मंगलवार, 22 अगस्त 2017

व्यंग्य

समय, परिस्थिति और भाईलोग


समय और परिस्थिति दोनों अभिन्न मित्र हैं।

एक दिन, समय जब आराम करने जा रहा था, उसके मोबाइल की घंटी बजने लगी। उसने फोन रिसीव किया। फोन परिस्थिति का था। समय ने हुलसते हुए कहा - ’’देखा! अनुमान कितना सही होता है, मेरा। दिल के मामलों में ऐसा ही होता है। जरूर, जरूरी और महत्वपूर्ण बात होगी, अन्यथा इस समय वह फोन नहीं करता।’’फिर दोनों में बातें हुई, एकदम संक्षिप्त। 

इस संक्षिप्तता ने समय को चिढा दिया। उसने कहा - ’’धत्! बस इतना ही पूछना था कि मैं घर पर हूँ या नहीं।’’आराम करना स्थगित कर वह मित्र की प्रतीक्षा करने लगा। 

प्रतीक्षा भी संक्षिप्त रही। 

दुख-सुख की बातें करने के लिए मनुष्य बनना जरूरी होता है। परिस्थिति को मनुष्य के रूप में देखकर समय का मन करुणा से भर उठा। उसके चेहरे के भावों को वह पढ़ नहीं सका। 

दुआ-सलाम के बाद परिस्थिति ने कहा -’फूल देखे थे अक्सर जनाजों में मैंने,कल गोरखपुर में फूलों का जनाजा देखा।’

’’वाह! क्या बात है?’’ समय ने दाद देते हुए कहा - ’’शायर कब से बन गये?’’

’’मैं क्यों शायर बनने लगा? शायर बनकर क्या फायदा? औकात नामक कोई चीज होती भी है, शायरों के पास? इसे अखबार में पढ़ा था। गुलजार नामक किसी व्यक्ति का है।’’

’’गुलजार के बारे में ऐसी बातें करते हो?’’

’’क्यों? शायर ही तो है, कोई भाई-वाई तो नहीं? .... अच्छा, सुन। खुशखबरी है।’’ 

’’खुशखबरी?’’

’’हाँ! यहाँ के भाई लोगों को जानते हो न?’’

’’हाँ, हाँ ... क्यों नहीं। उन्हें कौन नहीं जानता होगा। सभी भय खाते हैं उनसे।’’

’’हाँ! सभी भय खाते हैं उनसे। तुमसे तो कुछ होता नहीं। मैं भी काफी तनाव में रहता था। सब तो उनकी दरबार में हाजिरी लगाते हैं। कल से मैंने भी लगाना शुरू कर दिया है। अपना सब कुछ उन्हें अर्पित कर दिया है। आरती करके आ रहा हू अभी - ’तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो .....।’ देखा, आरती का असर। सारा भय, सारा टेंशन जाता रहा।’’

समय के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर गयी। 

समय के चेहरे पर मुस्कान देखकर परिस्थिति को अचरज हुआ। 

समय ने पूछा - ’’पर ये सब सूझी कैसे तुम्हें?’’

’’चैनलवाले और अखबारवाले आजकल काम की बड़ी-बड़ी चीजें परोस रहे हैं। नहीं पढा़ क्या - ’बन के हादसा, बाजारों में आ जायेगा।जो न होगा, अखबारों में आ जायेगा।चोर उचक्कों की करो कद्र, कि मालूम नहीं,कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जायेगा।’है न काम की बात?’’

सुनकर समय के मुस्कान की रहस्यमयता और गाढ़ी हो गई। उसका चेहरा और अधिक रहस्मय लगने लगा।

परिस्थिति को कुछ समझ में नहीं आया। उसे उलझन होने लगी - ’भाई लोगों के दरबार में कहीं इसने भी तो ...... ।’’000

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