महराज ल छुए ल धरथे)।
महराज - अरे आ रे, मोर सन नइ संभले बेटा। एला तिही बांट रे। छुए ल धरथे। में छुआ जाहँव बेटा। ये ले परसाद ल लेग। दूरिहा ले बांटबे। छुआए झन।
जजमान - महराज कर चलिस ते चलिस। मोर करा नइ चले तोर  हुसियारी ह (परसाद के थारी ल धरके बांटे बर धरथे)
जमादारिन - ले देवव परसाद (थारी ल छुवे ल धरथे)।
जजमान - ये दे, ले झोंक (परसाद ल दे असन करथे अऊ अपने खा देथे)।
महराज - थोर बेर होगे। देखथों तेहा, दे असन करथे अऊ अपने मुंहु  डाहर ओइलाथे (जजमान ल कथे) दे न ऐला परसाद ल रे, चल झोंक, नीच कहिंके।
जमादारिन - कस महराज, बड़ बेर होगे। जतिक बेर के आय हँव  ततिक बेर के मोला नीच-नीच कहाथस।
महराज - हव नीच अस, एक बेर नीही, पचास बेर कहिबो - नीच,  नीच नीच ......
जमादारिन - में कइसे नीच अँव तेला बता महराज।
महराज - दुनिया भर के मैला ल साफ करथस तेखर सेती नीच अस।
जमादारिन - कस महराज ये दुनिया भर के गंदगी अऊ मैला ल कोन  फइलाथे जानथो? तुंहरे असन बड़े आदमी मन। तेन ल हमन साफ करथन। मैला अऊ गंदगी कथस काकर सरीर में मैला नइये महराज। उही मैला में सरी चीज उपजथे।
महराज - अच्छा - कइसे?
जमादारिन - (गाना गा के बताथे)
    खातू म उपजे धान कोदइया, मैला म आलू फरे
    मल-मूत्र खुसरे पेट भीतर, बाहिर बर साबुन धरे
    फेर छुआल काबर डरे ......
    सुनथस महराज ......
महराज - सुनथंव सुनथंव
जमादारिन -
    एक्के तरिया म बाव्हन कनौजिया जम्मो असनान करे,
    जम्मो जात पानी म थूंकय ते कामा भेद करे ........
    सुनथव निही महराज
महराज - सुनथंव सुनथंव ....
जमादारिन - कस महराज तुमन घेरी बेरी मोला नीच काहत रेहेव तुमन         कोन घराना केव महराज?
महराज -  हमन उत्तीम घराना केन।
जमादारिन - जानथांै तुंहर उत्तीम घराना ल महराज।
महराज - काय जानथस, काय जानथस?
जमादारिन - हम सब जानथन महराज।
महराज - ले बता।
जमादारिन - ले सुन। (गाना गाथे)
    मुनी परासर ल जग जानिन .......
महराज -  हाँ हमन उही घराना केन वो .....
जमादारिन - अऊ सुन महराज .....
    मुनी परासर ल जग जानिन
    तेखर दाई जमादारिन ......
महराज - अँ ह, मे ह वइसन नो हंव ........
जमादारिन - फरक खागे का महराज ? अऊ सुन -
    मुनी परासर ल जग जानिन
    तेखर दाई जमादारिन।
    जनम धरिन हे नीच पेट ले
    सुनत अचंभा छाय
    ले महराज बता देहु तुंहर कोन घराना आए।
महराज - हम नोंहन वो घराना के।
जमादारिन - (शंख ल धर के पूछथे)
    ये काय महराज बछरू के थोथना कस दिखथे-
महराज - अहा शंख ल छूदिस रे। सफ्फा छुआगे रे - अरे आतो रे (जजमान ल बलावत कथे)
जजमान - ए बाई शंख ल सोजबाय राख। नीच कहींके
जमादारिन - नीच कथस, ले परसाद बाहरी के मुठिया के (बाहरी ले मारथे)
महराज - अरे तहूँ छुवागेस बेटा। तोला बाहरी लग गे रे। तोल बानबरस जाये ल पढ़ही बेटा। तभे तोर कल्याण होही रे।
जमादारिन - अऊ का काहथौं तेला सुनव महराज (ठाकुर जी ल धर लेथे)
महराज - अरे मोर ठाकुर जी घलो छुआगे बेटा। दुरिहा घुंच के रहा रे नीच मोरे डाहर आथस।
जमादारिन - मोला नीच कथस महराज तुंहर कोन घराना ए तेला सुन
महराज - सुनाना त, हम उत्तीम घराना केन।
जमादारिन - जात सिकारी ल नीच बताथे, देखब म महराज छुवाथे।
    तउने के लइका बाल्मिकी ए, एखर ज्ञान सुहाय ........
    ले महराज बता देहूं तुंहर
महराज - हम नोहन उसन घराना के .....।
जमादारिन - एखर आगू अऊ काहे तेन ल सुन महराज।
महराज - ले सुना ....।
जमादारिन - ब्यास मुनी महभारत गाइस, ब्रम्ह ज्ञान के देव कहाइस
    ब्रम्ह रिसी जेला काहत लागे, जातन में फरक खाए
    ले महराज बता देहू .........
महराज -  भइगे, बंद कर तोर महभारत ल
जमादारिन - अऊ बांचे हे, सुन ऐती .......।
    (महराज ऊपर चरिहा के कचरा ल खपलथे अऊ बाहरी म मारथे)
महराज - हे भगवान, सफ्फा मोर ऊपर कचरा ल खपल दिस रे। यहा बाहरी में घलो मारदिस बेटा। महूँ छुआगेंव रे ....।
जजमान - अरे, तहू, छुआगेस महराज।
महराज - हव बेटा, छुवागेंव रे ....।
जजमान - अब तो दूनोझन एके होगेन महराज। मोला बानबरस जाय ल पड़ही काहत रेहेस न, तोला तो चरिहा अऊ बाहरी दूनों लगे हे। तंय तो कालापानी जाबे महराज।
महराज - अरे चुप रे .... बइमान।
जमादारिन - अऊ बताथों महराज तुमन कोन घराना केव तेन ल।
    दासी के बेटा मुनि नारद, अइसे होइस ज्ञान बिसारद
    'स्वर्ण' छुआ में झन हो गारद, भेद बिगड़ते जाए
    ले महराज बता देहू  तुंहर कोन घराना आए......
जजमान - दूनोझन छुआगेन महराज।
महराज - दूनोझन छुआगेन बेटा। हमर ठाकुर जी घलो छुआगे रे .....।
जजमान - मोला तो बाहरी भर म परिस अऊ तोला तो बाहरी अऊ चरिहा दूनों में परगे महराज।
महराज - बेटा ए बाहरी के मार नोंहे रे। ये ह ज्ञान के मार आए। आज मोर आँखी खुलगे रे।
जजमान - सिरतोन काहत हस महराज। ये मार ह ज्ञान के मार आए?
महराज - सही म हम सब के सरीर मे एके हाड़ मास हे रे। जात-पात उंच-नीच ले बड़का मनखे धरम होथे बेटा। गाँधीजी घला हमर देश ल अजाद करायबर भिड़े हे, अऊ छुआछुत भेदभाव  ल मिटा के जुरमिल के रेहे के संदेश देथे रे।   
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