रविवार, 8 फ़रवरी 2015

कविता

फिल्म - हँसते ज़ख़्म   संगीत - मदन मोहन

तुम जो मिल गये हो,
तो ये लगता है, कि जहाँ मिल गया।
एक भटके हुए राही को, कारवाँ मिल गया।

बैठो न दूर हम से, देखो ख़फा न होओ।
किस्मत से मिल गए हो, मिल के जु़दा न होओ।
मेरी क्या ख़ता है, होता ये भी,
कि ज़मी से भी कभी, आसमाँ मिल गया।

तुम क्या जानो तुम क्या हो, एक सुरीला नग़मा हो,
भीगी रातों में मस्ती, तपते दिन में साया हो।
अब जो आ गये हो, जाने न दुँगा।
कि मुझे एक हसीं, मेहरुबाँ मिल गया।

तुम जो मिल गये हो, तो ये लगता है
कि जहाँ मिल गया, कि जहाँ मिल गया।

तुम भी थे खोये-खोये, मैं भी बुझा-बुझा।
था अज़नबी ज़माना, अपना कोई न था।
दिल को जो मिल गया है, तेरा सहारा
इक नई जिदगी का, निशाँ मिल गया।
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