गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

कविता

पहले यहाँ पर


पहले यहाँ पर -

इतने लोग नहीं होते थे
कम होते थे
पर सभी जमीन पर चल रहे होते थे

बहुत खुलापन होता था
जगहें बहुत होती थी
पर पूरी तरह हरी-भरी
और पूरी तरह भरी-भरी होती थी

घर कम होते थे
बस्तियाँ छोटी होती थी
पर भरीपूरी होती थी
और सबके लिए पूरी-पूरी होती थी

लोग कम होते थे
पर परस्पर संबंधित होते थे
चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मौसा-मौसी,
दादा-दादी खूब होते थे
सब बंधे होते थे 
सब अपने होते थे

यहाँ कम लोग आते थे
भीड़ कम होती थी
शोर कम होता था
पर चहल-पहल बहुत रहती थी

हवाएँ ऐसी नहीं होती थी
उनमें प्रेम की उद्दीप्त तरंगें
रिश्तों की मधुर महक और ताजगी
और अपनेपन की शीतल नमी होती थी
हवाएँ जीवित होती थी

पेड़-पौधे मस्ती में झूम रहे होते थे
शाखाएँ और पत्तियाँ उनकी
स्वस्थ और ताजी होती थी
बाहों में समेटने के लिए सबको
सब के सब, उत्सुक और लालायित होती थी

तितलियाँ नाचती रहती थी हमेशा
और पक्षियाँ गाते रहते थे मधुर-मधुर गीत
जैसे रहते थे आतुर सब
आनेवालों के स्वागत के लिए
और उसी तरह अधीर होते थे,
आनेवाले भी सभी, इनसे मिलने के लिए

वह जगह अब भी है यहीं
अपनी जगह पर
समय के साथ पर वह बदल गयी है

समय  के साथ
लोग, घर और बस्तियाँ,
पेड़-पौधे, हवाएँ, पक्षी और तितलियाँ
बदल गये हैं सभी।
000 kuber

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