गुरुवार, 20 अगस्त 2015

व्यंग्य

व्यंग्य

एक गुणवत्तायुक्त मित्र की महिमा


मित्रों के मामले में मैं अभागा हूँ। मेरी मित्रमंडली सीमित है। मेरी मित्रमंडली सीमित जरूर है पर उच्चगुणवत्ता वाले मित्रों से भरीपूरी है।

एक मित्र हैं, गुणों की खान हैं। उनके गुणों की गुणवत्ता और ज्ञान की विविधता बहुत व्यापक है। उनके जुबान पर चैबीसों घंटे और सातों दिन सरस्वती साक्षात विराजित रहती हैं। उनके इस जुबान को बनाने वाले ने बड़ी सूझबूझ और अतिरिक्त विशेषताओं के साथ बनाया होगा। सतत् काम करने के लिए लगातार और अधिक पावर सप्लाई की जरूरत को ध्यान में रखते हुए इसके लिए उसमें कभी डिस्चार्ज न होने वाली स्पेशल बैटरी लगायी होगी। लिहाजा यह बिना थके और बिना लड़खड़ाये सदा कैंची की तरह चलती रहती है। बड़े विद्वान और सिद्धपुरूष हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, राजनीतिशस्त्र आदि दशाधिक विषयों में उन्होंने स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल किया है। शासकीय सेवा में हैं। इनका जन्म उच्चकुल में हुआ है। साहित्य इन्हें विरासत में मिली है। जाहिर है, ये जन्मजात कवि हैं। ये स्वयं को कबीर की परंपरा के कवि मानते हैं। कबीर का स्वभाव कैसा रहा होगा, मैं नहीं जानता; परन्तु ये बड़े मुँहफट हैं। अपनी मुँहफटता को वे कबीर की परंपरा मानते हैं। देशभर में घूम-घूमकर मंचों पर कविता पाठ करते हैं। इससे भी ये अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं। जहाँ भी जाते हैं, अच्छी तरह जम जाते हैं।

जमने और जमाने का चोली-दामन का साथ है। आज के जमाने में जमने के लिए जमाने की कला में दक्षता जरूरी है। कहना नहीं होगा, इस कला में ये माहिर हैं। वक्त पड़ने पर गधे की भी आरती उतार लेने में और दण्डवत हो जाने में ये कोई बुराई नहीं समझते हैं। इनके जमने के जमाने में मैं गधा भी उनके अग्रजतुल्य और वंदनीय था; लिहाजा कई बार उन्होंने मुझ गधे की भी आरती उतारी है।

आजकल लोगों के पास नजरें जरूर होती हैं पर नजरिया नहीं होते। विचार तो जैसे ऐतिहासिक चीज हो गई है और अब केवल फाॅजिल के रूप में मिलती है। आजकल लोगों के पास नजरिया के बदले केवल नजरों के बदलने वाले नंबर और विचार के बदलें स्वार्थ और समयानुकूल परिवर्तनशील व्यवहार ही होते हैं। जमने के बाद लोगों की नजरों के नंबर और उनके व्यवहार बदल जाते हैं। इनके भी बदल गये होंगे। पहले वे 'भाई साहब’ कहकर संबोधित करते थे, विनम्रता पूर्वक ’निवेदन’ करते थे। अब वे ’ऐ! कुबेर’ कहकर सीधा ’आदेश’ देते हैं। वक्त बेवक्त अच्छी-अच्छी मजाक भी कर लेते हैं। ऐसा ही मजाक करते हुए एक दिन उन्होंने कहा - ’’.............. (एक स्थानीय गाली) आज कौन सा कपड़ा पहन लिया है?’’

गाली खाकर मुखे क्रोध तो बहुत आया पर मैंने इसे निष्क्रिय कर लिया; यह सोचकर कि मेरा यह मित्र अब पहले जैसा लल्लू-चप्पू नहीं रह गया है, प्रभुता संपन्न हो गया है। हमारा इतिहास गवाह है, यहाँ आज तक कोई भी, किसी भी प्रभु का, कुछ भी उखाड़ नहीं सका है। बाबा जी ने कहा है - ’समरथ को नहीं दोष गुसाईं’। कबीर दास ने भी कहा है, -
’आवत गाली एक है, उलटत होत अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।।’

गाली के बदले गाली देने से गालियों की श्रृँखला लंबी होती चली जाती है और कलह का कारण बनती है। कलह पैदा करके मैं अपने इस उच्च गुणवत्तायुक्त मित्र को खोना नहीं खहता था। और फिर मजाक में कही गई बात का भी कहीं कोई बुरा मानता है?

संत कवियों के उपदेशों को मानकर नपुंसकता ओढ़ लेने की हमारी परंपरा बड़ी पुरानी है। परंपराओं को निभाने में हम लोग बड़े कर्तव्यनिष्ठ हैं। हमारी महान् धार्मिकता का यही एकमात्र आधार है। इस आधार को तोड़कर मैं इस पवित्र भूमि को अधर्म के रसातल में डुबाने का दुःसाहस भला कैसे कर सकता था? पापकर्म में भी कोई पड़ना चाहता है क्या? मेरा पारंपरिक ज्ञान अपनी इस महान उपलब्धि पर परम आनंदित है। परन्तु मेरी बुद्धि और मेरा विवेकजन्य ज्ञान आज भी इसकी वजह से मुझे सोने नहीं देते।
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kuber

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