गुरुवार, 25 जनवरी 2018

कविता

सरके दिमागवालों का सपना

पता नहीं
बुद्धि कभी-कभी इस तरह क्यों भटक जाती है
कभी घास चरने वली जाती है 
तो कभी पल भर में  इंगलैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया
और न जाने कहाँ-कहाँ की सैर कर आती है

न कहीं कोई रोकता-टोकता है
और न कहीं कोई पकड़कर जेल में ठूँसता है
धेला भी एक खर्च नहीं होता है 
और विश्व नागरिक होने का गुमान भी होता है

घरवाली कहती है -
’अरे! सठिया गये हो
या सरक गया है तुम्हार दिमाग
घर से बाहर न तो कभी निकले
न कहीं घूमते-घुमाते हो
अच्छे-खासे दिन का जबरन वाट लगाते हो।’

घरवाली का कहना जायज है
पर मुझे पता है
सरके दिमागवालों का सपना
कभी न कभी हकीकत में जरूर बदलता है।
000kuber000

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