रविवार, 10 जुलाई 2016

कविता

 हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाये।


अब तो मज़हब ऐसा भी कोई चलाया जाये।
जिसमें हर इन्सान को इन्सान बनाया जाये।

आग बहती है यहाँ, गंगा में भी, झेलम में भी,
कोई बतलाये, कहाँ जाकर नहाया जाये?

जिसकी खुशबू से महक उठे, पड़ौसी का भी घर,
फूल ऐसा अपनी बगिया में खिलाया जाये।

तेरे दुख और दर्द का मुझपर भी हो ऐसा असर,
तू रहे भूखा तो मुझसे भी न खाया जाये।

प्यार का खूँ क्यूँ हुआ, ये समझने के लिए,
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाये।

जिस्म चाहे दो हो लेकिन, दिल ता अपने एक है,
तेरा आँसू, मेरी पलकों से उठाया जाये।

- गोपाल दास नीरज

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