शनिवार, 9 जुलाई 2016

आलेख

गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा सं. 2071 में प्रकाशित श्रीमद्भागवतगीता के 211 वें पुनर्मुद्रित अंक के चतुर्थ अध्याय (पृष्ठ 67) में 13वाँ श्लोक अर्थ सहित इस प्रकार दिया गया है -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध
कर्तारमव्ययम्।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चार वर्णोंका समूह, गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।।13।।


कहा गया है - गीता का उपदेशात्मकज्ञान भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निसृत है। इन वचनों को महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में संकलित किया है। उपर्युक्त श्लोक में केवल चातुर्वर्ण्यंका उल्लेख है; परन्तु नीचे दिये गये अर्थ में अर्थकार द्वारा चातुर्वर्ण्यं’ का विस्तार ’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र’ के रूप में किया गया है। वर्णविभाजन रामायणकाल में भी और उससे पूर्व भी था। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं किचातुर्वर्ण्यं के साथ ’सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।’

चातुर्वर्ण्यं वर्णविभाजन संपूर्ण सृष्टि में कही और है भी या नहीं कोई नहीं जानता। परन्तु सभी जानते हैं कि इस प्रकार का वर्णविभाजन भारत के अलावा इस पृथ्वी में और कहीं नहीं है।

तो क्या ’अविनाशी परमेश्वर’ की दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि का अर्थ केवल भारत ही है?
मनुष्यों में भेद करनेवाला चातुर्वर्ण्यं वर्णविभाजन जैसा कार्य क्या ’अविनाशी परमेश्वर’ का भी हो सकता है?

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