मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

आलेख

वनमानुष नहीं हँसता


(व्यंग्य के पितामह हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ’वनमानुष नहीं हँसता’ का एक अंश।)

वनमानुष नहीं हँसता। पर लकड़बघ्घा हँसता है। चँन्द्रकांत देवताले के कविता संग्रह का नाम है - लकड़बघ्घा हँस रहा है। मैंने लकड़बघ्घा नहीं देखा। चिड़ियाघर में भी नहीं देखा। जिन्होंने देखा है वे बता सकते हैं कि यह क्रूर जानवर हँसता है या नहीं। हँसता होगा तो उसकी हँसी मगर के आँसू जैसी होती होगी।

क्रूर कर्म करके हँसना, दूसरे को पीड़ा देकर हँसना, यह लकड़बघ्घे की हँसी है। मैंने मनुष्य अवतार में कई लकड़बघ्घ्घे देखे हैं। सभी ने देखे होंगे। दंगों में आदमी लकड़बघ्घा हो जाता है। लोगों को मारकर, घर में आग लगाकर जो अट्टहास करते हैं, वे लकड़बघ्घे होते हैं। अंधे की लाठी छीनकर, उसकी घबराहट पर हँसने वाले भी देखे हैं। कमजोर को पीटकर, उसकी चीख-पुकार पर ताली बजाकर हँसते और कहते, मजा आ गया यार, मैंने देखे हैं। इनका मुँह तोड़ा जाना चाहिए।

एक परिवार में बैठा था। परिवार में एक लड़की मोटी थी। इस कारण उसकी शादी नहीं हो रही थी। वह दुखी और हीनता की भावना से पीड़ित थी। उस परिवार की मित्र दो शिक्षित महिलाएँ आई और उस लड़की से कहा - अरे सुषमा, तू तो बहुत दुबली हो गई है। और हँसने लगीं। लड़की की आँखों में आँसू आ गये और वह कमरे से बाहर चली गई। वे दोनों मूर्खा विदूषियाँ मुझे लकड़बघ्घे की मादा लगीं।

एक और घटना मुझे याद आ रही है। दो आदमियों ने कहीं से शास्त्री पुल के लिए रिक्शा तय किया। मगर उसे बढ़ाते-बढ़ाते कमानिया फाटक तक ले आये। दूकान पर उतर गये और उसे शास्त्री पुल तक के पैसे दे दिए। उसने कहा - बाबूजी, आपने शास्त्री पुल का तय किया था और कमानिया ले आए। और पैसा दीजिए। वे दोनों सोने का चैन लटकाए आदमी हँसने लगे। बोले, अरे यही तो शास्त्री पुल है। यह जो फटक है, यही पुल है। रिक्शावाला कहने लगा - बाबूजी, क्यों गरीब आदमी का मजाक करते हो। यह कमानिया फाटक है। वे दोनों फिर हँसने लगे। जितना रिक्शावाला दीनता से गिड़गिड़ाता तो वे दोनों अट्टहास करते। आखिर लाचार रिक्शावाला चला गया। वे दोनों अट्टहास करने लगे। कहने लगे - अच्छा बेवकूफ बनाया साले को। बड़ी अदा से गिड़गिड़ा रहा था। हा, हा, हा, हा। मजा आ गया। यह लकड़बघ्घों की हँसी थी।

मनुष्य को हँसना चाहिए। पर निर्मल, स्वस्थ हँसी हँसना चाहिए। जो नहीं हँसता वह वनमानुष है। पर मनुष्य लकड़बघ्घे की हँसी हँसे तो उसे गोली मार देना चाहिए।
फरवरी 1991
हरिशंकर परसाई
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