न्याय के दुर्लभ प्रसंग
न्याय के उच्च मापदण्डों की जब भी चर्चा होगी राजा शिवि और मुगल बादशाह जहांगीर का उल्लेख अवश्य किया जायेगा। राजा शिवि ने शरणागत कबूतर को बाज से बचाने के लिए अपनां अंग काट-काटकर न्याय के तराजू के दूसरे पलड़े पर रखता गया ताकि बाज को कबूतर के वजन के बराबर मांस दिया जा सके। और जब तराजू सम पर नहीं आया तो उन्होंने अपना पूरा शरीर ही पलड़े पर डाल दिया। यह राजा शिवि के धर्म और न्याय की इन्द्र और अग्नि द्वारा लिया गया परीक्षा था।
मुगल बादशाह जहांगीर भी न्याय की सर्वोपरिता पर विश्वास करते थे। उनके लिए न्याय की दृष्टि में सभी बराबर थे। उन्होंने फरियादियों के लिए महल के बाहर एक घंटा लगा रखा था जिसे नीचे लटकती हुई रस्सी को खींचकर बजाया जा सकता था। एक बार एक बूढ़े बैल को घंटा बजाते हुए पाया गया। दरबारियों ने इसे एक संयोग समझा। परंतु बादशाह ने बैल की फरियाद को समझ लिया। बूढ़ा होने के कारण बैल से कोई काम नहीं लिया जा सकता था। इसीलिए उसके मालिक ने उसे घर से बाहर निकाल दिया था। बादशाह ने उस बैल के मालिक को बुलाकर दंड दिया और बैल की सुरक्षा सुनिश्चित की।
बादशाह जहांगीर के न्याय की एक और कहानी प्रसिद्ध है। वे अपनी बेगम नूरजहां से बेइंतिहा मोहब्बत करते थे। एक बार तीर लगने से एक घोबन के निर्दोष पति की मृत्यु हो गयी। घोबन ने बादशाह से न्याय की फरियाद की। तहकीकात में पाया गया कि हत्या शाही तीर से हुई है और तीर चलानेवाली हैं - बेगम नूरजहाँ। नियम था - जान के बदले जान। दरबार में सन्नाटा पसर गया। क्या बेगम नूरजहाँ को फांसी पर लटकाया जायेगा? बादशाह ने न्याय की राह नहीं छोड़ी। उन्होंने फैसला सुनाया - ’धोबन को हक है कि जिस औरत ने उसका सुहाग छीना है वह भी उस औरत का सुहाग छीन ले।’ और स्वयं को धोबन के सामने पेश कर दिया। धोबन ने बेगम नूरजहां की गुनाह को माफ कर दिया। परिस्थिति और प्रकृति द्वारा ली गयी यह भी एक परीक्षा ही थी।
हमारे पुराणों और इतिहासों में न्याय के ऐसे उच्च मापदण्ड के दृष्टांत दुर्लभ हैं। वर्तमान समय में तो इसकी कल्पना करना ही बेमानी है।
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