बुधवार, 30 अप्रैल 2014

आलेख

आवारा भीड़ के खतरे
हरिशंकर परसाई

(हरिशंकर परसाई के निबंध  आवारा भीड़ के खतरे  का अंश)

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतिति हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रान्तियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं जो क्रान्तिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर लेते हैं। कारण बताते हैं - मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, विचारधारा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वे परिवर्तन ला सकते हैं।

पर मैं देख रहा हूँ एक नई पीढ़ी अपने ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका उपयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ चल सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर देे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनास के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।
जून 1991
000

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें