शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

आलेख

विकल्पहीन और असहाय भारतीय नारियों की स्वैछिक स्वीकारोक्ति

भारतीय नारियों की शुचिता पर बातचीत के दौरान एक महिला ने कहा - साहूजी! हम भारतीय नारियाँ हैं और भारतीय नारियाँ जीवन में अपने शरीर का सौदा केवल एक बार करती हैं, बार-बार नहीं। भारतीय नारियाँ अपने शरीर को केवल एक बार बेचती हैं, बार-बार नहीं।
मैंने उस पवित्र महिला को मन ही मन प्रणाम किया। अब वह इस दुनिया में नहीं है। परंतु उसके प्रति आज भी मेरा सिर श्रद्धा से झुक जाता है।

यद्यपि आत्मा और शरीर की शुचिता और पवित्रता की यह भावना भारतीय स्त्रियों के शोषण का एक प्रमुख कारक भी है फिर भी इस देश की नारियों के हृदय में यह भावना आज भी दृढ़तापूर्वक रची-बसी है, चाहे वह किसी भी जाति और धर्म से संबंधित क्यों न हो। इस देश की स्त्रियों के मन में रची-बसी यह भावना किसी धर्म या संप्रदाय की बपौती नहीं है।
शुचिता और पवित्रता की यह भावना भारतीय स्त्रियों की सांस्कृतिक पहचान भी है। यही भावना भारतीय स्त्रियों की आत्मा है और यही उनका मूल धर्म भी। भारतीय नारियाँ एक बार किसी पुरुष को अपना तन-मन सौपने के बाद अपने इसी आदर्श-भावना की रक्षा के लिए कोई भी त्याग कर सकती हैं। हर प्रकार का त्याग करती हैं। वे अपना घर छोड़ देती हैं, अपना परिवार छोड़ देती हैं, अपने संबंधियों को छोड़ देती हैं, अपने खुशियों का बलिदान कर देती हैं, अपनी जाति और अपना धर्म छोड़ देती हैं और यदि कोई विकल्प न बचे तो अपना जीवन भी बलिदान कर देती हैं।
अपने इधर के गाँवों में अक्सर बुजुर्ग महिलाओं को यह कहते हुए मैंने सुना है - ’महिलाओं की न तो कोई जाति होती है, न कोई धर्म होता है और न ही कोई घर।’ संपत्ति की तो वे कल्पना ही नहीं कर सकतीं। परंतु सदियों बाद अब सरकार ने स्त्रियों के लिए घर और संपत्ति का कानून बनाकर कुछ अंशों में स्त्रियों के साथ न्याय किया है।
सधर्मीय और सजातीय पुरुष का दामन थामने पर स्त्रियाँ कम से कम आपनी जाति और अपना धर्म बदलने के संकट से बच जाती हैं। परंतु अंतरजातीय और अंतरधर्मीय पुरुष का दामन थाम लेने पर वे क्या करें? ऐसा करते ही वे माँ-बाप, नाते-रिश्तेदार, सगे संबंधियों और जाति-बिरादरीवालों से हमेशा-हमेशा के लिए अलग, अपरिचित हो जाती हैं। एक तो इस देश में ऐसी दशा प्राप्त स्त्रियों की जाति और धर्म का संरक्षण करनेवाला न तो कोई कानूनी प्रावधान है और नहीं सामाजिक व्यवस्था। दूसरी ओर परंपराओं और सामाजिक मर्यादाओं के दबाव के कारण बिना अपराध किये ही वे अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती हैं। तब कानून-प्रदत्त पैत्रिक घर और संपत्ति के अधिकार की बात करने की उनमें साहस ही कहाँ बची रहती है? ऐसी स्थिति में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जिस अंतरजातीय और अंतरधर्मीय पुरुष का दामन उन्होंने थामा है, उसके धर्म और उसकी जाति को स्वीकार करने के अलावा उनके पास रास्ता ही क्या बचता है?
विकल्पहीनता और असहायता की इस हालात में पहुँची हुई ऐसी किसी स्त्री द्वारा अपनी जाति और अपना धर्म त्यागकर उस पुरुष की जाति और उसके धर्म को स्वीकार करने की इच्छा व्यक्त करने को क्या उनकी स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति माना जा सकता है?
अंतरजातीय और अंतरधर्मीय पुरुष का दामन थामनेवाली स्त्रियों के लिए एक विकल्प तो होना ही चाहिए जिससे वे पुरुषों को भी अपनी जाति और अपना धर्म त्यागने के लिए कह सके। (हो सकता है, कुछ अल्पसंख्यक समाज में स्त्रियों को ऐसा विकल्प प्राप्त हो।) समाज ऐसा विकल्प देगा, ऐसा सोचना ही कल्पनातीत है, परंतु कानून से तो यह उम्मीद किया ही जा सकता है।
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