मंगलवार, 1 अगस्त 2017

आलेख


“तुम्हारी क्षय!” – राहुल सांकृत्यायन 


आजमगढ़ के महान क्रान्तिकारी थे राहुल सांकृत्यायन. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचारक, शोषण, अन्याय तथा पाखण्ड पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था के प्रचण्ड शत्रु, दलित, पीड़ित, श्रमजीवी सर्वहारा वर्ग के ध्वजवाहक पुरोधा, सत्यनिष्ठ प्रखर वक्ता, बौद्ध भिक्षु, त्रिपिटिकाचार्य, पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, दर्शन-शास्त्री, बहु भाषाविद, साहसी अन्वेषक, घुमक्कड़राज, साम्यवादी विचारक, सतत सक्रिय बलिदानी कार्यकर्ता, उत्कट संगठन क्षमता से लैस नेता तथा लेखनी की तीखी धार के धनी लेखक राहुल का विराट बहुआयामीय व्यक्तित्व हम सब के लिये प्रेरणा का श्रोत रहा है। विषेषतः क्रान्तिकारी विचारों के झण्डे तले दुनिया को बदलने के प्रयासों में लगे परिवर्तनकामी प्रयोगधर्मा युवकों को पिछली तीन पीढ़ियों से सतत धधकती मशाल की भाँति राहुल बाबा का आह्वान रास्ता दिखाता रहा है तथा आगे भी तब तक दिखाता रहेगा, जब तक धरती से, जोंक-राज हमेशा के लिये मिट नहीं जाता और समता एवं बन्धुत्व पर टिकी साम्यवादी व्यवस्था का सूत्रपात नहीं हो जाता।

‘तुम्हारी क्षय’ उनके द्वारा लिखी गयी सबसे लोकप्रिय किताबों में से एक है और आज भी लोग उसे माँग-माँग कर पढते हैं. मैंने जिन किताबों को छपवा कर लोगों के बीच निःशुल्क वितरित किया है, उनमें वह सबसे पहले छापी गयी थी. निवेदन है कि इसे पूरा पढ़ कर स्वयं इसके बारे में अपना मत बनाइए.

“तुम्हारी क्षय!” – राहुल सांकृत्यायन 

दो शब्द :–
‘तुम्हारी क्षय’ के रूप में मैंने अपने कुछ भावों को व्यक्त किया है. वस्तुतः ये भाव और भी कड़े शब्दों का आग्रह रखते थे, किन्तु कुछ तो उतने कड़े शब्दों को तुरन्त प्राप्त करना मुश्किल था, और कुछ यह भी ख्याल बाधक हुआ कि पुस्तक को पाठकों तक पहुँचाना है. पुस्तक छपरा जेल में लिखी गयी थी और इसका कुछ अंश ‘जनता’ में निकला था. (रचना काल – मार्च से मई 1939 के बीच) – राहुल सांकृत्यायन 

अनुक्रमणिका :- 
1. तुम्हारे समाज की क्षय, 
2. तुम्हारे धर्म की क्षय, 
3. तुम्हारे भगवान की क्षय, 
4. तुम्हारे सदाचार की क्षय, 
5. तुम्हारी जात-पांत की क्षय, 
6. तुम्हारी जोंकों की क्षय

1. तुम्हारे समाज की क्षय :-

मनुष्य सामाजिक पशु है। मनुष्य और पशु में अन्तर यही है कि मनुष्य अपने हित और अहित के लिये अपने समाज पर अधिकतर निर्भर रहता है। वस्तुतः पशु-जगत के बड़े-बड़े बलिष्ठ शत्रुओं के रहते तथा समय-समय पर आने वाले हिमयुग - जैसे महान प्राकृतिक उपद्रवों से बचने में उसके दिमाग ने जो सहायता दी है, उसमें मनुष्य का समाज के रूप में संगठन बहुत भारी सहायक हुआ है। समाज ने पहले कमज़ोर मनुष्य की शकितयों को सैकड़ों व्यक्तियों की एकता द्वारा बहुत बढ़़ा दिया और तभी वह अपने प्राकृतिक और दूसरे शत्रुओं से त्राण पा सका, लेकिन आज उस समाज ने प्राकृतिक और पशु-जगत के दूसरे शत्रुओं से रक्षा पाने में मदद देते हुए भी अपने भीतर से ऐसे शत्रुओं के पैदा कर दिया है, जिन्होंने कि उन प्राकृतिक और पाशविक शत्रुओं से भी अधिक मनुष्य-जीवन को नारकीय बनाने का काम किया है।

समाज का अपने भीतर के व्यक्तियों के प्रति न्याय करना प्रथम कर्तव्य है। न्याय का मतलब यह होना चाहिए कि हर एक व्यक्ति अपने श्रम के फल का उपयोग कर सके। लेकिन आज हम उल्टा देखते हैं।

धन वह है, जो आदमी के जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। खाना, कपड़ा, मकान, ये ही चीजें हैं, जिन्हें कि वास्तविक धन कहना चाहिए। वास्तविक धन के उत्पादक वे ही हैं, जो इन चीजों को पैदा करते हैं। किसान वास्तविक धन का उत्पादक है, क्योंकि वह मिट्टी को गेहूँ, चावल, कपास के रूप में परिणत करता है। दो घण्टे रात रहते खेतों में पहुँचता है। जेठ की तपती दुपहरी हो या माघ-पूस के सबेरे की हड्डी छेदने वाली सर्दी, वह हल जोतता है, ढेले फोड़ता है, उसका बदन पसीने से तर-बतर हो जाता है, उसके एक-एक हाथ में सात-सात घट्ठे पड़ जाते हैं, फावड़ा चलाते-चलाते उसकी साँस टँग जाती है, लेकिन तब भी वह उसी तरह मशक्कत किये जाता है। क्योंकि उसको मालूम है कि धरती माता के यहाँ रिश्वत नहीं चल सकती - वह स्तुति-प्रार्थना के द्वारा अपने हृदय को खोल नहीं सकती। यह अकिंचन मिट्टी सोने के गेहूँ, रुपे के चावल और अंगूरी मोतियों के रूप में तब परिणत होती है, जब धरती माता देख लेती है कि किसान ने उनके लिये अपने खून के कितने घड़े पसीने दिये, कितनी बार थकावट के मारे उसका बदन चूर-चूर हो गया और कुदाल अनायास उसके हाथ से गिर गयी।

गेहूँ बना-बनाया तैयार एक-एक जगह दस-बीस मन रक्खा नहीं मिलता, वह पन्द्रह-पन्द्रह, बीस-बीस दानों के रूप में और वह भी अलग-अलग बालियों में छिपा सारे खेत में बिखरा रहता है। किसान उन्हें जमा करता है, बालियों से अलग करता है। दस-दस, बीस-बीस मन की राशि को एक जगह देखकर एक बार उसका हृदय पुलकित हो उठता है। महीनों की भूख से अधमरे उसके बच्चे चाह-भरी निगाह से उस राशि को देखते हैं। वे समझते हैं कि दुःख की अन्धेरी रात कटने वाली है और सुख का सवेरा सामने आ रहा है। उनको क्या मालूम कि उनकी यह राशि - जिसे उनके माता-पिता ने इतने कष्ट के साथ पैदा किया - उनके खाने के लिये नहीं है। इसके खाने के अधिकारी सबसे पहले वे स्त्री-पुरुष हैं, जिनके हाथों में एक भी घट्ठा नहीं है, जिनके हाथ गुलाब जैसे लाल और मक्खन जैसे कोमल हैं, जिनकी जेठ की दुपहरियाँ खस की टट्टियों, बिजली के पंखों या शिमला और नैनीताल में बीतती हैं। जाड़ा जिनके लिये सर्दी की तकलीफ नहीं लाता, बल्कि मुलायम ऊन और कीमती पोस्तीन से सारे बदन को ढँके इन लोगों के लिये आनन्द के सभी रास्ते खोल देता है। निठल्ले और निकम्मे ये बड़े आदमी – जमींदार, महाजन, मिल-मालिक, बड़ी-बड़ी तनखाहों वाले नौकर, पुरोहित और दूसरी सभी प्रकार की जोंके - किसान के कसाले की इस कमाई के भोजन का सबसे पहले हक रखती हैं।

मज़दूर भोंपू लगते ही आँख मलते हुए कारखाने की ओर दौड़ता है। अभी कुछ दिनों पहले तक तो काम के घण्टों का भी कोई निर्बन्ध न था और अब भी अधिक मज़दूरों वाले कारख़ानों पर ही वह नियम लागू है। वहाँ चन्द सिक्के रोज़ पर वह खटता है। इसी में उसे बीवी, तीन-चार बच्चों और बूढ़े माँ-बाप की भी फ़िक्र करनी है। एक दिन भी निश्चिन्त हो पेट भर खाना उसके लिए हराम है और उस पर से यदि वह बीमार पड़ गया तो नौकरी से जवाब। यदि बूढ़ा या अंग-भंग हो गया तो आसमान के नीचे उसको और उसके बाल-बच्चों को भीख देने वाला भी कोई नहीं। यही नहीं, कल तक कारख़ाना चौबीसों घंटे चल रहा था, आज मालिक के पास ख़बर आती है - चीज़ों का दाम गिर गया, अब उन्हें लागत दाम पर भी बाज़ार में कोई खरीदने वाला नहीं है। कारखाने में ताला लगा दिया जाता है। मज़दूर, उसके बाल-बच्चे दाने-दाने के लिये बिलखने लगते हैं। जब उसे काम मिला था और मज़दूरी मिलती थी, तब भी उसकी ज़िन्दगी नरक से बेहतर न थी और बेकारी तो जिन्दा ही मौत। ऐसी तकलीफ़ों को सहते मज़दूर तैयार करता है बढ़िया से बढ़िया कपड़े चीनी, मिठाइयाँ और हज़ारों तरह की सुख-विलास की सामग्रियाँ। वह अपने हाथों से खडा़ करता है बडे़-बड़े महल, बँगले, बाग, ठण्डी सड़कें. लेकिन ख़ुद उसके लिये क्या मिलता है? उसकी झोपड़ी शायद ही बरसात में साबुत रहती हो। उसके बदन के लिये चीथड़े भी ढँकने के लिये नहीं मिलते। कितनी ही उसकी अपनी बनायी चीजें उसके लिये स्वप्न की-सी मालूम होती हैं और मज़दूर की हड्डियों, पसीने और चिन्ता से बनी इन चीज़ों का उपभोग कौन करता है? उनके खून के गारे से उठी अट्टालिकाओं में विहार कौन करता है? वही बड़ी-बड़ी जोंकें – ज़मींदार, महाजन, मिल-मालिक, बड़ी-बड़ी तनखाहों वाले नौकर, पुरोहित। 

किसान और मज़दूर जिसके लिये अपनी जवानी धूल में मिलाते हैं, अपनी नींद हराम करते हैं, अपने स्वास्थ्य का सत्यानाश करते हैं, वह उन्हें भूखा-नंगा रख करके ही सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि पग-पग पर उन्हें अपमानित करना अपना कर्तव्य समझता है। किसान और मज़दूर गरीब क्यों हैं? क्योंकि उन्होंने अपनी कमाई परिवार और बाल-बच्चों को भूखा रखकर इन जोंकों को खुशी-खुशी दे दी है। उन्हीं के खून से मोटी हुई ये तोदें गरीबी के लिये उन्हें लांछित करती हैं। उनकी भाषा में इन गरीबों के लिये अलग शब्द है। ‘आप’ की तो बात ही क्या, ‘तुम’ भी उनके लिये नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। ‘तू’, ‘रे’, ‘अबे’ से ही उन्हें सम्बोधित किया जा रहा है। बुरी से बुरी गालियों को उनके लिये इस्तेमाल करना अमीरी की शान है। गाँव के किसान की इज़्ज़त और जानोमाल ज़मींदार के हाथ में है। वह जैसे चाहता है, उसे नाक रगड़ने को मज़बूर करता है।

यह तो हुई वास्तविक धन के उत्पादकों की अवस्था और जोंके? मज़दूरों और किसानों की कमाई उनके लिये अर्पित है। वे इसके सोचने की परवाह नहीं करते कि उनकी लाखों की तहसील और मुनाफे का रुपया किस तरह प्राप्त किया गया। क्या वह कभी यह सोचने की तकलीफ़ करते हैं कि उस एक-एक रुपये को जमा करने के लिये किसान ने अपने बच्चों को कितनी बार भूखा रक्खा? कितनी माताओं ने अपने को नंगा रक्खा? कितने बीमारों ने अपने को दवा और पथ्य से महरूम रखकर अपने प्राण छोड़े? यदि उनके ऐसा ख्याल होता, तो वे कभी... महीने में हजार-हजार रुपये मोटर के तेल में न फूँक डालते या हाकिमों की दावतों और विलास के जलसों में लाखों का वारा-न्यारा न करते। 

यह सब अन्धेर होते हुए भी किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। समाज के पंच कह उठते हैं, अमीर-गरीब सदा से चले आये हैं, अगर सभी बराबर कर दिये जायें, तो कोई काम करना पसन्द नहीं करेगा, दुनिया को चलाने के लिये अमीर-गरीब का रहना ज़रूरी है। समाज की बेड़ियाँ जेलखाने की बेड़ियों से भी सख्त हैं। उन्हें आँखों से देखा नहीं जा सकता, लेकिन जहाँ समाज के कानून के खि़लाफ़ - चाहे वह कानून सरासर अन्याय पर ही अवलम्बित क्यों न हो - कोई बात हुई कि समाज हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है। कुएँ में पानी है, जगत पर लोटा-डोरी रखी हुई है, एक तरफ़ मन्दिर के आँगन में भक्तिभाव से झूम-झूम कर लोग रामायण पढ़ रहे हैं – “जाति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।” गीता हो रही है – “विद्या विनय-सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता समदर्शिनः।।” (विद्या और शील-सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल सब में पण्डित लोग समदर्शी होते हैं) महात्मा और पण्डित लोग गद्गद् होकर अर्थ कर रहे हैं – “जो है, सो सब भगवान की देन है, सियाराम मय सब जग जानी। करहु प्रणाम जोरि जुग पानी। चराचर जगत् सब भगवान् के रूप हैं, जो है, सो उसमें कोई भेद नहीं।” 

मालूम होता है, चारों ओर समदर्शिता, विश्व-बन्धुत्व और प्रेम का महासमुद्र लहरें मार रहा है। उसी समया जेठ की दुपहरी में प्यास का मारा चमार आ जाता है, उसका कदम कुएँ की ओर बढ़ता है, भक्तों में से कोई उसकी जात पहचानता है, कानाफूसी होती है, महात्मा और भक्ति-रस में गद्गद् सभी श्रोताओं की त्योरियाँ चढ़ जाती हैं, आँखें लाल हो जाती हैं और सभी मानो जीते जी खा जाने के लिये उस निरपराध व्यक्ति की ओर दौड़ पड़ते हैं. उसका कसूर क्या? क्या कुएँ से पानी निकाल कर पी लेना महापाप है? क्या समदर्शिता और विश्वबन्धुत्व के वायुमण्डल में कुएँ से पानी निकाल कर पी लेना महापाप है? और यह मण्डली कुछ ही मिनटों पहले जिस राम को अलाप रही थी, उसके रहते क्या ऐसा करना उचित था? उन व्यक्तियों मे से एक-एक से अलग-अलग पूछिए – “तुम्हारे वचन और कर्म में, मन्तव्य और कर्तव्य में इतना अन्तर क्यों?” घूम-फिर कर आप इसी नतीजे पर पहुँचेंगे कि समाज उनसे वैसा ही कराना चाहता है।

किसी ऊँची जात के माता-पिता की एक छोटी-सी लड़की है। समाज ने मज़बूर किया है कि उसकी शादी आठ-दस बरस की उम्र तक हो जाय। ग्यारहवें बरस में वह लड़की विधवा हो जाती है। समाज कहता है, उसकी शादी नहीं हो सकती, अब ज़िन्दगी भर उसे ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय-संयम करना पड़ेगा. कैसा ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय-संयम? -- जिसके पालन में विश्वामित्र और पराशर, ऋष्यश्रृंग और व्यास जैसे बड़े-बड़े ऋषि बिलकुल असमर्थ रहे। आज भी उसी विधवा लड़की का पचास साल का बूढ़ा बाप एक स्त्री के मर जाने पर दूसरी से शादी को तैयार है। उसके पच्चीस वर्ष के भाई की स्त्री को मरे महीने से ज्यादा भी नहीं हुआ, लेकिन दूसरी शादी की बातचीत तय हो रही है। क्या समाज की अक्ल मारी गई है? क्या उसकी आँखों पर पर्दा पड़ गया है? क्या उसे मालूम नहीं है कि इस अबोध बालिका से ज़िन्दगी भर ब्रह्मचर्य और संयम की आशा रखना दुराशा मात्र है? क्या अपने पास-पड़ोस में प्रति वर्ष एक-दो गर्भ गिरते उसने नहीं देखे? इतने पर भी क्या वह नहीं समझ सकता कि यदि उस बालिका को खुलकर पुरुष-समागम का मौका नहीं दिया गया, तो वह छिप कर वैसा करेगी? खुलकर करने पर शायद वह रिश्ते और जाति का भी ख़्याल करती, लेकिन छिप कर करने पर तो वह सबसे नज़दीक के सम्बन्धी के साथ भी नाता जोड़ सकती है। किसी जाति का पुरुष, जो उसे सुलभ है, उसके प्रेम का पात्र हो सकता है। इस गुप्त प्रणय का परिणाम वह जानती है, उसके लिये मृत्यु-दण्ड से कम नहीं है। यदि गर्भ न गिराया जा सका, तो उसे सबसे हल्की सजा यही मिलेगी कि उसके माता-पिता, भाई-बन्धु, खून के अत्यन्त नज़दीकी सम्बन्धी उसे किसी अनजान शहर में, किसी सुनसान जगह में छोड़ आयें, जहाँ उसे जीवन भर वेश्यावृत्ति या उसी तरह का कोई काम करना होगा। समाज के कारण उसके भाई-बन्धु उसे ज़हर भी खिला सकते हैं, हथियार से भी मार सकते हैं। यदि गुप्त सम्बन्ध को छिपाया जा सका, तो गर्भ तो ज़रूर ही एक-दो गिराये जायेंगे। जो समाज इन सब बातों को अपनी आँखों देखता है और इसके परिणामों को भी भली-भाँति समझता है, वह कैसे इतनी असम्भव शर्तें अभागे व्यक्तियों के सामने पेश करता है? क्या इससे उसकी हृदयहीनता स्पष्ट नहीं होती है? हर पीढ़ी के करोड़ों व्यक्तियों के जीवन को इस प्रकार कलुषित, पीड़ित और कंटकाकीर्ण बनाकर क्या वह अपनी नर-पिशाचता का परिचय नहीं देता? ऐसे समाज के लिये हमारे दिल में क्या इज़्ज़त हो सकती है, क्या सहानुभूति हो सकती है? बाहर से धर्म का ढ़ोंग, सदाचार का अभिनय, ज्ञान-विज्ञान का तमाशा किया जाता है और भीतर से यह जघन्य, कुत्सित कर्म। धिक्कार है ऐसे समाज को! सर्वनाश हो ऐसे समाज का।

जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफ़नाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनन्द आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पल भर भी बर्दास्त करना चाहिए? एक गरीब माता-पिता हैं। उनको खुद न अपने खाने-पीने का ठिकाना है, न पहनने-ओढ़ने का। उनके घर में एक असाधारण प्रतिभाशाली बालक पैदा होता है। लड़कपन से ही उसे किसी धनी के बच्चे को खेलाना पड़ता है, भेड़-बकरियाँ चराकर पेट पालने के लिए मजबूर होना पड़ता है। माँ-बाप जानते तक नहीं कि लड़के को पढ़ाना-लिखाना उनका कर्तव्य है। यदि वे जानते भी हैं तो न उनके पास फ़ीस देने के लिये पैसा है, न किताब के लिये दाम। लड़का बड़ा होता है, बूढ़ा होता है, मर जाता है और साथ ही अपने प्रतिभा को लिये जाता है, जिसके द्वारा वह देश को एक चाणक्य, एक कालिदास, एक आर्यभट्ट, एक रविन्द्र, एक रमन दे सकता था। मैंने गाँव के एक अभिनेता को देखा है। यदि वह किसी ऐसे देश में पैदा हुआ होता, जहाँ प्रतिभाओं के आगे बढ़ने के सारे रास्ते खुले हैं, तो वहाँ वह प्रथम श्रेणी का जगत्-विख्यात अभिनेता होता। लकिन आज साठ वर्ष की अवस्था में इस अशिक्षित व्यक्ति की वह महान प्रतिभा ग्रामीण-स्त्री-पुरुष-जीवन के कुछ सजीव चित्रण द्वारा अपने परिचितों का कुछ मनोरंजन मात्र कर सकती है। मैंने ऐसे स्वाभाविक कवि देखे हैं, जिन्हें अक्षर का कोई भी ज्ञान नहीं जिस भाषा को बोलते हैं, उनमें कोई लिखित साहित्य नहीं, कोई आचार्य-परम्परा नहीं, शब्द और अलंकार के परिचय का कोई साधन नहीं, तब भी अपनी भाषा में वे बहुत ही भावपूर्ण, रसपूर्ण कविता कर सकते हैं। शिक्षित जन उनकी कविता को गँवारू कहकर निरादर करते हैं और इसके कारण वे खुद भी उसे वैसा ही समझते हैं। कवित्व के लिये बाहर से न उन्हें कोई प्रेरणा मिलती है, न प्रोत्साहन, सिर्फ अन्तःप्रेरणा से मजबूर होकर वे कभी-कभी कुछ गा लेते हैं। मैं गाँव के एक लड़के के बारे में जानता हूँ। उसकी माँ विधवा है। नाम-मात्र का थोड़ा-सा खेत पुत्र और माता की जीविका का साधन है। लड़का गाँव की पाठशाला में पढ़ने बैठा। असाधारण, मेधावी, गणित में विशेष निपुण। प्राइमरी-स्कूल में उसे छात्रवृत्ति मिली, जिसकी सहायता से उसने मिडिल पास किया। वहाँ भी उसने छात्रवृत्ति पायी। यद्यपि पर्याप्त न थी, तो भी किसी तरह वह अपनी पढ़ाई को जारी रख सकता था। मैट्रिक में युक्तप्रान्त से उत्तीर्ण होने वाले कई हजार छात्रों में उसका नम्बर दूसरा या तीसरा था। किन्तु जो एक या दो छात्र उसकी अपेक्षा अधिक नम्बर से पास हुए थे, वे धनियों के लाड़ले थे। उनके ऊपर दो-दो, तीन-तीन अध्यापक घर में अलग रक्खे गये थे। उन्हें हमारे उक्त तरुण की तरह खाने-पीने की चिन्ता न थी। अबकी बार फिर उसे छात्रवृत्ति मिली। वह कालेज में पढ़ने लगा। फिजि़क्स, केमिस्ट्री और गणित उसके विषय थे। छात्रवृत्ति पर्याप्त न थी। इधर स्वास्थ्य भी इतना अच्छा न रहा। उस पर से एक देहाती जगह से आकर तीव्र विद्यार्थियों के लिये मशहूर एक विश्वविद्यालय में उसने नाम लिखाया था। यहाँ छात्रवृत्तियाँ कम थीं। संयोग से एक ही छात्रवृत्ति के लिये तीन विद्यार्थियों के नम्बर बराबर आ गये। छात्रवृत्ति किसको मिलनी चाहिए, इसका निर्णय करते वक्त विश्वविद्यालय ने ऐसे दो विषय ले लिये, जिनमें एक और ही छात्र - जो कि एक धनाढ्य की सन्तान था - के एक-दो नम्बर अधिक हो गये। किसी ने इसकी परवाह न की कि उस तरुण की प्रतिभा - जो घोर दरिद्रता में जन्म लेकर भी कितनी कठिनाइयों को पार कर यहाँ तक पहुँची थी - का भविष्य क्या होगा? मुझे उस तरुण से साल भर बाद मिलने का मौका मिला। मैंने देखा - उसका चेहरा थाइसिस के रोगी जैसा हो गया है। बदन बहुत दुबला-पतला। मैंने कारण पूछा। तरुण ने बहाना बना दिया। उसके चले जाने पर दूसरे साथी ने बतलाया – “उसे इस साल छात्रवृत्ति नहीं मिली। बहुत कहने-सुनने पर फीस माफ हो गयी। खाने-पीने के लिये उसने ट्यूशन पाने की बड़ी कोशिश की, लेकिन न मिला। एक-दो दोस्त अपने साथ रखने का आग्रह करते थे, लेकिन इसे वह अपने आत्मसम्मान के खिलाफ समझता था।” दूसरे दिन अपनी जानकारी को जतलाते हुए मैंने जब तरुण से पूछा तब उसने उत्तर दिया – “हाँ ठीक है। मैंने ट्यूशन के लिये बहुत कोशिश की, कालेज के घण्टों को समाप्त करके मैं घण्टों इसी फेर में घूमता रहा। लेकिन कहीं कुछ होते-हवाते न देख मैंने उसे अब छोड़ दिया है।” जिस वक्त मुझे उस प्रतिभाशाली तरुण की इस उपेक्षा केा देखने का मौका मिला और यह भी सुना कि वह सिर्फ एक बार थोड़ी-सी खिचड़ी खाकर गुजारा करता आ रहा है, तो सच बताऊँ मेरी आँखों में खून उतर आया। मुझे ख्याल आता था - ऐसे समाज को जीने देना पाप है। इस पाखण्डी, बेईमान, ज़ालिम, नृशंस समाज को पेट्रोल डालकर जला देना चाहिए।

एक तरफ़ प्रतिभाओं की इस तरह अवहेलना और दूसरी तरफ़ धनियों के गदहे लड़कों पर आधे दर्जन ट्यूटर लगा-लगा कर ठोक-पीट कर आगे बढ़ाना। मैं एक ऐसे व्यकित को जानता हूँ जिसके दिमाग में सोलहो आना गोबर भरा हुआ था, लेकिन वह एक करोड़पति के घर पैदा हुआ था। उसके लिये मैट्रिक पास करना भी असम्भव था। लेकिन आज वह एम. ए. ही नहीं है, डॉक्टर है। उसके नाम से दर्जनों किताबें छपी हैं। दूर की दुनिया उसे बड़ा स्कालर समझती है। एक बार “उसकी”’ एक किताब को एक सज्जन पढ़कर बोल उठे – “मैंने इनकी अमुक किताब पढ़ी थी। उसकी अंग्रेजी़ बड़ी सुन्दर थी, और इस किताब की भाषा तो बड़ी रद्दी है?” उनको क्या मालूम था कि उस किताब का लेखक दूसरा था और इस किताब का दूसरा।

प्रतिभाओं के गले पर इस प्रकार छुरी चलते देखकर जो समाज खिन्न नहीं होता, उस समाज की “क्षय हो” इसको छोड़ और क्या कहा जा सकता है?

2. तुम्हारे धर्म की क्षय :- 


वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है। एक पूरब मुँह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। एक सिर पर कुछ बाल बढ़ाना चाहता है, तो दूसरा दाढ़ी। एक मूँछ कतरने के लिये कहता है, तो दूसरा मूँछ रखने के लिये। एक जानवर का गला रेतने के लिये कहता है, तो दूसरा एक हाथ से गर्दन साफ करने को। एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखता है, तो दूसरा बायीं तरफ। एक जूठ-मीठ का कोई विचार नहीं रखता तो दूसरे के यहाँ जाति के भीतर भी बहुत-से चूल्हे हैं। एक खुदा के सिवाय दूसरे का नाम भी दुनिया में रहने देना नहीं चाहता, तो दूसरे के देवताओं की संख्या नहीं। एक गाय की रक्षा के लिये जान देने को कहता है, तो दूसरा उसकी कुर्बानी से बड़ा सबाब समझता है।

इसी तरह दुनिया के सभी मजहबों में भारी मतभेद है। ये मतभेद सिर्फ विचारों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि इन मतभेदों के कारण मजहबों ने एक-दूसरे के ऊपर जुल्म के कितने पहाड़ ढाये। यूनान और रोम के अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दीखता है? इसलिये कि वहाँ एक मजहब आया, जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को अपने लिये खतरे की चीज समझता था। ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नामशेष-सा क्यों हो जाना पड़ा? क्योंकि, उसे एक ऐसे मजहब से पाला पड़ा, जो इन्सानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था। मेक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान, मिस्र ओर जावा - जहाँ भी देखिए, मजहबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया। और खून-खराबी? इसके लिये तो पूछिए मत। अपने-अपने खुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी किताबों और पाखण्डों के नाम पर मनुष्य के खून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया। यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बूढ़ों, बच्चों स्त्री-पुरूषों को शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो पीछे अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे? ईसा मसीह के नाम पर उन्होंने खुल कर तलवार का इस्तेमाल किया। जर्मनी में ईसाइयत के भीतर लोगों को लाने के लिये कत्लेआम सा मचा दिया गया। पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे। कहीं ऐसा न हो कि ये ओक उन्हें फिर पथभ्रष्ट कर दें, इसके लिये बस्तियों के आस-पास एक भी ओक को रहने न दिया गया। पोप और पेत्रियार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार-स्वातंत्र्य को आग और लोहे के ज़रिये से दबाते रहे। जरा से विचार-भेद के लिये कितनों को चर्खी से दबाया गया - कितनों को जीते जी आग में जलाया गया। हिन्दुस्तान की भूमि ऐसी धार्मिक मतान्धता का कम शिकार नहीं रही है। इस्लाम के आने से पहले भी क्या मज़हब ने बोलने और सुनने वालों के मुँह और कानों में पिघले राँगे और लाख को नहीं भरा? शंकराचार्य ऐसे आदमी - जो कि सारी शक्ति लगा गला फाड़-फाड़ कर यही चिल्ला रहे थे कि सभी ब्रह्म हैं, ब्रह्म से भिन्न सभी चीज़ें झूठी हैं तथा रामानुज और दूसरों के भी दर्शन ज़बानी जमा-खर्च से आगे नहीं बढ़े, बल्कि सारी शक्ति लगाकर शूद्रों और दलितों को नीचे दबा रखने में उन्होंने कोई कोर-कसर उठा नहीं रक्खी और इस्लाम के आने के बाद तो हिन्दू-धर्म और इस्लाम के खूँरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं। उन्होंने तो हमारे देश को अब तक नरक बना रखा है। कहने के लिये इस्लाम शक्ति और विश्व-बन्धुत्व का धर्म कहलाता है, हिन्दू-धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है, किन्तु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया? हिन्दू मुसलमानों पर दोष लगाते हैं कि ये बेगुनाहों का खून करते हैं, हमारे मन्दिरों और पवित्र तीर्थों को भ्रष्ट करते हैं, हमारी स्त्रियों को भगा ले जाते हैं। लेकिन झगड़े में क्या हिन्दू बेगुनाहों का खून करने से बाज आते हैं? चाहे आप कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम झगड़े को ले लीजिए या बनारस के, इलाहाबाद के या आगरे के, सब जगह देखेंगे कि हिन्दुओं और मुसलमानों के छुरे और लाठी के शिकार हुए हैं – निरपराध, अजनवी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे। गाँव या दूसरे मुहल्ले का कोई अभागा आदमी अनजाने उस रास्ते आ गुजरा और कोई पीछे से छुरा भोंक कर चम्पत हो गया। सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिए, तो आपको मालूम होगा कि यहाँ मनुष्यता पनाह माँग रही है। निहत्थे बूढ़े और बूढ़ियाँ ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चे तक मार डाले जाते हैं। अपने धर्म के दुश्मनों को जलती आग में फेंकने का बात अब भी देखी जाती है।

एक देश और एक खून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं। खून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम हिन्दुस्तान में क्या देखते हैं? हिन्दुओं की सभी जातियों में, चाहे आरम्भ में कुछ भी क्यों न रहा हो, अब तो एक ही खून दौड़ रहा है। क्या शक्ल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद? कोयले से भी काले ब्राह्मण आपके लाखों की तादात में मिलेंगे और शूद्रों में भी गेहुएँ रंग वालों का अभाव नहीं है। पास-पास में रहने वाले स्त्री-पुरुष के यौन-संबन्ध, जाति की ओर से हजार रुकावट होने पर भी, हम आये दिन देखते हैं। कितने ही धनी खानदानों, राजवंशों के बारे में तो लोग साफ ही कहते हैं कि दास का लड़का राजा और दासी का लड़का राजपुत्र। इतना होने पर भी हिन्दू-धर्म लोगों को हजारों जातियों में बाँटे हुए है। कितने ही हिन्दू, हिन्दू के नाम पर जातीय एकता स्थापित करना चाहते हैं। किन्तु, वह हिन्दू जातीयता है कहाँ? हिन्दू जाति तो एक काल्पनिक शब्द है। वस्तुतः वहाँ है तो एक काल्पनिक शब्द है। वस्तुतः वहाँ है ब्राह्मण-ब्राह्मण भी नहीं, शाकद्वीपी, सनाढ्य जुझौतिया - राजपूत, खत्री, भूमिहार, कायस्थ, चमार आदि-आदि। एक राजपूत का खाना-पीना, ब्याह-श्राद्ध अपनी जाति तक सीमित रहता है। उसकी सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक सीमित है। इसीलिये जब एक राजपूत बड़े पद पर पहुँचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फायदा पहुँचाना चाहता है। यह स्वाभाविक है। जबकि चौबीसों घण्टे जीने-मरने सब में साथ सम्बन्ध रखने वाले अपनी बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक कैसे जायेगी?

कहने के लिये तो हिन्दुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पाँत के बन्धनों को तोड़ दिया। इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं। लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुँजड़ा) आदि का सवाल न उठता। अर्जल और अशरफ का शब्द किसी के मुँह पर न आता। सैयद-शेख, मलिक-पठान, उसी तरह का ख़्याल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिन्दुओं के बड़ी जात वाले। खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिन्दुओं में भी कम होता जा रहा है। लेकिन सवाल तो है - सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौका दिया? ...हिन्दुस्तानियों में से चार-पाँच करोड़ आदमियों ने हिन्दुओं के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अत्याचारों से त्राण पाने के लिये इस्लाम की शरण ली। लेकिन, इस्लाम की बड़ी जातों ने क्या उन्हें वहाँ पनपने दिया? सात सौ वर्षों बाद भी आज गाँव का मोमिन ज़मींदारों और बड़ी जातों के ज़ुल्म का वैसा ही शिकार है, जैसा कि उसका पड़ोसी कानू-कुर्मी। ...सरकारी नौकरियों में अपने लिये संख्या सुरक्षित करायी जाती है। लेकिन जब उस संख्या को अपने भीतर वितरण करने का अवसर आता है, तब उनमें से प्रायः सभी को बड़ी जाति वाले सैयद और शेख अपने हाथ में ले लेते हैं। साठ-साठ, सत्तर-सत्तर फीसदी संख्या रखने वाले मोमिन और अन्सार मुँह ताकते रह जाते हैं। बहाना किया जाता है कि उनमें उतनी शिक्षा नहीं। लेकिन सात सौ और हजार बरस बाद भी यदि वे शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं, तो इसका दोष किसके ऊपर है? उन्हें कब शिक्षित होने का अवसर दिया गया? जब पढ़ाने का अवसर आया, छात्रवृत्ति देने का मौका आया, तब तो ध्यान अपने भाई-बन्धुओं की तरफ चला गया। मोमिन और अन्सार, बावर्ची और चपरासी, खिदमतगार हुक्काबरदार के काम के लिये बने हैं। उनमें से कोई यदि शिक्षित हो भी जाता है, तो उसकी सिफ़ारिश के लिये अपनी जाति में तो वैसा प्रभावशाली व्यक्ति है नहीं और बाहर वाले अपने भाई-बन्धु को छोड़ कर उन पर तरजीह क्यों देने लगे? नौकरियों और पदों के लिये इतनी दौड़-धूप, इतनी जद्दोजहद सिर्फ खिदमते-कौम और देश सेवा के लिये नहीं है, यह है रुपयों के लिये, इज़्ज़त और आराम की ज़िन्दगी बसर करने के लिये।

हिन्दू और मुसलमान फरक-फरक धर्म रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का खून बह रहा है, जो इसी देश में पैदा हुए और पले, फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज़ क्या उन्हें अलग कौम साबित कर सकती है? क्या खून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिन्दू और मुसलमान को फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिन्दुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है? जापान में जाइए या जर्मनी, ईरान जाइए या तुर्की - सभी जगह हमें हिन्दी और ‘इण्डियन’ कहकर पुकारा जाता है। जो धर्म भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मज़हब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिये प्रेरित करता है, उस मज़हब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिन्दू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है। एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है, एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिन्तो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है, एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिन्तो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है, एक ईरानी चाहे वह मुसलमान हो या जरतुस्त, किन्तु वह अपने लिये ईरानी छोड़ दूसरा नाम स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं। तो हम - हिन्दियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बाँटने को क्यों तैयार हैं और इन नाजायज हरकतों को हम क्यों बर्दास्त करें?

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसीलिए अब मजहबों के मेलमिलाप की भी बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन क्या यह सम्भव है? “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” - इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना है? अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता, तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों से गोबर खाने वालों को लड़ा रहा है? असल बात यह है – “मज़हब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।” हिन्दुस्तानियों की एकता मज़हबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर होगी। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। काली कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मज़हबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसको मौत छोड़ कर इलाज नहीं। 

एक तरफ तो वे मजहब एक-दूसरे के इतने जबर्दस्त खून के प्यासे हैं। उनमें से हर एक एक-दूसरे के खिलाफ़ शिक्षा देता है। कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, बोली-बानी, रीती-रिवाज में हर एक एक-दूसरे से उल्टा रास्ता लेता है। लेकिन, जहाँ गरीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है, तो दोनों बोलते हैं। गदहा-गाँव के महाराज बेवकूफ़ बख़्श सिंह सात पुश्त से पहले दर्जे के बेवकूफ़ चले आते हैं। आज उनके पास पचास लाख सालाना आमदनी की ज़मींदारी है, जिसको प्राप्त करने में न उन्होंने एक धेला अकल खर्च की और न अपनी बुद्धि के बल पर उसे छै दिन चला ही सकते हैं। न वे अपनी मेहनत से धरती से एक छटाँक चावल पैदा कर सकते हैं, न एक कंकड़ी गुड़। महाराज बेवकूफ़ बख़्श सिंह को यदि चावल, गेहूँ, घी, लकड़ी के ढेर के साथ एक जंगल में अकेले छोड़ दिया जाये, तो भी उनमें न इतनी बुद्धि है और न उन्हें काम का ढंग मालूम है कि अपना पेट भी पाल सकें, सात दिन में बिल्ला-बिल्ला कर ज़रूर वे वहीं मर जायेंगे। लेकिन आज गदहा-गाँव के महाराज दस हज़ार रुपया महीना तो मोटर के तेल में फूँक डालते हैं। बीस-बीस हज़ार रुपये जोड़े कुत्ते उनके पास हैं। दो लाख रुपये लगाकर उनके लिये महल बना हुआ है। उन पर अलग डॉक्टर और नौकर हैं। गर्मियों में उनके घरों में बरफ के टुकड़े और बिजली के पंखे लगते हैं। महाराज के भोजन-छाजन की तो बात ही क्या? उनके नौकरों के नौकर भी घी-दूध में नहाते हैं, और जिस रुपये की इस प्रकार पानी की तरह बहाया जाता है, वह आता कहाँ से है? उसके पैदा करने वाले कैसी ज़िन्दगी बिताते हैं?- वे दाने-दाने को मोहताज हैं। उनके लड़कों को महाराज बेवकूफ़ बख़्श सिंह के कुत्तों का जूठा भी यदि मिल जाये, तो वे अपने को धन्य समझें। 

लेकिन, यदि किसी धर्मानुयायी से पूछा जाये, कि ऐसे बेवकूफ आदमी को बिना हाथ-पैर हिलाये दूसरे की कसाले की कमाई को पागल की तरह फेंकने का क्या अधिकार है, तो पण्डित जी कहेंगे – “अरे वे तो पूर्व की कमाई खा रहे हैं। भगवान की ओर से वे बड़े बनाये गये हैं। शास्त्र-वेद कहते हैं कि बड़े-छोटे को बनाने वाले भगवान हैं। गरीब दाने-दाने को मारा-मारा फिरता है, यह भगवान की ओर से उसको दण्ड मिला है।” यदि किसी मौलवी या पादरी से पूछिए तो जवाब मिलेगा – “क्या तुम काफ़िर हो? नास्तिक तो नहीं हो? अमीर-गरीब दुनिया का कारबार चलाने के लिये खुदा ने बनाये हैं। राजी-व-रजा खुदा की मर्जी में इन्सान को दखल देने का क्या हक? गरीबी को न्यामत समझो। उसकी बन्दगी और फरमाबरदारी बजा लाओ, कयामत में तुम्हें इसकी मज़दूरी मिलेगी।” पूछा जाये - जब बिना मेहनत ही के महाराज बेवकूफ़ बख़्श सिंह धरती पर ही स्वर्ग का आनन्द भोग रहे हैं, तो ऐसे ‘अन्धेर नगरी-चैपट राजा’ के दरबार में बन्दगी और फरमाबरदारी से कुछ होने-हवाने की क्या उम्मीद?

उल्लू शहर के नवाब नामाकूल खाँ भी बड़े पुराने रईस हैं। उनकी भी ज़मींदारी है और ऐशो-आराम में बेवकूफ़ बख़्श सिंह से कम नहीं हैं। उनके पाखाने की दीवारों में अतर चुपड़ा जाता है और गुलाब-जल से उसे धोया जाता है। सुन्दरियों और हुस्न की परियों को फँसा लाने के लिये उनके सैकड़ों आदमी देश-विदेशों में घूमा करते हैं। ये परियाँ एक ही दीदार में उनके लिये बासी हो जाती हैं। पचासों हकीम, डॉक्टर और वैद्य उनके लिये जौहर, कुश्ता और रसायन तैयार करते रहते हैं। दो-दो साल की पुरानी शराबें पेरिस और लन्दन के तहखानों से बड़ी-बड़ी कीमत पर मँगाकर रखी जाती हैं। नवाब बहादुर का तलवा इतना लाल और मुलायम है, जितनी इन्द्र की परियों की जीभ भी न होगी। इनकी पाशविक काम-वासना की तृप्ति में बाधा डालने के लिये कितने ही पति तलवार के घाट उतारे जाते हैं, कितने ही पिता झूठे मुकदमों में फँसा कर कैदखाने में सड़ाये जाते हैं। साठ लाख सालाना आमदनी भी उनके लिये काफी नहीं है। हर साल दस-पाँच लाख रुपया और कर्ज़ हो जाता है। आपको ...बड़ी-बड़ी उपाधियाँ सरकार की ओर से मिली हैं। वायसराय के दरबार में सबसे पहले कुर्सी इनकी होती है और उनके स्वागत में व्याख्यान देने और अभिनन्दन-पत्र पढ़ने का काम हमेशा उल्लू शहर के नवाब बहादुर और गदहा-गाँव के महाराजा बहादुर को मिलता है। छोटे और बड़े दोनों लाट, इन दोनों रईसूल उमरा की बुद्धिमानी, प्रबन्ध की योगयता और रियाया-परवरी की तारीफ़ करते नहीं अघाते। 

नवाब बहादुर की अमीरी को खुदा की बरकत और कर्म का फल कहने में पण्डित और मौलवी, पुरोहित और पादरी सभी एक राय हैं। रात-दिन आपस में तथा अपने अनुयायियों में खून-खराबी का बाज़ार गर्म रखने वाले, अल्लाह और भगवान यहाँ बिलकुल एक मत रखते हैं। वेद और कुरान, इन्जील और बायबिल की इस बारे में सिर्फ एक शिक्षा है। खून-चूसने वाली इन जोंकों के स्वार्थ की रक्षा ही मानो इन धर्मों का कर्तव्य हो और मरने के बाद भी बहिश्त और स्वर्ग के सबसे अच्छे महल, सबसे सुन्दर बगीचे, सबसे बड़ी आँखों वाली हूरें और अप्सराएँ, सबसे अच्छी शराब और शहद की नहरें उल्लू शहर के नवाब बहादुर तथा गदहा-गाँव के महाराजा और उनके भाई-बन्धुओं के लिये रिजर्व हैं, क्योंकि उन्होंने दो-चार मस्जिदें, दो-चार शिवाले बनवा दिये हैं, कुछ साधु-फकीर और ब्राह्मण-मुजावर रोजाना उनके यहाँ हलवा-पूड़ी, कबाब-पुलाव उड़ाया करते हैं। गरीबों की गरीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं। हाँ, यदि वे हर एकादशी के उपवास, हर रमजान के रोजे तथा सभी तीरथ-व्रत, हज और जियारत बिना नागा और बिना बेपरवाही से करते रहे, अपने पेट को काट कर यदि पण्डे-मुजावरों का पेट भरते रहे, तो उन्हें भी स्वर्ग और बहिश्त के किसी कोने की कोठरी तथा बची-खुची हूर-अप्सरा मिल जायेगी। गरीबों को बस इसी स्वर्ग की उम्मीद पर अपनी ज़िन्दगी काटनी है। किन्तु जिस स्वर्ग-बहिश्त की आशा पर ज़िन्दगी भर के दुःख के पहाड़ों को ढोना है, उस स्वर्ग-बहिश्त का अस्तित्व ही आज बीसवीं सदी के इस भूगोल में कहीं नहीं है। पहले ज़मीन चपटी थी। स्वर्ग इसके उत्तर से सात पहाड़ों और सात समुद्रों के पार था। आज तो न उस चपटी ज़मीन का पता है और न उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात समुद्रों का। जिस सुमेरु के ऊपर इन्द्र की अमरावती व क्षीरसागर के भीतर शेषशायी भगवान थे, वह अब सिर्फ लड़कों के दिल बहलाने की कहानियाँ मात्र हैं। ईसाइयों और मुसलमानों के बहिश्त के लिये भी उसी समय के भूगोल में स्थान था। आजकल के भूगोल ने तो उनकी जड़ ही काट दी है। फिर उस आशा पर लोगों को भूखों रखना क्या भारी धोखा नहीं है?




3. तुम्हारे भगवान की क्षय :-

लड़का माँ के पेट से ईश्वर का ख़्याल लेकर नहीं निकलता। भूत, प्रेत तथा दूसरे संस्कारों की तरह ईश्वर का ख़्याल भी लड़के को माँ-बाप तथा आस-पास के सामाजिक वातावरण से मिलता है। दुनिया के धर्मों में बौद्ध धर्म के अनुयायी अब भी सबसे ज़्यादा हैं, लेकिन उनके दिल में सृष्टिकर्ता का ख़्याल भी नहीं उठता। रूस की नब्बे फीसदी जनता भी ईश्वर के फन्दे से दूर हट चुकी है और अब कुछ बूढ़ों को छोड़कर यह ख़्याल किसी को नहीं सताता। यह निश्चय है कि आज के बूढ़ों के मर जाने पर ईश्वर का नामलेवा वहाँ कोई नहीं रह जायेगा। हिन्दुस्तान में प्रार्थना-प्रदर्शनों और हरि-कीर्तनों को देखकर कुछ लोग समझते हैं कि ईश्वर का ख़्याल फिर से ज़ोर पकड़ रहा है। उन्हें मालूम नहीं कि जिन लोगों में ईश्वर-विश्वास है भी, उनमें भी अब उसकी व्यापकता बहुत कम हो गयी है। 

जिस समस्या, जिस प्रश्न, जिस प्राकृतिक रहस्य को जानने में आदमी अपने को असमर्थ समझता था, उसी के लिये वह ईश्वर का ख़्याल कर लेता था। दर-असल ईश्वर का ख़्याल है भी तो अन्धकार की उपज। प्रारम्भिक मनुष्य जब घर बनाकर नहीं रहता था, अपनी रक्षा के लिये जब उसके पास कुछ अनगढ़ पत्थरों के अतिरिक्त कुछ न था और साथ ही उस वक्त सारी भूमि जंगल से भरी थी, जिसमें सिंह, बाघ, हाथी, भेड़िया आदि बड़े-बड़े हिंस्र पशु घूमा करते थे। दिन में भी वृक्षों के ऊपर चढ़कर, गुफाओं के भीतर छिपकर, बहुत सजग रहकर वह किसी तरह अपनी जान को बचाता था। अन्धेरे में अपनी ताक में बैठे जन्तुओं का डर तो उसे बदहवास किये रहता था। इस प्रकार वह अन्धकार मनुष्य के लिये आज तक भय का कारण बना हुआ है। हाँ, जब आगे चलकर मनुष्य ने भाषा का विकास किया, विचारों को प्रकट करने के लिये उसके पास कुछ शब्दकोश बना और जब हर पीढ़ी अपने अनुभवों की कटु स्मृतियों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने लगी, तो वास्तविक की अपेक्षा कल्पना-जात भय की संख्या बहुत बढ़ गयी। जीवन भर अपने बलिष्ठ शासक और नेता से मनुष्य थर-थर काँपता था। वह अपने आश्रितों के साथ बात की अपेक्षा लात से ही काम लेता था। इस साधारण शिक्षा-दीक्षा में कितने काने, कितने लँगड़े हो जाते और कितने जान से हाथ धो बैठते थे। ऐसे निर्दय स्वामी और मुखिया का भय उसके मरने के बाद भी लोगों के दिल से नहीं हटता था। मरने के बाद उसे वे अपनी बस्तियों में किसी वृक्ष पर या किसी चबूतरे पर अधिष्ठित मानने लगते थे। अन्धेरा होने पर किसी वक्त उसके प्रकट होने का डर था। अज्ञात भय ने इस प्रकार देवता का रूप धारण किया । और ये ही विचार आगे चलकर महान देवता (महादेव) या ईश्वर के रूप में परिणत हुए। 


प्रारम्भिक मनुष्य का मानसिक विकास अभी निम्न तल पर था। उसकी शंकाएँ हल्की और समाधान सरल थे। वर्षा क्यों होती है, पर्जन्य देवता के नेतृत्व में मेघ-समूह किसी जलाशय या पहाड़ में चरने जाते हैं, वे वहाँ से पानी लेकर पर्जन्य की आज्ञानुसार जगह-जगह बरसाते हैं। इन्द्र पर्जन्य का स्वामी है। वह कभी-कभी वज्र केा चलाकर अपना रोष प्रकट करता है। यही अशनि या बिजली है। पहाड़ों की आकृति को मेघ से मिलते-जुलते देखकर उस समय लोग समझते थे ये पहाड़ ही है, जो आकाश में मेघ के रूप में उड़ रहे हैं। उनके विश्वास में पर्वतों के पर भी होते थे, जिन्हें इन्द्र ने नाराज होकर किसी समय अपने वज्र से काट दिया। प्रातः काल पूर्व दिशा में पौ फटने के साथ लाली क्यों छा जाती है? यह उषा, स्वर्ग की देवी का प्रताप है। उस वक्त सूर्य अपने प्रखर प्रकाश के कारण प्रचण्ड देवता था और वह सात घोड़ों के रथ पर त्रिभुवन की यात्रा के लिये निकलता था। आग के पास बड़े-बड़े हिंस्र पशु नहीं आ सकते। प्रकाण्ड वृक्षों और महान जंगलों को यह धाँय-धाँय करके जला देती है। इसलिये अग्नि प्रत्यक्ष महान (ब्रम्ह) था, उसी को वे प्रत्यक्ष महान कहते थे। नदी,, समुद्र सभी उस मनुष्य के लिये देवता थे, क्योंकि उनमें वे अमानुषिक (दिव्य) शक्ति पाते थे, नाश करने की भीषण योग्यता देखते थे। उनमें ऐसे-ऐसे अद्भूत रहस्य उन्हें दिखलाई पड़ते थे, स्वीकार जिनकी गुत्थी को वे देवता की कल्पना से ही सुलझा सकते थे। मनुष्य ने प्राकृतिक शक्तियों में बहुदेववाद को अपने ज्ञान की सीमा के बहुत संकुचित होने के कारण किया था। अब हम जानते हैं कि बादल कैसे बनते हैं, कैसे बरसते हैं, कहाँ से किधर की यात्रा करते हैं। कौन-कौन से देश उनकी यात्रा के मार्ग में पड़ते हैं और कौन से दूर। बिजली बादलों में क्यों कर पैदा होती है? कड़क क्या है? सूर्य अब हमारे लिये घोड़ों रथ का सवार नहीं रहा और न उसका वह गोल मुँह, दो आँखों और काली मूँछों वाला चेहरा ही रहा। उसकी यात्रा भी अब वह पहले वाली यात्रा नहीं रही, उषा देवी अब सूर्य की निम्नतर लाल किरण के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आरम्भिक मनुष्य के लिये सूर्य आकाश का सबसे बड़ा विशाल और तेजस्वी देवता था। अब हम जानते हैं कि आकाश में चमकते हुए ये छोटे-छोटे तेजो-बिन्दु उतने छोटे नहीं है, जितने कि वे हमें दिखलाई पड़ते हैं। उनमें से अधिकांश हमारे सूर्य से भी लाखों गुने बड़े और तेजस्वी हैं। आकाश को अनन्त कह कर पूर्वजों ने उसके विस्तार का एक अन्दाजा लगा लिया था, लेकिन वह अत्यन्त वास्तविकता की भित्ति पर न होकर अधिकतर अज्ञान के आधार पर आश्रित था। प्रकाश की गति प्रति सेकेण्ड तीन लाख किलो मीटर है। आज तक जो तारा हमसे सबसे नज़दीक मालूम हुआ है, वह इतनी दूर है कि उसकी किरण को हम तक पहुँचने में ढाई बरस लगते हैं। ध्रुव तारा हमसे बहुत दूर नहीं है, तो भी उसके जिस रूप को इस वक्त देख रहे हैं, वह आज से पचास बरस पहले का है। दस-दस बीस-बीस हज़ार बरस में अपनी किरणों को हम तक पहुँचाने वाले तारों की भारी संख्या से हमें आश्चर्य करने की ज़रूरत नहीं। नक्षत्र-मण्डल में ऐेसे भी तारे हैं, जिनकी दूरी को किरणों की यात्रा के वर्षों की संख्या में बतलाना मुश्किल है। तारों, खगोल और प्राकृतिक जगत-सम्बन्ध की अपनी इस अज्ञानता को मनुष्य देवता और ईश्वर की आड़ में छिपाता था।

भूकम्प क्यों होता है? चिपटी धरती के महान भार को शेषनाग ने अपने कन्धे पर उठा रखा है। थक कर वे जब उसे एक कन्धे से हटा कर दूसरे पर रखते हैं, तब भूकम्प आता है। आज कौन इस व्याख्या को मान सकता है? कौन चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण को राहु दैत्य का अत्याचार बतला सकता है? लेकिन किसी समय हमारे पूर्वजों के लिये ये बातें ध्रुव सत्य थीं। विज्ञान ने हमारे अज्ञान की सीमा को कितनी ही दिशाओं में बहुत संकुचित किया है, और जितनी ही दूर तक हमारे ज्ञान की सीमा बढ़ती गयी, वहाँ से ईश्वर और देवता वाला उत्तर हटता गया है। अब भी अज्ञान का क्षेत्र बहुत लम्बा-चौड़ा है, लेकिन आज के मनीषी उसे साफ अज्ञान के रूप में स्वीकार करने के लिये तैयार हैं, न कि ईश्वर और देवता के पर्दें में उसे छिपा कर।

धर्मों, भाषाओँ और कथानकों के तुलनात्मक अध्ययन से मालूम होता है कि सृष्टिकर्ता एक ईश्वर का ख़्याल मनुष्य में बहुत पीछे से आया है। दुनिया की सबसे अधिक समुन्नत जातियाँ – यूनानी, रोमन, हिन्दू, चीनी, मिस्री आदि तो अपनी समृद्धि के मध्याह्नकाल तक इसे अपनाने के लिये तैयार नहीं हुईं, और उनमें से यदि किसी ने इस ख़्याल को माना भी तो सामीय धर्मवालों की तरह वैयक्तिक ईश्वर के रूप में नहीं, बल्कि विश्व-रूप ईश्वर के आकार में।

अज्ञान का दूसरा नाम ही ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को साफ स्वीकार करने में शर्माते हैं, अतः उसके लिये सम्भ्रान्त नाम “ईश्वर” ढूँढ निकाला गया है। ईश्वर-विश्वास का दूसरा कारण मनुष्य की असमर्थता और बेबसी है। 

आये दिन हर तरह की विपत्तियों, प्राकृतिक दुर्घटनाओं, शारीरिक और मानसिक बीमारियों की असह्य वेदना सहते-सहते जब मनुष्य बचने का कोई रास्ता नहीं देखता, तब यह कहकर सन्तोष करना चाहता है कि ईश्वर की यही मर्जी है, वह जो कुछ करता है, अच्छा करता है, वह हमारी परीक्षा ले रहा है, भविष्य के सुख को और भी मधुर बनाने के लिये उसने यह प्रबन्ध किया है। अज्ञान और असमर्थता के अतिरिक्त यदि कोई और भी आधार ईश्वर-विश्वास के लिये है, तो वह है धनिकों और धूर्तों का अपने स्वार्थ-रक्षा का प्रयास। समाज में होते हज़ारों अत्याचारों और अन्यायों को वैध साबित करने के लिये उन्होंने ईश्वर का बहाना ढूँढ़ निकाला है। धर्म की धोखाधड़ी को चलाने और उसे न्याय साबित करने के लिये ईश्वर का ख़्याल बहुत सहायक है। इस सम्बन्ध में धर्म के प्रकरण में हम कुछ कह आये हैं, इसलिये फिर से उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती।

ईश्वर का विश्वास एक छोटे बच्चे के भोले-भाले विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं है। अन्तर इतना ही है कि छोटे बच्चे का शब्दकोष, दृष्टान्त और तर्कशैली सीमित होती है और बड़ों की कुछ विकसित। बस, इसी विशेषता का फ़र्क हम दोनों में पाते हैं। एक बार तीन छोटे-छोटे बच्चों ने मुझसे ईश्वर के सम्बन्ध में बातचीत की। उनकी उमर सात और दस बरस के बीच की थी। पूछा कि ईश्वर कहाँ रहता है, उत्तर मिला – “आकाश में?” धरती में कहने से प्रत्यक्ष दिखलाने की ज़रूरत पड़ती, क्योंकि धरती प्रत्यक्ष की सीमा के भीतर है। आकाश अज्ञान की सीमा के अन्तर्गत है, इसलिये वहाँ उसका अस्तित्व अधिक सुरक्षित है। ईश्वर के रंग-रूप के बारे में लड़कों का एक मत न था। कोई उसे अपनी शक्ल का बतलाता था और कोई विचित्र शक्ल का। “ईश्वर क्या करता है?” - यह सबसे मुख्य प्रश्न था। इसे लड़के भी अनुभव करते थे, क्योंकि जिस वस्तु का आकार प्रत्यक्ष नहीं होता, उसकी सत्ता उसकी क्रिया से सिद्ध हो सकती है। लड़कों ने कहा – “वह हमें भोजन देता है।” और तुम्हारे बाबूजी? - “बाबूजी को ईश्वर देता है।”

“जिस दिन बाबूजी कचहरी में वकालत करने नहीं जाते, उस दिन क्यों नहीं उनके जेब में रुपये आ जाते?” लड़कों को समाज के दुरूह संगठन का उतना पता नहीं होता और जुए के खेल की तरह किस तरह वास्तविक न्याय न करके सौ को हराकर दो को जिताया जाता है, इसका भी उन्हें पता नहीं। इसलिये उन्होंने उस तरह के प्रश्नोत्तर नहीं उठाये। हाँ, उन्हें यह मालूम हो गया कि जहाँ तक खाने-कपड़े, मकान, खेल-तमाशे में खर्च देने का सवाल है, उसका हल माता-पिता और अभिभावकों द्वारा ही होता है। वहीं ईश्वर की सहायता संदिग्ध-सी जान पड़ती है। लेकिन जब उनसे पूछा गया – “तुम्हें सिरदर्द कौन देता है माँ-बाप या सगे-सम्बन्धी?” - तो वे विह्वल हो जाते हैं, “अम्मा और बाबूजी क्यों ऐसा चाहेंगे?” वहाँ ईश्वर का हाथ होना उन्हें आसानी से स्वीकार कराया जा सका।

“और पेट दर्द?” - ईश्वर देता है।
“यक्ष्मा से घुला-घुला कर तुम्हारे पड़ोसी को किस ने मारा?” “- ईश्वर ने।”
“सात दिन के बच्चे की माँ को मार कर कर कौन उसे अनाथ करता है?” “-ईश्वर।” 
“माँ के इकलौते बच्चे को मार कर कौन उसे ऐसा विलाप करने को मज़बूर करता है, जिसे सुनकर पशु-पक्षी और पत्थर तक का हृदय पिघल जाता है?” - “ईश्वर।”
“चैत-वैशाख के दिनों में एक-एक आम के ऊपर दस-दस करोड़ कीड़ों को सिर्फ धूप और हवा में मरने का मजा चखने के लिये कौन पैदा करता है? कौन बरसात के दिनों में धरती पर असंख्य मच्छरों, कीड़ों-मकोड़ों को तड़प-तड़प कर मरने के लिये पैदा करके अपनी असीम दया का परिचय देता है?” - “ईश्वर।”
“तब तो उसमें दया बिल्कुल नहीं। उतनी भी दया नहीं जितनी कि क्रूर से क्रूर आदमी में सम्भव हो सकती है। रोते-तड़पते बच्चे को देखकर पत्थर का दिल भी पिघल जाता है। तुम भी उसकी माँ को उस दिन नन्हे बच्चे के मरने पर रोती देखकर अफ़सोस करते थे कि नहीं?”
“मैं भी रो रहा था। कैसा सुन्दर लड़का, उसका गोल-मटोल चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें और बिना दँतुली के मुँह के हँसते वक्त गालों में पड़े गड्ढे अब भी बड़े सुन्दर याद आते हैं।”
“ऐसे बच्चे को मारने वाला कौन - आदमी या राक्षस?” - “राक्षस से भी खराब।”

हाँ, दुनिया में प्राणियों के सुख की घड़ियाँ कम और दुःख की अधिक हैं। एक मच्छरों की ही योनि ले ली जाये, तो उसकी संख्या शंख-महाशंख से भी ऊपर चली जायेगी और इस तरह की योनियाँ भी हमारी इस पृथ्वी पर अरबों होंगी। अत्यन्त छोटे, सूक्ष्मदर्शी से दिखाई देने वाले कीड़े से लेकर समुद्र की विशाल मछलियों तक अरबों योनियाँ हैं। उनमें अधिकांश शंख-महाशंख तक प्राणी अपने में रखती हैं। कहा जाता है कि जो मनुष्य यहाँ, इस लोक में, निकृष्ट कर्म करता है, वही परलोक या परजन्म में इन निकृष्ट योनियों में, दण्ड पाने के लिये पैदा होता है, पर यह बात टिकती नहीं, क्योंकि इस पृथ्वी पर मनुष्य की सारी संख्या डेढ अरब (अब 6 अरब) के ही आस-पास है। फिर डेढ़ अरब मनुष्यों के पुरबीले कर्म को भोगने के लिये इतनी अधिक संख्या में जीव कैसे पैदा हो सकते हैं? ईश्वर ने इन असंख्य जीवों को सिर्फ यन्त्रणा और कष्ट के लिये पैदा करके क्या अपनी कृपा का परिचय दिया है? इन्साफ तो उसमें छू नहीं गया, बल्कि उसके इस कर्म से तो यही पता लगता है कि उससे बढ़कर ज़ालिम और पाषाण-हृदय दुनिया में और कहीं नहीं मिल सकता। शेर भी हिरण का शिकार करता है अपनी भूख को दूर करने के लिये, छिपकली पतिंगे को दबोचती है पेट भरने के लिये। सभी जीवधारी दूसरे जीव को आत्मरक्षा और जीवन-धारण के लिये मारते हैं। भरसक तड़पा-तड़पा कर मारना भी पसन्द नहीं करते। लेकिन ईश्वर जिनको मारता है, क्या उनके मांस से वह अपनी भूख शान्त करता है, या आत्मरक्षा के लिये उसे वैसे करना आवश्यक मालूम होता है? इन दोनों के न होने पर सिर्फ खेल के लिये ऐसा घोर कृत्य ईश्वर को क्या बतलाता है?


4. तुम्हारे सदाचार की क्षय :-

व्यभिचार :-
सद्-आचार अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों का आचार। श्रेष्ठ किसे कहते हैं? क्या श्रेष्ठ की कोटि में उस गरीब की गिनती हो सकती है, जो ईमानदारी से की गयी अपनी कमाई को खाने का हक न रख कर दाने-दाने का मुहताज है? नहीं, श्रेष्ठ से मतलब है पुराने-नये राजा, राजऋषि, बड़े-बड़े राजाओं के पुरोहित और गुरु-ऋषि-मुनि, जिन्होंने कि सदाचार-प्रतिपादक शास्त्र और स्मृतियाँ बनायी हैं। श्रेष्ठ से मतलब है पीर-पैगम्बर, मूसा दाऊद से, जो कि खुद राजा या शासक थे, अथवा किसी दूसरे तरीके से बहुत जन-धन के स्वामी बन गये थे। ऐसे ‘श्रेष्ठ’ पुरुषों का चाल-व्यवहार तो दुनिया का सदाचार बना हुआ है। उनके सदाचार भी एक तरह के नहीं हैं। कहीं सोलह-सोलह हजार स्त्रियाँ कृष्ण और दशरथ जैसे सदाचारियों के यहाँ बतलायी जाती हैं। सुलेमान, दाऊद तथा दूसरे सामीय पैगम्बर भी इस बारे में बहुत ‘उदार’ थे। आज भी हमारे यहाँ वाजिदअली शाहों की कमी नहीं है। ...सच तो यह है कि यदि धनिक ही हमारे सदाचार के आदर्श माने जायें, तो ऐसे सदाचार का तो न रहना ही भला है। एक पुरुष एक स्त्री के रहते दो-दो, चार-चार और अधिक विवाह भी कर सकता है, तो भी हिन्दू और इस्लाम धर्म के अनुसार उसके सदाचारी होने में कोई शंका नहीं उठ सकती, लेकिन इन धर्मों के अनुसार इसी स्वतन्त्रता को लेकर यदि कोई स्त्री एक साथ दो पति रखे, तो वह दुराचार हो जायेगा। आखिर दुनिया में ऐसे भी देश हैं, जहाँ एक स्त्री का एक साथ कई पति रखना जरा भी अनुचित नहीं समझा जाता। तिब्बत में यह प्रथा आम है। वहाँ शायद ही कोई स्त्री मिलेगी, जिसके अनेक पति न हों। और यह बात तो हमारे पुराने इतिहास में भी मिलती है। पाँच पति रखने पर भी द्रोपदी भारत की प्रातः स्मरणीया पंचकन्याओं में से थी। आखिर इसमें सदाचार है क्या? बहुत से देश हैं, जहाँ पुराने समय से आज तक बहुपति-विवाह, बहुपत्नी-विवाह विहित समझा जाता है और बहुत से देश हैं, जहाँ बहुपत्नी-विवाह को उतना ही अनुचित समझा जाता है, जितना बहुपति-विवाह, जितना कि बहुपति विवाह को। यूरोप, अमेरिका, जापान ऐसे ही देशों में हैं। न्याय की दृष्टि से देखने पर तो यह साफ मालूम पड़ता है कि यदि एक स्त्री के अनेक पति होना खराब है, तो एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होना भी उतना ही खराब है। आजकल के जीवित प्रधान धर्मों में कोई भी ऐसा नहीं है, जो सिर्फ एक पति-विवाह और एक पत्नी-विवाह को ही उचित ठहराता हो तथा दोनों तरह के बहुविवाहों का निषेध करता हो। 

लेकिन यह यौन सदाचार सिर्फ बाहरी बात है। भीतर देखने पर तो हालत और भी वीभत्स मालूम देती है। हर एक धनी और शक्तिशाली व्यक्ति पुराने समय से आज तक विवाहिता स्त्रियों के अतिरिक्त भी अनेक दासियाँ और रखेलियाँ रखता आया है और वेश्यावृत्ति तो लक्ष्मी की शोभा समझी जाती है। यदि पुरुष उतनी ही चंचलता दिखलाये, तो वह मर्द-बच्चा कहलाकर बच जाता है, लेकिन ‘वेश्या’ शब्द का लांछन सिर्फ स्त्री पर लगता है। बचपन से हर एक व्यक्ति तथा चिरकाल से हमारा समाज ऐसे वातावरण में पलता चला आया है, जिसमें पुरुष के लिये सदाचार की जो कसौटी कायम है, उस पर जब स्त्री को तौलने लगते हैं, तो हम आश्चर्य करते हैं। दुनिया भर में ‘सदाचार’, ‘सदाचार’ चिल्लाया जा रहा है। हिन्दुस्तानियों को यह नहीं समझना चाहिए कि इसका ठेका सिर्फ उन्हीं को मिला है। यूरोप, अमेरिका, एशिया सभी मुल्कों में इस पर ज़ोर दिया जाता है, धर्म और ईश्वर पर विश्वास रखने वाले तो खास तौर से इसके लिये ज़मीन-आसमान एक करते हैं। लेकिन साथ ही सदाचार का जितना कम पालन धर्मानुयायी और ईश्वर-भक्त करते हैं, जितनी अवहेलना उनके यहाँ इस नियम की होती है, उतनी जगह नहीं। रूस से धर्म और ईश्वर का राज उठ गया है, लेकिन आप दुनिया में सिर्फ वही एक देश पायेंगे, जहाँ से वेश्यावृत्ति एकदम उठ गयी है। क्या हमारे देश में ऐसे सदाचार की खिल्ली उड़ाने वाले सबसे ज़्यादा हिन्दू-तीर्थ और हिन्दू-मठ नहीं हैं? अयोध्या में चले जाइए और वहाँ के बड़े से बड़े अवतारी भगवान भक्त और सिद्ध-महात्मा को ले लीजिए, उनके बारे में भी पूछ लीजिए कि जिन्हें मरे अभी कुछ ही साल हुए हैं। मालूम होगा, सदाचार के सम्बन्ध में कैसे-कैसे वीभत्स काण्ड वहाँ होते हैं। ये स्थान स्वाभाविक ही नहीं, अस्वाभाविक व्यभिचार के सबसे बड़े अड्डे हैं। बाहर से जाने वाली भोली-भाली जनता, जिन पर तप, ब्रह्मचर्य, सदाचार की साक्षात मूर्ति समझकर अपना तन-मन-धन वारती है, वे हैं जघन्य कामुकता के साक्षात अवतार। ऐसे आदमियों के मुँह से ब्रह्मचर्य और सदाचार के लम्बे-लम्बे उपदेश सुनकर तो हठात् कहना पड़ता है - निर्लज्जता, तेरा बेड़ा गर्क हो। साधु-सन्यासियों के इस विषय के क्रियात्मक विचार उससे बिल्कुल ही दूसरे हैं, जैसे कि वे उनके श्रीमुख से निकलते हैं। भारत में कितनी ही धर्म-मंडलियाँ गुप्त व्यभिचार में आसानी पैदा करने के लिये कायम हुई हैं, कितने ही भगवद्भवन और भजनाश्रम लोगों की आँखों में धूल झोंकने को स्थापित हुए हैं। चाहे उत्तर प्रदेश में घूमिए, चाहे गुजरात में, चाहे पंजाब को देखिए, चाहे बंगाल को, चाहे नेपाल को जाइये, चाहे मद्रास को, सभी के घर में मिट्टी का चूल्हा है, सभी नागनाथ-साँपनाथ बराबर हैं। सदाचार में जो जितना ही पतित है, वह उतना ही अधिक सुन्दर लच्छेदार शब्दों में उस पर व्याख्यान दे सकता है। नगरों और देशों के दृष्टान्त देने की आवश्यकता नहीं। जहाँ आप हैं, वहीं घरों और चहारदीवारियों के भीतर सभ्यता और दिखावे के बाहरी लिबास को हटाकर देखिए। आपको मालूम होगा कि ब्रह्मचर्य और सदाचार के नियम जितने ही कड़े बनाये गये हैं, उतनी ही आसानी से उन्हें तोड़ा जाता है। हमारे एक महान राजनैतिक नेता का ब्रह्मचर्य पर बड़ा ज़ोर है, लेकिन पास में, उनकी छाया में उनके बड़े-बड़े अनुयायियों ने जिस प्रकार बराबर उन्हें तोड़ने में ही उन नियमों का पालन किया है, उससे तो यही मालूम होता है कि जब बाँध से बूँद भर पानी का रुकना सम्भव नहीं, तो ऐसे बाँध की ज़रूरत ही क्या? 

सदाचार के सम्बन्ध में दर-असल “मनसि अन्यत्-वचसि अन्यत्’’ का पक्का अनुयायी हमारा समाज दीख पड़ता है। भीतर की सारी पोल को देखते हुए कितनी तन्मयता के साथ हम आपस में इसकी धार्मिक चर्चा करते हैं? उस वक्त मालूम होता है कि हमारे समाज में कोई उसकी अवहेलना करने वाला है ही नहीं! या हम किसी दूसरे जगत में बैठकर वार्तालाप कर रहे हैं। निश्चय ही हम लोग जब वास्तविक स्थिति पर विचार करते हैं, तब मालूम होता है कि हमारे समाज में ब्रह्मचर्य और सदाचार एक भारी ढकोसले से बढ़कर कोई महत्व नहीं रखता। ताज्जुब होता है कि हजारों बरसों से हमारे समाज ने ऐसी आत्मवंचना का धुआँधार प्रचार करके कौन-सा लाभ समझा है? ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ - के अनुसार बल्कि जितनी ही शताब्दियाँ बीतती गयीं, उतना ही हमारे सदाचार का तल नीचे गिरता गया है - परिणाम में नहीं, उसमें तो देशकाल-भेद से कोई अन्तर नहीं पड़ा, हाँ, जुगुप्सित प्रक्रिया में। 


जिन देशों में यौन-सम्बन्ध पर नियन्त्रण रखे गये हैं, वहाँ के लोग इस विषय में ज्यादा अनुकरणीय आचरण रखते हैं। नियमों और निर्बन्धों की अधिकता सिर्फ दूसरों की आँख में धूल झोंकने के लिये हमें अधिक निपुण बनाने में सफल हुई है। रोमन-कैथोलिक जैसे कितने ही धर्म ऐसे अपराधों की स्वीकृति के लिये बहुत ज़ोर देते हैं। वहाँ गृहस्थ स्त्री-पुरुष, साधु-साधुनी किसी माननीय व्यक्ति के सामने समय-समय पर अपने अपराधों को स्वीकार करते हैं। शायद यह प्रथा इसलिये चलायी गयी कि “बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेय।’’ लेकिन परिणाम क्या होता है? पहले एक-दो बार अपराध-स्वीकृति में जो थोड़ा संकोच होता है, वह भी पीछे जाता रहता है। मानस-शास्त्रवेत्ता ठीक कहते हैं कि अपूर्ण यौन इच्छाएँ और भी उग्र रूप धारण कर मनुष्य के अन्तस्तल में मौके की ताक में पड़ी रहती हैं। धर्मों ने सबसे ज़्यादा ज़ोर जिस पर दिया है, उसकी इस प्रकार से सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन अवहेलना देखकर तो यही कहना पड़ता है कि इस ढोंग, इस बकवास से फ़ायदा क्या?... 





मद्यपान :-

शराब की मुमानियत संसार के कई प्रधान धर्म करते हैं। इस्लाम भी अपने को इसका जानी दुश्मन कहता है। शराब पीना भारी दुराचार माना जाता है। लेकिन धनिकों में पिछले तेरह सौ साल के भीतर कितनों ने इस नियम की पाबन्दी की है? बहुत जगह तो शराब की दूकानों के मालिक मुसलमान हैं। जिस वक्त मुसलमानी सल्तनतों ने शराब के खिलाफ़ कड़ी-कड़ी सजाएँ मुकर्रर की थीं, उस वक्त भी धनी लोगों को शराब पीने में बाधा नहीं होती थीं। हिन्दुओं में भी कितने ही सम्प्रदाय मद्यपान को महापाप समझते हैं। लेकिन कितनी जातियाँ हैं, जिनके धनिक उससे बचे हुए हैं? ब्राह्मण, बनिया, राजपूत, जिस किसी के पास ख़र्च करने के लिये इफ़रात पैसा है, बेखटके पीता है, और जात वाले टुक-टुक ताकते रह जाते हैं। शराब के पीछे लाठी लेकर फिरने वाले महात्मा जी के अनुयायियों में भी कितने बड़े-बड़े महापुरुष हैं, जो भीतरी तौर से इसके बारे में अपने गुरु से भारी मतभेद रखते हैं, चाहे मद्य-निषेध की व्यवस्था देने में वह किसी से पीछे रहने वाले न भी हों। 

असत्य :- 

सत्य-भाषण की ओर धर्म और समाज ज़ोर दे रहा है, और मैं मानता हूँ कि वह उतना मुश्किल नहीं है। यदि समाज में अधिक कृत्रिमता न हो, तो भी सत्यभाषण आजकल कितना कठिन काम है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। इस कठिनाई की जवाबदेही है अधिकतर हमारे समाज की वर्तमान बनावट पर, जिसमें सत्यवक्ता के लिये स्थान नहीं है। हमारी राजनीतिक सस्थाएँ असत्य-प्रचार के सबसे बड़े अड्डे हैं। झूठ का प्रयोग होता है लोगों को धोखा देने में। अपने स्वार्थ के लिये झूठ बोलकर दूसरे को धोखा देना हर एक राष्ट्र और राजनीतिज्ञ अपना परम कर्तव्य समझता है। राजनीतिक कोश में मानो झूठ बोलना पाप में गिना नहीं जाता। हमारे धर्म और समाज का सत्यभाषण पर इतना ज़ोर व्यर्थ है, जब दूसरी ओर वही व्यक्तियों को झूठ बोलने के लिये मज़बूर करता है। स्कूल में एक लड़का दावात तोड़ देता है। यदि वह तोड़ना स्वीकार करता है, तो उसे दण्ड और भर्त्सना सहने के लिये मज़बूर होना पड़ता है और झूठ बोल देता है तो साफ छूट जाता है। मारपीट और दूसरे अपराधों में भी झूठ बोलने वाले ही नफे में रहते हैं, फिर कौन सत्य बोल कर दण्ड भोगने के लिये तैयार होना चाहेगा? ईमानदारी से काम करके आजकल पेट भर खाना मिलना मुश्किल है। सच बोलकर लोगों की मैत्री प्राप्त करना असम्भव है। इसलिये तो आदमी झूठ बोलने पर उतारू होता है। आजकल की बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ, बड़े-बड़े पद, ऊँचे-ऊँचे सम्मान झूठ बोलने की निपुणता के लिये पारितोषिक हैं, कहने के सदाचार और हैं, करने के और। जब तक सारे समाज के सम्बन्ध में यह बात है, एक अकिंचन व्यक्ति अपने को कैसे उससे बचा सकता है? कितनी ही जंगली जातियाँ हैं, जो पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति में इससे नीची समझी जाती हैं, लेकिन उनमें झूठ बहुत कम देखा जाता है। इसका मतलब है कि यह सभ्यता और संस्कृति उन्नत होकर हमारे समाज को सत्य के सम्बन्ध में और नीचे ले जाती है। हमारे समाज ने ढोंग, आत्मवंचना को जितना ही अधिक आश्रय दिया है, उतना ही हर एक व्यक्ति अपने विचारों को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट करने में असमर्थ है, समाज का हर एक व्यक्ति अपने लिये तो नहीं चाहता, लेकिन दूसरे को जैसे हो तैसे धोखा देकर अपना काम बनाना चाहता है। किसी का किसी के ऊपर पूरी तरह से विश्वास नहीं, इसका परिणाम हो रहा है - स्त्री पुरुष को वंचित करना चाहती है और पुरुष स्त्री को, पिता पुत्र को धोखा देना चाहता है और पुत्र पिता को। आखिर इस प्रकार की वंचना, अराजकता का ज़िम्मेदार कौन है? हमारा समाज। 

चोरी-रिश्वत :-

पुराने ज़माने में चोरी के लिये लोगों का हाथ काट दिया जाता था, जान ले ली जाती थी। आजकल सजाएँ कुछ हल्की हैं, लेकिन तब भी समाज को दृष्टि में चोरी भारी पाप समझी जाती है। उसके लिये सख़्त कानून और ज़बरदस्त जेलखाने बने हैं। सरकार लाखों रुपया पुलिस पर ख़र्च करती है। बड़ी-बड़ी तनख़्वाहें पाने वाले जज और मैजिस्ट्रेट इसके लिये नियुक्त किये गये हैं। लेकिन क्या इसमें यथेष्ट रोकथाम है। जिन लोगों को चोरी बन्द करने का काम मिला है, यदि वे खुद वही काम करते हों, तो उनके लिये चोरी कैसे बन्द होगी? पुलिस चोरों को पकड़ने और चोरी रोकने के लिये अपने को ज़िम्मेदार समझती है, लेकिन चौकीदार और कान्सटेबल ही नहीं, थानेदार, इन्सपेक्टर और ऊपर के अफ़सर तक हाथ गरम कर देने पर तरह दे देते हैं। सभी लोग जानते हैं कि सौ में नब्बे थानेदार रिश्वत लेते हैं, देहात में किससे यह बात छिपी हुई है? पुलिस कुछ चोरों को पकड़-पकड़ कर जेल में भेजती ज़रूर है, लेकिन क्या कभी किसी ने यह हिसाब लगाया है कि कितने असली अपराधियों को उसने रुपया लेकर छोड़ दिया? जनता की सरकार के कायम होने पर भी हम पुलिस के इस रवैये में कोई फ़र्क नहीं देखते। जब तक इस तरह रिश्वत का बाज़ार गर्म है, तब तक चोरी कैसे रुक सकती है? ख़्याल करने की बात है कि जिन लोगों को अपने परिवार की परवरिश के लिये काफ़ी रुपया हर महीने मिल जाता है, यदि वे अवैध आमदनी से हाथ हटाना नहीं चाहते, तो भूख की पीड़ा से पीड़ित होकर चोरी करने वाले अपने को कैसे रोक सकेंगे? 

जेलों में अपराधी चालचलन सुधारने के लिए भेजे जाते हैं। किसी समय दण्ड का अभिप्राय यंत्रणा से अपराधी को भयभीत करना था, लेकिन आज की सभ्यता की दुनिया सजा और जेल को सुधार करने का मौका देना समझती है। इन जेलों की क्या हालत है? कैदी जाकर वहाँ देखता है कि छाटे सिपाही से लेकर सुपरिण्टेण्डेण्ट तक कैदियों के भाग में से कुछ न कुछ जरूर अपने इस्तेमाल में लाते हैं। तीन कुन्तल चावल में आधा कुन्तल निकाल लिया जाता है। आटे में चोकर और मिटटी भी डाल दी जाती है। अच्छी तरकारियाँ अफसरों की डालियों के लिए सुरक्षित रखी जाती हैं और मामूली तरकारी में से भी अच्छा भाग दूसरे ले जाते हैं और कैदियों के हिस्से में सिर्फ घास और पत्ता पड़ता है। तेल, दूध, घी, गुड़ सभी खाद्य वस्तुओं में इस तरह की लूट है। सिगरेट और तम्बाकू को वर्जित कर सरकार कैदियों को संयम का पाठ पढ़ाना चाहती है, लेकिन उसका परिणाम सिर्फ इतना ही है कि पैसे वाले कैदियों को ये चीजें कुछ महँगी पड़ती हैं। वस्तुतः जिस कैदी के पास रिश्वत देने के लिये पैसा है, उसके लिये जेल में सब तरह का प्रबन्ध हो जाता है। इस तरह के वातावरण में खाक सुधार होगा?
तुम्हारे न्याय की क्षय :-
    
हमेशा से न्याय करने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। समाज और उसके नेता धनिकों की तरफ़ से गरीबों पर कितना अन्याय होता है, इसके बारे में हम कह आये हैं। दुनिया की सरकारें कितना न्याय कर रही हैं, इसे ज़रा देखना है। आजकल की सरकारें न्यायालयों और कानून बनाने पर बहुत ध्यान देती हैं और कहा जाता है कि यह सब इसीलिये कि जिसमें सबको न्याय पाने में सुभीता हो। लेकिन क्या गरीबों को न्याय पाने का सुभीता है? जिस वक्त न्यायालय नहीं थे, सिर्फ पंचायतें थीं, जिस वक्त कानून नहीं थे, सिर्फ व्यवहार-बुद्धि निर्णायक थी, जिस समय वकील नहीं थे, हर आदमी अपना वकील था - उस वक्त गरीब के लिये न्याय अधिक आसान था। कानून न्याय समझने में आसानी नहीं पैदा करते, बल्कि भारी भ्रम पैदा करने का काम कर देते हैं, उनके कारण स्पष्ट बात भी अस्पष्ट हो जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि कानून अवलम्बित है, व्यवहार-बुद्धि - कामन सेन्स - पर। किन्तु आजकल तो उसका काम व्यवहार-बुद्धि को निकम्मा बना देने का है। सूक्ष्म प्रतिभाएँ जो समाज के हित के काम को कर सकती थीं, आज बाल की खाल उतारती कानून के अर्थ का अनर्थ करने में तत्पर हैं। झूठे मुकदमे को सच्चा और सच्चे को झूठा करने में ही अच्छे वकील की तारीफ़ है। आये दिन, दिन-दहाड़े हम सफ़ेद को काला और काले को सफे़द होते देखते हैं। 

कानून और न्यायालय धनी के विरुद्ध गरीब को न्याय देने में कितने असमर्थ हैं, इसके लिये दूर के दृष्टान्त की ज़रूरत नहीं। भारत के हर एक गाँव में इसके अनेक उदाहरण मिलेंगे। मामूली अपराध की तो बात ही क्या, खून तक पचा लिये जाते हैं। ज़मींदार या धनी के इशारे पर आदमी मारा गया । धनी आदमी ने रुपयों का तोड़ा खोलकर डॉक्टर के सामने रख दिया। डॉक्टर समझता है, दस बरस में जो कमायेंगे, वह सामने रखा है, घर आयी लक्ष्मी को ठुकराना नहीं। लिख देता है - दिल कमज़ोर था, चोट साधारण थी, आदि और मामला दूसरे से दूसरा हो जाता है। बहुत बार तो लाश को ले जाकर तुरन्त जला दिया जाता है और फ़िर भय और प्रलोभन से गवाहियाँ अपने पक्ष में बना ली जाती हैं। अक्सर गरीब आदमी अदालत तक नहीं जाते। अगर धनियों द्वारा किये गये तीन खून किसी थानेदार को मिल जायें, तो उसका भाग्य ही खुल जाये। वह इतना रुपया जमा कर ले कि उसकी नौकरी चली भी जाये, तो भी वह ज़िन्दगी भर चैन की वन्शी बजाता रहेगा। 
बिहार के एक बड़े ज़मींदार की बात है। उन्हें लाखों की आय है, जिसे एक जाली बिल के ज़रिये उनके बाप ने उनके लिये प्राप्त किया। उस वक्त वे बिल्कुल तरुण थे। एक स्वजातीय गरीब लड़का उनके पास रहा करता था। एक दिन किसी बात में नाराज़ तरुण ज़मींदार ने उस लड़के पर पिस्तौल दाग दी। लड़का वहीं ढेर हो गया। लाश फुँकवा दी गयी और थाने के दारोगा को बुलाकर एक भारी रकम उनके सामने पेश की गयी। उस रुपये की राशि को देखकर थानेदार की आँखें चमक उठीं। पीछे वही थानेदार असहयोग में नौकरी से इस्तीफ़ा दे राष्ट्रीय युद्ध में शामिल हो गये थे। बहुत वर्षों तक हम दोनों साथ काम करते थे। वह बतलाते थे कि कैसे रात ही रात उन्होंने मृत लड़के के बाप के गाँव में जाकर वहाँ उसके सम्बन्धियों को पट्टी पढ़ाई। किस प्रकार ऊपर और नीचे के अफ़सरों में रुपये बाँट कर कानून और न्याय को अँगूठा दिखाया। खून हुआ है, इसकी ख़बर तक अदालत में नहीं पहुँचने पायी। जिस तरुण ने अपने साथ खेलने वाले लड़के को इस तरह पिस्तौल का निशाना बनाया, वह साधारण अपराधी दिमाग का व्यकित नहीं हो सकता है। यदि वह गरीब घर में पैदा हुआ होता, तो खून के कारण फाँसी पड़ने से यदि बच भी जाता, तो उसका स्थायी निवास प्रान्त के बड़े-बड़े जेलखानों में जन्मजात अपराधियों में तो ज़रूर होता, लेकिन आज वह व्यक्ति प्रान्त के बड़े प्रभावशाली धनिक अगुवों में है। ... 

मगह प्रान्त - पटन-गया जिलों - के ज़मींदार अपने अत्याचार के लिये सारे बिहार में प्रसिद्ध हैं। वहाँ के एक ज़मींदार का संकल्प था कि जहाँ तक हो सके, उनकी ज़मींदारी में किसी किसान के नाम काश्तकारी न लगने पाये. वह अपने हर गाँव में झूठे मुक़दमे चला, मार-पीट और दूसरे ज़रियों से लोगों को तंग करके उन्हें काश्तकारी से इस्तीफ़ा देने को मजबूर करते थे. उनके एक गाँव- जिसका नाम अब दूर तक प्रसिद्ध हो गया है – के प्रायः सभी किसान काश्तकारी से हाथ धोकर जमींदार के शिकमी रैयत बन चुके थे. उस गाँव में एक किसान का घर था, जिसके पास खाने-पीने के लिये काफी खेत और धन था और परिवार में कई काम करने वाले जवान व्यक्ति भी थे. जमींदार को इस परिवार को परास्त करने में कई बार मुँह की खानी पड़ी. इस पर उसने प्रतिज्ञा की कि उस परिवार को तबाह करके उसके घर पर रेड़ न बो आया, तो नाम नहीं. अबकी बार किसी दूसरे गाँव से एक मरणासन्न आदमी लाकर उस गाँव में मरवाया गया और उस परिवार के व्यक्तियों पर खून का मुकदमा चलाया गया. डॉक्टर ने रिपोर्ट दी कि जान-बूझ कर सही-सलामत आदमी का खून किया गया है. पुलिस ने “प्रत्यक्षदर्शी” गवाहों के बयान लिये. घर के सभी सयाने पुरुष जेल में बन्द कर दिये गये. मुकदमा लड़ने में घर की सम्पत्ति स्वाहा हो गयी. आदमियों को लम्बी-लम्बी कैद की सजाएँ हुईं. घर में सिर्फ स्त्रियाँ रह गयी थीं और उनमें से भी अधिकांश भूख और बीमारी के कारण कुछ ही वर्षों में चल बसीं. मकान मरम्मत के बिना गिर पड़ा और उसके ऊपर बोये रेड़ को कुछ साल बाद मैंने खुद अपनी आँखों देखा. यह है आज के कानून की करामात और आज के न्याय का नमूना. 

न्याय सस्ता और सुलभ नहीं है, बल्कि जबर्दस्त शत्रु के मुकाबिले में वह दुनिया की सबसे महँगी चीज़ है. वह इतनी खर्चीली चीज़ है कि धनी आदमी हारते-हारते भी गरीब को उजाड़ देता है. बिना स्टाम्प का पैसा दिये तो गरीब अदालत में दरखास्त भी नहीं दे सकता. और फिर, स्टाम्प ही तो काफी नहीं है? वहाँ चाहिये वकील और मुख़्तार को फीस, पेशकार और सरिस्तेदार को नजराना, अर्दली और चपरासी को भेंट. जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी बड़े-बड़े वकीलों को बड़ी-बड़ी फीस देकर रख लेता है. यदि तुमने किसी टुटपुंजिया वकील को खड़ा किया, तो बने मुक़दमे के भी बिगड़ जाने की सम्भावना हो जाती है. घर, जमीन बेचो, जेवर बंधक रखो, जैसे भी हो रुपया खर्च कर मुकदमे की पैरवी करो. अगर मुकदमा दीवानी में है और एक ही है तो फौजदारी मुकदमें भी साथ-साथ ही फौजदारी अदालत में भी चल रहे हैं. मुंसिफ के यहाँ यदि फैसला पक्ष में हुआ, तो सब जज के यहाँ अपील हुई. वहाँ से भी यदि किस्मत ने मदद की तो हाईकोर्ट और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट. फौजदारी मुक़दमे अलग चल रहे हैं. यदि हर इजलास में खर्च करने के लिये तुम्हारे पास रुपया नहीं है, तो तुम्हारी जीत भी हार में बदल जाती है.

यह तो हुआ तब, जब कि हाकिम लोग ईमानदार हों, लेकिन आजकल के हाकिम में कितने हैं, जो जल्दी से जल्दी धनी बनना पसन्द नहीं करते? जिसे छोटी-मोटी तनख्वाह मिलती भी है, वह भी चाहता है पास में मोटर रखना, वह भी चाहता है कि वह और उसकी स्त्री शाहाना ठाठ में रहें, उसके लड़के-लड़कियाँ शहजादों-शहजादियों के कान काटें, उसके महल में राजमहल का समां दिखाई पड़े, उत्सव और त्योहारों में वह शाहखर्ची का जबर्दस्त सबूत दे सके, बच्चों के पढ़ाने-लिखाने में खर्चीले से खर्चीले स्कूल और कालेजों की तलाश करे, ब्याह-शादी में बड़े-बड़े तिलक-दहेज दे और दोनों हाथों अशर्फियाँ लुटाये, उसकी पार्टी में बड़े से बड़े हाकिम और रईस शामिल हों, जिनके लिये देशी और विलायती सब तरह के सुन्दर से सुन्दर भोजन परोसे जायें. आजकल के हमारे हाकिमों की जब ये हार्दिक लालसाएं हैं, तो रुपये की चमचमाहट उन्हें क्यों न अपनी ओर आकर्षित करेगी? अगर किसी को रिश्वत लेने में संकोच होता है, तो या तो इसलिये कि वह कम है अथवा भेद छिपा लेने में कठिनाई होगी. अनौचित्य के ख़याल से बाज आने वाले लोग बहुत मुश्किल से मिलते हैं. जिलों के छोटे-मोटे अधिकारियों की तो बात ही छोड़ दीजिए, हाईकोर्ट के जज तक रिश्वत लेते पाये गये हैं औ इसे मुकदमा लड़ने वाली जनता खूब जानती है... एक रियासत के खिलाफ़ कई जबर्दस्त प्रमाण जमा हो गये थे. रिकॉर्ड के अधिकारी को इकठ्ठा कुछ लाख रुपये दे दिये गये और दूसरे दिन देखा गया कि वे सारे प्रमाण गायब हैं.

राज तो आजकल है थैली का. शासन पर अनुशासन उसका है, जिसके पास धन है. क़ानून बनाने वाले वे ही हैं, जिनके पास तोड़े हैं. इंग्लैण्ड के थैली वाले हिन्दुस्तान के मालिक हैं. वे कभी ऐसा क़ानून बनने देना पसन्द नहीं करते जिससे कि उनकी थैली पर हाथ पड़ने पाये. देश और विदेश में यातायात के साधन और रेलें इसी दृष्टि से संचालित की जाती है... कानूनों की भरमार है. हर साल हमारे देश में सैकड़ों क़ानून बनते और सुधरते रहते हैं. लेकिन वह इसलिये नहीं कि मनुष्य ईमानदारी से कमायी अपनी सम्पत्ति का अपने आप उपभोग कर सके. इनका मतलब सिर्फ इतना ही है कि कैसे धनिकों के हित के लिये चलते इस शासन की सहायता के लिये कुछ और काबिल-दिमाग आदमी खरीदे जा सकते हैं? कैसे कुछ और चिल्लाने वाली जमातों का मुँह बन्द किया जा सकता है? काबिल दिमागों को बड़े-बड़े सरकारी पदों पर सिर्फ इसलिये नहीं नियुक्त किया जाता कि वे अपनी योग्यता से जनता को फायदा पहुँचायें, बल्कि इसलिये कि वे चिरकाल से स्थापित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाये रखने में सहायता करें. सभी जानते हैं कि सरकारी नौकरियों में लोग बड़ी-बड़ी तनख्वाहों और स्थायी जीविका के लिये दौड़ते हैं. यदि सरकारी धन को इन्साफ के साथ वितरण करना ही है, तो उसके बड़े हक़दार हैं गरीबों की संतानें. लेकिन हम क्या देखते हैं? गरीबों की संतानों के लिये तो पहले पढ़ना ही मुश्किल है, पढ़-लिख कर योग्यता प्राप्त करने पर भी बड़ी नौकरियों के लिये अपेक्षित शिफ़ारिशें वे जमा नहीं कर सकतीं. परिणाम यह हो रहा है कि हर तरह की बड़ी-बड़ी नौकरियों में लखपतियों-करोड़पतियों, बड़े-बड़े जमींदारों और राजा-नवाबों के लड़के भरे पड़े हैं. आई.ए.एस. (I.A.S.), आई.पी.एस.(I.P.S.), आई.एम.एस.(I.M.S.) आदि आधिकारियों की सूची को उठाकर तो देखिए, तो मालूम होगा कि देश के धनी, जमीन्दारों, महाजनों और प्रभावशाली राजनीतिज्ञों के लड़के ही हैं. पिता लाखों का मालिक है, एक रियासत का बड़ा मंत्री हैं और लड़का सरकार के एक विभाग का सेक्रेटरी. अखिल भारतीय सरकारी अफसरों में ही नहीं, बड़ी-बड़ी सरकारी प्रांतीय नौकरियों में भी उन्हीं को जगह मिली है, जिनमें अधिकांश के पास जीविका के अन्य स्वतंत्र साधन हैं. जब सरकार के चलाने वाले ये बड़े-बड़े कर्मचारी धनिक श्रेणी से आये हैं, तो धनी-गरीब के मामले में अपनी श्रेणी के स्वार्थ के विरुद्ध काम करेंगे - यह कब सम्भव हो सकता है? अंग्रेज़ अधिकारियों के बारे में पिछले डेढ़ सौ वर्षों का तजुर्बा हमें बताता है कि जहाँ काले-गोरे का सवाल होता है, वहाँ वे न्याय को ताक पर रख देते हैं, लेकिन कितने ही निरपराध भारतीय अंग्रेजो की ठोकरों और गोलियों का शिकार हुए हैं, लेकिन कितने मुकदमों में खूनी फाँसी की सज़ा हुई है? साहेब की ठोकर से मरे आदमी की तिल्ली, डाक्टरी जाँच से, बढ़ी पायी गयी. यही न्याय का अभिनय हम धनी और गरीब के मामले में न्यायाधीश के पद पर आरुढ़ धनिकों की संतानों द्वारा किया जाता देखते हैं. जमींदारों और किसानों, मजदूरों और मिल-मालिकों के झगड़े में जो कड़वा तजुर्बा हमें मिल रहा है, उससे मालूम हो रहा है कि उनकी सहानुभूति हमेशा धनिकों की ओर रहती है. मारपीट और बलवे की तैयारी सबसे जबर्दस्त जमींदारों की ओर से होती है. अपनी जीविका के छिन जाने के भय से किसान शांतिमय तरीके से उसका विरोध करते हैं. लेकिन सभी जगह देखा जाता है कि पुलिस और मजिस्ट्रेट किसान को ही अपराधी ठहराते हैं और उन्ही के ऊपर दफ़ा 107 या दफ़ा 144 की कार्यवाही की जाती है. आँखों से साफ़ देखा जाता है के जमींदार ने बलवा करने में कोई कसर उठ नहीं रखी, तो भी उसके एक आदमी को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती.

एक जगह का हमें ताज़ा तज़ुरबा है। ज़मींदार ने पीढ़ियों से जोतते आते किसानों से उनके खेत को छीनना चाहा। किसान सोचने लगे कि यदि खेत निकल जायेंगे, तो थाने में रिपोर्ट लिखवाई। किसान की रिपोर्ट को थानेदार लिखना नहीं चाहते थे. थानेदार ने ज़मींदार के पक्ष में होकर कुछ किसानों पर शान्तिभंग का आरोप करके मजिस्ट्रेट को लिख दिया। फौजदारी अदालत को अपना फैसला कब्जे को देखकर देना चाहिए। मजिस्ट्रेट को ज़मींदार की बातों से सच्चाई का पता लग गया। किसान चिल्लाते ही रह गये कि चलकर देख लिया जाये, खेत पर कब्ज़ा हमारा है। दो सौ-चार सौ बीघे जोतने वाला आदमी चौथाई और पचइयाँ एकड़ में अलग-अलग फसल नहीं बोयेगा। लेकिन मजिस्ट्रेट को वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं मालूम पड़ी, उसने झट उन पर दफा 144 लगा दिया। ऊपर के अफ़सर ने भी बार-बार प्रार्थना करने पर भी, खेत को देखना पसन्द न किया और मजिस्ट्रेट के फैसले को बहाल रखा. सब तरफ़ से न्याय का रास्ता बन्द देखकर किसानों ने शान्तिमय सत्याग्रह की शरण ली। दिन मुकर्रर हुआ। पुलिस और हाकिमों को मालूम था कि ज़मींदार की तरफ से मारपीट की ज़बर्दस्त तैयारी हो रही है। वे यह भी जानते थे कि किसान हर हालत में शान्त रहना चाहते हैं। उनको यह भी मालूम हो चुका था कि ज़मींदार के हाथी इस युद्ध में ख़ास तौर से भाग लेने के लिये तैयार किये जा रहे हैं. निश्चित दिन पर हाथियों के साथ कई सौ आदमी लाठी-गड़ासे लिये एकत्र हुए। किसानों की ओर सिर्फ थोड़े से निहत्थे सत्याग्रही। जनता को ख़ास तौर से बहुत संख्या में न आने के लिये कहा गया था। सिर्फ ग्यारह किसान खेतों की तरफ़ बढ़ते हैं। हाथियों और लट्ठधारी जवानों को लेकर ज़मींदार सत्याग्रहियों पर हमला करने के लिये खेत पर पहुँचता है। पुलिस की अधिक संख्या का वहाँ पता नहीं। गिरफ़्तारी के बाद जब सत्याग्रही पुलिस की हिरासत में थे, तब ज़मींदार के आदमी ने एक सत्याग्रही पर लाठी-प्रहार किया. सिर से खून की धार बहने लगती है. प्रहार करने वाला आदमी उस वक्त गिरफ़्तार कर लिया जाता है, लेकिन थोड़ी देर के बाद सरकारी अधिकारी उसे छोड़ देते हैं। अन्धा भी देखकर कह सकता था कि मारपीट की सारी तैयारी ज़मींदार की ओर से हुई थी। लेकिन उसके एक भी आदमी को न तो पकड़ा जाता है और न उसे वैसा करने से रोका जाता हे। उसके लठैत सरकार की ओर से कानून अपने हाथ में ले लेने के लिये आज़ाद छोड़ दिये गये थे। (अमवारी में राहुल जी पर लाठी से प्रहार हुआ था)।

एक-दूसरे ज़मींदार का किस्सा है जो बतलाता है कि धनिकों के सामने न्याय और कानून की कितनी दुर्गति होती है। वे नहीं चाहते थे कि किसानों को अपने खेत में काश्तकारी का हक मिले। बहुत दिनों से किसान खेत जोतते आ रहे थे। सर्वे में लाख कोशिश करने पर भी काश्तकारी लग ही गयी। ज़मींदार ने मामले-मुकदमे और ज़ोर-जु़ल्म की तैयारी की। किसान जानते थे कि इतने जबर्दस्त ज़मींदार से लड़ने में उजड़ जायेंगे, इसलिये अधिकांश ने जा-जाकर अपने इस्तीफे की रजिस्ट्री कर दी। मैंने पुलिन्दे के पुलिन्दे उन रजिस्ट्री-शुदा इस्तीफ़ों को देखा है और देखते वक्त मैं सोच रहा था कि इन गरीबों के लिये न्याय क्या माने रखता है? यदि ज़रा भी न्याय पाने का उन्हें भरोसा होता, तो अपनी और अपनी सन्तानों की जीविका के साधन इन खेतों से इस्तीफ़ा क्यों देते?

जुए को कानून के खि़लाफ़ समझा जाता है। लेकिन घुड़दौड़ की बाजी क्या है? चूँकि उसमें बादशाह तक के घोड़े शामिल होते हैं, इसलिये घुड़दौड़ का जुआ हलाल है। और बड़ी-बड़ी लाटरियाँ क्या जुआ नहीं हैं? छोटे-मोटे जुए तो पुलिस की संरक्षकता में अक्सर होते हैं। बड़े-बड़े जुओं के संरक्षण का भार तो राज्य के सूत्रधारों के कन्धे पर है। यही न्याय है? आश्चर्य।
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