शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

कविता - गोवर्धन परतेती

अतीत की यादें

गोवर्धन परतेती


आज भी याद है मुझे
मेरे बचपन की बातें
वृक्षों के झुरमुटों से आती
पक्षियों की, कलरव की आवाजें

बार-बार आकर्षित करती थी हमें
बेर और छिंद के पेड़ों की शाखाओं से
लटकते हुए, तिनकों से बने
और हवा के झोकों में
हिंडोले की तरह झूलते हुए
उन पक्षियों के अनगिनत घोसले

प्रकृति जैसे लोरी गा-गाकर
दुलार रही होती थी,
पाल रही होती थी,
सुला रही होती थी,
सृष्टि की रचना को पूर्णता देनेवाले
उन घोसलों में पलते हुए, नवागंतुकों को

घोसलों से आती चीं-चीं की मधुर आवाजें
अक्सर हमें पुकारती हुई आवाजें लगती
और हम लपककर चढ़ जाया करते थे
वृक्ष की उन शाखों पर
जिनमें झूल रहे होते थे वे हवामहल
और अपनी माँओं की प्रतीक्षा में
अधीर होते हुए उन बच्चों को
देख आते थे,
माँओं की प्रतीक्षा के वे पल कैसे होते हैं
क्या होती है माँओं की प्रतीक्षा की विकलता
महसूस कर आते थे।
0
पक्षियों के वे कलरव
सुबह-सुबह जो
नींद से मुझे जगाया करते थे
आज भी संगीत बन कर उतरते हैं
मेरी कविताओं में


मेरी कविताएँ जीवन पाती हैं
चीं-चीं की उन्हीं आवाजों से।

अब, न तो पेड़ों के वे झुरमुट रहे
और न कलरव की वे आवाजें
उजड़े हुए पहाड़ों से घिरा हुआ मेरा गाँव
नीरस और बेजान लगता है
जंगलों और झुरमुटों के बिना
पक्षियों के उन कलरवों के बिना।
0
तब
जब हम मित्रों की टोली गुजरती थी
इन्हीं पहाड़ों के बीच बनी पगडंडियों से
बेर, इमली, चार, तेंदू, आम और महुए
जैसे हमारी प्रतीक्षा कर रहे होते थे
अंजुरियों में ढेर सारे मीठे-मीठे फल लिये हुए
कि, बच्चो! आओ, ये सब तुम्हारे लिए ही हैं

इसी तरह, इन्हीं पगडंडियों से होकर
गुजरे होंगे कभी राम भी
और शबरी ने खिलाया था उसे
यही, मीठे-मीठे बेर

हम शबरी के वंशज
कैसे भूल जायें भला
शबरी की उस परंपरा को?

पर अब नहीं रही
शबरी की वह परंपरा भी।
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तब, हमारे बस्ते भरे होते थे,
तेंदू के मीठे फलों से
यह हमारा मध्याह्न भोजन हुआ करता था
एक-दूसरे के बस्ते से चुराकर खाना,
इन फलों को
और फिर इसी बात पर झगड़ना
अपूर्व अनुभव होता था हमारा

हमारे इस झगड़े को सुलझाते हुए हमारे गुरूजन
गुरूदक्षिणा में मांग लिया करते थे
बस्तों में भरे हुए इन्हीं फलों को

वशिष्ट और विश्वामित्र ने भी तो
मंगा होगा इसी तरह गुरूदक्षिणा, राम से।
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हमारे खेतों में आनेवाली हरियाली
और अन्न के दानों में संचित अमृत
इन्हीं जंगलों, इन्हीं पेड़ों
और इन्हीं रास्तों से ही होकर आते हैं
पर हाय!
नहीं रहे अब वे पेड़ और जंगल
अब है वहाँ जहर उगलते हुए कारखाने

पक्षियों के वे घासले भी नहीं रहे
नहीं रहे अब
बेर, इमली, चार, तेंदू, आम और महुए
शबरी की परंपरा को निबाहने के लिए।
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जब भी मैं रोपता हूँ
बेर, इमली, चार, तेंदू,
आम और महुए का कोई पौधा
रोपता हूँ मैं पुनः
शबरी की उसी परंपरा को
गुरूदक्षिणा की उसी परंपरा को।
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गोवर्धन परतेती 









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