भिखारी - अंतोन चेखव
(हिंदी अनुवाद से छत्तीसगढ़ी अनुवाद करे गे हे। - कुबेर)
’’साहब जी! भूखा बेचारा ऊपर दया करो साहब जी। तीन दिन हो गे, लांघन-भूखन परे हंव साहब जी। रात के खाना खाय बर एक पइसा नइ हे। आठ साल तक मंय ह गाँव के स्कूल म मास्टर रेहेंव। बड़े आदमी मन के चालबाजी के कारण मोला नौकरी ले हाथ धोना पड़गे साहब जी। मोर ऊपर जुलुम होय हे। बेराजगार होय साल भर हो गे, नौकरी बर भटकत हंव।’’
बैरिस्टर स्क्वार्त्सोफ ह वो भिखारी ल ऊपर-खाल्हे देखिस। भिखारी ह मइलहा-कोचरहा कोट पहिरे रहय। नसा करइया मनखे मन के आँखी सही वोकर आँखी ह दिखत रहय। गाल म लाल-लाल चिनहा उपके रहय। वोला लगिस कि ये आदमी ल वो ह पहिली कहीं न कही जरूर देखे हे।
’’अभी मोला कलूगा जिला म नौकरी मिलनेच् वाला हे।’’ भिखारी ह आगू बोलिस ’’फेर उहाँ तक जाय बर घला पइसा नइ हे। मदद करे के किरपा करव साहब जी। भीख मांगना सरम के बात आय, फेर का करंव साहब जी, मजबूरी म सब करे बर परथे।’’
बैरिस्टर स्क्वार्त्सोफ के नजर ह वोकर रबर के पनही ऊपर परगे। एक गोड़ के बड़े अउ दूसर गोड़ के छोटे रहय। वोला हुरहा सुरता आ गे। किहिस - ’’सुनोजी, तीन दिन पहिली मंय ह तोला सदोवाया सड़क म देखे रेहेंव। तंही हरस न? फेर वो दिन तो तंय ह खुद ल कालेज ले निकालल विद्यार्थी बताय रेहेस। आज मास्टर बतावत हस। सुरता आइस?’’
’’न .... नहीं... अइसे नइ हो सकय।’’ भिखारी ह घबरा के फुसफुसाइस। ’’मंय ह गाँव म मास्टरेच् रहेंव साहबजी। आप कहू त वोकर कागजात ल दिखा सकथंव।’’
स्क्वार्त्सोफ साहब के चेहरा ह गुस्सा के मारे लाल हो गे। घृणा के कारण मुँह बिचका के वो ह दू कदम पीछू घूचगे। गुस्सा के मारे चिल्ला के किहिस - तंय कतका नीच हस। बदमास। मंय तोला पुलिस के हवाले करहूँ। भूखा हस, गरीब हस, ठीक हे; पन झूठ काबर बोलथस, वहू बेसरम बनके?
भिखारी ह चोरी करत सपड़ म आय चोर कस कपाट के हत्था ल चमचमा के पकड़ लिस अउ चारों मुड़ा घूम के देखिस अउ चिरौरी करिस ’’म...मंय झूठ नइ बोलंव। कागजात ........’’
’’अरे कोन पतियाही।’’ स्क्वार्त्सोफ साहिब के गुस्सा ह बढ़ते गिस। गाँव के गुरूजी अउ पढ़इया लइका मन के समाज ह लिहाज करथे तेकर फायदा उठाना चाहथस। कतका गंदा, घिनौना अउ नीच काम करथस।’’
स्क्वार्त्सोफ साहिब ह गुस्सा के मारे अरे-तरे हो गे। भिखारी ल कंस के लतेड़े लगिस। निर्लज्ज्ता, छिछोरापन अउ चालबाजी देखके भिखारी बर वोकर मन म घृणा पैदा हो गे। आदमी के मन म गरीब अउ भीखमंगा मन बर जितना अच्छा बिचार हो सकथे स्क्वार्त्सोफ साहिब के वो सब्बो बिचार ल ये भिखारी के बेवहार ले चोट पहुँचे रिहिस। अब तक वो ह गरीब अउ भिखारीमन ल बहुत प्रेम से, दया करके, खुल्ला दिल से, भीख देवत अवत रिहिस, फेर ये बदमास अउ चालबाज भिखारी ह वोकर ये सब भावना ल अपवित्र करके मिट्टी म मिला दिस।
भिखारी ह भगवान के कसम खा-खाके अपन सफाई दिस अउ अंत म सरम के मारे मुड़ी गड़िया के चुप खड़े हो गे अउ हाथ जोड़के किहिस - ’’सचमुच मंय ह लबारी मारत रेहेंव साहबजी! न मंय ह पढ़इया हरंव अउ न मास्टर। मंय ह एक ठन संगीत पार्टी म काम करत रेहेंव। दारू के आदत के सेती काम छूट गे। भगवान मोर साक्षी हे। लबारी बिना काम नइ चलय। सच बोले म कोनों भीख नइ देवय। बेघर आदमी। भूख अउ जाड़ा म मरना हे। आप सही कहथव फेर का करंव।’’
’’करना का हे? मोला पूछथस कि का करंव?’’ स्क्वार्त्सोफ साहब ह वोकर नजीक आके किहिस, ’’काम करना चहिए, अउ का?’’
’’काम करना चाहिए, महू समझथंव साहबजी। फेर नौकरी कहाँ हे?’’
’’बकवास मत कर। जवान अउ हट्टा-कट्टा हस। काम काबर नइ मिलही? फेर तंय तो सुस्त अउ कामचोर हस। सराबी हस। तोर मुँह ले वोदका के बदबू अइसे आवत हे जइसे दारू भट्टी ले आथे। झूठ बोलथस। झूठ, निकम्मापन अउ दारू ह तो तोर नस-नस म भरे हे। भीख मांगे अउ लबारी मारे के सिवा तोला अउ कुछू नइ आवय। तोला तो नौकरी भी होना त कोनो दफ्तर के, नइ ते कोनों संगीत पार्टी के। मेहनत-मजूरी काबर नइ करस? भंगी नइ ते कुली के काम तो करबे नहीं। खुद ल बहुत बड़े आदमी समझथस न?’’
’’कइसे बात करथव साहबजी।’’ रोनहू हँसी हाँसत भिखारी ह किहिस, ’’मेहनत-मजूरी कहाँ ले मिलही? कोनों दुकान म नौकरी कर नइ सकंव, काबर कि ननपन ले मंय ह ये काम सीखे नइ हंव। भंगी घला कइसे बनंव, कुलीन घर म जनम धरे हंव। कारखाना म काम करे बर कोनों कारीगरी तो आना चाही न, मंय तो कुछू नइ जानंव।’’
’’बकवास झनकर। काम नइ करे के तोर तीर दसों बहाना हे। कइसे जनाब, लकड़ी चीरे के काम करबे?’’
’’मोला कोनों इनकार नइ हे। पन यहू काम तो नइ मिलय।’’
’’सब कामचोर मन ह इही राग अलापथें। मंय ह तोला काम देहूँ। भागबे तो नहीं? मोर घर म लकड़ी चीरे के काम हे, करबे?’’
’’आप कहहू ते काबर नइ करहूँ साहबजी।’’
’’वाह! देखथंव भला।’’
स्क्वार्त्सोफ साहब ह गुस्सा-गुस्सा म रसोईघर ले तुरंत अपन कामवाली बाई ल बलाइस अउ किहिस - ’’ओल्गा ! ये साहब ल तंय ह लकड़ी खोली म ले जा अउ येला लकड़ी चीरे के काम म लगा दे।’’
भिखरी ह कुरबुरावत कामवाली बाई के पीछू चल दिस। वोकर चाल-ढाल से जना गे कि वो ह भूख अउ बेकारी के कारण नहीं पन बात रखे बर ये काम करे बर राजी होय हे। यहू पता चल गे कि वो ह सराब पी-पीके बीमार अउ कमजोर हो गे हे। काम करे के वोकर मन नइ हे।’’
स्क्वार्त्सोफ साहब ह अपन खाना खाय के खोली म जा के बइठ गे, जिहाँ ले अंगना अउ लकड़ी खोली ह दिखत रिहिस। खिड़की तीर खड़ा हो के वो ह देखिस, बरफ गिरे ले अंगना म चिखला मात गे रहय जउन ल नहक के कामवाली बाई ह लकड़ी खोली कोती जावत रहय। वोकर पीछू-पीछू भिखारी ह जावत रहय। अबड़ फनफनही कामवाली बाई। अरपरा के चरपरा। भिखमंगा ल देख के वोकर पारा चढ़े रहय। फनफनात जाके लकड़ीखोली के कपाट ल धड़ाम ले खोलस।
’’लगथे कि आज हम ओल्गा ल काफी देय बर भूल गे हन।’’ स्क्वार्त्सोफ साहब ह सोचिस। ’’कतना झरझरहिन हे।’’ अउ वो ह देखिस कि वो झुठल्ला मास्टर ह लकड़ी के एक ठन गोला म अपन लाल-लाल गाल ल धर के थोथना ओरमा के बइठे हे। ओल्गा ह घृणा के मारे वोकर आगू म थूंक के एक ठन टंगिया लान के वोकर गोड़ तीर फेंक दिस अउ गारी देय लगिस। भिखारी ह लकड़ी के एक ठन गोला ल अपन गोठ म चपक के हल्का से वोमा टंगिया मारिस। लकड़ी ह छटक गे। ठंड के कारण अकड़े हथेली ल वो ह रमजिस अउ डर्रावत-डर्रावत, कि कहूँ गोड़ ह झन कटा जाय, फेर टंगिया चलाइस। लकड़ी ह फेर छटक गिस।
स्क्वार्त्सोफ साहब के गुस्सा ह सांत हो गे रिहिस। अतका सरदी म एक बीमार, कमजोर अउ सराबी आदमी ल लकड़ी चीरे के काम म काबर लगायेंव, ये सोच के वोला थेरिक दुख होवत रिहिस। ’’चलो, कोई बात नहीं।’’ अपन पढ़े-लिखे के खोली म जाके वो ह सोचिस, ’’वोकर भलच् होही।’’
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एक घंटा बीते पीछू ओल्गा ह आइस अउ बताइस कि काम पूरा हो गे हे।
’’अच्छा! ये पचास कोपेक लेग के वोला दे दे।’’ स्क्वार्त्सोफ साहब ह किहिस - ’’वोला बोल देबे कि इच्छा होही त हर महीना के पहिली तारीख के आ जाय करही। वोला काम मिल जाही।’’
अगले महीना के एक तारख के वो भिखारी ह अउ आ गिस। लटलट ले पीये रहय। खड़ा नइ हो सकत रहय तभो ले पचास कोपेक के काम वो ह कर डारिस। वोकर बाद वो ह जब-तब, कभू घला आ जाय। हर बार वोला कोनों न कोनों काम मिल जातिस। कभू आंगन के बरफ ल हटाय के, कभू कालीन मन ल झर्राय के त कभू खोली मन के साफ-सफाई करे के। अउ हर बार वो ह तीस-चालीस कोपेक के काम कर लेतिस। एक घांव स्क्वार्त्सोफ साहब ह वोला अपन जुन्ना पतलून ल घला दीस।
.......
स्क्वार्त्सोफ साहब ह जब अपन नवा फ्लैट म गिस तब वोला वो ह समान उठइया कुली मन संग काम म लगा दिस। वो दिन वो भिखारी क एकदम उदास अउ गंभीर दिखत रहय। कुली मन के मदद करे के बहाना मुड़ी ओरमा के वो ह बस उंकर पीछू-पीछू घूमत रहय। वो ह कामचोरी नइ करत रहय, बस वो ह जाड़ा के मारे कुनमुनुवात रहय। एक तो सुस्त अउ कमजोर मनखे। ऊपर ले चाहे चिरहा-फटहा, पन साहब मन के पहिरे के कोट पहिरे रहय, तेला देख के दूसर कुली मन वोकर मजाक उड़ावंय, तब वो ह सरमा जाय।
काम पूरा होय के बाद स्क्वार्त्सोफ साहब ह वोला अपन तीर बुलाइस। ’’लगथे, अब तंय ह सुधर गे हस। मोर बात के असर पड़िस हे।’’ भिखारी के हाथ म एक रूबल थमावत स्क्वार्त्सोफ साहब ह किहिस - ’’सराब पीना छोड़ देय हस अउ काम करे म बहानाबाजी नइ करस। का नाम हे तोर?’’
काम पूरा होय के बाद स्क्वार्त्सोफ साहब ह वोला अपन तीर बुलाइस। ’’लगथे, अब तंय ह सुधर गे हस। मोर बात के असर पड़िस हे।’’ भिखारी के हाथ म एक रूबल थमावत स्क्वार्त्सोफ साहब ह किहिस - ’’सराब पीना छोड़ देय हस अउ काम करे म बहानाबाजी नइ करस। का नाम हे तोर?’’
’’जी, लुश्कोफ।’
’’अच्छा, त लुश्कोफ! अब मंय ह तोला दूसर काम दिलवाहूँ। एकदम साफ-सुथर। पड़े-लिखे के। पड़े-लिखे बर आथे कि नहीं?’’
’’आथे साहब जी।’’
’’त कल तंय ह ये चिट्ठी ल धर के मोर एक दोस्त के घर चल देबे। कागज-पत्तर के नकल करे के नौकरी हरे। मन लगा के काम करबे। सराब झन पीबे। देख, मोर ये बात मन ल भुलाबे झनी। ले जा।’’
एक दुस्ट, पापी अउ निकम्मा आदमी ल सही रास्ता देखा के स्क्वार्त्सोफ साहब बहुत प्रसन्न होइस। अबड़ मया करके वो ह लुश्कोफ के कंधा म हाथ रखिस अउ वोला छोड़े बर बाहिर दरवाजा तक आइस। वोकर से हाथ मिलाइस। लुश्कोफ ह चिट्ठी धर के चल दिस।
......
दू साल बीत गे। क्वार्त्सोफ साहब ह एक दिन नाटक देखे बर नाटकघर गिस। टिकिट खिड़की म वोला एक झन बुटरा आदमी दिखिस। वो ह भेड़ के चमड़ा के बनल गरदनवाले ओवरकोट अउ पोस्तीन के टोपी पहिरे रहय। वो ह डर्रावत-डर्रावत सबले सस्तहा, पाँच-पाँच कोपेकवाला टिकट खरीदत रहय।
’’अरे! लुश्कोफ, तंय।’’ क्वार्त्सोफ साहब ह अपन वो पुराना मजदूर ल पहिचान डरिस, ’’सब बने, बने न? का करथस? जिंदगी ह ठीक-ठाक चलत हे कि नहीं?’’
’’हव साहब, ठीक-ठाक चलत हे जी। अब तो मंय ह विही नोटरी तीर काम करथंव अउ पैंतीस रूबल कमाथंव।’’
भगवान के कृपा हे। वाह भई वाह। अबड़ खुसी के बात हे। मंय अबड़ खुस हंव। सच पूछा जाय तब तंय ह मोर चेला के बरोबर हस। तोला सही रास्ता देखायेंव। सुरता हे नहीं? पहिली दिन तोला कतका सुनाय रेहेंव। वो सब सुन के तोला चेत चढ़िस होही। धन्य हे। मोर बात ल तंय ह गांठ बांध के रखेस।’’
’’आप घला धन्य हव।’’ लुश्कोफ ह किहिस, ’’आप नइ मिलतेव त वइसने, मास्टर नइ ते पढ़इया, के नाम झूठ बोल के भीख मांगत रहितेंव। आप मन मोला खाई ले निकाल के बचा लेव।’’
’’एकदम ठीक, बहुत खुसी के बात हे।’’
’’आप कोनो अनुचित बात नइ केहे रेहेव अउ मोर संग बहुत अच्छा करेव साहबजी। मंय आपके अउ आपके कामवाली बाई के बहुत-बहुत आभारी हंव। भगवान ह वो दयालू अउ उदार महिला के भला करे। आपमन ह वो समय बहुत सही अउ उचित बात केहे रेहेव। जिनगी भर मंय ह आपके आभारी रहूँ। पर सच पूछे जाय ते आपके वो कामवाली बाई, ओल्गा ह मोला बचाय हे।’’
’’वो कइसे?’’
’’बात अइसन आय साहबजी, जब-जब मंय ह लकड़ी चीरे बर जावंव, वो ह मोला देख के बिफर जावय। पानी पी-पी के मोला बखानय, कहय - ’अरे सराबी, तोला जरूर ककरो सराप लगे हे। मरस काबर नहीं?’ अउ मोर आगू माथ धर के बइठ जावय। मोर डहर देख-देख के रोवय अउ कहय - ’हाय, बिचारा। ये जनम म ये ह कोनो सुख नइ पाइस। मर के घला नरक म जाही। अभागा, दुखियारा।’ बस वो ह अइसने बात करय। वो ह मोर खातिर अपन कतका खून सुखाइस, कतका आँसू बोहाइस, आप ल वो सब बताना मुस्किल हे। पन असली बात ये हरे साहबजी, कि विही ह मोर सब काम ल करय। सच कहत हंव साहबजी। आपके घर मंय ह एको लकड़ी नइ चीरे हंव। सब ल विही ह चीरे हे। वो ह मोला कइसे बचाइस, वोला देख के मंय ह पीये बर कइसे छोड़ेंव, मंय ह कइसे अपन आप ल बदलेंव, ये बात ल मंय ह आप ल कइसे समझावंव साहबजी। एके बात कहि सकथंव साहबजी, वोकर वचन, वोकर उदारता अउ वोकर मया-दुलार ह मोला सुधार दिस। ये बात ल मंय ह कभू नइ भूल सकंव। हाँ साहबजी! अब चलना चाही। नाटक सुरू होय के घंटी ह बाज गे हे।’’
अउ मुड़ी नवा के लुश्कोफ ह अपन सीट कोती चल दिस।
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