मंगलवार, 30 जुलाई 2019

आलेख - वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं

वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं

प्रकृति के अकाट्य सत्य को अनावृत्त करते हुए डार्विन का सिद्धांत ’’समर्थ का जीवन या प्राकृतिक वरण (¼survival of fittest or natural selection½) कहता है कि - जीवन संघर्ष के फलस्वरूप अधिक सफल जीवनव्यतीत करनेवाले जीव ही समर्थ और योग्य हैं तथा वे ही प्रकृति में जिंदा रहकर अपनी संतानों को पैदा करते हैं। निर्बल पराजित होकर नष्ट हो जाते हैं। 

मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में यत्रतत्र इसी सिद्धांत की झलक दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में शोषकों और शोषितों की पहचान अत्यंत स्पष्ट हैं। सबसे बड़ा शोषक लोगों की धर्मभीरुता है जिसकी आड़ लेकर - ब्राह्मण, ठाकुर और लाला जैसे उच्चवर्ग के लोग गरीब किसानों और दलित मजदूरों का शोषण करते हैं। कुछ उदाहरण देखिए - 

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा - वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला - हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?  (कफन)
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शंकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, ‘अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगेय वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण वह भी ब्राह्मण का बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला, ’महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।’

विप्र -‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो?’

शंकर -‘मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी न दूँगा!’ (’सवा सेर गेहूँ’)
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दलित और किसान ही उनकी अधिकांश कहानियों और उपन्यासों में शोषित हैं। उनकी रचनाओं में महतो, कुरमी, अहीर और गड़ेरिया जाति के लोग ही किसान हैं जबकि संपूर्ण दलित जातियाँ मजदूर के रूप में चित्रित किये गए हैं। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में शोषण के विरुद्ध संघर्ष का संदेश देते हैं। उनकी रचनाओं में पुरुष पात्रों की तुलना में स्त्री पात्र शोषण का विरोध करने में अधिक मुखर हैं। कुछ उदाहरण देखिए -

पन्ना को चारों ओर अंधेरा- ही- अंधेरा दिखाई देता था। पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुन्दर थी, अवस्था अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हँसेंगे। बला से! उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊँची जातों में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे। (’’अलग्योझा’’)
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मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये। मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला - तो क्या गाली खाऊँ ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा - गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गयीं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।

उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली- तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस।

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था। (पूस की रात)
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kuber

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