बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

कविता संग्रह

प्रकाशन की प्रक्रिया में कविता संग्रह -  "कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय"  की पाण्डुलिपि

कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय

 ( कविता संग्रह )

कुबेर





कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय
 (कविता संग्रह)


कुबेर



सर्वाधिकार: लेखकाधीन

प्रथम संस्करण:

प्रकाशक


मुद्रक

आवरण

मूल्य: रू. 150



.... स्वस्ति संवाद ....

मित्रों, यह प्रकृति की परम शक्ति है और जग-जीवन में उसकी सर्वोपरि उपस्थिति है। सृष्टि के पंचतत्व - धरती, आकाश, पवन, पानी और पावक उसके ही उपादान हैं। वस्तुतः, यह धरती प्रकृति की ही अभिराम अभिव्यक्ति है। मनुष्य इस जैव-जगत का केन्द्र बिंदु है। एतदर्थ, यह कहा जा सकता है कि  प्रकृति और मनुष्य का नाभी-नाल संबंध है और उनमें गहन अंतरावलंबन भी है। लोक हितैषिता के लिए यह आदर्शतम अनुबंधन वरेण्य है। सच मानिए, जब तक इन घटकों में समरसता और संतुलन बना रहेगा, यह दुनिया खुबसूरत और खुशगवार बनी रहेगी।
इधर, विगत कुछ शताब्दियों से दुनिया का परिदृश्य बदल रहा है, विकृत हो रहा है। व्यावसायिक जगत के बिजूकों और विज्ञान के बाजीगरों ने पूरी दुनिया को ’विश्वग्राम’ बनाने के बहाने कसाईबाड़ा या कूड़ादान बनाने का निकृष्टतम कार्य कर दिखाया है। सियासतदारों ने भी इस जन-विरोधी कार्य में उनका बखूबी साथ निभाया है। नतीजतन, यह दुनिया बड़ी तेजी से बाजार में तब्दील होती जा रही है और आम आदमी खरीद-फरोख्त के सामान की मानिंद बिकाऊ होता जा रहा है। यह परिवर्तन है या इतिहास की अंगड़ाई या मतलबजदा तिजारतदारों और बहशी बाहुबलियों की दरींदगी। आखिर, हमारा समाज चुप क्यों है? क्या हो गया है उसके ज़मीर को? वह अपने जाने-चीन्हे दुश्मनों से जूझने का साहस क्यों नहीं कर दिखाता? क्यों उसका वजूद बेसूझ अंधेरे में गुम होता जा रहा है? ये सभी सुलगते हुए सवाल हैं जिनके हल की तलाश का अंजाम है - ’’कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय’’।

भाई कुबेर की छप्पन कविताओं की यह किताब मानव अस्मिता की रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए उत्पीड़ित मानवता तक पहुँचने की प्रभावी पहल ही नहीं, प्रत्युत आदमियत के गुनहगारों से जंग छेड़ने का अभियान भी है। इस संकलन की कविताएँ कृशकाय किसानों और मेहनतकश मज़दूरों के श्रम-सीकरों से जन्मी ऊर्जा से लबरेज़ हैं। मेरी समझ में कुबेर की कविताएँ ’चकमक के पत्थर की मानिंद’ हैं, जिन्हें उछालो तो आतताइयों के सर फट जायेंगे और रगड़ो तो गरीबों के चूल्हों में आग सुलग जायेगी। कुबेर की ज्योतिर्वाही कविताएँ चंचल और वाक्पटु हैं। आप इन्हें आवाज दीजिए ........ बोलने लगेंगी, बतियाएँगी और जन जीवन की जटिलताओं को सरल-तरल बनाने का जतन करेंगी।

कुबेर के रचना-संस्कारों को राजनांदगाँव की सुरमयी माटी ने सिरजा है फलतः उनमें बख्शी, मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल के काव्य संस्कार भी समाहित हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है, समकालीन हिन्दी कविता संसार में ओज और पुरोगामी विचारों के कवि कुबेर का यथोचित सम्मान होगा और उनकी कविताएँ बेहतर समाज की निर्मिति में समर्थ सिद्ध होंगी। इत्यर्थ, रचनाकार को मेरी अशेष मंगलकामनाएँ एवं हार्दिक बधाई! इति, शुभम ..........


भवदीय
(डाॅ. बिहारीलाल साहू)
9425250599, 769305059






मेरी बात 

समय के किसी खण्ड में एक साथ होना या एक साथ पाया जाना शायद समकालीन होना कहा जाता है। हमारे पहाड़ और हमारी नदियाँ सदियों से न जाने कितनी सभ्यताओं, कितनी पीढ़ियों और कितनी जातियों के समकालीन रहे हैं। ये अपने युग के प्रकाश और अंधकार - दोनों के भी समकालीन रहे हैं। ये भी अपने युग का इतिहास लिखते हैं। इन्हांेने अपने युग का इतिहास लिखते समय अपने उस काल के प्रकाश का ही नहीं, अंधकार का भी इतिहास लिखा है। इन्होंने  मनुष्य का भी इतिहास लिखा है, परन्तु अपनी भाषा में। इनका लिखा इतिहास और साहित्य उस दौर के इतिहासकारों और साहित्यिकों द्वारा लिखे इतिहास और साहित्य के समकालीन ही हैं और इनका लेखन इनसे कहीं अधिक यथार्थपरक, अधिक प्रमाणिक, अधिक प्राकृतिक और अधिक कलात्मक भी हैं। परन्तु प्रकृति की भाषा मनुष्य की भाषा नहीं है। इसे मानवीय भाषा में रूपान्तरित करना आसान भी नहीं है। इसीलिए मनुष्य द्वारा अपनी भाषा में लिखा गया अपना इतिहास और अपना साहित्य ही मनुष्य का अपना इतिहास और अपना साहित्य है। मनुष्य अपना इतिहास लिखते हुए प्रकृति लिखित इतिहास की अनदेखी नहीं कर सकता, न हीं करना चाहिए। कुछ भी हो, पर इससे इतना तो तय होता है कि समकालीन साहित्य प्रमाणिक और प्राकृतिक होना चाहिए। समकालीन साहित्य में न केवल प्रकाश अपितु अंधकार की भी पड़ताल होनी चाहिए। इसकी भाषा मनुष्य की भाषा होनी चाहिए। उस समय की सच्चाई और युगीन यथार्थ की उपेक्षा करके यह संभव नहीं है। उस समय के अंधकार की उपेक्षा करके भी यह संभव नहीं है।

ताप और गतिशीलता जीवन की पहचान है। इससे जीवन की पुष्टि और परख होती है। जीवन में ताप और गतिशीलता पैदा करना भी समकालीन साहित्य का उत्तरदायित्व है। ताप के लिए आग की जरूरत होती है। सारी सभ्यताओं के मूल में आग ही है। आग इंधन के जलने से पैदा होती है। जीवन की आग विचार रूपी इंधन से उत्पन्न आग होती है। जीवन में गतिशीलता लाने के लिए नये और बेहतर का अनुसंधान जरूरी है। इसके लिए जरूरी ऊर्जा विचारों की आग से आती है। विचार एक तरंग है। तरंग और विक्षोभ पैदा करने के लिए निर्दिष्ट स्थान पर उचित आघात आवश्यक है। यह प्रयास भी समकालीन साहित्य का उत्तरदायित्व है।

इस संग्रह में संकलित कविता ’अभिलाषा इतिहास की’ आरंभिक दिनों में लिखी गई कविता है जिसे परिमार्जित करके संकलित किया गया है। अन्य कविताएँ विगत छः वर्षों के अंतराल की मेरी वैचारिक संघर्ष की उपज है। उम्मीद है, आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

मैं अग्रजतुल्य आदरणीय डाॅ.बिहारीलाल साहू,हितचिंतक डाॅ. नरेश कुमार वर्मा तथा अपने मित्रों का आभारी हूँ; जिनका इस संग्रह के प्रकाशन में विशेष योगदान रहा।  
कुबेर
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अनुक्रम

01 पता-ठिकाना
02 बचपन
03 खाद्य-श्रृँखला
04 मछंदर
05 पानी
06 सुनोगे
07 बच के रहना
08 रात
09 यात्रा
10 प्रिय
11 सोचें
12 अप्राप्य
13 अभिलाषा इतिहास की
14 और कितने सबूत चाहिये
15 अपराधी
16 भाया बहुत गड़बड़ है
17 क और ख
18 अपनी वही तो दुनिया है
19 ऐसा क्यों है
20 वह-1, वह-2, वह-3
21 अथवा
22 ऐसा हमारा वर्तमान कहता है
23 पता होना जरूरी है
24 वह शब्द है
25 तंत्र और जनतंत्र
26 रोटी का गोल होना
27 प्रश्नों का सूखा
28 पूरा घर
29 बहुत सारी बातें, बहुत तरीकों से
30 मनुष्यों की आमद बंद क्यों है
31 कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय
32 पंचभूतों की प्रवृत्तियाँ
33 आज का समय खतरों से भरा समय है
34 प्रेम और ईश्वर
35 सफाईवाली से साक्षातकार
36 सच होती एक उक्ति
37 ब्रह्माण्ड का पहला इतिहास
38 मुझे सजा लेना चाहते हो
39 बस
40 व्युत्क्रम अनुपात
41 यह, वह समय नहीं है
42 इसी शहर में
43 विचार
44 सरकार ताप से डरती है
45 गोल-गोल घानी, ठाँय-ठाँय पानी
46 भक्त या गुलाम
47 आदमी की कोटियाँ
48 पृथ्वी का भार ढोते हैं श्रमशील मनुष्य
49 समाधान
50 मुँह उद्योग
51 इसे जला दो
52 भीड़ और जानवर
53 चिुतागुफा के लोग
54 पहले यहाँ पर
55 कन्फेशन
56 शव परीक्षण का रिपोर्ट कार्ड              
     
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पता-ठिकाना

राजा महलों में रहता है
नेता, अफसर, मंत्री बँगलों में रहते हैं
लोग घरों में,
और गरीब - बस्तियों में रहते हैं
गटर और गंदे नालों के किनारे,
झोपड़पट्टियों में
तपते-सिंकते अभावों की भट्ठियों में।

आदमी का पता मैं नहीं जानता,
मिला नहीं कभी उससे,
कि, इसीलिये उसे नहीं पहचानता।

मिला तो ईश्वर से भी नहीं हूँ,
पर लोग कहते हैं -
’’वह रहता है आसमान की ऊँंचाईयों में कहीं;
स्वर्ग नामक स्थान पर।’’

आदमी का पता कोई नहीं बताता;
आदमी के विषय में कोई अभिलेख
कोई शिलालेख,
कोई ग्रंथ, कोई पंथ
कोई भी जानकारी शायद उपलब्ध नहीं है आज
पृथ्वी नामक इस ग्रह पर।
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बचपन

जगह-जगह बिखरे कचरे के ढेर में
भविष्य तलाशता बचपन
उलझा जीवन के सवालों के फेर में।

उसकी दुनिया में न रायपुर है, न दिल्ली है,
न वाशिंगटन, न हेग है
सिर्फ वह है, कचरे का ढेर है
और कचरे के ढेर में पलता
उसका बीते भर का पेट है।

तन पर मैल की परतें हैं
और इन परतों की मोटाई को बढ़ाता
जमाने भर का धूल है
आँखें उनकी,
जैसे शून्य में खिला
इस ब्रह्माण्ड का कोई अनोखा फूल है
जिसकी महक और रंग
अब तक अचिन्हा है
उपमा, अलंकार, छंद और रसहीना है।

कचरे ने सिरजा उसे
अब वह कचरे को सिरज रहा है
दुनिया उसे कचरे की तरह
और दुनिया को वह
कचरे की तरह निरख रहा है।

गली में कचरा, घर में कचरा
बाजार में कचरा, दफ्तर में कचरा
सड़क और सदन में भी कचरा है
पता नहीं किसका किया,
कैसा यह लफड़ा है।

दुनिया ने छीन कर उसकी खुशियाँ
कचरे में फेंक दी है
एक-एक कर टुकड़ों में, किश्तों में
जिसे वह चुन रहा है,
सपनों की दुनिया नई बुन रहा है।

उसकी पीठ पर सवार टाट का यह थैला
थैला नहीं बेताल है
गूढ जिसका हर सवाल है
जिससे सदियों से वह अकेला जूझ रहा है
इन बेताली सवालों को
पूरे मनोयोग से बूझ रहा है।

अब
इन बेताली सवालों से आपको भी जूझना होगा
दुनिया को कचरा होने से बचाने के लिए
दुनिया को कचरा होने से बचाने की
उनकी लड़ाई में आपको भी कूदना होगा।
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खाद्य-श्रृँखला

लोग कहते हैं -
ईश्वर सबको देता है
सब उन्हीं का दिया खाते हैं।

मनुष्य का जूठा कुत्ते खाते हैं,
उससे बचा सूअर खाते हैं।

कुछ नंगे-अधनंगे बच्चों को भी देखा है मैंने
जूठे पत्तलों के ढेर पर
जूठे पत्तलों को चाँटते हुए,
जूठे पत्तलों को चाँटने के लिए
कुत्तों और सूअरों से संघर्ष करते हुए
और इस तरह
अपना हिस्सा छीनते हुए या बाँटते हुए।

और तब भी
सारे ग्रंथ और सारे पंथ यही कहते हैं
ईश्वर सबको देता है,
सब उन्हीं का दिया खाते हंै।
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मछंदर

मछंदर एक,
जाल रहा फेंक,
समंदर में।

जाल अतिविशाल, करता दिगन्त आक्रान्त
लपलपाता गिरता छपाक
लक्ष्य रहा ताक
हिंस्र, शिकारी जानवर की तरह।
सारे सागरों, महासागरों
समस्त नदियों, झीलों और तालों को
सारे जलचरों, थलचरों को लीलने
अपने विशाल मुख-विवर में।

जाल की बनावट और बुनावट अत्याधुनिक
अतिविकसित तकनीक, स्वर्ण तारों से बना
पश्चिम से पूरब की ओर तना
ऐश्वर्य-अलीक से लुभाता
वर्षों से मानस उदर में उतराता।

करता आखेट विश्व-मानस-वन में
प्रहार शत-सघन जन-मन में
तीर होता पार नैतिकता के सीने से
सारे मूल्यों का करता पान, भक्षण भावों का
लुत्फ लेता मानवीय आहों-कराहों का
करता अट्टहास, बढ़ता आता सवार
विकराल दम्भ-लहरों में।
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पानीह

कुछ दिन पहले तक यहाँ
पानी की कोई कमी नहीं थी
अब हम बे-पानी हो चुके हैं
विगत की कहानी हो चुके हैं।

पानी ढूँढना पड़ता है अब
चिराग लेकर गाँव-गाँव, शहर-शहर
पानी मिलता तो है
पर यदाकदा
जीवाश्म की शक्ल में।

किसने सोचा था
कि इतने जल्दी हम बे-पानी हो जायेंगे?
विगत की कहानी हो जायेंगे।

कोई था जो सशंकित था
और चेताया भी था
’’सदा राखिये पानी’’।

हमने समझा इस चेतावनी को
एक असभ्य का गैर-जरूरी प्रलाप
और गुजर जाने दिया सिर से
क्योंकि
सभ्य बनने के लिये हमें पानी की नहीं
पैसों की जरूरत थी?

हमने गिरवी रख दिया
प्रकृति के इस अनुपम,
अमूल्य उपहार को
पैसों के लिये
तथाकथित पैसेवालों के पास।

अब हमने समझा है
’’बिन पानी सब सून’’ के अर्थ को।

पानी जरूरी है, -
सभ्यता और संस्कार के लिए
आदमी होने और
आदमी-सा व्यवहार के लिए
परिवार, समाज और संसार के लिए।

पर हमारा पानी कब का चुक चुका है
शेष रह गई है -
प्लास्टिक की मल्टीनेशनल बोतलें
कूड़ों के ढेर की शक्ल में।
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सुनोगे

आखिर अपनी कविताएँ किसे सुनाऊँ?

झोपड़ियों से पूछा -
’’क्या तुम मेरी कविताएँ सुनोगे?’’

उन्होंने कहा-
’’हुजूर, क्यों नहीं?
सुनना और सिर धुनना
यह तो हमारी विरासत,
हमारी मजबूरी है
सुनाइये,
जरूर सुनेंगे, आपकी कविता
यदि,
यह रोटी से ज्यादा कीमती और ज्यादा जरूरी है।

भाषण और आश्वाशन की मार वर्षों से झेल रहे हैं
तुम्हारी कविता का असर भी देखेंगे
आज की शाम चूल्हे से धुआँ उठे, न उठे
पेट की आग बुझे, न बुझे
पर,
क्योंकि कविता
सभ्यता और संस्कारों की निशानी है
इसलिये सभ्यता और संस्कृति के नाम पर,
एक सपना आज फिर बुनेंगे
आपकी कविता जरूर सुनेंगे।’’

वहीं दाना चुगते
मस्ती और उमंग से चहकते
खुशियों के राग गाते, चहचहाते
विहग-वृंद से पूछा -
’’क्या तुम मेरी कविताएँ सुनोगे?’’

पक्षियों ने चहकना, गाना और गुनगुनाना छोड़
पैरों के पास पड़े दानों को चुगना छोड़
सहमी निगाहों, काँपती आवाजों में कहा -
’’क्या आपकी कविता
झरनों की कलकल-सी मधुर है?
नदियों की छलछल-सी निर्मल है?
चैकड़ी भरते हिरणों की आँखों-सी निश्च्छल है?
सदियों से सड़ते रूढ़ आदर्शों,
उधार लिये
या चुराये गये विचारों के जंजालों
और शब्दों के मकड़जालों से मुक्त है?

क्या इनमें प्रेम और करूणा के आलाप हैं?
स्वतंत्रता और समानता के राग हैं?
तो सुनाइये, जरूर सुनेंगे
मनुष्य बनने की प्रक्रिया से हम भी गुजरेंगे।’’

बड़े प्रश्न दागे थे नन्हीं चिड़ियों ने
नहीं थी जिसकी मुझे कल्पना
नहीं था जिसके लिए मैं तैयार
न बचाव, न आत्मरक्षा के लिए
और न उनके सवालों के तीक्ष्ण तीरों के लिए
जो बेध गए मेरे हृदय को
आहत हो गई मेरी आत्मा।

तभी दिखा मुझे एक खंडहर-सभंग
समय के प्रबल प्रहारों को झेलता
उसके तीक्ष्ण आयुधों की मार सहता
सतत् संघर्षरत, युगों-युगों से
र्निआयुध, निःसंग।

जमीन से उखाड़ फेंकने की
लाख कोशिशों, कुःचेष्टाओं के बावजूद
जमीन से टिका हुआ, जुड़ा हुआ
अस्तित्व के लिए संघर्ष करता, अडिग खड़ा।

मैंने इनसे भी पूछा -
’’क्या तुम मेरी कविताएँ सुनोगे?’’

घने अंघकार की सदियों मोटी परतों के अंतरंग से प्रसूत      
रात के आदिम, पारंपरिक सन्नाटे को बेधती,
झिंगुरों की तीखी कर्कश आवाजों से बेअसर
प्रतिक्रियाशून्य
अतीत के उस वैभव से
मैंने फिर पूछा -
’’क्या तुम मेरी कविताएँ सुनोगे?’’

अब की बार हुआ वह गतिमान,
देखा मैंने उसका भावशून्य चेहरा
आँखें, अंतहीन गहरे, पथरीले अंधकूप के प्रतिमान
उखड़ते शब्दों, वितृष्ण भावों से उसने कहा -
’’रोटी लाये हो?
देखो-
मेरी आँतें कब की सूख चुकी हैं।

मरहम लाये हो?
जमाने के प्रबल प्रहारों से
मेरी पसलियाँ बुरी तरह दरक चुकी हैं।

वस्त्र लाये हो?
युगों से शीत-घाम सहते
मेरे शरीर की कोशिकाएँ पथरा चुकी हैं,
या
फिर आये हो, स्वर्ग-नर्क का भय दिखाने
पाप-पुण्य का पाठ पढ़ाने
मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति का लोभ दिखाने
धर्म-अधर्म की व्याख्या-व्याख्यानों से
शब्दाडम्बर का जाल बिछाने?

तो माफ कीजिये -
सदियों से सुन रहा हूँ ऐसी कविताएँ
अब नहीं सुनुँगा
सदियों से छलता आ रहा हूँ
अब नहीं छलुँगा
आपकी ऐसी कविताएँ
अब मैं हरगिज, हरगिज नहीं सुनुँगा।’’
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बच के रहना 

’’लगता है
इस शहर में नये हो?’’

’’तो?’’

’’तो भाई मेरे, बचके रहना -
सड़कों पर घूम रहे
आवारा-पालतू पशुओं के
बड़े-बड़े नुकीले सींगों से
तीक्ष्ण दाँतोंवाले
जीभ लपलपाते
लार टपकाते
अतिशक्तिशाली, उन्नत घ्राणेंद्रियोंवाले
पागल कुत्तों के झुण्डों से,
बचके रहना।

यहाँ अंधेरे की चिंता न करना
पर रोशनी से नहाये बस्तियों से गुजरते हुए
जरा बचके रहना।

भवनों-दुकानों
और सड़कों के किनारे
सूचनाएँ देनेवाली
ज्ञान बढ़ानेवाली छोटी-बड़ी
असरकारी-सरकारी या गैरसरकारी
विज्ञापन तख्तियों से
सही रास्ता और उचित सलाह बतानेवाले
निकट का रिश्ता जोड़ने और मीठे बोलनेवाले
यहाँ के सभ्य, शिष्ट और सुसंस्कृत लगते नागरिकों से
बचके रहना।

कानून बनानेवालों से
कानून मनवानेवालों से
और कानून का शासन चलानेवालों से
यहाँ जरा बचके रहना।’’

अब
मुझे रात से डर लगने लगा है
इसलिये नहीं कि रात में अंधेरा घना होता है
झिंगुरों की आवाजें मस्तिष्क को बेधती हैं
बुरी आत्माओं के वास होते हैं
पिशाच, शैतान, जिन्न या ब्रह्मराक्षस
गर्म, ताजा इन्सानी खून ढूँढ रहे होते हैं।

इसलिये भी नहीं, कि -
डाकू और हत्यारे रात में ही निकलते हैं
अपने शिकार की तलाश में।

इसलिये कि -
रात का अंधकार अब बाहर नहीं
मनुष्य के हृदय में, भावों में
मन की तरल तरंगों में
अेोर आत्मा की अतल गहराइयों में पसर चुकी है।

और इसलिये भी कि -
पिशाच, शैतान, जिन्न और ब्रह्मराक्षस
सबने लगा रखे हैं मुखौटे
शिष्टता के, सभ्यता के, मानवता के।
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प्रिय

प्रिय उत्तर-आधुनिक साथियों
तुम्हें कविता से कोई सरोकार नहीं?
कविता तुम्हारे लिये बेकार और त्याज्य है
संवेदना और नैतिकता की तरह
इसलिये कि - कविता एक परंपरा है
और इसलिये भी कि - इसमें संस्कार और सभ्यता है?
तुम्हें ’यथार्थ’ और ’नग्नता’ पसंद है?
तो आओ, बातें करें ’यथार्थ की नग्नता’ की
और ’नग्नता के यथार्थ’ की
अपने-अपने स्वार्थ की।
पृथ्वी, जल, अग्नि, व्योम और वायु
हमारे लिए पूज्य हैं, तुम्हारे लिए भोज्य हैं
हमारे लिए श्रद्धा हैं
तुम्हारे लिऐ विलोम या योज्य हैं।
मनुष्य पशुओं से भिन्न है
क्योंकि उसमें विवेक है
करूणा, दया, प्रेम और मर्यादा का ज्ञान है
रिश्तों-नातों की पहचान है।
अरे, मानव भक्षियों
इन मूल्यों से न फिरो
पशुओं से भी नीचे न गिरो।
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सोचें

आओ, सोचें!
कि दूल्हा केवल दूल्हा है या कुछ और?
कि दुल्हन केवल दुल्हन है या कुछ और?
कि ब्याह, संबंधों की शुरुआत है या कुछ और?
और पुनर्विचार करें, कि -
हम सभ्य समाज के पुर्जे हैं?

आओ, समझें!
यदि नैतिकता बाकी है, तो पूरी ईमानदारी से
कि दुल्हन के चेहरे पर उतर आया दहशत
और आँखों में समाया हुआ
जलाये जाने की आशंका का दर्द
जो लाज और मर्यादा के मुखौटों में छिपा लिया गया है
कहीं ससुर की कुटिल मुस्कानों
और भावी पति की ललचाई आँखों की
खौफनाक क्रिया की बेबस प्रतिक्रिया तो नहीं?

आओ, पढ़ें!
बेटी को पराये हाथों में सौपने से पहले
उसके मासूम चेहरे पर कुछ लिखा है
’ ? ’
परंपरागत, चिरपरिचित चिंताओं, आशंकाओं की लिपि में
और आश्वश्त हो लें, कि -
हम अपना बोझ कम नहीं कर रहे हैं
बेटी का धर बसा रहे हैं।
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अप्राप्य

पहले बहुत सारी चीजें
अपने समस्त वैभव
अपनी समस्त निश्छलता और समस्त औदार्यता के साथ
आसपास
बहुत ही निकट
आँगन में, पड़ोस में, मंोहल्ले के किसी भी मोड़ पर
पगडंडियों और सड़कों के किनारे
हर मौसम में
सहज प्राप्य थी
जैसे -
गर्मियों का मौसम शुरू होते ही
बौराए, अलमस्त आम के पेड़
अपने ही नन्हंे अंबियों को
अपने ही हाथों
अंजुलि भर-भर कर परोसते हुए
रस-पगे मन से
मनुहार करते, आमंत्रित करते हुए।

इसी तरह
पावस की पहली बूंदों के साथ
पश्चिमी क्षितिज पर उमड़ आए
काले घने मेघों को चुनौती देते हुए
काले-काले जामुन,
ठंड के मौसम में बेर, बिही और शरीफा।

और इसी तरह
ताऊ-ताई, काका-काकी,
भैया-भौजी, मित्रों-हमजोलियों
और परिचितों-अपरिचितों का परिवार
अपनापन, स्नेह और दुलार
हर कहीं
गाँव, गली, मोहल्ले में।

बचपन भी सहज प्राप्य था
बच्चों, बड़ों और बूढ़ों में भी
हर कहीं।

ये अब दुर्लभ और अप्राप्य है।
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और कितने सबूत चाहिए

कत्ल हुआ सरेआम
देखा सबने
सबने पहचाना
कानून के रखवालों ने भी
कर ली पहचान
कातिल छुट्टा घूम रहा
अच्छाइयों के सीनों पर
मूंग दल रहा
कर रहा स्वीकार
कर रहा उपहास
कर रहा अट्टहास।

और कितने सबूत चाहिए?

जिनके हस्ताक्षर हैं
उनके अंतर्वस्त्रों में
जिनके पँजों-ऊँगलियों के छाप हैं
उनके सीनों में
पत्थर पर निर्मम प्रहार करके
उकेरे गये लकीरों की तरह
जिनकी हैवानियत के कुत्सित कृत्यों के निशान
उनके अँग-अँग में उभरे हुए हैं
पढ़ा जा सकता है साफ-साफ जिन्हें।

उनकी दहशतजदा आँखें
उनका क्षत वजूद
सभी चीख-चीख कर कह रहे हैं।

और कितने सबूत चाहिए?

परसों तक
जब वह साधारण सा पेंट-शर्ट पहनता था
भीड़ का हिस्सा हुआ करता था
जरहा बीड़ी के लिये तरसता था
कल ही उन्होंने सफेद कुर्ता-पायजामा पहनी
और आज
उनके पास क्या नहीं है?

और कितने सबूत चाहिए?
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अपराधी

यात्रा करते हुए
एक-दूसरे पर लदे-खड़े हुए
यात्रियों को देखकर सोचता हूँ -
यह किस अपराध की सजा है?

काश ऐसा नहीं हो सकता
कि,
सबके लिए जगह हो?

एक भी आदमी जगह से वंचित न हो
चाहे बहुत सारी जगहें खाली हों
ठीक उसी तरह,
जैसे -
’निन्यान्बे अपराधी, चाहे छूट जाएँ
पर एक भी निर्दोष को सजा न हो।’

यात्रा पर निकला आदमी अपराधी होता है?

नौकरी के लिए
आवेदन-पत्र खरीदने और
जमा करने के लिए
परीक्षा और साक्षातकार देने के लिए एकत्रित
भीड़ और बेबसी देखकर बेरोजगारों की
सोचता हूँ -
यह किस अपराध की सजा है?

काश ऐसा नहीं हो सकता
कि,
सबके लिए रिक्तियाँ हों?
चाहे बहुत सी रिक्तियाँ खाली हों
ठीक उसी तरह, जैसे -
’निन्यान्बे अपराधी, चाहे छूट जाएँ
पर एक भी निर्दोष को सजा न हो।’

रोजगार ढूँढ़ने निकला बेरोजगार,
अपराधी होता है?

निन्यान्बे अपराधी मौज करें
सत्ता-सुख भोगें
तो निरपराध होने का अपराध कोई क्यों करे?
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भाया! बहुत गड़बड़ है

बहुत गड़बड़ है,
भाया! बहुत गड़बड़ है।

इधर कई दिनों से
दिन के भरपूर उजाले में भी
लोगों को कुछ दिख नहीं रहा है
दिखता भी होगा तो
किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है
फिर भी
या इसीलिए सब संतुष्ट हैं?
कोई कुछ बोल नहीं रहा है।
भाया! बहुत गड़बड़ हो रहा है।

गंगूतेली का नाम उससे जुड़ा हुआ है
क्या हुआ
वह उसके महलों से दूर
झोपड़पट्टी के अपने उसी आदिकालीन -
परंपरागत झोपड़ी में पड़ा हुआ है?
शरीर, मन और दिमाग से सड़ा हुआ है।
पर नाम तो उसका उससे जुड़ा हुआ है?

उसके होने से ही तो वह है
गंगूतेली इसी बात पर अकड़़ रहा है?
भाया! बहुत गड़बड़ हो रहा है।

उस दिन गंगूतेली कह रहा था -
’वह तो ठहरा राजा भोज
भाया! क्यों नहीं करेगा मौज?
जनता की दरबार लगायेगा
उसके हाथों में आश्वासन का झुनझुना थमायेगा
और आड़ में खुद बादाम का हलवा और,
शुद्ध देशी घी में तला, पूरी खायेगा
तुम्हारे जैसा थोड़े ही है, कि -
नहाय नंगरा, निचोय काला 1?
निचोड़ने के लिये उसके पास क्या नहीं है?
खूब निचोड़ेगा
निचोड़-निचोड़कर चूसेगा
तेरे मुँह में थूँकेगा।

मरहा राम ने कहा -
’’गंगूतेली बने कहता है,
अरे! साले चूतिया हो
अब कुछू न कुछू तो करनच् पड़ही
नइ ते काली ले
वोकर थूँक ल चाँटनच् पड़ही
कब समझहू रे साले भोकवा हो,
भीतर-भीतर कितना,
क्या-क्या खिचड़ी पक रहा है?
अरे साले हो!
सचमुच गड़बड़ हो रहा।’’

गंगूतेली ने फिर कहा -
’’वह तो ठहरा राजा भोज!
हमारी और तुम्हारी सड़ियल सोच से
बहुत ऊँची है उसकी सोच।
एक ही तो उसका बेटा है
उसका बेटा है
पर हमारा तो युवराज है
अब होनेवाला उसी का राज है

उसके लिए जिन्दाबाद के नारे लगाओ
उस पर गर्व करो
और, मौका-बेमौका
उसके आगे-पीछे कुत्तों की तरह लुटलुटाओ -
दुम हिलाओ
जनता होने का अपना फर्ज निभाओ।

युवराज के स्वयंवर की शुभ बेला है
विराट भोज का आयोजन है
छककर शाही-दावत का लुत्फ उठाओ
और अपने किस्मत को सहराओ।’’

’बढ़िया है, बढ़िया है।’
गंगूतेली की बातों को सबने सराहा।

मरहाराम सबसे पीछे बैठा था
उसे बात जँची नहीं
उसने आस्ते से खखारा
थूँका और डरते हुए कहा -
’’का निपोर बढ़िया हे, बढ़िया हे
अरे! चूतिया साले हो
तूमन ल दिखता काबर नहीं है बे?
काबर दिखता नहीं बे
जब चारों मुड़ा गुलाझांझरी
अड़बड़-सड़बड़ हो रहा है।’’

बहुत गड़बड़ हो रहा है,
भाया! बहुत गड़बड़ हो रहा है।
वह तो राजा भोज है
हमारी-आपकी ही तो खोज है
उस दिन वह महा-विश्वकर्मा से कह रह था -

’’इधर चुनाव का साल आ रहा है
पर साली जनता है, कि
उसका रुख समझ में ही नहीं आ रहा है
बेटा साला उधर हनीमून पर जा रहा है
बड़ा हरामी है
जा रहा है तो नाती लेकर ही आयेगा
आकर सिर खायेगा
सौ-दो सौ करोड़ के लिये फिर जिद मचायेगा।’’

यहाँ के विश्वकर्मा लोग बड़े विलक्षण होते हैं
समुद्र के नीचे सड़कें और-
हवा में महल बना सकते हैं
रातोंरात कंचन-नगरी बसा सकते हैं।
राजा की बातों का अर्थ
और उनके इशारों का मतलब
वे अच्छे से समझते हैं
पहले-पहले से पूरी व्यवस्था करके रखते हैं।
दूसरे दिन उनके दूत-भूत गाँव-गाँव पहुँच गये,
बीच चैराहे पर खड़े होकर
हवा में कुछ नट-बोल्ट कँस आये, और
पास में एक बोर्ड लगा आये।

बोर्ड में चक्करदार अक्षरों में लिखा था -
’शासकीय सरग निसैनी, मतलब
(मरने वालों के लिये सरग जाने का सरकारी मार्ग)
ग्राम - भोलापुर,
तहसील - अ, जिला - ब, (क. ख.)।’

और साथ में उसके नीचे
यह नोट भी लिखा था -
’यह निसैनी दिव्य है
केवल मरनेवालों को दिखता है।
देखना हो तो मरने का आवेदन लगाइये,
सरकारी खर्चे पर स्वर्ग की सैर कर आइये।
जनहितैषी सरकार की

यह निःशुल्क सरकारी सुविधा है
जमकर इसका लुत्फ उठाइये
जीने से पहले मरने का आनंद मनाइये।’

महा-विश्वकर्मा के इस उपाय पर
राजा भोज बलिहारी है
और इसीलिए
अब उसके प्रमोशन की फुल तैयारी है।

मरहाराम चिल्लाता नहीं है तो क्या हुआ,
समझता तो सब है
अपनों के बीच जाकर कुड़बुड़ाता भी है
आज भी वह कुड़बुड़ा रहा था -
’’यहा का चरित्तर ए ददा!
राजा, मंत्री, संत्री, अधिकारी
सब के सब एके लद्दी म सड़बड़ हें
बहुत गड़बड़ हे,
ददा रे! बहुत गड़बड़ हे।’’

गंगूतेली सुन रहा था
मरहाराम का कुड़बुड़ाना उसे नहीं भाया
पास आकर समझाया -
’’का बे! मरहाराम!
साला, बहुत बड़बड़ाता है?
समझदार जनता को बरगलाता है
अरे मूरख
यहाँ के सारे राजा ऐसेइच् होते हैं
परजा भी यहाँ की ऐसेइच् होती है
यहाँ तेरी बात कोई नहीं सुनेगा
इतनी सी बात तेरी समझ में नहीं आती है?’’

लोग वाकई खुश हैं
कभी राजा भोज के
पिताश्री के श्राद्ध का पितृभोज खाकर
तो कभी उनके स्वयं के
जन्म-दिन की दावत उड़ाकर
झूठी मस्ती में धुत्त हैं।

मरहाराम अब भी कुड़बुड़ा रहा है,
तब से एक ही बात दुहरा रहा है -
’’कुछ तो समझो,
अरे, साले अभागों,
कब तक सोते रहोगे,
अब तो जागो।’’
000



’क’ और ’ख’ की यात्रा
1

क और ख
दोनों में मित्रता हो जाती है
दोनों जब अपने घरों से निकल रहे होते हैं।

क और ख
दोनों कभी नहीं लड़ते-झगड़ते
दोनों जब साथ-साथ
काम की ओर जा रहे होते हैं।
दोनों जब साथ-साथ पसीना बहा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों एक ही बात दुहरा रहे होते हैं
काम से थक कर दोनों जब सुस्ता रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के चेहरे एक से दिखते हैं
भूख से दोनों के पेट जब बिलबिला रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के चेहरे एक से खिलते हैं
किसी बात पर दोनों जब खिलखिला रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के धर्म एक हो जाते हैं
हाथों में जब दोनों
फावड़ा और कुदाल उठा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के धर्म बदल जाते हैं
हाथों में जब दोनों
अपने धर्मग्रंथ उठा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों कभी नहीं मिलते
दोनों जब अपने-अपने घरों में रह रहे होते हैं।

क और ख
दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं
अपने-अपने इबादतगाह की ओर
दोनों जब जा रहे होते हैं।

2

एक यात्री
जिसकी यात्रा शुरू होती है
पूर्व से प्रातःकाल दक्षिणावर्त
आश्रम से ईश्वर की ओर
और पुनः आश्रम की ओर
एक वृत्ताकर मार्ग पर।

इसी तरह दूसरा पश्चिम से चलता है
वामावर्त।
वह भी लौट आता है
अल्लाह को खोजता हुआ
अपने ठिकाने की ओर
गोल-गोल घूमता हुआ
अपने वृत्ताकार मार्ग पर।

दोनों का मानना है
कि उनकी यह अपनी राह है
जो सबसे सुगम है
सबसे अच्छा और सबसे सच्चा है।

सदियों से उनका गोल-गोल घूमना जारी है
कोल्हू के बैल की तरह।

पर
कोल्हू में तिल नहीं, तेल निकले कैसे?
जिंदगी बीत जाती है,
ईश्वर की तलाश में
आदमी बनें कैसे?

पर इस गोल-गोल घूमने में
सिर्फ एक ही बात होती है हर बार
कि दोनों परस्पर टकरा जाते हैं हर बार।

इन्सानियत तक जानेवाला कोई रास्ता
और भी है इस दुनिया में?
000


अपनी वही तो दुनिया है

ये सुख फुदकती चिड़िया है।
दुख उफनती दरिया है।
इनसे परे भी दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।

मजहब की अपनी दुनिया है।
यहाँ धर्म की भी दुनिया है।
इनसे परे जो दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।

यहाँ प्यार में तो बंधन है।
नफरत है, जलन है, उलझन है।
इनसे परे जो दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।

इतनी तो उनकी दुनिया है।
और वो तुम्हारी दुनिया है।
दुनिया, जो सबकी दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।
000




ऐसा क्यों है?

वह समय का पाबंद है, पल भर इधर न उधर
न वह किसी के लिए रुकता है,
और न ही वह किसी की प्रतीक्षा करता है।

और प्राच्य-क्षितिज के किसी सुनहरे गवाक्ष से नियत समय पर
उसके सुनहरे कदमों की आहट आने लगी
उसके खिलखिलाहट की मधुर रश्मि-ध्वनियाँ भी
क्षितिज में बिखरने लगीं, और गूँजने लगी उसकी मनुहार
प्यार और दुलार-भरी पुचकार,
एक आह्वान गीत की तरह।

अपने दोनों पंख फैला दिये,
आसमान की ओर स्वागत में
और समवेत् हर्ष-निनाद किया,
सुषुप्तावस्था त्याग, अभी-अभी उठे,
आँखें मलते, अलसाये, अंकुरित होते बीजों ने।

उसके स्वागत के लिए आतुर दरख्तों ने
झूम-झूमकर जीवन-गीत गाये
चंचल हवाओं ने साथ दिया,
और उन सुंदर गीतों को अपने
सुरभित-मधुर, शीतल-सुकोमल, संगीत से सजाये।

नन्हीं पक्षियों ने भी अपने पंख खोले
और खेलने लगे सुंदर जीवन-नृत्य का खेल
गाने लगे प्रेम के अमर गीत
निःसृत होता है जो
प्रेमियों के अनुराग भरे,
निःश्छल हृदय की, अनंत गहराइयों से;
और फिर उड़ चले वे आसमान की ऊँचाइयों को नापने
संकल्प और सफलता का संदेश लेकर।

तभी, उसने हर्षित होते हुए कहा -
’’ठहरो! साथियों, मैं भी आ रहा हूँ
बड़े प्यारे, और बहुत सुंदर लगते हो तुम लोग मुझे।

तुम्हीं हो, तुम्हीं तो हो
जिनके बीच रहने की,
जिनके जीवन का संगीत सुनने की
अनंत अभिलाषा थी मेरी
जो जय-उद्घोष है, जीवन के पूर्णता की।

हाँ! तुम्हीं हो, तुम्हीं हो
जिनके जीवन-नृत्य देखने
कब से तरसती थीं मेरी आँखें
जिसे देख रुकते नहीं हैं मेरे पैर
झूम-झूम उठती है मेरी आत्मा
और तब!
सारी आकुलता और सारी व्याकुलता
हो जाती हैं तिरोहित,
जाने कहाँ, सदा-सदा के लिए।

हाँ! हाँ! तुम्हीं हो वे लोग
जिनके प्रेम-गीत सुनने के लिए
जाने कब से तरसता था मेरा हृदय
जो उतर जाती है,
शीतलता का स्पर्श देते हुए
हृदय की अतल गहराइयों में
अमरता का संदेश लेकर।’’

पर जल्द ही वह चैक उठा
उसका उत्साह, उसकी खुशी, जाती रही
जब उसने आस-पास कहीं नहीं देखा, कोई मनुष्य।

उसने अपने दोनों हाथ ऊपर लहराते,
झूमते, मस्ती में गाते,
अंकुरित होते, बीजों से पूछा -
’’हे! नन्हे प्यारे साथियों!
मनुष्य कहीं क्यों नहीं दिखता?’’

नन्हें अंकुरों के खिले चेहरे मुरझा गये
उन्होंने खेत की ओर जाते -
किसी मुरझाये,
उदास-हताश-निराश किसान को देखा
देखा तो उनके पैरों ने थिरकना बंद कर दिया
कंठ ने गीत गाने से इंकार कर दिया
सब ने एक समवेत आह भरी,
और समवेत स्वर में ही उन्होंने कहा - ’’मनुष्य?’’

उसने भी देखा
उस उदास-हताश-निराश किसान को
उसे यह दृश्य बड़ा अजीब लगा
उसनें अंकुरों से पूछा -
’’यह इतना उदास-हताश और निराश क्यों है?’’

अंकुरों ने एक-दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा
और उत्तर की जगह
उन्होंने भी समवेत स्वर में प्रश्न किया -
’’हाँ! हाँ! भला क्यों है यह
इतना उदास-हताश और निराश?’’

उसने दरख्तों के साथ जीवन का गीत गाते
उन गीतों को मधुर संगीत से सजाते -
हवाओं से पूछा -
’’हे! जीवन-संगीत के सर्जकों
यह तो बताओ, मनुष्य कहीं क्यों नहीं दिखता?’’

हवाओं ने कुछ दूर किसी कारखाने की
आसमान में काली लकीरें बनाती चिमनियों को देखा
और फिर वहाँ से निकलकर आते,
सड़क पर घसीटते-चलते,
मरियल-मटियल, मजदूरों के दल को देखा
और गहरी साँसे लेते हुए कहा - ’’मनुष्य?’’

उसने भी देखा
सड़क पर घसीट कर चलते,
मरियल-मटियल, मजदूरों के झुण्ड को
उसे आश्चर्य हुआ, यह दृश्य देखकर
उसनें हवाओं से पूछा -
’’जीवन-संगीत देने वाले साथियों, बताओंगे? -
ये इतने अश्क्त, इतने मरियल,
इतने मटियल क्यों है?’’

जीवन-संगीत रचने वाले हवाओं ने भी
पलभर सोचा
और खेद जताते हुए कहा -
’’हाँ! हाँ! ये इतने अशक्त,
इतने मरियल, इतने मटियल क्यों है?’’

अंत में उसने हताश स्वरों में
जीवन-गीत गाते,
मस्ती में झूमते दरख्तों से पूछा -
’’जीवन-गीत गाने वाले मित्रों! आखिर बताओगे?
मनुष्य कहीं क्यों नहीं दिखता यहाँ?’’

दरख्तों ने घाट पर
एक दिव्य व्यक्तित्व की ओर देखा
दिव्य मंत्रोंच्चार के साथ जो मस्त था,
आरती करने में।
स्वर्ण आभूषणों से आभूषित
किसी दिव्य वाहन में सवार
एक परिवार की ओर देखा
देखा और सहम गया।

उसने सहमते हुए कहा - ’’मनुष्य,
मित्र! मनुष्य आते तो हैं यहाँ, पर कभी-कभी,
सदियों पहले आया था कोई
फिर कोई आयेगा सदियों बाद।’’

उसने कहा -
’’मनुष्य क्या इतने दुर्लभ हो गये हैं?
दरख्तों ने निराश स्वरों में कहा -
’’हाँ मित्र! मनुष्य बड़े दुर्लभ हो गए हैं।’’

नन्हीं-नन्हीं पक्षियाँ भी सुन रही थी,
समझ रही थी ओर गुन भी रही थी
उसके और दरख्तों की बातों को
सबने फुदकना बंद कर दिया
और अचानक सबने एक साथ कहा -
’’हाँ, हाँ, मित्र! मनुष्य बड़े दुर्लभ हो गए हैं
सदियों बाद ही दिख पाता है कोई...’’

और सबने अपने-अपने पंख खोले
हवा में लहराए,
आश्चर्य में अपने-अपने सिर हिलाए
और आसमान का सीना चीरने लगे
उड़ते हुए सबने फिर एक साथ कहा -
’’पर, पता नहीं क्यों?’’
000



वह 

एक
वह सोचता है कि वह सोच रहा था
वह सोचता है कि वह सोच रहा है
वह सोचता है कि वह सोचता रहेगा।

महत्वपूर्ण यह है कि -
वह सोचता है कि वह सोचता है।

मैं सोचता हूँ -
सोचने के सूखे के इस युग में,
कोई तो है
जिसे गुमान है कि वह सोचता है।
0

दो
न वह बोलता है
न वह रोता है,
न चीखता, न चिल्लाता है
फिर भी जिंदा है।

मित्र!
आज का यही तो सबसे बड़ा आश्चर्य है
और कदम-कदम पर यहाँ
ऐसों का ही साहचर्य है।
0

तीन
वह कहता है - ’’मैं भ्रष्ट हूँ।’’
मैं भी कहता हूँ - ’’हाँ, आप भ्रष्ट हैं।’’
वह कहता है - ’’मैं दुष्चरित्र हूँ।’’
मैं भी कहता हूँ - ’’हाँ, आप दुष्चरित्र हैं।’’
वह कहता है - ’’मैं हत्यारा हूँ।’’
मैं भी कहता हूँ - ’’हाँ, आप हत्यारे हैं।’’
वह कहता है - ’’मैं देशद्रोही हूँ।’’
मैं भी कहता हूँ - ’’हाँ, आप देशद्रोही हैं।’’

अपने ऐसे ही पराक्रमों का वह
आये दिन ढिढोरा पीटता-पिटवाता है
और गौरवान्वित होता है।
उनकी ऐसी गर्वीली स्वीकारोक्ति
मैं रोज सुनता हूँ
और उनकी इस गर्वीली स्वीकारोक्ति पर
मैं भी रोज-रोज गौरवान्वित होता हूँ।
अक्सर वह यह भी कहता है -
’’अब मैं कुर्सी त्यागना चाहता हूँ
कृपया अनुमति दें।’’

मैं सहम जाता हूँ।
000



अथवा

न जाने आजकल क्यों
हो गया है टोटा
ऊँचाईयों का।

न गाँवों में दिखती है, न शहरों में
सब तरफ पड़ा है सूखा
ऊँचाईयों का।

क्या किसी ने इन्द्रजाल किया है;
या किया है सम्मोहित पूरी दुनिया को;
कि हो गयी गायब नजरों से
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा
क्या लोग अब इतने ऊँचे हो गये है;
कि जिसे देख -
सहमकर, शरमाकर हो गई हैं बौनी
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा
आज की ऊँचाईयों को देखकर भी;
नहीं होता आभास ऊँचाईयों का अब;
इतनी महत्वहीन और मूल्यहीन हो गई आज;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा
आधुनिकता की दौड़ में आँखें मूंदकर दौड़ती
एकदम नयी और अतिआधुनिक हो गई हैं
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा
बदलते हुए मूल्यों के इस जमाने में;
बदल गई है परिभाषा ऊँचाइयों की, या
बदलकर कुछ और हो गई हैं;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा
बिक गई होंगी बाजार के हाथों;
और सज गई होंगी शोरूमों में;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

पता नहीं
क्या हुआ, कैसे हुआ
पर कुछ तो जरूर हुआ है
सारी ऊँचाइयों को एकाएक।


यही तो रोमांच है, मेरे दोस्त!
मानव इतिहास के सर्वाधिक विश्मयकारी
इस इन्द्रजाल के तिलिस्म का।
000



ऐसा हमारा वर्तमान कहता है

हमारी आँखें, हमारे कान
और हमारे मस्तिष्क की रचना
नहीं होते अब माँ की कोख में
ये अब उत्पादित होते हैं
धर्म नामक कंपनी के
किसी हाई टेक कारखाने में।

जिन्होंने ऐसी कंपनियाँ बनाई
उनकी आँखें, उनके कान
और उनके मस्तिष्क कहाँ बने होंगे?
माँ की कोख में
या किसी कंपनी के
किसी हाई टेक कारखाने में?

कंपनियों का विज्ञापन कहता है -
’मनुष्य अब सभ्य हो गया है
उसके पास है अब ज्ञान की अकूत राशियाँ
और, राशियों का अकूत ज्ञान।’

पहले मनुष्य के पूँछ हुआ करते थे
जो अब झड़ गये हैं
बड़े-बड़े नाखून और दांत हुआ करते थे
जो अब घट गये हैं
घट गये हैं
छिप गये हैं
या छिपा लिये गए है मुखौटों में
पता नहीं, क्या हुआ
पर कुछ हुआ है

इस जमाने में कुछ भी
आसान नहीं अब
सही अनुमान लगाना भी।

पर आदमी के स्रोत सारे यही कहते हैं
कि -
आदमी अब सभ्य हो गया है
ज्ञान-विज्ञान को लभ्य हो गया है

और
आदमी
जो पशु की तरह रहा करता था
पशु से अब पृथक हो गया है
ऐसा हमारा विज्ञान कहता है।

परन्तु
ये सब मिथ्या हैं, भ्रम हैं
ऐसा हमारा वर्तमान कहता है।
000




पता होना जरूरी है

जानेवाला पहुँचनेवाला भी होता है
और जहाँ पहुँचना होता है
वह कहीं न कहीं तय होता है

मतलब
कहीं जाने के लिए कहीं ’जानेवाला’
और ’कहीं’ का होना जरूरी होता है

और यह भी कि
अनगिन कहीं में से जानेवाले का कहीं
कहीं न कहीं गिना हुआ, तय होता है

इसलिए तय कहीं पर जाने के लिए
तय कहीं पर जानेवाले को
उस तय कहीं का पता भी
पता होना जरूरी होता है

अक्सर, कहीं जानेवाले को
तय कहीं पर भेजनेवाला
एक ’कोई’ भी होता है

और ’कोई’ को ’कहीं; का पता
अक्सर पता होता है

कहीं ’जानेवाला,’
’कोई’ और उसका तय ’कहीं’ -
व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि संज्ञाएँ
और इनके स्थान पर आनेवाले
मैं, तुम और वह आदि सर्वनाम
पत्र, धन और योजनाएँ
ज्ञान, विज्ञान और विवाद
कुछ भी हो सकता है

आजकल हमारे तंत्र में
कोई और कहीं
व्यक्ति और विचार के अलावा
कुछ भी हो सकता है

और यह भी कि
’कोई’ को ’कहीं’ का पता
जरूर पता होता है
इसलिए कि दोनों वही होता है।
000



वह शब्द है

बस!
एक शब्द हो निःसीम,
ब्रह्माण्ड की तरह
और
समाया हो समूचा ब्रह्माण्ड जिसके भीतर।

एक शब्द हो प्राणमय
जीवन की तरह
और
समाया हो समूचा जीवन जिसके भीतर।

एक शब्द हो सम्वेदना-सिक्त
सम्वेदनाओं की तरह
और
समायी हो समूची सम्वेदनाएँ जिसके भीतर।

एक शब्द हो सर्वशक्तिमान
ईश्वर की तरह
और
समाहित जिसमें दुनिया के सारे ईश्वर
सारे धर्म, सारे ग्रंथ और सारे पंथ भी
अपनी समस्त लीलाओं के साथ जिसके भीतर।

बस!
अंत में एक शब्द और हो, आभामय
सूर्य की तरह
और
समाया हो समूचा ज्ञान जिसके भीतर।

आदिम परंपराओं को ढोनेवाले
आदिम मनुष्य की आदिम संतानों
है ऐसा एक शब्द आपके पास?

सुना है
कबीर के पास था ऐसा एक शब्द
ढाई आखरवाला
जिसे पाकर वह मनुष्य बन गया था।
000



तंत्र और जनतंत्र

तंत्र की योजनाएँ जन के लिए होती हैं
अतः ये जनतंत्र की होती हैं

तंत्र और जनतंत्र की योजनाएँ
यद्यपि जन के लिए होती हैं
पर इनमें कई गंभीर फर्क होते हैं
क्योंकि इनसे चिपके इनके
अपने कई गंभीर तर्क होते हैं

इनके फर्क और तर्क बड़े सुसंगत होते हैं
इसलिए इनके फर्क के सारे तर्क
तर्कसंगत, विधिसंगत और नीतिसंगत होते हैं
मसलन -

’ये तंत्र के लिए अनिवार्य
और जनतंत्र के लिए ऐच्छिक

तंत्र के लिए सद्य-त्वरित
और जनतंत्र के लिए बहुप्रतीक्षित

तंत्र के लिए सेवा
और जनतंत्र के लिए दया

तंत्र के लिए पैतृक
और जनतंत्र के लिए कृपया

तंत्र के लिए अधिकार
और जनतंत्र के लिए भीख

तंत्र के लिए वर्तमान
और जनतंत्र के लिए कालातीत होते हैं।’

तंत्र की कालातीत योजनाओं से
जनतंत्र बीमार है
तंत्र की हर योजना
योजना नहीं, व्यापार है।

यहाँ विचार खुशबू की तरह होते हैं
’सु’ के साथ

’कु’ के साथ
बदहजमी की हवा से गंधाए
कमरे की हवा की तरह हो जाते है
सारे विचार

और
बदहजमी पालनेवालों की कमी नहीं है
आज, इस देश में।

’विचार खुशबू की तरह होते हैं’
यह कथन
अशुद्ध और अपूर्ण कथन है।
000


रोटी का गोल होना

रोटी का गोल होना रोटी होना नहीं है, जैसे -
तवा, सूरज और चाँद का गोल होना रोटी होना नहीं है।

रोटी का होना, गोल होना भी नहीं है।
रोटी का होना
सभ्यता और संस्कारों का होना है
रोटी का होना
भाषा और साहित्य का होना है
रोटी का होना
कला और संगीत का होना है
रोटी का होना
धर्म और दर्शन का होना है।
रोटी का होना
ईश्वर और देवताओं का होना है

क्या रोटी का होना मनुष्यता का होना भी हो पायेगा?

पता नहीं कैसे, परन्तु
रोटी आजकल सचमुच गोल हुई जा रही है
और इसे गोल होने सेे बचाना बहुत जरूरी है

रोटी को गोल होने से बचाना
सभ्यता, संस्कार, भाषा, साहित्य
कला, संगीत, धर्म, दर्शन
ईश्वर और देवताओं को बचाने से अधिक जरूरी है।
क्योंकि रोटी को बचाना, मनुष्यता को बचाना है।
000



प्रश्नों का सूखा

प्रश्नों का सूखा पड़ जाये
प्रश्नों के बूंद पैदा करनेवाले स्रोत सारे सूख जायें
और इन बूंदों से जीवन पानेवाली भूमि सभी
निर्जलीकरण का शिकार हो मार जायें
तो क्या हो?

बहुत सारे नये प्रश्न
जिन्हें हाजिर होना चाहिए
एक अनुशासित छात्र की तरह
गैरहाजिर हैं बहुत सारी सदियों से

बहुत सारे प्रश्न
बहुत सारी सदियों से दुहराये जा रहे हैं
मानो बहुत सारे तोता
लगातार इसे रटे जा रहे हैं
इन तोतों के लिए यह है पवित्र कर्म
क्योंकि इसे मान लिया गया है
रोटी पर स्वामित्व का ईश्वरीय मर्म

तोतों को प्रश्न करना नहीं आता
प्रश्न करना उन्हें सिखाया नहीं जाता
प्रश्न करना महापाप है

प्रश्न करना यहाँ कोई नहीं जानता
प्रश्न भी एक काव्य है, यह कोई नहीं मानता
प्रश्नों का सूखा पड़ा हुआ है, सदियों से
और समाज निर्जलीकरण से मर रहा है।
000



पूरा घर 

जिस घर में रहें
वहाँ पूरी तरह से रहना होना चाहिए
जिस घर में रहें
उस घर को पूरी तरह से घर होना चाहिए।

घर का हर कोना, घर का कोना हो
घर के हर कोने में
एक पूरा घर होना चाहिए।

घर इकाइयों का समुच्चय होता है
घर में पूरी तरह रहने के लिए
घर में रहनेवालों को
घर की हर इकाई से
जुड़ा हुआ होना चाहिए।

घर इसी दुनिया में हो
घर की दुनिया में
इसी दुनिया की एक दुनिया हो
और घर की दुनिया इतनी बड़ी हो
कि घर के अंदर, की दुनिया में
पूरी दुनिया होनी चाहिए।

घर चाहे छोटा हो,
घर चाहे बड़ा हो
घर का मतलब घर
और घर का मतलब
एक पूरा घर होना चाहिए।
000



बहुत सारी बातें, बहुत तरीकों से 

बहुत दिनों से, बहुत सारी बातें, बहुत तरीकों से
बहुत सारे लोग कहते आये हैं

बहुत सारे वे लोग -
जिन्हें ईश्वर ने दी थी दिव्य दृष्टियाँ
वर्तमान को समझने की चुनौतियाँ, और
भूत-भविष्य में ताक-झांक करने की शक्तियाँ

कुछ बातें, जैसे - पृथ्वी,
जिसके ऊपर, आसमान में स्वर्ग-नर्क और
नीचे पाताल है -
शेषनाग के थूथने पर टिकी हुई है
चुगलखोर चन्द्रमा और सूर्य
धड़ रहित राहु-केतु द्वारा खा लिये जाते हैं
पूर्णिमा और अमावश्या के दिन

और भी बहुत सारी बातें
बहुत तरीकों से कहनेवाले उन दिव्यात्माओं को
हमने सितारे बना दिये
और उन पर विश्वास करनेवाले
हम मनुष्य भी नहीं बन पाये
मूर्ख बनते रहे, मूर्ख ही बन पाये।
000


मनुष्य की आमद बंद क्यों है

खेतों में केवल अन्न ही नहीं पैदा होते
मनुष्यता का धर्म भी खेतों में ही पैदा होता है
और फिर यह, खेतों से चलकर
आस्था के कन्द्रों तक पहुँचते-पहुँचते
मनुष्यता और खेत, दोनों को ही गुलाम बना लेता है

आस्थाकेन्द्रों में विराजित होनेवाले
यही धर्म, और ईश्वर
क्रूर, झूठे और फरेबी बन जायेंगे
रह-रहकर उन्हें ही छलेंगे, सतायेंगे
तब उनकी यह बदनीयती,
न किसानों को पता होता है, और न मजदूरों को

कर्म का संदेश देनेवाले धर्म और ईश्वर
तुम मानों या न मानों
अर्जुन से भी श्रेष्ठ कर्मयोगी होते है
किसान और मजदूर।

जवाब दो
सारे धर्म और सारे ईश्वर के रहते
किसानों और मजदूरों की ऐसी हालत क्यों है?
दुनिया में मनुष्यों की आमद, बंद क्यों है?
000



कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय

इस समय जो कुछ घट रहा है
उसके पहले भी
बहुत कुछ घटित होता रहा है
घटित होता आया है
पता नहीं, कितना और क्या-क्या?

घटनाएँ,घटनाएँ होनी चाहिए
दुर्घटनाएँ नहीं
घटनाएँ कुछ बदलने के लिए होनी चाहिए
घटनाएँ कुछ बदलने की तरह होनी चाहिए
जलाकर राख कर जाने के लिए नहीं

जाहिर है -
इस समय जो कुछ कहा और सुना जा रहा है
उसके पहले तक
बहुत कुछ कहा और सुना जा चुका है
इस समय जो कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है
उसके पहले तक
बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका है
इस समय जो कुछ किया और कराया जा रहा है
उसके पहले तक
बहुत कुछ किया और कराया जा चुका है -

जो जरूरी था वह भी,
जो जरूरी नहीं था वह भी
जो उचित था वह भी,
जो अनुचित था वह भी
सत्य भी, असत्य भी,
सद्कृत्य भी, दुष्कृत्य भी
पाप और पुण्य भी,
गण्य और नगण्य भी
अंतर और बाह्य भी,
ग्राह्य और अग्राह्य भी
नैतिक भी, अनैतिक भी,
लौकिक भी, अलौकिक भी

फिर भी
इस समय कुछ घटने के लिए कुछ तो शेष है,
जो इस यकीन के लिए पर्याप्त है, कि -
अतीत की घटनाएँ बदलने की तरह हुई होंगी
जलने-जलाने की तरह तो बिलकुल नहीं।

और इस तरह
इस समय के लिए बहुत कुछ बचाया गया।

इस समय का कहना और सुनना
इस समय का लिखना और पढ़ना
इस समय का किया और कराया जाना
इस समय
घटनाओं की तरह नहीं हो रही है।
000




पंचभूतों की प्रवृत्तियाँ

आसमान, आग, पानी, मिट्टी और हवा की
अपनी-अपनी प्रकृति और प्रवृत्तियाँ होती है
चरित्र में ढलकर इनकी प्रकृति और प्रवृत्तियाँ
आत्मरूप में ढल जाती हैं
और अंततः प्रेम और करुणा में पगकर
यह मानवीय बन जाती हैं
मानवता अंततः संश्लिष्ट रूप है
पदार्थ, अपदार्थ और ऊर्जा का।

धन की भी अपनी प्रकृति और प्रवृृत्ति होती है -
धन सभ्यता है, संस्कार और व्यवहार है,
धन ताकत है, मान और प्रतिष्ठा है,
धन धर्म है, श्रद्धा और निष्ठा है,
धन मद है, सत्ता और प्रभुत्व है,
और चरित्र यदि हो तो धन देवत्व है।

इस समय
चरित्र की नयी परिभाषा बनायी जा रही है
देवत्व, प्रभुत्व, सत्ता, निष्ठा और प्रतिष्ठा की खेती से
धन की अकूत फसले उगाई जा रही हैं।
000



आज का समय खतरों से भरा समय है

एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ -
चाँद पर ईश्वर और धर्म नहीं हैं
उसी तरह जैसे वहाँ मनुष्य
सभ्यता, संस्कृति और दर्शन नहीं हैं।

यकीन नहीं होता?
नील आर्मस्ट्राँग, एडविन, आल्ड्रिन से पूछ लो
क्या ये सारी चीजें वे यहीं से लेकर नहीं गये थे -
आक्सीजन की तरह?

आक्सीजन वहाँ नहीं है।

वहाँ आक्सीजन नहीं है,
वहाँ जीवन नहीं है,
वहाँ ईश्वर, धर्म, सभ्यता,
संस्कृति और दर्शन नहीं हैं।

वहाँ प्रेम और शांति भी नहीं हैं।

इस तरह
ईश्वर, धर्म और दर्शन को
प्रेम और शांति को,
सभ्यता और संस्कार को
कोई खतरा नहीं है वहाँ।

यहाँ ईश्वर,
धर्म और दर्शन,
प्रेम और शांति
सभ्यता और संस्कार -
सबकुछ हैं
पर आज ये सबकुछ यहाँ
भयावह खतरे में हैं

जीवन यहाँ खतरे में है।

आज का समय
इतिहास का सर्वाधिक खतरों से भरा समय है।
000




प्रेम और ईश्वर

1
प्रेम ही ईश्वर है
और (अथवा/या)
ईश्वर ही प्रेम है
हमारे इतिहास ने इस कथन को सबसे बेहूदा
और सर्वाधिक असत्य कथन बना दिया है

ईश्वर सबका एक नहीं होता
सबके पास ईश्वर नहीं होता

ईश्वर सबके अलग-अलग होते हैं
बहुसंख्यक गरीबोें-दलितों के तो होते ही नहीं
नहीं झांकता कोई ईश्वर कभी
इनके जीवन-झरोखे में से
पर प्रेम तो होता है इनके पास?

पशुओं और कीट-पतंगों का ईश्वर होता होगा?
उन्हीं से पूछो,
शायद होता हो
उन्हें हमारे ईश्वर का हुलिया भी दिखाओ
और यह भी पूछो उनसे
इसे पहचानते हो क्या?

पर प्रेम तो इनके पास भी होता है।

जिसके पास ईश्वर होता है
उसके पास प्रेम कम
और घृणा अधिक होती है।

मेरा प्रेम ठीक वैसा ही नहीं है
जैसा आपका प्रेम है
और आपका प्रेम भी ठीक वैसा ही नहीं है
जैसा इनका प्रेम है
हम सबके प्रेम अलग-अलग हैं
जैसे
हम सबके ईश्वर अलग-अलग हैं

हमने प्रेम को बाँट लिया है
हमने ईश्वर को बाँट लिया है।
और घृणा का संुदर मखमली फ्रेम बनाकर
उसमें उसे टाँक लिया है।

बँटा हुआ प्रेम, प्रेम नहीं होता
बँटा हुआ ईश्वर, ईश्वर नहीं होता

प्रेम ही ईश्वर है
और (अथवा/या)
ईश्वर ही प्रेम है
इस कथन को आज हमने
इतिहास का सबसे बेहूदा
और सर्वाधिक असत्य कथन बना दिया है।
0

2
समय में, सहूलियत में,
कल्पना और असलियत में
सब जगह, सब में,
लोग अपना हिस्सा तलाशते हैं।

समय को, समाज को
कल को, अब और आज को
कल्पनाओं और हकीकतों को
ईश्वर और अकीदतों को
संपत्ति की तरह हिस्सों में
तोड़कर-काँटकर बाँटते हैं।

हिस्सा बहुरूपिया होता है
अनेक-अनेक संभावित रूपों में
छद्म सुखों और सार्वत्रिक दुखों में
जैसे - स्वार्थ और सुविधा,
ये बहुप्रयोगित, बहुप्रचलित रूप होते हैं
हमारी पारंपरिक प्रतिष्ठा और समृद्धि के -
सर्वाधिक स्वाभाविक और अनुरूप होते हैं।

जिनको हम बाँटना चाहते हैं, वे बँटना जानते हैं?
000



सफाईवाली से साक्षातकार

वह रोज आती है
मोहल्ले को साफ करती है और चली जाती है
पर, साफई मोहल्ले की फितरत में नहीं है
इसे वह अच्छी तरह जानती है,
मोहल्ला सदियों से साफ होता आ रहा है
पर, वह साफ रहना नहीं जानता
वह साफ होना नहीं चाहता
इसे भी वह, अच्छी तरह जानती है।

मनुष्य और मनुष्यता को
मनुष्य होने के अहसास को
और मनुष्य के स्वत्वों-स्वाभिमानों को रौंदनीवाली
मनुष्य को पशुओं से भी नीचे ढकेलनेवाली
मोहल्ले की यह फितरत
अन्य सभी फितरतों से अधिक हिंसक
अधिक घृणित, अधिक गर्हित है
पर विडंबना है,
अपने इस फितरत पर मोहल्ला
सदियों से मदोन्मत्त और गर्वित है
इसे भी वह भलीभांति जानती है।

उसके अभ्यस्त, मजबूत और
जानदार हाथों में होते हैं -
उतने ही अभ्यस्त और जानदार हत्थोंवाले
झाड़ू-फावड़े और
ठिलकर चलनेवाली मैलागाड़ी
दो छोटी-छोटी
सदियों से थकी-थकी
बीमार और असक्त पहियोंवाली
चें... चीं.... चें... चीं....की आवाज करती हुई।

इस गाड़ी के पहियों से निकलनेवाली
चें... चीं.... चें... चीं....की आवाज असाधारण है
सदियों से अथक चलनेवाली
बीमार और अमानवीय परंपराओं के विरोध में
एक बेजान का जानदार आह्वान है।

उसे काम करते मैं रोज देखता हूँ
लंबे हाथोंवाली झाड़ू अथवा फावड़े में उलझी
उनकी नत आँखों को मैं रोज तौलता हूँ।

उनकी आँखों में
मैं रोज कुछ देखना चाहता हूँ
पता नहीं कितने-कितने
और क्या-क्या सवाल उनसे पूछना चाहता हूँ।

पर कचड़े और गंदगी की ओर झुकी हुई
अपने काम में निरंतर उलझी हुई
उनकी नत आखों को कभी मैं देख नहीं पाता हूँ
उनसे एक भी सवाल कभी पूछ नहीं पाता हूँ।

एक दिन उन्होंने कहा -
’’बाबू! मैं जानती हूँ
आप मुझे रोज इस तरह क्यों देखते हो
आँखों ही आँखों में क्या तौलते हो,
कुछ नहीं बोलकर भी, बहुत कुछ बोलते हो
बहुत सारे गैरजरूरी प्रश्न पूछना चाहते हो।

आपका इस तरह देखने का यह सिलसिला,
और आपकी इन नजरों की वार को झेलने का मेरा अनुभव,
आज का नहीं, सदियों पुराना है
मेरे लिए न तो आप अजनबी हो
और न ही आपकी इन आतुर आँखों की लिप्साएँ ही
सबकुछ परखी हुई है, सबकुछ जाना-पहचाना है।

बाबू! दरअसल, मुझे देखते हुए
आप किसी भंगिन को नहीं
एक स्त्री और उसकी देह को देखते हो
उस देह की जवानी और मादकता को
किसी पेशेवर व्यापारी की भांति
मन ही मन तौलते हो, और
अपनी आत्मा, अपने मन
और अपने विचारों में संचित गंदगी को
उस देह के ऊपर निर्दयतापूर्वक, लगातार फेंकते हो।

बाबू! काम के क्षणों में
आप मेरे निर्विकार भाव को देखते हो
और खुद से पूछते हो -
’शौचालयों, नालियों, सड़कों और गलियों से
गंदगी के ढेरों को उठाते हुए
इन गंदगी के ढेरों से उठनेवाली बदबू के भभोके
मेरे नथनों को छूते क्यों नहीं हैं?’
और इस तरह मेरी संवेदनाओं पर
हर रोज
एक बड़ा और गैरजरूरी प्रश्नचिह्न लगाते हो।

बाबू!
शौचालय, नालियाँ, सड़कें और गलियाँ
न तो स्वयं गंदी होती हैं
न कभी गंदगी पैदा करती हैं
गंदगियाँ आपके घरों में पैदा होती हैं
और आपके घरों से निकलकर
शौचालयों, नालियों, सड़कों और गलियों में
विस्तार पाती हैं
समूचे वातावरण को गंदा बनाती हैं।

और सच कहूँ बाबू!
गंदगी न घरों में पैदा होती है
न शौचालयों, नालियों,
सड़कों और न गलियों में
गंदगी तो आपके मन में,
आपकी आत्मा में
आपकी सोच और
आपके विचारों में पैदा होती है
जो आपके बनाये समाज
और उसके शास्त्रों में
ठूँस-ठूँसकर भरी होती है
जिनसे उठनेवाली बदबू के भभोके
इन शौचालयों, नालियों,
सड़कों और गलियों की गंदगी से उठनेवाली
बदबू के भभोकों से कहीं अधिक उबकाऊ
और अधिक घनी होती है।

मैं आपसे पूछती हूँ
क्या इसनें कभी आपकी संवेदनाओं को
आपके नथुनों को छुआ है?
मैं दावा करती हूँ - कभी नहीं
फिर आपकी संवेदनाएँ
और आपके नथुने
किस चीज की बनी होती हैं?

बाबू! आप पूछते हो -
’गंदगी की इन ढेरों में पलनेवाले रोगाणु
मुझे बीमार क्यों नहीं बनाते?’
मैं आपसे फिर पूछती हूँ -
अपने स्वच्छ घरों में रहते हुए
और इज्जतदार व्यवसाय करते हुए
आप कितने स्वस्थ हो?
पवित्र स्थानों में बैठकर
पवित्रता का व्यवसाय करनेवाले
पुजारी, पादरी और मुल्ला कितने स्वस्थ हैं?
मुझे तो कहीं भी, कोई भी
कभी स्वस्थ नजर नहीं आता
बाबू! इनसे कभी आपने यह सवाल पूछा है?
यह सवाल फिर मुझसे ही क्यों पूछते हो?

बाबू! आप अक्सर यह भी पूछते हो -
’इस काम को करते हुए
मुझे शर्म क्यों नहीं आती है?’
सच है, आप ऐसा कह सकते हैं
इस काम को करते हुए
मुझे कभी शर्म नहीं आती है
पर मैं भी आपसे पूछती हूँ -
’ऐसा बेतुका प्रश्न पूछते हुए
आपको कभी शर्म आती है?’

बाबू! सच कहूँ
सफाई और गंदगी या
पवित्रता और अपवित्रता
अथवा श्रेष्ठता और निकृष्टता के सवाल पर
आपकी और मेरी सोच में
सदियों से एक बड़ा और बुनियादी अंतर है
जो आपको कभी दिखता नहीं है।

आपका यह प्रश्न बहुत घिसा-पिटा,
बहुत पुराना है
अनगिनत लोगों ने अनेकों बार इसे दुहराया है
इसीलिए आपका यह प्रश्न
आपकी छद्म-संस्कृति और
छद्म-सभ्यता के नाम पर
हाथोंहाथ बिक जाता है

परंतु, आपके समाज की इसी
छद्म संस्कृति और सभ्यता के बाजार में
मेरा प्रश्न कभी किसी को दिखता नहीं है
इसीलिए, यह कभी बिकता नहीं है।

बाबू!
मैं जानती हूँ
मेरे निरक्षर होने
और मैला ढोने पर आपकों प्रसन्नता होती होगी
इसे आप अपनी जीत की तरह मानते होंगे
इस पर आपको गर्व होता होगा

पर इस जीत के पीछे की आपकी कुटिलता
कभी मुझसे छिपती नहीं है
मेरी निरक्षर निगाहें भी
आपके अक्षरों के पीछे छिपे सड़ते सारे कूड़ों को
साफ-साफ देख लेती हैं

परंतु इस सच्चाई को आप देख नहीं सकते
कि आपकी साक्षर योग्यता
आपको कभी साफ रखना नहीं चाहती
और मेरी निरक्षर हुनर
कहीं कोई गंदगी छोड़ना नहीं जानती।’’
000



सच होती एक उक्ति

ईश्वर और अल्लाह एक नहीं थे
उन्हें एक करने के लिए एक उक्ति गढ़ी गई
’ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान’
और यही उक्ति
मेरे उपर्युक्त कथन का प्रमाण है।

अपनी और अपने शास्त्रों की आलेाचनाएँ,
अविश्वास और टिप्पणियाँ कोई मनुष्य करे
यह छूट न कभी ईश्वर ने दिया है
और न अल्लाह ने।

फिर भी मैं निर्भीक होकर
ईश्वर की आलोचनाएँ कर सकता था
ईश्वर के अस्तित्व को नकार सकता था
परन्तु
अल्लाह के बारे में
ऐसा न अब सोच सकता हूँ
न पहले कभी सोच सकता था

’ईश्वर अल्लाह तेरो नाम ...’
यह किसी आशावादी की उक्ति होगी
अथवा किसी हताशावादी की
और मैं -
न तो आशावादी हूँ
और न हताशावादी
यथार्थ जो दिखाता है उसे मानता हूँ
इसीलिए इस उक्ति को सिरे से नकारता हूँ।

पर अब, यह उक्ति सचमुच
सच होती दिखती है
निःसंदेह, ईश्वर और अल्लाह
एक होते दिखते हैं
क्योंकि अब तो
ईश्वर के संबंध में भी कुछ कहते हुए
गले पर असंख्य तलवार
लटकते हुए दिखते हैं।

फतवों और तलवारों के बाद भी
ईश्वर और अल्लाह,
और ऐसे सभी तत्वों को मैं नकारता हूँ
क्योंकि ये मुझे महज
एक काल्पनिक दृश्य लगते हैं।

और, कल्पना के केवल एक ईश्वर और
एक अल्लाह को क्यों माना जाय?
जबकि मानने के लिए मुझे अपने चारों ओर
घिसटते-रपटते चलतेे, रोते-बिलखते
असंख्य, आदमी ही आदमी नजर आते हैं।
000





ब्रह्माण्ड का पहला इतिहास

यह हमें बताया गया है -
’अंधकार अज्ञानता का प्रतीक है’
इसीलिए इसे हम जानते हैं
इसे हम इसलिए नहीं जानते हैं कि
इसे हमने जाना है
हमने कभी कोशिश नहीं की
अंधकार को जानने की
’अंधकार को सदैव हमने
अज्ञानता के प्रतीक रूप मे ही जाना है’।

अंधकार किसका प्रतीक है?
और -
अंधकार क्या है?
दोनों भिन्न प्रश्न हैं
अंधकार को अज्ञानता का प्रतीक बताना
अंधकार को जानने के प्रयास की विफलता है
इसीलिए
अंधकार को जानने का दंभ भरना
अंधकार की और अधिक गहरी पर्त में दफ्न होना है।

ब्रह्माण्ड के पूर्व भी अँधकार था
ब्रह्माण्ड को अँधकार ने ही रचा था
अंधकार ने ब्रह्माण्ड रचकर
खुद का पहला इतिहास रचा था
समय के सफों पर
अपनी भाषा और अपनी लिपि में लिखा था
जिसे न तो कभी देखा गया
न पहचाना गया, न पढ़ गया

और इस तरह अंधकार को
कभी किसी के द्वारा नहीं जाना गया।

उजाले का न होना
अंधेरे का होना नहीं है
उजाले में कालिख का घुल जाना
अंधेरा होना होता है

और अंधेरा कभी कालिख नहीं होता है
उजाले की तरह उजला होता है।

अंधकार को जाने बिना ब्रह्माण्ड को जानना
और दुनिया के बारे में कुछ भी जानना
दुनिया को अधूरा जानना है।

दुनिया के बारे मे
हमारी अब तक की सारी जानकारी
आधी और अधूरी जानकारी है।
000


मुझे सजा लेना चाहते हो

मैं खुद को खुद से नहीं जानता

परन्तु -
मैं अपने जंगलों को जानता हूँ
और इन जंगलों को खुद से अधिक जानता हूँ
जैसे ये जंगल, वैसा मैं

मैं अपने पेड़ों को जानता हूँ
और इन पेड़ों को, खुद से अधिक जानता हूँ
जैसे ये पेड़, वैसा मैं

मैं अपने पहाड़ों को जानता हूँ
और खुद से अधिक मैं इन पहाड़ों को जानता हूँ
जैसे ये पहाड़, वैसा मैं

मैं अपनी नदियों को जानता हूँ
और खुद से अधिक इन नदियों को जानता हूँ
जैसी ये नदियाँ, वैसा मैं

मैं अपनी हवाओं को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ, इन हवाओं को
जैसी ये हवाएँ, वैसा मैं

मैं अपने इन पक्षियों को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ, इन पक्षियों को
जैसे ये पक्षियाँँ, वैसा मैं

मैं अपने हिरणों और बाघों को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ
इन हिरणों और इन बाघों को
जैसे ये हिरण और बाघ, वैसा मैं

मैं खुद को खुद से नहीं जानता
मैं खुद को जानता हूँ
इन जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों
नदियों, हवाओं, पक्षियों
और यहाँ के प्राणियों से

और सुनो -
ये ही मेरी भाषा हैं,
ये ही मेरे संस्कार हैं
ये ही मेरी सभ्यता और मेरे धर्म हैं
ये ही मेरी पहचान और मेरे प्राण हैं -
मेरी अपनी जानी-पहचानी हुई

इन्होंने न कभी तुम्हारा बुरा किया
और न ही तुम्हारा कभी कुछ छीना

मैंने भी न कभी तुम्हारा बुरा किया
और न ही तुम्हारा कभी कुछ छीना

परन्तु -
तुमने मुझे कहा - आदिवासी
और मैं आदिवासी हो गया
तुमने मुझे कहा - नक्सली
और मैं नक्सली हो गया

और इस तरह
मुझे मारा और मिटाया जाने लगा
मेरा सबकुछ मुझसे
छीना और लूटा जाने लगा
मेरे खात्में की यह शुरुआत थी

और अब तुम
मेरे जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों,
नदियों, हवाओं और
पशु-पक्षियों को पूरी तरह मिटाकर
मुझे पूरी तरह मिटा देना चाहते हो

क्यों
मेरा सबकुछ छीन लेना चाहते हो
मुझे
म्यूजियमों और चिड़िया-घरों में
जीवाश्मों और
लुप्तप्राय प्राणियों की तरह
सजा लेना चाहते हो?
000



बस
1

बस का अर्थ जानते हो?
तो बताओ -

किसी ने कहा -
’’वह, जो हमें पहुँचाती है
हमारे गंतव्य तक
पीं-पों, पीं-पों, घर्र-घर्र करती
(और बीच में जो कभी धपोड़ भी देती है।)’’

किसी ने कहा -
’’वह, जो हमारी सामथ्र्य है
और जिसके चलते
हम बहुतकुछ कर लेते हैं
बहुतकुछ कर लेने की चाह रखते है।’’

किसी ने कहा -
’’बस! माने पूर्ण विराम
जो लगा हुआ है बहुत दिनों से
हमारे विचारों पर,
लगा दी गई है जिसे हमारी अभिव्यक्तियों पर
हमारे अधिकारों पर
गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही
बहुतकुछ कर लेने के पहले ही।’’

किसी ने ऐसा भी कहा -
’’बस! माने वह भाव
जो ताकत और अधिकार बन हुआ है सदियों से
सवर्णों, शोषकों, सामंतों और दबंगों का
और जो बेबसी और किस्मत बना हुआ
दलितों, शोषितों, गुलामों और वंचितों का।’’

अंत में एक आवाज और आई -
’’बस का अर्थ ऐसे समझ में नहीं आयेगा
इसके लिए कुछ अलग करना होगा
सही देखने के लिए, इसे उलटना होगा
और इस तरह ’बस’ को ’सब’ बनाना होगा
ताकि सबको उनका सभी प्राप्य मिल सके
सब, सबमें, सबको, स्वयं को पा सके।’’
0

2

जब-जब, जितना-जितना
मंहगे और चटक वस्त्र ओढ़ते जाता हूँ
तब-तब, उसी अनुपात में
उतना ही अनावृत्त होते जाता हूँ।

वैज्ञानिक इसमें व्युत्क्रम अनुपात का नियम ढूँेंढेंगे।

नीयत के खोंटेपन के इन आयामों को
खोटे नीयत के इन चलित दृश्यों को
पता नहीं आप क्या कहेंगे
समझ नहीं आता, मैं इसे क्या कहूँ
पर अपने व्यवहार-व्यापार की इस सच्चाई को मैं
पल-प्रतिपल जरूर देखता हूँ।
000



यह, वह समय नहीं है

यह, वह समय नहीं है
यह, इस समय है, सच यही है
वह समय, अभी नहीं आनेवाला है
वह समय, को कोई अभी नहीं लानेवाला है

वह आये,
ऐसा जतन करनेवाला अभी कोई नहीं है
उसे लाया जाये,
ऐसा सोचनेवाला भी अभी कोई नहीं है

लोग अभी,
इस समय को भुनाने में मस्त हैं
लोग अभी,
इस समय को बिताने में व्यस्त हैं

यह समय
साबित, सिद्ध और प्रमाणित होने का समय है
यह समय
साबित, सिद्ध और प्रमाणित लोगों का समय है

और
इस समय लोग स्वयं को
साबित, सिद्ध और प्रमाणित करने में लगे हुए हैं
घृणिततम पाप करके
जघन्यतम अपराध करके
गर्वोक्त कथन में लगे हुए हैं -
’तुम्हारे ..... में दम है तो साबित करके बता
फिर ऊँगली उठा ...... ।’

उसे पता है
यह, यह समय है, और
इस समय कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता
साबित, सिद्ध और प्रमाणित लोगों के खिलाफ
इस समय कुछ भी नहीं किया जा सकता
साबित, सिद्ध और प्रमाणित लोगों की मर्जी के खिलाफ

लोग स्वयं को
साबित, सिद्ध और प्रमाणित करने में लगे हुए हैं
ताकि उनकी मर्जी के खिलाफ
कुछ भी साबित, सिद्ध और प्रमाणित न हो सके
इस समय।

वह समय
अपमानित और तिरस्कृत होकर चला गया था
हजारों साल पहले
वह समय शायद अब लौटकर आनेवाला नहीं
हजारों सालों तक

इस समय, अभी कोई नहीं है
उसका सम्मान और स्वागत करनेवाला।
000




इसी शहर में

अब,
अड़सठ साल बाद
भीखमंगों की हैसियत बढ़ गई है
या,
भीख देनेवालों की,
पता नहीं

भीख में अब वे खुल्मखुल्ला
दस मांगने लगे हैं

पता नहीं
कौन सी दुआएँ देते होंगे - दस देने पर वे
पर नहीं देने पर
सुनने को जरूर मिलती हैं -
’’साले कंगला हो!
दस रूपिया घला नई हे, तुँहर तीर?’’
(यह मेरा अनुभव है।)

तब की बात,
विनोद कुमार शुक्ल बताते हैं -
भात पसाते ही
’’भीख मांगनेवाले आना शुरू कर देते।
पुकारते - ’बाई! पसिया-पेज1 दे दे।’
पसिया-पेज की भीख दी जाती।’’

कुछ भी हो
भूखा आदमी भी
खाने की गंध दूर से सूँघ लेता है -
कुत्ते-बिल्लियों की तरह

कुछ भी हो
भूख
आदमी को कुत्ता बना देता है

और,
कुछ हो, या न हो
यह देश आज
भूखों का देश बनता जा रहा है।
000


सरकार ताप से डरती है

बेजान शरीर ठंडा हो जाता है
ठंडा हो जाना, ताप का गिर जाना है,
ठंडा हो जाना, मर जाना है

ताप को बनाये रखना, जिंदा रहना है
गरमाए रहना, जिंदा रहना है
जानदार शरीर गरम रहता है

सरकार ताप से डरती है
ताप से आग भड़कने का खतरा होता है
सरकार को ठंडा देश चाहिए
सरकार को ठंडी जनता चाहिए
सरकार को मुर्दों की भीड़ चाहिए

सरकार की व्यवस्था हमेशा
पर्याप्त और दुरुस्त रहती है
देश में ठंडकता बनाये रखने के लिए
जनता को ठंडा बनाये रखने के लिए

मुआवजे और सस्ते अनाज
अग्निशमन यंत्र हैं, सरकार के
आग को यह काबू में रखता है
देश को यह ठंडा बनाये रखता है
जनता इससे ठंडी बनी रहती है

सरकार हमेशा सुरक्षित दूरी बनाकर रखती है
आग और चीजों के बीच में
सरकार हमेशा अग्निशमन यंत्र लगाकर रखती है
आग और लोगों के बीच में

आग को कोई देख न ले
आग को कोई पहचान न ले
आग को कोई पा न ले
इसलिए आग को
और आग की पहचान को
सरकार हमेशा छिपाकर रखती है

सरकार हमेशा
विचार करनेवालों को पटाकर
धमकाकर, गरियाकर, ललचाकर या फिर अंत में
अपने रास्ते से हटाकर रखती है

सरकार हमेशा
विचारों को दबाकर रखती है।
000



गोल-गोल घानी, ठाँय-ठाँय पानी।

गोल-गोल घानी, देखो मेरा पानी।
गोल-गोल घानी, कित्ता तेरा पानी?

गोल-गोल घानी, माड़ी-माड़ी पानी।
गोल-गोल घानी, जिद्दु, मित्तु अबानी।

गोल-गोल घानी, कनिहा-कनिहा पानी।
गोल-गोल घानी, जिद्दु, मित्तु अदानी।

गोल-गोल घानी, अरब, परब, घाटी।
गोल-गोल घानी, हम इलुमिनाटी।

इधर से जाऊँगा। आतंकी बिठाऊँगा।
इधर से जाऊँगा। नक्सली बिठाऊँगा।
इधर से जाऊँगा। पुलिस बिठाऊँगा।
इधर से जाऊँगा। फौजी बिठाऊँगा।

गोल-गोल घानी, दे दो मालिक पानी।
गोल-गोल घानी, कहाँ है तेरा पानी?

गोल-गोल घानी, दे दो साहब पानी।
गोल-गोल घानी, ठाँय-ठाँय पानी।
000


भक्त या गुलाम

हे! क्षीरसागरी, शेषशायी
सचमुच अगम्य है तुम्हारी दुनिया
अनिर्वचनीय हैं तुम्हारे कार्य
लोग जिसे तुम्हारी लीलाएँ कहते हैं।

ऐसा कहनेवाले तुम्हारी दुनिया देख आये हैं?
तुम्हें लीलाएँ करते देख पाये है?

वस्त्र, रत्न, आभूषण और सारे आयुध
जिसे तुम धारण करते हो
इसी दुनिया के हैं
लक्ष्मी जहाँ से आयी है
वह भी इसी दुनिया में है
ऐश्वर्य तो लिया इस दुनिया से
गरीबी और बेबसी क्यों नहीं ली?
तुम्हारा स्वर्ग, क्षीरसागर और शेषशैया
किस दुनिया के हैं,
जहाँ तुम छिपे हुए हो?
इसका मर्म समझानेवाले
इसे देख आये हैं?
मर्म समझानेवाले
इसका मर्म क्या समझा पायेंगे?

इस समाज की रचना करनेवाले
हे! समाजविहीन
ऋषि कहतें हैं तो
समाज की समझ तुम्हें जरूर होगी

तुमने अर्जुन से कहा है -
’’चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्ययम्।।’’
बताओगे, कैसे?
यह सच है?

गाँव-गाँव, गली-गील और मुहल्ले-मुहल्ले में तैनात
तुम्हारे बारे में तरह-तरह की जानकारियाँ देनेवाले
धनसागर और ज्ञानसागर में अवगाहन करनेवाले
मुक्ति का मार्ग बतानेवाले, तुमसे बंधे - अमुक्त लोग
बताओगे
तुम्हारे भक्त हैं,
या तुम्हारे गुलाम?
000


आदमी की कोटियाँ 

दो कोटियाँ प्रचलित हैं आदमी की -
नमक हलाल और नमक हराम

नमक और आदमी का संबंध
कोटियों का संबंध है
आदमी की कोटियाँ तय करता है, नमक

नमक चाहता है खून बन जाना
खून चाहता है पसीना बन जाना
और
श्रमशीलों के माथे से
बह जाना
शिव की जटाओं से बहती है - जैसे गंगा

पसीना बनकर बहता हुआ नमक
आदमी को आदमी बनाता है
पसीना बनकर बहता हुआ नमक
आदमी को शिव बनाता है

पसीना बनकर बह जाना
नमक की सार्थकता है
और पसीना बहाना आदमी की।
000


पृथ्वी का भार ढोते हैं श्रमशील मनुष्य

समुद्र मंथन करनेवाले
और अमृत की प्रतीक्षा में कतार में बैठे
देवताओं में से कोई देवता नहीं हैं -
चन्द्रमा और सूर्य

धड़विहीन कोई दैत्य नहीं हैं -
राहु-केतु
चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का
कहीं कोई दूर-दूर का संबंध नहीं है इनसे

पृथ्वी किसी शेषनाग के फन पर नहीं टिकी है
और न ही टिकी है
एटलस नामक किसी देवता के कंधे पर
धरती का भार ढोते हैं, श्रमशील मनुष्य
धरती शस्यश्यामला कहलती है
श्रमसीकरों से

विश्वास करना आपका निजी मामला है
चाहे जितना विश्वास कर लें
मिथकों से भरे हुए शास्त्रों पर
पर आपका कोई अधिकार नहीं बनता
श्रम और श्रमशीलों की अवहेलना करने का
उनके महत्व को नकारने का।
000



समाधान

इधरवाले कहते हैं -
धरती शेष नाग के फन पर टिकी हुई है?
हाँ जी, बिलकुल
शास्त्र कभी झूठ नहीं बोलते।

उधरवाले कहते हैं -
धरती एटलस के कंधे पर सधी हुई है?
नहीं जी, बिलकुल गलत
शास्त्र कभी झूठ बोलते हैं?

और इस तरह दोनों झगड़ने लगते हैं।

प्रिय भक्तों!
शास्त्र कभी झूठ नहीं बोलते
फरक हमारी समझ में है, जो ऐसा लगता है
धरती को साधनेवाला देवता एक ही है
दरअसल उसका इधरवाला पहलू
शेषनाग की तरह
और उधरवाला एटलस की तरह दिखता है

शास्त्रीजी समाधान करते हैं।
000




मुँह उद्योग 

बनानेवाले ने बनाया एक मुँह
रहा होगा वह कोई कलाकार
तथाकथित, कला और सौंदर्य का साधक
बेवकूफ और बेकार।

हम व्यापारी हैं
संभावनाओं के पार जाते हैं
क्लोनिंग तकनीक जानते हैं
क्लोनिंग करके एक के अनगिनत मुँह बनाते हैं।

अब हमारे पास हैं कई मुँह
कई तरह के
लुभावने भी डरावने भी -

बाल के, खाल के,
गाल के, चाल के, कदमताल के,
सबके सब बड़े कमाल के,

कान के, नाक के, जुबान के,
पहचान के, मान-सम्मान के,
दुनिया-जहान के,

गर्दन के, नमन के, धड़कन के,
अकड़न और जकड़न के,
अटकन-मटकन के,

नखों के, आँखों के, आँसुओं के,
दुआओं, कराहों, कहकहों, आहों के,
बाहों के, चाहों के, भावों और घावों के,

पेट और पीठ के, कूल्हों और छातियों के,
जांघों, घुटनों, एड़ियों, टखनों और तलवों के
दांतों, होठों, मुस्कानों,
अदाओं और स्तनों के जलवों के

और?
और पता नहीं
कितने, और कितने

कितने बन पाये हैं
कितने और कैसे-कैसे बनाये जायेंगे
बाजारों और दुकानों में
जिंसों की तरह इसेे सजाये जायेंगे
मुँह बेचकर ही अकूत धन कमाये जायेंगे।

मुँह उद्योग आज का सर्वाधिक कमाऊ उद्या0
000


इसे जला दो

हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
अपवित्र हो चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
सहेज रखा है इसने
प्यार और जतन से
ढेरों अपवित्र शब्दों को

हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
गंदा हो चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
सहेज रखा है इसने
प्यार और जतन से
दुनियाभर के सड़े-गले और
गंदे-गंदे शब्दों को

हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
अशुद्ध हो चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
सहेज रखा है इसने
प्यार और जतन से
पता नहीं कितने-कितने
अशुद्ध, और अग्राह्य शब्दों को

हटाओं, फाड़ो, फेंको
दफना दो या जला दो
मर चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
मर चुकी हैं इनकी संवेदनाएँ
न इनके शब्द
अब अपने अर्थ बदल पाते हैं
न कोई अर्थ यहाँ अपने लिए
कोई सार्थक शब्द गढ़ पाता है

हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
बेकार हो चुका है यह शब्दकोश
हम लोगों के लिए
क्योंकि -
न अर्थ, न शब्द, कुछ भी सही नहीं हैं
यहाँ हम लोगों के लिए

हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
इस दुनिया का नहीं है यह शब्दकोश
क्योंकि -
इसे हमने नहीं
ईश्वर ने बनाया है इसे।
000



भीड़ और जानवर 

हवा से केवल बातें ही नहीं करती हैं
भीड़ पर गरियाती,
भीड़ को धमकाती-चमकाती और डराती भी हैं
अब मोटर सायकिलें।

मोटर सायकिलें जब कहती हैं - टी ...... ट्
तो कह रही होती हैं - हटिए
मोटर सायकिलें जब कहती हैं - टिट् टी
तो कह रही होती हैं - हट बे
मोटर सायकिलें जब कहती हैं -
टिट्-टिट् टि-टि टिट्
तो कह रही होती हैं - दूर हट  .... ...... (एक अपशब्द)

मोटर सायकिलें,
मोटर सायकिल नहीं रह जाती
आदमी बन जाती हैं
और चालक भी,
आदमी नहीं रह जाता
मशीन बन जाता है
इस तरह दोनों बदल जाते हैं
भीड़ में जब दोनों धुस जाते हैं

यूँ तो हर भीड़, जानवरों की भीड़ नहीं होती है
पर हर भीड़ में, जानवर जरूर मौजूद होते हैं
भीड़ में आकर लोग, अक्सर जानवर बन जाते हैं।
000


चिंतागुफा के लोग

हे राम!
तुम्हारी लीलाएँ हम मूढ़मति क्या समझेंगे
तुम्हारे भक्त जरूर समझते होंगे

तुम्हारी लीलाओं के हर एक मर्म को
तुम्हारे भक्त जरूर, जरूर समझते हैं
और, इसीलिए तो, गाँव-गाँव में,
जरूरत मुताबिक, उसका मंचन भी करते हैं

तुम भक्तों पर दया करनेवाले हो, महान कृपालु हो
तुम्हारी दया और कृपा भक्तों पर बरसती है
और, इसीलिए तो तुम्हारे भक्त
बाकियों को दे शिकस्त
रात-दिन तुम्हारे गुणगान में व्यस्त हैं,
तुम्हारी भक्ति की मस्ती में मस्त हैं

कोई गुप्त समझौता हुआ है न
अपने भक्तों के साथ, तुम्हारा?

क्योंकि, उस दिन -
सबेरे से ही आने लगी थी खबरें
तुम्हारे भक्त के मध्याह्न गृहप्रवेश की

और आज
सारा दिन, सर्वत्र, समस्त चैनलों पर
केवल तुम ही तुम हो, और हैं तुम्हारे भक्त केवल
चिंतागुफा की चिंता कहीं नहीं है

हे राम!
तुम्हारे भक्तों ने तुम्हें बताया नहीं होगा
आज फिर,
सामूहिक दुष्कर्म हुआ है
चिंतागुफा में एक बच्ची के साथ

पर क्या करें भगवन!
इसे खबर मानें और छापें भी तो कैसे,
आज तुम्हारा जन्मदिन है
इसे प्रकाशित करना
तुम्हारे जन्मोत्सव की खबरों के बीच
बड़ा अशुभ नहीं होता?

और फिर, तुम्हारे भक्त भी तो नहीं हैं
चिंतागुफा के ये लोग
सूर्पणखा के वंशज होंगे, अभागे
नाक कटना ही जिनकी नियति है

हे राम!
तुम्हारी लीलाएँ हम मूढ़मति क्या समझेंगे
परंतु दर्शक समझ जाते हैं
मंच पर लटक रहे परदे की चित्रावली देखकर
कौन सा अध्याय अभिनीत होनेवाला है
आज तुम्हारे पावन चरित्र का

अंदर का मजमून समझ में आ जाता है, भगवन!
हल्दी लगे लिफाफे और किनारे से कटे कार्ड का

हे राम!
इतना तो तुम भी समझते होगे।
000

पहले यहाँ पर

पहले यहाँ पर इतने लोग नहीं होते थे
कम होते थे
पर सभी जमीन पर रह रहे होते थे

बहुत खुलापन होता था
जगहें बहुत होती थी
पर पूरी तरह हरी-भरी
और पूरी तरह भरी-भरी होती थी

घर कम होते थे
बस्तियाँ छोटी होती थी
पर सब भरीपूरी होती थी
और सबके लिए पूरी-पूरी होती थी

लोग कम होते थे
पर परस्पर संबंधित होते थे
चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मौसा-मौसी,
दादा-दादी खूब होते थे
सब बंधे होते थे
सब अपने होते थे

यहाँ कम लोग आते थे
भीड़ कम होती थी
शोर कम होता था
पर चहल-पहल बहुत रहती थी

हवाएँ ऐसी नहीं होती थी
उनमें प्रेम की उद्दीप्त तरंगें
रिश्तों की मधुर महक और ताजगी
और अपनेपन की शीतल नमी होती थी
हवाएँ जीवित होती थी

पेड़-पौधे मस्ती में झूम रहे होते थे
शाखाएँ और पत्तियाँ उनकी
स्वस्थ और ताजे होते थे
बाहों में समेटने के लिए सबको
सब के सब, उत्सुक और लालायित होते थे

तितलियाँ नाचती रहती थी हमेशा
और पक्षियाँ गाते रहते थे मधुर-मधुर गीत
जैसे रहते थे आतुर सब
आनेवालों के स्वागत के लिए
और उसी तरह अधीर होते थे,
आनेवाले भी सभी, इनसे मिलने के लिए

वह जगह अब भी है यहीं
अपनी जगह पर
समय के साथ पर वह बदल गयी है

अब समय  के साथ
बदल गये हैं सभी
लोग, घर और बस्तियाँ,
पेड़़-पौधे, हवाएँ, पक्षी और तितलियाँ।
000

कन्फेशन

हे ऊपरवाले!
मेरे किये गये पापों के लिए मुझे क्षमा कर

अपने पापों को मैं स्वीकार करता हूँ
स्वीकार करता हूँ कि आज -

मजबूरी में किसी बुतखाने के सामने से गुजरते हुए
वहाँ रखे बुतों पर मेरी निगाहें पड़ गयी थी
आरती के दीयों की रौशनी
मेरी आँखों में गड़ गयी थी
हे मालिक!
मेरे आँखों की रौशनी को बख्श दे

वहाँ से आती घंटों-घड़ियालों की आवाजें
मेरे कानों को बेधती, उतरती चली गयी थी
हे सर्वशक्तिमान!
मेरे कानों के परदों को सलामत रख

नहीं चाहते हुए भी परसाद लेना पड़ा था
सोचा, था कि मुर्गियों के काम आयेंगे
पर नहीं, हे परमपिता!
जिसके खून में परसाद मिला हो
ऐसी मुर्गियों का मांस खाने से हमें बचा

हे पिता!
हमें परीक्षा में न डाल, वरंच बुराई से बचा।
000

शव परीक्षण का रिपोर्ट कार्ड

वह झूल गया था
जमीन से कुछ इंच ऊपर, मयाल से
और गर्दन उसकी एक ओर लुड़क गयी थी
जीवन-रस को लतियाता
रस-वंचित जीभ निकल आया था
दुनिया से बाहर, दुनिया को लानतें भेजता
और पथराई हुई उनकी विरस आँखें,
छिटक गये थे, आसमान की ओर
सितारों की दुनया से दो-दो हाथ करने
जीवन की रंगीनियों को
जीवन की दुश्वारियाँ दिखाने।

जरा भी रहम नहीं किया था
जरा भी मोहलत नहीं दी थी
जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखलाई थी
नायलोन की उस बेरहम रस्सी ने
बाजार के हाथों की छाप जिसके ऊपर है
अकूत मुद्राओं की ताप जिसके भीतर है
बल्कि उसने
आँखों को चैंधियाती सुंदरता की आवरणवाली
अपनी उस धूर्त ताकत को ही दिखलाई थीे
ताकत के संग-संग
जिसके अंदर भरी हुई ढेरों छद्म और चतुराई थी।
और अपने अभियान की इस सफलता पर
गर्व से वह इठलाई थी।

पैसे-पैसे जोड़कर
अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को निचोड़-निचोड़कर
भूख से ऐंठती आँतों को मुचोट-मुचोटकर
बचाये गये थोड़े से उन रूपयों को
बख्शा नहीं होगा, कानून के रखवालों ने भी
झटक लिये होंगे, कानून का भय दिखाकर
गटक लिये होंगे
हत्या के आरोप में फँसाने को धमकाकर।

और इस तरह
होरी के एक बार फिर से मर जाने पर
धनिया एक बार फिर से ठग ली गयी होगी
जाहिर तौर पर इस बार
सरकारी विधान का भय दिखाकर।

शव-परीक्षण करनेवाले ओ! डाॅक्टर
अपने रिपोर्ट में आपने क्या लिखा है, क्या पता?
पर साहब, इससे हासिल भी क्या होता है
आपके इस लिखे को पढ़ने, न पढ़ने से
धनिया और होरी के होने, न होने को
भला फरक भी क्या पड़ता है।

ऐसे मामलों में अब तक आप
जैसा लिखते आये हो
आज, यहाँ भी आपने वही तो लिखा होगा
मामले की असलियत को
भला आपनेे भी कहाँ देखा और कहाँ समझा होगा?

उनकी खोपड़ी के भीतर के तंत्रों में
जहालत की जो इबारतें लिखी रही होंगी
उसकी लिपि आज तक किसी ज्ञानी,
किसी विज्ञानी द्वारा पढ़ी नहीं जा सकी है
आप उसे कैसे पढ़ सके होगे?

उनकी ऐंठी-चुरमुराई हुई आँतों के अंदर
अभावों की जो रिक्तिकाएँ बिखरी रही होंगी
उसकी सँख्या आज तक कभी
किसी गणितज्ञ द्वारा गिनी नहीं जा सकी है
आप उसे भला कैसे गिऩ सके होगे?

उनकी आँखों के विवर्ण परदे के ऊपर
अपमान और लाचारी की जो
भयावह छबियाँ चित्रित रही होंगी
वे न तो सरकार को कभी दिख पाती हैं
और न ही कभी ईश्वर को
आपको भला वे कहाँ दिख पायी होंगी?

अरे! ऐसे मामलों में अब तक
जैसा लिखते आये हो आप
कैसा आश्चर्य, यदि यहाँ भी,
आपने वैसा ही लिखा होगा
मामले की असलियत को भला
आपने भी कहाँ देखा और कैसे समझा होगा?

उसके नाम और पते का विवरण भी
जैसा आपको बताया गया होगा -
निहायत औपचारिक और दुनियावी
वैसा ही आपने लिख दिया होगा।

पर, सुनो ऐ डाॅक्टर
उसका परिचय -
न तो वह इन्सान था
और न ही भगवान था
इन दोनों से कही बहुत ऊपर
हत् भागी, पर
इस देश का एक किसान था।
000
kuber


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