सोमवार, 22 जनवरी 2018

कविता

तीन कविताएँ


1. दिन का समय-सारणी

आदतन
हर सुबह की शुरुआत हम
पूजा की आरती की तरह
किसी अधिनायक की अभ्यर्थना से करते हैं

और इसी तरह
फिर दूसरे दिन की सुबह हो जाने तक
भूखे-नंगे, निचुड़ चुके जन के तंत्र को
फिर-फिर निचोड़नेवालों की ’सेवा में’
’नम्र निवेदन है’ से लेकर
’असीम कृपा हो’, की उक्ति के बीच के शब्दों में
खुद को नग्न गुलाम की तरह पेश करते चलते हैं

सही और साफ शब्दों में कहूँ?
दिन बदलते हैं
तारीखे बदलती है
मुखौटे की तरह जिसे धारणकर
काल और परिस्थियाँ बदलती है

और इसी तरह
तलवे चाटने की प्रतियोगिता का
प्रथम पुरस्कार मांगने की
हमारी अदाएँ भी बदलती हैं।
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2. जो है, जैसा है

अभी यहाँ जो है, जैसा है
अभी और यहाँ के हिसाब से है
अभी यहाँ जो है, जैसा है
कुछ-कुछ ही सही, यदि बदल सके
तो सब कुछ बदल सकता है।
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3. घटना और घटाना

घटना
कभी-कभी घटनेवाली
प्राकृतिक आपदाएँ होती हैं

घटाना
सतत चलनेवाली
राजनीतिक अदाएँ होती हैं

और आज की कहें तो
घटना और घटाना
एक खेल की तरह है
जिसमें अपार संभावनाएँ होती हैं।
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