मंगलवार, 28 जून 2016

आलेख - KABEER

कबीर जयंती  -  20 जून 2016


समस्त आचार्यजन, आत्मीयजन
हम कबीर पंथियों में कबीर साहब की यह आरती प्रचलित है

आरती हो साहेब आरती हो।
आरती ग़रीबनिवाज, साहेब आरती हो।
आरती दीनदयाल साहेब आरती हो।
ज्ञान आधार विवेक की बाती, सुरति जोत जहँ जाग।
आरती करूँ सतगुरू साहेब की, जहाँ सब संत समाज।
दरस-परस गुरू चरण-शरण भयो, टूटि गयो जम के जाल।
साहेब कबीर संतन की कृपा से,
भयो है परम परकाश।

इसका अर्थ इस प्रकार हो सकता है:-
’’आरती करता हूँ, हे ईश्वर! तुम्हारी आरती करता हूँ।
गरीबों पर दया करने वाले, हे ईश्वर! तुम्हारी आरती करता हूँ।
उस दीपक से (शरीर रूपी दीये से) आरती करता हूँ जिसमें ज्ञान का तेल है, विवेक की बाती है और जिससे सुरति की ज्योति निकल रही है।
ईश्वर स्वरूप हे सद्गुरू! संत-समाज के बीच तुम्हारी आरती करता हूँ।
हे सद्गुरू! तुम्हारे दर्शन हुए, तुम्हारा स्पर्श हुआ, और तुम्हारीे चरणों में शरण पाकर, जम के फाँस टूट गये।
हे ईश्वर! हे कबीर! संतों की कृपा से परम प्रकाश प्राप्त हुआ है।
गरीबों पर दया करने वाले, हे ईश्वर! तुम्हारी आरती करता हूँ।
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इस आरती में कुछ अनमोल शब्द हैं, जिधर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा :-

पहला शब्द है - ज्ञान-आधार अर्थात ज्ञान रूपी तेल।
 ज्ञान का अर्थ क्या है? जिसे हमने किताबों में पढ़कर रट लिया? जिसे हमने किसी से सुऩकर रट लिया? किताबों में लिखी हुई जन्म-मृत्यु, आत्मा-परमात्मा, धर्म-दर्शन, हिंसा-अहिंसा और स्वर्ग-नर्क संबंधी विषयों की कपोलकल्पित जानकारियों को रट लेना और इन विषयों पर शब्दों की जुगाली करना; क्या यही ज्ञान है? क्या विज्ञान और कलाओं, जैसे - गणित, भौतिकी, रसायन, जीवविज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, अभियांत्रिकी, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन और जानकारी को ज्ञान में शामिल नहीं किया जा सकता है? प्रकृति और उसके रहस्यों के बारे में, जिसके बारे में कहा जाता है कि यदि प्रकृति के रहस्यों की तुलना समुद्र से की जाय तो उसके संबंध में अब तक मनुष्य का अर्जित ज्ञान केवल एक बूंद के बराबर है, क्या इस एक बूँद को ही जानना ज्ञान है? 

वैज्ञानिक कहते हैं - संपूर्ण ब्रह्माण्ड में स्पेस (अंतरिक्ष) की तुलना में द्रव्य बहुत कम है। ब्रह्माण्ड में अपने विभिन्न रूपों में सबसे अधिक मात्रा ऊर्जा की है जो स्पेस (अंतरिक्ष) में भी है और द्रव्य में भी। यह सबमें व्याप्त है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड ऊर्जा से भरा हुआ है। अंतऱिक्ष, और काल अर्थात् (स्पेस एण्ड टाईम) के बारे में हमारी जानकारी लगभग शून्य है। और दूसरी ओर हमें अपने इस किताबीय - सीमित, अप्रमाणित, कपोलकल्पित अनुपयोगी, बातों के रूप में अर्जित ज्ञान पर बड़ा गर्व है। उस सीमित ज्ञान पर जिससे न तो अन्न का एक दाना पैदा किया जा सकता है, न कोई निर्माण कार्य किया जा सकता है,  और न हीं जीवन को सुखमय और सुंदर बनाया जा सकता है। 

ज्ञान क्या इतना सीमित और इतना अनुपयोगी हो सकता है? तथाकथित आभिजात्य, श्रमचोरी करने वाले मुफ्तखोरों की कपोलकल्पित बातों को ज्ञान मानकर मानव समाज का कौन सा भला हो सका है? समाज के उत्पादक वर्ग के विभिन्न समूहों के यथा - कृषकों, दस्तकारों, कारीगीरों, वनवासियों - के द्वारा अर्जित ज्ञान को, जो जीवन के लिए अविकल्पनीय अन्न का उत्पादन करता है, जो प्रकृति के रहस्यों पर से परदा उठाता है; को हम आज तक ज्ञान मानने से इन्कार करते क्यों आ रहे हैं। इतने विस्तृत ज्ञान की उपेक्षा करके क्या हमने अपने ज्ञान को सीमित नहीं कर लिया है? 

समाज के बहुसंख्यक लोगों द्वारा अर्जित ज्ञान के इन भंडारों को आज तक मान्यता और विस्तार क्यों नहीं मिला? अपने ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार हम यहाँ तक क्यों नहीं कर सके? क्योंकि इसके सारे अनुसंधाता और सर्जक; समाज के वे लोग हैं, जिन्हें शूद्र कहकर तिरस्कृत और अपमानित किया गया है। क्योंकि इनके द्वारा अर्जित ज्ञान को ज्ञान स्वीकार कर लेने का मतलब यह होता कि समाज में इनका स्थान सर्वोच्च हो जाता। क्योंकि तब श्रम की चोरी करने वाला तथाकथित आभिजात्य वर्ग श्रम, और श्रम की चोरी के आरोपों से बच नहीं पाता। क्योंकि तब श्रम और श्रमवीरों का शोषण करने वालों को न तो शोषण के उपकरण मिल पाते और न ही ये अपने शोषण के दुष्कृत्यों को औचित्यपूर्ण ही सिद्ध कर पाते। 

वनों और पहाड़ों में निवास करनेवाले लोगों के पास क्या ज्ञान नहीं होता है? कृषकों के पास क्या ज्ञान नहीं होता है? 

भारत के अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह की जनजातियों को अण्डमान और निकोबार की जनजातियाँ कहते हैं। इनमें छः प्रमुख जनजातियाँ है। डॉक्टर राव का कहना है कि ’इन जनजातियों को प्राकृतिक आपदा का अनुमान पहले से हो जाता है क्योंकि वे जीव-जंतुओं और प्रकृति के संकेतों को समझते हैं। यही वजह है कि इन जनजातियों में किसी को कोई क्षति नहीं पहुँची है।’ वे कहते हैं कि ’जनजातियों के इस दुर्लभ ज्ञान को दस्तावेज के रूप में एकत्र किया जाना चाहिए जिसके आधार पर तटीय इलाकों में सुरक्षा और चेतावनी के इंतजाम किए जा सकते हैं।’ कवि लीलाधर मंडलोई ने अपनी किताब ’काला पानी’ में जारवा समुदाय पर विस्तार से लिखा है। मंडलोई के अनुसार अंडमान द्वीप समूह में नीग्रो मूल की चार दुर्लभ जनजातियाँ हैं, जारवा इनमें से एक है. ’इनकी जीवन शैली पाषाण युग के मनुष्य की तरह है।’ परन्तु इनकी अपनी विलक्षण भाषा, संस्कृति, सभ्यता और ज्ञान है, जिन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए। 

भरतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित मराठी साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’हिन्दू: जीने का समृद्ध कबाड़’ में इन आदिवासियों के इस ज्ञान को समझने-जानने और इसका दस्तावेजीकरण करने का प्रयास करनेवाली एक अंग्रेज महिला, मंडी के प्रयासों का उल्लेख करते हुए लिखा है -

’’अश्मयुग में ही सारे विश्व के मानवीय समुदायों से अलग हुए ग्रेट निकोबारी द्वीप पर डाॅ. मंडी आदिवासियों के बीच रहकर आई हैं। इन लोगों के साथ हिन्दमहासागर में, दो ही इन्सान बैठ पाएँ ऐसी छोटी-सी डोंगी में मछली के शिकार पर वे जाती थी। इतनी-सी डोंगी में लंबी लाठी में लगी बरछी से मछलियाँ मारने की कला सीखी - असल में यह कला ही है, क्योंकि इसमें कला के सारे लक्षण मिलते हैं: ........... एक बार एक बड़ी मछली बरछी की पहुँच में थी फिर भी वह निकोबारी लड़का बरछी नहीं मार रहा था और मंडी जी उस ओर उँगली दिखाकर लगातार चिल्ला रही थी - वो देखो, वो देखो। आखिरकार वह लड़का परेशान होकर बोला, चुप बैठिए, समझ में नहीं आता कि वो पेट से है?
............ इन लोगों को कैसे मालूम हुआ कि वह मछली गर्भवती है - यह सवाल अलग है। असल सवाल है - गर्भवती को न मारना। और हम जैसे सुसंस्कृत कहलानेवालों को शर्मिंदा करनेवाली एक और बात यानी, उस दिन की जितनी जरूरत होगी उतनी ही मछलियाँ मारना। ....... दो बड़ी और एक छोटी चाहिए होगी, तो दो बड़ी पकड़ने के बाद तीसरी बड़ी सामने आए, तो भी उसे छोड़ देना और छोटी मिलने तक ...... समुद्र में भटकते रहना। पर्यावरण का सर्वनाश करनेवाले मनुष्य के उन्नत समुदायों के अब इतने पीछे जाने में समझदारी होगी। ....

........ प्यार, ममता, सहजीवन ये मूल्य इस कठोर आधुनिक विचार-शक्ति को तुच्छ लगते हैं। इसी कारण ढाई-तीन हजार सालों में गौतम बुद्ध जैसा मनुष्य दुबारा जन्म नहीं ले पाता है। यह उत्क्रांति की विफलता है।

वे आगे लिखते हैं -

’एक द्वीप पर एक छोटा-सा बच्चा एक जवान आदमी से हमेशा चिपका रहता था। मैंने उन्हें उन्हीं की भाषा में पूछा, यह कौन है? निकोबारी बोला, मेरी बीवी का लड़का। .... मतलब? तेरा नहीं? ...... नहीं, मेरी बीवी का। ...... ऐसा कैसे? इस पर वह झल्लाकर बोला, तुम औरतों की समझ में आना चाहिए। मेरी बीवी को मेरे अलावा क्या किसी दूसरे से बच्चा नहीं हो सकता? .... आश्चर्य। अरे! इंगलैण्ड में कोई पति ऐसा सोच भी नहीं सकेगा।

यह नैतिकता भारतीयों की दृष्टि से केन्द्र में आनी चाहिए। यहाँ जरा-से संदेह के कारण बीवी को जिंदा जलानेवाली हमारी हिन्दू संस्कृति है - हम सुसंस्कृत कहलानेवाले समाज, कितने क्षुद्र?’
(पृ. 497-498)

(’हिन्दू: जीने का समृद्ध कबाड़’ भालचंद नेमाड़े की प्रसिद्ध औपन्यासिक कृति है जिस पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया है। इसका हिन्दी अनुवाद डाॅ. गोरख थोरात ने किया है। पुरातत्व पर शोध कर रही तीस वर्षीय अंग्रेज महिला मंडी इस उपन्यास की सहनायिका हैं। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की प्राचीन जनजाति ’ओंग’ के बारे में अनके शोध का उल्लेख करते हुए श्री भालचंद्र नेमाड़े ने अपनी इस किताब में उपरोक्त बातों का उल्लेख किया है।)

हिनदुस्तान के आधे से अधिक क्षेत्रफल में वन हैं। इन वनों में निवास करनेवाली जनजातियों के पास जंगलों, पहाड़ों, वन्यपशु-पक्षियों, वनस्पत्तियों, पेड़-पौधों, वनौषधियों, प्रकृति के रहस्यों से संबंधित ज्ञान का विशाल भंडार है, परंतु भिजात्य समाज ने इसे न तो महत्व दिया और न ही मान्यता। तब इसके संरक्षण और दस्तावेजीकरण करने की बात करना ही व्यर्थ है।

पिछले साल एक महिला रिश्तेदार गंभीर रूप से बीमार हो गई। छत्तीसगढ़ के दो सुप्रसिद्ध अस्पतालों में वे बारी-बारी से लगभग महीनेभर भर्ती रहीं। अंत में डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया और लाखों रूपये का बिल थमाते हुए डिस्चार्ज कर दिया। पीड़ित परिवार को किसी गाँव में रहनेवाले एक वैद्य का पता चला जो जड़ी-बूटी से इलाज करते हैं। बहुत कम खर्च में आज वह महिला पूर्णतः स्वस्थ और सामान्य जीवन जी रही हैं। यह कौन सा ज्ञान है जो 21वीं सदी की अतिआधुनिक चिकित्सा पद्धति पर भारी है? क्या यह सहेजने योग्य नहीं है?

क्या खेतों में काम करनेवाले कृषकों-मजदूरों के पास ज्ञान नहीं होता? यदि नहीं होता तो खेती संभव होता? परन्तु इस कार्य को हेय समझा गया है और इसे करने वालों को शूद्रों की श्रेणी में डालकर सदियों से उन्हें अपमानित किया जाता रहा है। क्या खेती कार्य में हिंसा होती है? 

पिछली बरसात की बात है। इसी विषय पर अहिंसावदी धार्मिक वृत्तिवाले एक व्यवसायी से एक वाद-विवाद हुआ।  उस सज्जन ने कहा - ’’हम लोग खेती इसलिए नहीं करते क्योंकि इसमें बड़ी हिंसा होती है।’’ मैंने अपने उत्तर में कहा - ’’जिस दिन बंदर भी खेती करना सीख जायेंगे, उस दिन उनका भी अपना धर्म होगा, सभ्यता होगी, संस्कार होगे, साहित्य और विभिन्न प्रकार की कलाएँ होगी। तब हिंसा और अहिंसा के संबंध में उनकी भी अपनी व्याख्याएँ होगी और जो हमारी व्याख्याओं, स्थापनाओं और मान्यताओं से भिन्न होंगी। हो सकता है उनकी स्थापनाएँ और मान्यताएँ हमारी स्थापनाओं और मान्यताओं से अधिक तर्कसंगत और नीतिसंगत हों।’’
सज्जन ने कहा - ’’कैसी बातें करते हो?’’

मैंने कहा - ’’जब मनुष्य को खेती करना नहीं आता था तब वह भी बंदरों और अन्य हिंसक पशुओं की तरह ही जीता और जंगलों में रहता था। खेती का ज्ञान ही है जिसने उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाया। दुनिया के सारे धर्मों और सारी कलाओं के विकास के मूल में खेती का यही ज्ञान है। खेती करते हुए किसान के मन में न तो कभी हिंसा के भाव होते हैं और न ही लाभ-हानि के। उनके लिए उनके खेत, कृषि के सारे उपकरण, फसलें और अनाज; सभी पवित्र और देवतुल्य होते हैं। कसानों के लिए कृषि पूजा और धर्म होता है। और धर्म में हिंसा कैसी?’’ 

लोक समाज में इस तरह के ज्ञान का भंडार पड़ा हुआ है परन्तु न तो इसे कभी महत्व दिया जायेगा और न ही मान्यता। यह न सिर्फ हमारा दुर्भाग्य है अपितु मानवता के प्रति अपराध भी है। 
तथाकथित आभिजात्य समाज की, अधर्म को पराजित कर धर्म की स्थापना करनेवाले उद्धोषों और गर्वोक्तियों पर प्रहार करनेवाले कबीर पहले महामानव हैं, उन्होंने लोक द्वारा अर्जित ज्ञान की इन परंपराओं को महत्व दिया। अक्षरों और शब्दों की जुगाली करनेवाली परंपराओं की व्यर्थता को सिद्ध करते हुए उन्होंने कहा- 

’’पाँच तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।
मैं तोहि पूछौं पंडिता, शब्द बड़ा कि जीव।’’
’’हे ज्ञानियों! हम सबका शरीर पाँच तत्वों से ही बना है। फिर कोई उच्चवर्ण का और कोई नीचवर्ण का कैसे हो गया। यह तो शब्दों की मायाजाल है। मैं पूछता हूँ - शब्द (शब्द मनुष्य की रचना है। शब्दों से भाषा बनती है। भाषा से समस्त धर्मग्रंर्थों और किताबों की रचना होती है।) बड़ा होता है कि (ईश्वर की रचना) जीव?’’

अर्थात् जीव-आत्मा को शब्दों के माध्यम से जानना संभव नहीं है। कबीर कहते है -
’’शब्द-शब्द सब ही कहे, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि-निरखि कर लेह।।’’
(संसार ईश्वर को शब्दों के माध्यम से जानने का प्रयास करता है। ईश्वर तो शब्दों के सामथ्र्य से बाहर है। उसे शब्दों से कैसे जानोगे?)

इसीलिए कबीर साहेब कहते हैं -
’’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।’’
(पोथी पढ़-पढ़कर अर्थात शब्दों का मायाजाल रचकर कोई ज्ञानी नहीं बन सकता। इससे न तो आत्मा को जाना जा सकता है और न ही परमात्मा को। आत्मा और परमात्मा को जानने के लिए, ज्ञानी होने के लिए प्रेम को पढ़ना होगा। प्रेम के ढ़ाई अक्षर को पढ़ना बहुत कठिन है परन्तु हजारों शब्दों के योग से बने ग्रंथों को पढ़ना और रट लेना बड़ा सरल है।)

ज्ञान का संबंध ज्ञात करने अर्थात् जानने से है। जो नहीं जाना गया है उसे जानना और जो नहीं खोजा गया है उसे खोजना ही ज्ञान है। ज्ञान का शब्दों से कोई संबंध नहीं है।
विवेक की बाती:- 
अच्छे-बुरे, नीति-अनति, शुभ-अशुभ जैसी अवधारणओं को पहचानना और किसी संगत और उचित निष्कर्ष तक पहुँचना विवेक है। इसका संबंध बुद्धि से है। मुझे बचपन में पढ़ी, चार भाइयों की कथा याद आती है जिसमें तीन भाई पढ़े-लिखे और समस्त विद्याओं के ज्ञाता थे परन्तु छोटा भाई विद्याहीन और अनपढ़ था। जंगल से गुजरते समय उन्होंने शेर की अस्थियाँ देखीं। पढ़े-लिखे भाइयों को अपने-अपने विद्या की जाँच करने की सूझीं। उन्होंने शेर को जीवित करने की सोची। छोटे भाई ने कहा कि ऐसा करना उचित नहीं होगा क्योंकि जीवित होते ही वह हमें खा जायेगा। बड़े भाइयों ने छोटे का उपहास किया। वे शेर को जीवित करने में लग गये। इस बीच छोटा भाई किसी ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया। शेर जैसे ही जिवित हुआ, तीनों बड़े भाइयों को खा गया। 

बड़े भाइयों के पास ज्ञान था और विद्या भी थी परन्तु विवेक नहीं था। 

भारतीय परंपरा में कभी विश्वास का वास्ता देकर तो कभी पाप-पुण्य और स्वर्ग-नर्क का भय दिखाकर विवेक की हमेशा हत्या की जाती रही है। या तो हम तर्क-वितर्क करना भूल गये हैं या फिर अपने रूढ़िगत परंपराओं और विश्वासों के पक्ष में ही तर्क करते हैं। जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार कहें तो हम सब ’कंडीशन्ड’ हो चुके हैं। हम सब न सिर्फ कंडीशन्ड लोग हैं बल्कि सम्मोहित मानसिकतावाले लोग भी हैं। इसी की परिणति है कि ईश्वर की रचना मनुष्य यहाँ गौण है और तथाकथित आभिजात्यों की रचना विभिन्न धर्मशास्त्र सर्वोच्च हैं। कबीर साहेब इस स्थिति को तोड़ना चाहते थे और इसीलिए वे बार-बार तथाकथित आभिजात्यों से पूछते थे कि - ’’शब्द बड़ा कि जीव?’’
सुरति-जोत:- 
सुरति चेतना के जागरण की अवस्था है। इस संबंध में ओशो साहित्य में बड़ी प्यारी कथा मिलती है। एक गुरू थे। शिक्षा देने की उनकी विधि बड़ी लिक्षण थी। उनके पास एक लाठी हुआ करती थी। शिक्षा के नाम पर वे शिष्यों पर केवल लाठियाँ बरसाते थे। शुरू-शुरू में वे केवल दिन में, जब शिष्य जग रहे होते, ऐसा करते थे। प्रारंभ में असावधानी की वजह से शिष्य खूब मार खाते थे। समय बीतने के साथ धीरे-धीरे शिष्य इतने सजग और सावधान की स्थिति सीख लेते थे कि तब फिर गुरू उन्हें नहीं मार पाते थे। तब शिक्षा का दूसरा अध्याय शुरू होता था। अब रात में भी, जब शिष्य निद्रावस्था में होते, गुरू की लाठी बरस जाती। शिष्य फिर मार खाने लगते। समय के साथ धीरे-धीरे शिष्य निद्रावस्था में भी सजग और सावधान रहना सीख लेते थे। उनका शरीर तो सो रहा होता परन्तु चेतना उनकी जग रही होती। लाठी के प्रति धीरे-धीरे उनकी चेतना इतनी जागृत हो जाती कि गुरू के मन में जैसे ही किसी शिष्य को मारने का विचार आता, उसे सुनाई पड़ती - गुरूजी! मैं सावधान हूँ, अब आप मुझे नहीं मार पायेंगे। 

चेतना के जागरण की इस प्रगाढ़ स्थिति में निकलने वाली सूक्ष्म तरंगे इतनी सक्षम होती हैं कि किसी के विचारों से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगों को ये पकड़ सकती हैं। चेतना के जागरण की ऐसी अवस्था ही सुरति की अवस्था है और इस अवस्था में निकलनेवाली सूक्ष्म तरंगें ही सुरति की जोत है। इस अवस्था में ही हमारी चेतना ईश्वरीय सत्ता की सूक्ष्म तरंगों का अनुभव कर सकती है। 

सुरति का अर्थ प्रेम और स्मृति भी है। चेतना के जागरण की यही प्रगाढ़ अवस्था प्रेम और स्मृति की अवस्था है। इसे शब्दों और पोथियों के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता, इसे साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए शब्दों और पोथियों को नकारते हुए कबीर साहब कहते हैं -
’’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।’’

सुरति की अवस्था प्रेम की अवस्था है, स्मृति की अवस्था है, चेतना के जागरण की अवस्था है। ईश्वर की प्रतीति इसी अवस्था में हो सकती है। ईश्वर को इसी चेतना के द्वारा अनुभव किया जा सकता है, शब्दों के द्वारा नहीं। 
’’शब्द-शब्द सब ही कहे, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि-निरखि कर लेह।।’’

त्रिपुर अर्थात् स्वर्ग का दृश्य प्रस्तुत करते हुए महाकवि प्रसाद कामायनी के अंत में लिखते हैं -
’’समरस थे, जड़ या चेतन, सुदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती, आनंद अखण्ड घना था।’’
’’जहाँ जड़ और चेतन में समरसता हो; जहाँ सुंदरता हो; जहाँ चेतना का विलास (नृत्य, उत्सव) हो; जहाँ अखण्ड आनंद की सघनता हो; वहीं स्वर्ग है।’’

स्वर्ग की यह कल्पना इसी लोक में साकार हो सकती है। कबीर साहेब इसी प्रयास में लगे रहे। वे बार-बार कहते रहे कि शब्दों की मायाजाल से इसे सकार नहीं किया जा सकता। इसके लिए  हमें अपने ज्ञान की अवधारणा को विकसित और विस्तारित करना होगा, विवेक और चेतना को जागृत करना होगा। शब्दों और पोथियों के सम्मोहन को तोड़ना होगा, प्रेम का पाठ पढ़ना होगा। 
कुबेर
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