शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

कविता

नहीं आते अब स्नेही जन


कुछ चीजों के न रहने से
नहीं रह पाती बहुत सारी चीजें भी
बहुत सारे शब्द भी गायब हो जाते हैं

बहुत सारे लोगों की तरह
मर जाते हैं बहुत सारे शब्द

बैलगाड़ी के न रहने से
नहीं रहे वे बढ़ाई जो बैलगाड़ी बनाते थे
नहीं रहे वे लोग जो बैलगाड़ी चलाते थे
जुड़ा, सुमेला, जोता, धोखर और न जाने कितने शब्द
जो बैलगाड़ी को बैलगाड़ी का रूप देते थे
अब नहीं रहे

वे कलाएँ भी अब न रहीं
जिनसे बनती थी बैलगाड़ियाँ

बैल तो आज भी बहुत हैं
पर नहीं रहे वे बैल
जो बैलगाड़ी को खींच ले जाते थे

एक दूसरे की टांग खीचना ही जानते हैं
आज के बैल, जो बच गये हैं।

कुछ चीजों के न रहने से
नहीं रह पाती बहुत सारी चीजें
बहुत सारी कलाएँ
बहुत सारे शब्द
और 
भावनाएँ हो जाती हैं अपाहिज
संस्कार हो जाते हैं आहत
भाषा हो जाती है असहाय,

प्रेम की परिभाषा लुप्त हो रही है
गौरइया के न दिखने से

मुंडेर पर कौए के न आने से
प्रतीक्षा की अधीरता और व्याकुलता अब नहीं आती

किसी प्रियजन के आने की प्रतीक्षा
प्रतीक्षा की अधीरता और व्याकुलता मर चुकी है

नहीं आते अब प्रिय और स्नेही जन भी।
000kuber000

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