(राजेश जोशी की एक कविता का अंश)
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
.....................................
कोई कहता है कि इतना अंधेरा तो तब भी नहीं था
जब अग्नि, काठ में या पत्थर के गर्भ में छिपी थी
तब इतना धुंधला न था आकाश
नक्षत्रों की रोशनी धरती तक ज्यादा आती थी
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
लगता है यह सिर्फ हमारे गोलार्ध पर उतरी रात नहीं
पूरी पृथ्वी पर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है अंधकार
अंधेरे में सिर्फ उल्लू बोल रहे हैं
और उनकी पीठ पर बैठी देवी
फिसलकर गिर गई है गर्त में
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
कि मुँह खोलकर
अंधेरे को काई अंधेरा न कह सके
कि हाथ को हाथ न सूझे
कि आँखों के सामने घटे अपराध की भी
कोई गवाही न दे सके
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
000
(आलोचना, कविता-2, सहस्त्राब्दी अंक 57 से साभार)
रोशनी
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
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कोई कहता है कि इतना अंधेरा तो तब भी नहीं था
जब अग्नि, काठ में या पत्थर के गर्भ में छिपी थी
तब इतना धुंधला न था आकाश
नक्षत्रों की रोशनी धरती तक ज्यादा आती थी
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
लगता है यह सिर्फ हमारे गोलार्ध पर उतरी रात नहीं
पूरी पृथ्वी पर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है अंधकार
अंधेरे में सिर्फ उल्लू बोल रहे हैं
और उनकी पीठ पर बैठी देवी
फिसलकर गिर गई है गर्त में
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
कि मुँह खोलकर
अंधेरे को काई अंधेरा न कह सके
कि हाथ को हाथ न सूझे
कि आँखों के सामने घटे अपराध की भी
कोई गवाही न दे सके
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
000
(आलोचना, कविता-2, सहस्त्राब्दी अंक 57 से साभार)
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