रविवार, 9 अप्रैल 2017

कविता

(मंगलेश डबराल की एक कविता ’शब्दार्थ’ का अंश)

शब्दार्थ


जब भी कोई शब्द लिखता हूँ
लगता है उसमें वह अर्थ नहीं है
जिसके लिए उसे लिखा गया था
.........................................................
ज्यादातर शब्दों को छोड़कर चले गये हैं उनके अर्थ
किसी विपरीत दिशा में, किसी दूसरे पक्ष में
हमारे समय के आततायी
उन्हें कहीं दूसरी तरफ हाँककर ले गये
क्रिया और कर्म के बीच उन्होंने
अपनी लंबी-चौड़ी बस्तियाँ बसा लीं

कुछ ही शब्द हैं जिनके अर्थ बचे रह गये हैं
भय अब और भी भय है
आतंक और ज्यादा आतंक

प्रेम के भीतर प्रेम करते लोग नहीं दिखते
तकलीफ की इबारत की जगह
एक क्रूर जश्न का इश्तिहार मिलता है

जब कोई ताकतवर एक नई सुबह का जिक्र करता है
तो मुमकिन है अंधेरा घिर रहा हो
हो सकता वह जो मनुष्य के तौर पर जाना जाता है
लंबे समय से मनुष्य नहीं रह गया हो
और जब हम साहस जुटाकर
किसी अत्याचारी को अत्याचारी पुकारते हैं
तो वह नाराज नहीं होता
बल्कि अपनी प्रशंसा पर मुस्कुरा देता है

एक दिन मैंने एक ताकतवर आदमी के सामने
मनुष्यता का जिक्र किया
तो उसने चिढ़कर कहा -
’तमाम लोग अपने-अपने काम में लगे हैं
लेकिन आप हैं जो मनुष्यता-मनुष्यता करते रहते हैं।’
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(आलोचना, कविता-2, सहस्त्राब्दी अंक 57 से साभार)

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