गुरुवार, 28 जुलाई 2016

आलेख

’ठाकुर का कुआँ’ की ’गंगी’ बहनजी तथा ’दुखी’ की ’सद्गति’


कहा जाता है, महाभारत के रचयिता ’वेदव्यास’ के पास दिव्यदृष्टि थी इसीलिए महाभारत रचते वक्त वे महाभारत युद्ध के उत्तर और पूर्व की घटनाओं को देख-सुन सके। युद्ध के समय की श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद, पितामह-युधिष्ठिर संवाद और अन्य संवादों को सुन सके, घटनाओं को देख सके।

दृष्टि का संबंध देखने से है, घटनाओं को वे निसंदेह देखे होंगे। संवादों को भी तो उन्होंने सुना; अतः मेरी मूढमति कहती है कि इस महान ऋषि-कवि के पास केवल दिव्यदृष्टि ही नहीं दिव्यश्रवण भी रहे होंगे। श्रीमद्भागवतगीता के चतुर्थ अध्याय के 13वें श्लोक में उन्होंने भगवान से यह कहते देखा-सुना था -

चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्ययम्।।
’’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चार वर्णोंका समूह, गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।।13।।’’
(गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा सं. 2071 में प्रकाशित श्रीमद्भागवतगीता के 211 वें पुनर्मुद्रि अंक के चतुर्थ अध्याय (पष्ष्ठ 67) में 13वाँ श्लोक)

श्लोक में केवल ’चातुर्वण्र्यं’ का उल्लेख है; परन्तु उसके नीचे दिये गये अर्थ में अर्थकार द्वारा ’चातुर्वण्र्यं’ का विस्तार ’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र’ के रूप में किया गया है। वर्णविभाजन रामायणकाल में भी और उससे पूर्व भी था। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ’चातुर्वण्र्यं’ के साथ ’सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।’

वर्णविभाजन संपूर्ण सृष्टि में कहीं और है भी या नहीं कोई नहीं जानता। परन्तु सभी जानते हैं कि इस प्रकार का वर्णविभाजन भारत के अलावा इस पृथ्वी में और कहीं नहीं है। तो क्या ’अविनाशी परमेश्वर’ की दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि का अर्थ केवल भारत ही है?

दिव्यदृष्टि और दिव्यश्रवण केवल दिव्यपुरुषों से संबंधित प्रसंगों को दिखाता और सुनाता होगा; गरीबों, दलितों की दुर्दशाएँ, आवाजें इससें कैसे देखी-सुनी जा सकती थी?

मेरी मूढमति एक बात और कहती है - दिव्यदृष्टि का आविष्कार केवल वेदव्यास के लिए ही नहीं किया गया होगा। इस पर वेदव्यास का ही एकाधिकार नहीं हो सकता; कवियों और लेखकों का यह एक सामान्य गुणधर्म है। हमारे युग के जनता के महान लेखक प्रेमचंद के पास भी दिव्यदृष्टि थी। प्रेमचंद की दिव्यदृष्टि वेदव्यास की दिव्यदृष्टि की तुलना में अधिक उन्नत, अधिक व्यापक, अधिक कार्यक्षम, और नीर-क्षीर विवेकी अर्थात आज की वैज्ञानिक भाषा में कहें तो उनकी डाटा एनालिसिस क्षमता अधिक, तर्कसंगत और विश्वसनीय लगती है। प्रमाण के तौर पर उनकी कहानी ’ठाकुर का कुआँ’ और ’सद्गति’ का पाठ किया जा सकता है।

’ठाकुर का कुआँ’ में गंगी का पति जोखू कई दिनों से बीमार है। ’’जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी। गंगी से बोला - यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है!’’

गाँव में दो ही कुएँ हैं - एक पर खूँखर ठाकुर का और दूसरे पर सूदखोर साहू का स्वामित्व है। इन कुओं का पानी ’’सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।’’

तीसरा जहाँ से ’’गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था।’’

तथाकथित ये सवर्ण और उच्चवर्णीय लोग कितने पुण्यात्मा, कितने ईमानदार और कितने सद्चरित्र हैं, इसे गंगी बखूबी जानती है। ’’गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!’’

गंगी का मन और उसकी आत्मा विद्रोही हैं परन्तु इस विद्रोह को कार्यरूप देना उसके लिए संभव नहीं है। वह जानती है - दुनिया में उनके लिए मानवता और न्याय कहीं नहीं है। कुएँ वाले ये सारे लोग बड़े निर्दयी और क्रूर हैं। ’’कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी।’’

हिम्मत करके वह ठाकुर के कुएँ पर पानी लेने पहुँचती है। परन्तु वह अच्छी तरह जानती है, इस भयावह अंधेरी रात में ठाकुर साहब के घर का दरवाजा खुल जाने का क्या मतलब होता है - ’’शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।’’

गंगी ने जान बचाकर खाली हाथ ’’घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।’’

जोखू जानता है - इज्जत खोकर, ठाकुर के चाबुकों की मार खाकर मरने की पीडा़ और यातना से मैला-गंदा पानी पीकर मर जाना बेहतर है। 

’सद्गति’ में इस वर्णव्यवस्था और इसके द्वारा स्थापित धर्म पर गहरी आस्था रखने वाले ’’दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।’’ धर्म और परंपराओं पर इतनी गहरी आस्था रखने वाले दुखी के लाश की यदि यही दुर्गति होना तय हो तो फिर ऐसे धर्म को ओढ़े रहने से क्या फायदा। जिस ईश्वर ने समाज को चार वर्णों में बाँटकर सामाजिक असमानता और शोषण की आधारशिला रखी, उस ईश्वर के शरणागत होने के क्या फायदे।

पानी जीवन है। इसका अर्थ आत्मसम्मान भी होता है और इस पर दलितों का कोई अधिकार नहीं है। जल रूपी जीवन और आत्मसम्मान ही नहीं आजीविका के अन्य सारे साधन उच्चवर्णीय दबंगों के कब्जे में है। भारतीय समाज की इस नग्न सच्चाई को प्रेमचंद अच्छी तरह देख रहे थे और लोगों को चेता भी रहे थे। उनका चेताना आज भी जारी है। ’कफन’ में घीसू के संबंध में उनकी इस टिप्पणी - ’’घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था।’’ का निहितार्थ क्या है? किसान जिस जीवन, इज्जत और आत्मसम्मान का दिखावा करते हैं, वह तो ओढ़ी हुई खाल है। वे भी तो अंततः उच्चवर्णीय दबंगों के ही रहमोकरम के मुहताज हैं। यदि जीवन, इज्जत और आत्मसम्मान अंततः उच्चवर्णीय दबंगों के ही कब्जे में जाना हो, उनके तलवे चाटना ही हो तो गुलामों की तरह दिन-रात पसीना बहाने और हड्डी तोड़ने के क्या फायदे। ऐसी किसानी और ऐसी मेहनत का क्या मोल, जो न तो आत्मसम्मान दिला सके और न हीं मनुष्य का जीवन, घीसू यह जानता था। धीसू का मेहनत मजदूरी न करना इस स्थिति के विरुद्ध उनका विरोध था।

पिछले पाँच हजार सालों से चली आ रही, उच्चवर्णीय दबंगों की मानसिकता आज भी वही है। उनके अनुसार - दलितों के आत्मसम्मान को कुचलना, उन्हें जीने के अधिकारों से वंचित रखना आज भी उनका ईश्वर प्रदत्त, पारंपरिक और सांस्कृतिक अधिकार है। वे हम दलितों को हर तरह से अपमानित कर सकते हैं, क्योंकि यह उनका पारंपरिक और सांस्कृतिक अधिकार है; और उनके इस अपमान को सहना हमारा पारंपरिक और सांस्कृति कर्तव्य है? जोखू के लोटे का सड़ा और बदबूदार पानी दरअसल पानी नहीं है, भारतीय समाज की सड़ी-गली परंपरा और संस्कृति है।

हमारे आत्मसम्मान और अधिकारों की रक्षा करने के लिए तब भी न कोई विधान था और न विधायक और न ही आज है। आज कुछ है भी तो सब उन्हीं के कब्जे में है। आज, हमारी बहनों के नाम गंगी हों या माया क्या फर्क पड़ता है? हमारे भाई चाहे सौ साल पहले के ’दुखी’ हो या आज के उना की सड़कों पर कार से बाँधकर घसीटे जाते वे युवक हों, क्या फर्क पड़ता है? वे इनका-हमारा अपमान कर सकते हैं, देश आंदोलित नहीं होगा, क्योंकि यह हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। परंतु उनकी बहनों को नजर उठाकर हमारा देखना भी घोर अपराध और पाप है, देश में शिव का ताण्डव शुरू हो जायेगा क्योंकि यह हमारे पारंपरिक कर्तव्यों के विरुद्ध है। आखिर धर्मभक्ति ही तो देशभक्ति है?

हंस, जुलाई 2016 में संपादक महोदय ने देशभक्त और राष्ट्रवादियों का तर्कसंगत अंतर प्रस्तुत किया है। संपादक महोदय ने सरकार के दोमुँहेपन को भी बेनकाब किया है। लिखा है - ’’2 जून, 2015 तक शिक्षामंत्री दावा करती रहीं कि भगवाकरण का अरोप मिथ्या है, किंतु अब वे सब बेशर्मी से बोल पड़े हैं कि भगवाकरण सिर्फ शिक्षा का ही नहीं बल्कि चैतरफा होगा क्योंकि यह ’राष्ट्रहित’ में हैं, ....’’।

सोचना तो पड़ेगा ही, हमारी इस दयनीय हालत के लिए केवल और केवल हम ही जिम्मेदार हैं। जब सौ साल पहले ’गंगी’ और ’घीसू’ इस स्थिति का विरोध कर सकते थे तो आज हम क्यों नहीं कर सकते? ’सद्गति’ पाना हो तो सबसे पहले हमें अपनी पारंपरिक और अंध धार्मिक आस्था को त्यागना होगा। हमारे किसी भी तथाकथित धर्मग्रंथ में निन्यान्बे बाते अच्छी हों परन्तु एक बात भी मानवता विरोधी हो तो उसके शुद्धिकरण के लिए या तो उसे अग्नि को समर्पित कर दें या उसे गंदे नालों में प्रवाहित कर दें। अयोध्या में मंदिर बन जाने से उन्हें तो सत्ता मिल जायेगी, हमें हमारे अधिकार नहीं मिलेंगे, इस सच्चाई को मानना होगा।
कुबेर
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