समीक्षात्मक लेख
छत्तीसगढ राज बनिस 01 नवम्बर 2000 के दिन। उही दिन सइघो छत्तीसगढ़ ह उमिहागे, के अब हमर दुख के दिन ह नंदाही अऊ छत्तीसगढ म सुख के सुरूज किरिन छरिया जाही। तब बहिराखू खड़बाज मन के बलमुस्टाही, सरबसोखहा मन के अनियाव, अतियाचार के अंत हो जाही। फेर आही ए भुइयाँ म सच्चा सुराज, जेमा ’जे कमाही ते खाही’, इहाँ के पानी, इहाँ के बिजली जब घरोघर हबर जाही, तब सब्बो डहर जगर-मगर हो जाही। ए रतन भुइयाँ के खजाना ह जे खनि जम्मों जनता बर खुल जाही सब्बो के मरभुक्खई ह मेटा जाही। तब कोनो न पेचका रिही न पेटला। सब्बो एके बरोबर हो जाही, चारो मुड़ा सुमंगल सँचर जाही। गियान अऊ विवेक के अधार ले सुग्घर छत्तीसगढ़ के सपना ह पूरन हो जाही। एही तो सुराज होही न, सफल सुराज, छत्तीसगढ राज थापे के उदिम के परिपूरन होय के सफल काज।
कुबेर ह छत्तीसगढ राज बने के बाद छत्तीसगढी कहिनी के बारी म दू गोछा कहिनी धर के अवइया कथाकार आय। ओकर पहिलावत गोछा के कहिनी किताब के नाव आय - ’’भोलापुर के कहानी’’ जेन ह मेघज्योति प्रकाशन, तुलसीपुर, राजनांदगाँव ले सन् 2010 म परकासित होइस। उनकर दूसर गोछा कहिनी किताब के नाव आय - ’’कहा नहीं’’ जेहर प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर ले सन् 2011 म छपिस। ’’भोलापुर के कहानी’’ म चैदह अउ ’’कहा नहीं’’ म छय कहिनी मन संघराय हवय। अइसे लगथे दूनों गोछा के कहिनी मन के रचनाकाल निच्चट दुरिहा-दुरिहा नइये, फेर दूनो गोछा के कहिनी मन के भुइयाँ-भाठा अऊ सोर-संदेस मन ह अलगे-बिलगे हावंय। लेवव, अब दूनों कहिनी गोछा मन ला फरिया-फरिया के, निमार के परछो करे के उदिम करबो।
चलव, पहिली भोलापुर के एक फेरा लगा लेइन। ए गाँव ह न सहर ले चपके हे न ओकर ले अब्बड़ दुरिहा हे। उहाँ के लोगन के सउदा-सुलुफ, कोरट-कछेरी के निमत अवई-जवई चलत रहिथे। फेर गाँव तो गाँव आय न, अऊ उहू ह भोलापुर यानि भोलवा मन ले अघात भरपूर। उही रूख-रई, तरिया-नरवा अऊ छप्पर-छानी के गाँव। हावा-पानी, आमा-अमली तो सब्बो जगा एके बरोबर, पन मनखे मन के चाल-चलन अउ माली हालत म बनेच फेर-फार हवय। कोनो मालिक आय त कोनो मजदूर, कोनो रानी त कोनो नौकरानी, कोनो मास्टर त कोनो डाक्टर अऊ कोनो दाऊ त कोनो सेठ। उहाँ भूख अऊ भोग के जबर जंग माते दिखथे। भोगहा मन भोगावत हवंय पट-पट ले अउ भुखहा मन चुटचुटाय रोटी बर, पेज-पसिया बर, बेटी मन ला बहँचाय घलो म लचार दिखथंय। उहाँ जोर-जबर अऊ पोंगवा पंडित मन के छल परपंच सब्बो एके रद्दा चलत दिखथंय - जइसे सब्बो अजाद हावंय - सढ़वा घलो, मेढ़वा घलो। एला का कहिबे, रामराज के रक्साराज?
कुबेर के कहिनी मन भोलापुर के दरस म बहिनी बरोबर संगे-संग रेंगत हवंय। गाँव के महिलामंडल मा कहिनी म उतरे सब्बो भाई-बहिनी ठुलियाय हवंय। ओमा लछनी काकी, सुकारो दाई, नंदगहिन, देवकी अऊ फूलबासन के दरस अघातेच सुहावन हे। फेर फूलबासन ह अब्बड़ लजलजावत दिखत रहय। आगू बढ़ेन त रघ्घू, किसुन, जगत, लखन, फकीर, राजेस, रतनू, चंदू अउ मंगलू गाँव के मंझौत म बने चँउरा म हमला अगोरत संघराय रहंय। सब्बो ले जय-जुहार होइस। कुबेर के कहिनी के सब्बो पात्र पुतरी बरोबर सुमता के सुतरी अऊ बढ़ोतरी के बदना म बँधाय उमहात रहंय। उँकर तीर हाथ जोर के ठाढ़े रहंय - सुुंदरू, संपत, मुसवा, मरहा, मुरहा, घुरवा, नान्हें अऊ नानुक। चँउरा के जेवनी बाजू रामनामी चादर ओढ़े भसियावत रहंय - पेटला महराज, बिरिंदावनवाले महराज अऊ गाँव के मनहर महराज घलाक। सरपंच कका के तीर म झाड़ू गौंटिया अऊ उँकर समधी महराज मुचमुचावत दिखत रहंय। महंत रामा साहेब घला उही दिन भोलापुर आय रहंय अऊ सगरो गाँव ल उहाँ जुरे जान के आसन जमाय रहंय। फेर जोगेन्दर सेठ ह घेंच ल ओरमा के उहाँ बइठे रहय, अपन देसिया संगवारी सत्तू, राम अधीर, रामप्यारे अऊ अवधबिहारी मन के संग। तब्भे उहाँ प्रोफेसर वरमा के संग मरहाराम हबर गइन। लेवव उहाँ कतका सुंदर जुराव होगे, जइसे सइघो छत्तीसगढ़ ह उहाँ एके जगा संघरागे। हमला उनकर दरस-परस मिलगे अऊ उन सब्बों के गोठबात के गुनान के जउन सुखद सेवाद मिलिस ओला का कहिबे? कुबेर के कहिनी मन हमर आँखी अऊ कान होगे। सिरतोन कहन तो उन जम्मों छत्तीसगढ़ के जुबान होगे, हमर जाने-चीन्हे मीत-मितान होगे।
’भोलापुर के कहिनी’ म संघराय सबो कहिनी मन उहाँ के माटी अऊ बेटी मन के कहिनी आय। माटी ले जुरे हे रोटी अऊ बेटी ले जुरे हे मनखे के मान-मरजाद अऊ सामाजिक बेवहार। मतलब, भोलापुर के जीयत-जागत जिनगी अऊ जमीन के आरो लेवइया कहिनी मन अलगे-अलगे नाव धराय तो हावंय फेर सब्बो भोलापुर के धरती के मया के डोरी म बँधाय हवंय। चलव, पहिली भुइयाँ के पूछ-पछार कर लेइन अऊ अऊ जान लेइन के जमीन के मरम का हे, भरम का हे।
भोलापुर के भुइयाँ म भूख भारी हे जइसे उहाँ गरीबी के गंगार गड़े हे। उहाँ नोहर हे रोटी। मनखे कतको जांगर टोरथे, मिहनत-मजदूरी करथे, फेर ओकर पेट ह पचकेच रहिथे, भरय नहीं, त का करय? बड़हर मन के बँधना ले रोटी ल मुक्ताय नइ सकय। ओला बेबस हो के मरहाराम बने बर परथे अऊ सहर के रद्दा धरे ल परथे। सुदरू के जोही फूलबासन ला धरम के धरसा ले उतार देथे। संपत अऊ मुसवा अनबूझ अँधियार के भुतवा मन सही भोलापुर ल मतालत रथिे, फूलबासन के चरित्तर-चोला म दाग के ऊपर दाग लगाथें। लछनी काकी जइसे मयारुक महतारी के ऊपर टोना-टोटका करे के लांछन लगाथें। घना मंडल उन सतियानासी मन के घेरा म घिरल जाथे, दुख पाथे, फेर ओला गियाने ह मुकति देवाथे जब रघ्घू ह ओकर लंग अंजोर बनके आथे, तब्भे अँधियार ह नसाथे।
कहिथें न, ठलहा मनसे ह रक्सा सही रोग के, दोख के घर होथे। हमर गाँव-गँवई म जाँगर छँच्चा मनखे मन म नसा-पानी के रोग ह गझात हावय, जेकर सेती बेंदराबिनास मातत दिखथे। संपत अऊ मुसवा के संग गंजहा-मंदहा पारटी आ गइस हवय, पटवारी, नान्हे, नानुक, सब्बों माते हें, उन सरपंच के हाथ-हथियार बन गइन हावंय। नसापानी के चक्कर म खाली खेतखार, जमीन जहदादोच नइ बेचावय भलुक मनखे के जमीर घलो बेचा जाथे। तब थुकलू-जुठलू बने बर परथे। कथाकार ह अपन कहिनी मन म एकर ले छुटकारा देवाय के बदना करथे।
छत्तीसगढ़ म धरम-करम के नाव ले जउन ढोंग-ढकोसला चलत हावय कहिनी लिखइया हा ओहू ला उजागर करथे। पेटला महराज के गड़बड़छाला ह मनखे ल डेरवाथे, अब्बड़ अऊ ओकर सकत ला सोख लेथे। धरम के नाव म महंत रामाजी साहेब के अहंकार ह अंगेरथे अऊ दूसर महराजो मन ल लोभ-लालच के खँचवा म चिभोर देथे। सिधवा मनखे मन के का दुरगत होत होही, एहर सोचे समझे अऊ गुनान के गोठ आय।
छत्तीसगढ़ के रतन भुइयाँ के रकत चुँहकइया अब्बड़ हावंय। इहाँ के मनखे ला सिधवा मान के बहिरासू गुण्डा अऊ बैपारी मन बरपेली अमा गइन हावंय। कथाकार कहिथे - ’’छत्तीसगढ़ म लोटा धर के अवइया मन साल भर म हजारों सकल डारथें। दू साल नइ पूरे, लखपति बन जाथें। अऊ तीन पूरत करोड़पति बन जाथें। कार, टरक, बड़े-बड़े बंगला के मालिक बन जाथें। तुमन जस के तस।’’ (भोलापुर के कहनी, पृ. 90) जोगेन्दर सेठ अऊ ओकर कारिंदा मन घूसखोर सरकारी अमला ले साठ-गाँठ करके भुइयाँ हड़पे के धंधा करथें अऊ बाढ़ते जाथें। तब मरहाराम के मरन हो जाथे। मर-मर के जीथे, फेर जीथे, मरथे घेरबेरी।
कहानीकार अपन छत्तीसगढ़ी ग्राम भोलापुर के भोलवा मन ल जगाय के जंग ला जारी रखथे। पहिली तो पढ़े-लिखे नवयुवक मन ला रघ्घू के अगुवई म संघराथे अऊ बदलाव लाने के बोलबम लगाथे। मरहाराम छत्तीसगढ़ी मनखे के चिन्हारी बन जाथे। ओ ह जूझे के जोम करथे। अपन मान बर परान देहे के परन करथे। फेर का हे, अनियावअऊ अतियाचार ले मुकति बर धिरलगहा गाँव संघराय लगथे। कथाकार के संकेत हवय के हमन सब्बो ल छत्तीसगढ़ के मुक्ति अभियान म जुरना परही अऊ सोसन के खिलाफ बिगुल बजाय बर परही। एहा ओकर आरो करे के आवाज आय। ओकर माटी के मया अऊ सही मनखे होय के परमान आय। भोलापुर के कहिनीमन चकमक के पथरा आय। एमा विदरोह के चिनगारी हवय त सामाजिक अंजोर बर मसाल बरे के संकेत। कथाकार ह धर्मांधता कोति चेताय हवय त ओकर राजनीतिकरन तरफ ले बँहचे के बरजना घलाव बताय हावय। पारिवारिक जिनगी म सुख-संपदा बर सब्बो ला जुरमिल के रहय के संदेस धलो कहिनीमन म दिये गइस हे। नवयुवक मन नवजागरन के धुरी बने हें। जुन्ना जाही तब तो नवा आही।
कुबेर के दूसर कहिनी किताब के नाव आय - ’’कहा नहीं’’। एमा नारी मन के जिनगी अऊ अनकर कतरो रूप देखे के बरनन हवय। ’आज के सतवंतिन: मोंगरा’ म दहेज के मार झेलत बहुरिया के बिरतांत हे। मनखे के पसु-पक्छी मन लेे घलो नाता-रिस्ता, लाग-लगाव हो जाथे अऊ एक-दूसर के हितवा-मितवा हो जाथें, एला कहानीकार बताय हे। ’बाम्हन चिरई’ म लेखक के जीव-जंतु ले मया दिखथे। ओकर मयारुक संसार के बिस्तार ह दिखथे। बिना परकीरति ले जुरे मनखे के मुकति नइये, ए बात ह कहिनी के सार-संदेस आय। ’बसंती’ म नारी सिक्छा अऊ ’दू रूपिया के चाँउर’ म जांगर के मान ह दरसाय गइस हे। ’कहा नहीं’ म नारी के मया अऊ ओकर मान के सनमान हे। ’फूलो’ - एमा अइसे कहिनी हावय जेमा नारी के सोसन के जब्बर सरलगहा रूप-रेख देखाय गइस हे। बड़हर मन गाँव-गँवई के दुख के कारक घलो आंय अऊ मरहम लगोइया घलो जइसे उन मारथें, त रोवन नइ देवंय - मनखे ल मर-मर के जीये बर बेबस कर देथें। ’कहा नहीं’ कहानी म मूल कहिनी के भीतर अंतरकहिनी घलो हवय जेन कहिनी के परभाव ल मजबूत करथे। एमा लेखक के सामाजिक सरोकार के अऊ कतरो दिरिस्टान्त हावय - जेखर ले ओकर कहिनी मन के जरूरी होय के परमान मिलथे। कहिथें ’’यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ फेर दाई-महतारी मन के का दुरदसा हावय हमर समाज म सब्बो जानथन। समाज म सुधार लाने के मंगल कारज ल कहिनी मन कर सकथें। दुखदई दुनिया ल रद्दा देखा सकथें। बढ़िया दुनिया बनय जेमा सबला सुख मिलय अऊ जिनगी के गुरतुर सेवाद मिलय, ए उदिम ल कहिनी अऊ कथाकारेच ह कर सकथे, हमला अइसे लगथे। ए कारज म कुबेर ह बहुतेच सफल हे।
कुबेर ह छत्तीसगढ़ी कहिनी के मजबूत कथाकार आय। ओहर भासा के धनी आय। कल्पना सक्ती के ओ ह अपन लेखन म भरपूर बेवहार करथें। सही गोठ तो ए आय कि जउन रचना मन समाज, अऊ बढ़िया जिनगी के जतन करथे उही मन जुग-जुग जीथें अऊ जीये के बल बाँटथें। ए रद्दा म कुबेर सचमुच कुबेर आय। छत्तीसगढ़ी साहित्य म उनकर सनमान होही अऊ उन अवइया सम्मे म अउ नाम कमाहीं। हमला एकर बिसवास हावय। हम उनकर उज्जर भविस के मंगलकामना करत हन। जय छत्तीसगढ़, जय छत्तीसगढ़ी।
कुबेर के छत्तीसगढ़ी कहिनी के घेरा म एक फेरा
- डाॅ. बिहारीलाल साहू
इक्कीसवीं सदी के देहरी म, छत्तीसगढ़-महतारी के चँउका-चँउरा म अपन कहिनी मन के अरध चघोइया अउ जागरन के जोत जगइया रचनाकार के नाव आय - कुबेर यानि कुबेर सिंह साहू (उन अपन नाव के संग न सिंग लगावंय अउ न पूँछी)। ए कुबेर ह कोनो यक्छ नोहय, निमगा मनखे आय, मनखे। ओ ह माटी महतारी के मान बर, छत्तीसगढ़ी मनखे के सनमान बर जब्बर जतन करइया, जूझे के जोम म कलम के कटार ले के आघू अवइया माई के लाल आय - रचनाकार कुबेर।
छत्तीसगढ राज बनिस 01 नवम्बर 2000 के दिन। उही दिन सइघो छत्तीसगढ़ ह उमिहागे, के अब हमर दुख के दिन ह नंदाही अऊ छत्तीसगढ म सुख के सुरूज किरिन छरिया जाही। तब बहिराखू खड़बाज मन के बलमुस्टाही, सरबसोखहा मन के अनियाव, अतियाचार के अंत हो जाही। फेर आही ए भुइयाँ म सच्चा सुराज, जेमा ’जे कमाही ते खाही’, इहाँ के पानी, इहाँ के बिजली जब घरोघर हबर जाही, तब सब्बो डहर जगर-मगर हो जाही। ए रतन भुइयाँ के खजाना ह जे खनि जम्मों जनता बर खुल जाही सब्बो के मरभुक्खई ह मेटा जाही। तब कोनो न पेचका रिही न पेटला। सब्बो एके बरोबर हो जाही, चारो मुड़ा सुमंगल सँचर जाही। गियान अऊ विवेक के अधार ले सुग्घर छत्तीसगढ़ के सपना ह पूरन हो जाही। एही तो सुराज होही न, सफल सुराज, छत्तीसगढ राज थापे के उदिम के परिपूरन होय के सफल काज।
कुबेर ह छत्तीसगढ राज बने के बाद छत्तीसगढी कहिनी के बारी म दू गोछा कहिनी धर के अवइया कथाकार आय। ओकर पहिलावत गोछा के कहिनी किताब के नाव आय - ’’भोलापुर के कहानी’’ जेन ह मेघज्योति प्रकाशन, तुलसीपुर, राजनांदगाँव ले सन् 2010 म परकासित होइस। उनकर दूसर गोछा कहिनी किताब के नाव आय - ’’कहा नहीं’’ जेहर प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर ले सन् 2011 म छपिस। ’’भोलापुर के कहानी’’ म चैदह अउ ’’कहा नहीं’’ म छय कहिनी मन संघराय हवय। अइसे लगथे दूनों गोछा के कहिनी मन के रचनाकाल निच्चट दुरिहा-दुरिहा नइये, फेर दूनो गोछा के कहिनी मन के भुइयाँ-भाठा अऊ सोर-संदेस मन ह अलगे-बिलगे हावंय। लेवव, अब दूनों कहिनी गोछा मन ला फरिया-फरिया के, निमार के परछो करे के उदिम करबो।
चलव, पहिली भोलापुर के एक फेरा लगा लेइन। ए गाँव ह न सहर ले चपके हे न ओकर ले अब्बड़ दुरिहा हे। उहाँ के लोगन के सउदा-सुलुफ, कोरट-कछेरी के निमत अवई-जवई चलत रहिथे। फेर गाँव तो गाँव आय न, अऊ उहू ह भोलापुर यानि भोलवा मन ले अघात भरपूर। उही रूख-रई, तरिया-नरवा अऊ छप्पर-छानी के गाँव। हावा-पानी, आमा-अमली तो सब्बो जगा एके बरोबर, पन मनखे मन के चाल-चलन अउ माली हालत म बनेच फेर-फार हवय। कोनो मालिक आय त कोनो मजदूर, कोनो रानी त कोनो नौकरानी, कोनो मास्टर त कोनो डाक्टर अऊ कोनो दाऊ त कोनो सेठ। उहाँ भूख अऊ भोग के जबर जंग माते दिखथे। भोगहा मन भोगावत हवंय पट-पट ले अउ भुखहा मन चुटचुटाय रोटी बर, पेज-पसिया बर, बेटी मन ला बहँचाय घलो म लचार दिखथंय। उहाँ जोर-जबर अऊ पोंगवा पंडित मन के छल परपंच सब्बो एके रद्दा चलत दिखथंय - जइसे सब्बो अजाद हावंय - सढ़वा घलो, मेढ़वा घलो। एला का कहिबे, रामराज के रक्साराज?
कुबेर के कहिनी मन भोलापुर के दरस म बहिनी बरोबर संगे-संग रेंगत हवंय। गाँव के महिलामंडल मा कहिनी म उतरे सब्बो भाई-बहिनी ठुलियाय हवंय। ओमा लछनी काकी, सुकारो दाई, नंदगहिन, देवकी अऊ फूलबासन के दरस अघातेच सुहावन हे। फेर फूलबासन ह अब्बड़ लजलजावत दिखत रहय। आगू बढ़ेन त रघ्घू, किसुन, जगत, लखन, फकीर, राजेस, रतनू, चंदू अउ मंगलू गाँव के मंझौत म बने चँउरा म हमला अगोरत संघराय रहंय। सब्बो ले जय-जुहार होइस। कुबेर के कहिनी के सब्बो पात्र पुतरी बरोबर सुमता के सुतरी अऊ बढ़ोतरी के बदना म बँधाय उमहात रहंय। उँकर तीर हाथ जोर के ठाढ़े रहंय - सुुंदरू, संपत, मुसवा, मरहा, मुरहा, घुरवा, नान्हें अऊ नानुक। चँउरा के जेवनी बाजू रामनामी चादर ओढ़े भसियावत रहंय - पेटला महराज, बिरिंदावनवाले महराज अऊ गाँव के मनहर महराज घलाक। सरपंच कका के तीर म झाड़ू गौंटिया अऊ उँकर समधी महराज मुचमुचावत दिखत रहंय। महंत रामा साहेब घला उही दिन भोलापुर आय रहंय अऊ सगरो गाँव ल उहाँ जुरे जान के आसन जमाय रहंय। फेर जोगेन्दर सेठ ह घेंच ल ओरमा के उहाँ बइठे रहय, अपन देसिया संगवारी सत्तू, राम अधीर, रामप्यारे अऊ अवधबिहारी मन के संग। तब्भे उहाँ प्रोफेसर वरमा के संग मरहाराम हबर गइन। लेवव उहाँ कतका सुंदर जुराव होगे, जइसे सइघो छत्तीसगढ़ ह उहाँ एके जगा संघरागे। हमला उनकर दरस-परस मिलगे अऊ उन सब्बों के गोठबात के गुनान के जउन सुखद सेवाद मिलिस ओला का कहिबे? कुबेर के कहिनी मन हमर आँखी अऊ कान होगे। सिरतोन कहन तो उन जम्मों छत्तीसगढ़ के जुबान होगे, हमर जाने-चीन्हे मीत-मितान होगे।
’भोलापुर के कहिनी’ म संघराय सबो कहिनी मन उहाँ के माटी अऊ बेटी मन के कहिनी आय। माटी ले जुरे हे रोटी अऊ बेटी ले जुरे हे मनखे के मान-मरजाद अऊ सामाजिक बेवहार। मतलब, भोलापुर के जीयत-जागत जिनगी अऊ जमीन के आरो लेवइया कहिनी मन अलगे-अलगे नाव धराय तो हावंय फेर सब्बो भोलापुर के धरती के मया के डोरी म बँधाय हवंय। चलव, पहिली भुइयाँ के पूछ-पछार कर लेइन अऊ अऊ जान लेइन के जमीन के मरम का हे, भरम का हे।
भोलापुर के भुइयाँ म भूख भारी हे जइसे उहाँ गरीबी के गंगार गड़े हे। उहाँ नोहर हे रोटी। मनखे कतको जांगर टोरथे, मिहनत-मजदूरी करथे, फेर ओकर पेट ह पचकेच रहिथे, भरय नहीं, त का करय? बड़हर मन के बँधना ले रोटी ल मुक्ताय नइ सकय। ओला बेबस हो के मरहाराम बने बर परथे अऊ सहर के रद्दा धरे ल परथे। सुदरू के जोही फूलबासन ला धरम के धरसा ले उतार देथे। संपत अऊ मुसवा अनबूझ अँधियार के भुतवा मन सही भोलापुर ल मतालत रथिे, फूलबासन के चरित्तर-चोला म दाग के ऊपर दाग लगाथें। लछनी काकी जइसे मयारुक महतारी के ऊपर टोना-टोटका करे के लांछन लगाथें। घना मंडल उन सतियानासी मन के घेरा म घिरल जाथे, दुख पाथे, फेर ओला गियाने ह मुकति देवाथे जब रघ्घू ह ओकर लंग अंजोर बनके आथे, तब्भे अँधियार ह नसाथे।
कहिथें न, ठलहा मनसे ह रक्सा सही रोग के, दोख के घर होथे। हमर गाँव-गँवई म जाँगर छँच्चा मनखे मन म नसा-पानी के रोग ह गझात हावय, जेकर सेती बेंदराबिनास मातत दिखथे। संपत अऊ मुसवा के संग गंजहा-मंदहा पारटी आ गइस हवय, पटवारी, नान्हे, नानुक, सब्बों माते हें, उन सरपंच के हाथ-हथियार बन गइन हावंय। नसापानी के चक्कर म खाली खेतखार, जमीन जहदादोच नइ बेचावय भलुक मनखे के जमीर घलो बेचा जाथे। तब थुकलू-जुठलू बने बर परथे। कथाकार ह अपन कहिनी मन म एकर ले छुटकारा देवाय के बदना करथे।
छत्तीसगढ़ म धरम-करम के नाव ले जउन ढोंग-ढकोसला चलत हावय कहिनी लिखइया हा ओहू ला उजागर करथे। पेटला महराज के गड़बड़छाला ह मनखे ल डेरवाथे, अब्बड़ अऊ ओकर सकत ला सोख लेथे। धरम के नाव म महंत रामाजी साहेब के अहंकार ह अंगेरथे अऊ दूसर महराजो मन ल लोभ-लालच के खँचवा म चिभोर देथे। सिधवा मनखे मन के का दुरगत होत होही, एहर सोचे समझे अऊ गुनान के गोठ आय।
छत्तीसगढ़ के रतन भुइयाँ के रकत चुँहकइया अब्बड़ हावंय। इहाँ के मनखे ला सिधवा मान के बहिरासू गुण्डा अऊ बैपारी मन बरपेली अमा गइन हावंय। कथाकार कहिथे - ’’छत्तीसगढ़ म लोटा धर के अवइया मन साल भर म हजारों सकल डारथें। दू साल नइ पूरे, लखपति बन जाथें। अऊ तीन पूरत करोड़पति बन जाथें। कार, टरक, बड़े-बड़े बंगला के मालिक बन जाथें। तुमन जस के तस।’’ (भोलापुर के कहनी, पृ. 90) जोगेन्दर सेठ अऊ ओकर कारिंदा मन घूसखोर सरकारी अमला ले साठ-गाँठ करके भुइयाँ हड़पे के धंधा करथें अऊ बाढ़ते जाथें। तब मरहाराम के मरन हो जाथे। मर-मर के जीथे, फेर जीथे, मरथे घेरबेरी।
कहानीकार अपन छत्तीसगढ़ी ग्राम भोलापुर के भोलवा मन ल जगाय के जंग ला जारी रखथे। पहिली तो पढ़े-लिखे नवयुवक मन ला रघ्घू के अगुवई म संघराथे अऊ बदलाव लाने के बोलबम लगाथे। मरहाराम छत्तीसगढ़ी मनखे के चिन्हारी बन जाथे। ओ ह जूझे के जोम करथे। अपन मान बर परान देहे के परन करथे। फेर का हे, अनियावअऊ अतियाचार ले मुकति बर धिरलगहा गाँव संघराय लगथे। कथाकार के संकेत हवय के हमन सब्बो ल छत्तीसगढ़ के मुक्ति अभियान म जुरना परही अऊ सोसन के खिलाफ बिगुल बजाय बर परही। एहा ओकर आरो करे के आवाज आय। ओकर माटी के मया अऊ सही मनखे होय के परमान आय। भोलापुर के कहिनीमन चकमक के पथरा आय। एमा विदरोह के चिनगारी हवय त सामाजिक अंजोर बर मसाल बरे के संकेत। कथाकार ह धर्मांधता कोति चेताय हवय त ओकर राजनीतिकरन तरफ ले बँहचे के बरजना घलाव बताय हावय। पारिवारिक जिनगी म सुख-संपदा बर सब्बो ला जुरमिल के रहय के संदेस धलो कहिनीमन म दिये गइस हे। नवयुवक मन नवजागरन के धुरी बने हें। जुन्ना जाही तब तो नवा आही।
कुबेर के दूसर कहिनी किताब के नाव आय - ’’कहा नहीं’’। एमा नारी मन के जिनगी अऊ अनकर कतरो रूप देखे के बरनन हवय। ’आज के सतवंतिन: मोंगरा’ म दहेज के मार झेलत बहुरिया के बिरतांत हे। मनखे के पसु-पक्छी मन लेे घलो नाता-रिस्ता, लाग-लगाव हो जाथे अऊ एक-दूसर के हितवा-मितवा हो जाथें, एला कहानीकार बताय हे। ’बाम्हन चिरई’ म लेखक के जीव-जंतु ले मया दिखथे। ओकर मयारुक संसार के बिस्तार ह दिखथे। बिना परकीरति ले जुरे मनखे के मुकति नइये, ए बात ह कहिनी के सार-संदेस आय। ’बसंती’ म नारी सिक्छा अऊ ’दू रूपिया के चाँउर’ म जांगर के मान ह दरसाय गइस हे। ’कहा नहीं’ म नारी के मया अऊ ओकर मान के सनमान हे। ’फूलो’ - एमा अइसे कहिनी हावय जेमा नारी के सोसन के जब्बर सरलगहा रूप-रेख देखाय गइस हे। बड़हर मन गाँव-गँवई के दुख के कारक घलो आंय अऊ मरहम लगोइया घलो जइसे उन मारथें, त रोवन नइ देवंय - मनखे ल मर-मर के जीये बर बेबस कर देथें। ’कहा नहीं’ कहानी म मूल कहिनी के भीतर अंतरकहिनी घलो हवय जेन कहिनी के परभाव ल मजबूत करथे। एमा लेखक के सामाजिक सरोकार के अऊ कतरो दिरिस्टान्त हावय - जेखर ले ओकर कहिनी मन के जरूरी होय के परमान मिलथे। कहिथें ’’यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ फेर दाई-महतारी मन के का दुरदसा हावय हमर समाज म सब्बो जानथन। समाज म सुधार लाने के मंगल कारज ल कहिनी मन कर सकथें। दुखदई दुनिया ल रद्दा देखा सकथें। बढ़िया दुनिया बनय जेमा सबला सुख मिलय अऊ जिनगी के गुरतुर सेवाद मिलय, ए उदिम ल कहिनी अऊ कथाकारेच ह कर सकथे, हमला अइसे लगथे। ए कारज म कुबेर ह बहुतेच सफल हे।
कुबेर ह छत्तीसगढ़ी कहिनी के मजबूत कथाकार आय। ओहर भासा के धनी आय। कल्पना सक्ती के ओ ह अपन लेखन म भरपूर बेवहार करथें। सही गोठ तो ए आय कि जउन रचना मन समाज, अऊ बढ़िया जिनगी के जतन करथे उही मन जुग-जुग जीथें अऊ जीये के बल बाँटथें। ए रद्दा म कुबेर सचमुच कुबेर आय। छत्तीसगढ़ी साहित्य म उनकर सनमान होही अऊ उन अवइया सम्मे म अउ नाम कमाहीं। हमला एकर बिसवास हावय। हम उनकर उज्जर भविस के मंगलकामना करत हन। जय छत्तीसगढ़, जय छत्तीसगढ़ी।
शुभेच्छु।
(डाॅ. बिहारीलाल साहू)
17, किरोड़ीमल कालोनी
रायगढ़, (छ.ग.)
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