मंगलवार, 14 मई 2019

आलेख

मेरा अतिम अध्यापन

(सेवा निवृति के अवसर पर दिया गया वक्तवय)

मित्रो! कबीर की एक बहुप्रचलित साखी है जिसे हम बचपन से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं -
’’निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। 
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।’’

आप सभी ने इस साखी के अर्थ और इसके निहितार्थ पर चिंतन किया होगा। आपकी निष्पत्ति क्या है, आप ही बेहतर बता पायेंगे परंतु मेरा निष्कर्ष कुछ इस प्रकार है -  हर मनुष्य के अंदर अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों होती हैं। परंतु मानव स्वभावगत कारणों से हमें हमारी बुराइयाँ दिखाई नहीं देतीं। निंदक अपने स्वभाव की वजह से अनायास हमारी कमजोरियों को हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है। वह हमें अपनी बुराइयों के परिष्कार का अवसर प्रदान करता है और अप्रत्यक्ष रूप से हमारे स्वभाव को निर्मलता प्रदान करता है।

पीठ पीछे हम किसी की जी भरकर बुराई कर सकते हैं परंतु यदि वह सामने उपस्थित हो तो हम केवल उसकी प्रशंसा ही करेंगे। मित्रमंडलियों में सामान्य चर्चा के दौरान यही देखने-सुनने को मिलता है। आमतौर पर दो अवसरों पर खुलेदिल से प्रशस्तिकथन का दौर चलता है - पहला, विदाई के लिए आयोजित कार्यक्रमों में और दूसरा, शवयात्रा के समय। मित्रमंडलियों में सामान्य चर्चा के दौरान हो या किसी की बिदाई का अवसर हो, केवल प्रशस्तिकथन ही नहीं होना चाहिए। ऐसे अवसरों पर प्रशस्तिकथन के साथ संबंधित की व्यावहारिक दुर्बलताओं की ओर, उसकी कमजोरियों और बुराइयों की ओर भी इशारा होना चाहिए। सच्चे मित्र की पहचान करने के लिए इसे एक पैमाने के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रशस्ति कथन मृतकों की शवयात्रा की परंपरा है। शवयात्रा के समय मृतक की केवल अच्छाइयों का बखान करने की परंपरा है परंतु इसके इतर, अन्य अवसरों पर, मेरा विश्वास है कि आमने-सामने जिस व्यक्ति की आप प्रशंसा कर रहे होते हैं, जाहिरतौर पर वह जीवित ही होता है। अपनी प्रशंसा और आलोचना, दोनों को समान भाव से स्वीकार करनेवाला व्यक्ति एक सजग और चेतना संपन्न व्यक्ति होता है। केवल प्रशंसा का अभिलाषी व्यक्ति शव के समान होता है। 

मित्रो, बिदाई की इस घड़ी में बोलने के लिए बहुत सारी बातें हैं, परंतु दो कारणों से बोलने का औचित्य मैं समझ नहीं पा रहा हूँ -
1. अधिकांश बातें पूर्व में कही जा चुकी हैं और पुनरावृत्ति उचित नहीं है। पुनरावृत्ति से ऊब पैदा होती है। आप सब विद्वान हैं। आपके लिए मेरे पास बोलने के लिए नया कुछ भी नहीं है। विद्वानों की मंडली में मौन अधिक मुखर होना चाहिए। और,
2. बोलना एक कला है जो मुझमें नहीं है। और यही वजह है कि अनेक अवसरों पर मेरी बातों से आपका अपमान हुआ होगा। आपको दुख वहुँची होगी। मैं नहीं चाहता कि आज भी ऐसा कुछ हो। आदमी को व्यावहारिक भी होना चाहिए जबकि मैं नितांत अव्यावहारिक व्यक्ति हूँ।

फिर भी कुछ बातें अपने बारे में मैं जरूर कहना चाहूँगा महज स्पष्टीकरण के रूप में। इसे आप मेरी आत्म प्रशंसा भी कह सकते हैं।

विद्यालय और महाविद्यालय के मेरे सभी सहपाठी जो शासकीय सेवा में गये, उनमें शिक्षक कोई नहीं बना। मैं भी शिक्षक नहीं बनना चाहता था। शिक्षक बनना मेरी विवशता थी। अभी भी बहुत सारे शिक्षक होंगे जो किसी न किसी विवशता के चलते शिक्षक बन गये हैं। मजबूरी में बने शिक्षकों से अच्छे शिक्षण की उम्मीद करना मूर्खता है। इसीलिए मैं कामना करता हूँ कि मेरे जैसा कोई व्यक्ति शिक्षक न बन सके। शिक्षक बननेवाला हर व्यक्ति शतप्रतिशत शिक्षकीय मानसिकता के साथ ही शिक्षा के इस पवित्र क्षेत्र में आये। परंतु हमारे देश में शिक्षक चयन की ऐसी किसी पद्धति का सर्वथा अभाव है। हमारे पास शिक्षक प्रशिक्षण की ऐसी कोई विधि, प्रणाली या प्रक्रिया नहीं है जिससे गुजरकर हर प्रशिक्षार्थी का एक समर्पित शिक्षक के रूप में कायान्तरण हो सके। किसी मजबूरी के कारण बने शिक्षकों की मानसिकता को बदल कर उन्हें एक समर्पित शिक्षक के रूप में विकसित कर सकनेवाली शिक्षक प्रशिक्षण की कोई पद्धति हमारे पास नहीं है। दूसरी ओर देखें, दुनिया में अनेक देश ऐसे हैं, जहाँ पाँच से सात वर्षों की कठिन प्रशिक्षण के बाद, और एक समर्पित शिक्षक के रूप में कायांतरण होने के बाद ही किसी प्रशिक्षु को शालाओं में भेजा जाता है। 

मित्रो! 2015 में ग्रीष्मावकाश के दौरान रावतपुरा सरकार शिक्षण संस्थान, लिमोरा, रायपुर में शिक्षको के लिए आयोजि 10 दिवसीय प्रशिक्षण में मुझे भाग लेने का अवसर मिला था। वहाँ पर राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के विद्वानों, शिक्षाशास्त्रियों, अजीम प्रेमजी फाऊण्डेशन के प्रशिक्षकों तथा राज्य भर से पहुँचे प्राचार्यों और व्याख्याताओं के समक्ष मैंने शिक्षक प्रशिक्षण से संबंधित एक सुझाव प्रस्तुत किया था जो इस प्रकार है - हमारे विद्याालयों में इस प्रकार की सुविधा और व्यवस्था है कि विद्यार्थी अपनी-अपनी इच्छाओं और रूचियों के अनुसार गणित, जीवविज्ञान, कृषि विज्ञान, वाणिज्य आदि विषयों का चयन करते हैं और तद्अनुसार वे शिक्षा प्राप्त करते हैं। 12 वीं उत्तीर्ण करने के बाद विशेषज्ञ डाॅक्टर या इंजीनियर बनने के लिए उन्हें संबंधित संस्थानों में लगभग छ साल कठिन परिश्रम करना होता है। उसके बाद ही वह डाॅक्टर अथवा इंजीनियर बन पाता है। परंतु इसे विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि शिक्षक बनने के लिए हमारे यहाँ या तो किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता ही नहीं है अथवा एक या दो साल के प्रशिक्षण की औपचारिकता निभाकर ही कोई भी व्यक्ति शिक्षक बन सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में इससे बड़ा मजाक और कुछ नहीं हो सकता। डाॅक्टर या इंजीनियर बनाने की पद्धति की तरह ही शिक्षक बनाने की पद्धति हमारे यहाँ क्यों नहीं है? शिक्षक बनने की कामना करनेवाले विद्यार्थियों को कक्षा 10 के बाद ही प्रशिक्षण की विशेष प्रक्रिया के तहत लाया जाय और सात या आठ सालों के बाद वह किसी डाॅक्टर या इंजीनियर की भांति पूर्ण शिक्षक के रूप तैयार होकर विद्यानयों में नियुक्त हों। 

क्या शिक्षण कार्य डाॅक्टर या इंजीनियर के काम से गया बीता काम है? स्मरण हो, "विद्वानों ने कहा है - एक गलत इंजीनियर एक भवन को और एक गलत डाॅक्टर एक जीवन को बर्बाद करता है, परंतु एक गलत शिक्षक एक समूची पीढ़ी को नष्ट कर देता है।" 

विद्वानों के इस कथन के निहितार्थ को मैंने समझने का प्रयास किया। यह निर्विवाद सत्य है कि बच्चे भविष्य के राष्ट्रनिर्माता हैं और एक विकसित, सुरक्षित और सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण के लिए उन्हें गढ़ने की जिम्मेदारी शिक्षक की है। समर्पित शिक्षक के बिना यह कैसे संभव होगा? मैंने स्वयं को बदलने का प्रयास किया। और इस प्रयास में मैं जब तक तथ्यों को और शिक्षकीय जीवन की सच्चाई को कुछ-कुछ समझ पाता, स्वयं को एक समर्पित शिक्षक के रूप में कायांतरित कर पाता, इस द्वंद्व में मेरी आधी सेवा अवधि समाप्त हो चुकी थी। मैंने स्वयं को एक अच्छा शिक्षक कभी नहीं महसूस किया, मजबूरी के चलते शिक्षक बननेवाला व्यक्ति एक अच्छा शिक्षक कैसे हो सकता है। और अपने कार्यकाल के अंतिम वर्षों में जब मैंने  स्वयं को कुछ बेहतर शिक्षक के रूप में महसूस करने लगा तब तक काफी पानी बह चुका था। इस बात के लिए मैं अपने आप को जीवन भर माफ नहीं कर पाऊँगा।

और फिर तो, बाद में, शिक्षकीय कार्य को कभी भी मैंने पेशे के रूप में या व्यवसाय के रूप में नहीं लिया। मेरे लिए शिक्षण व्यवसाय नहीं, धर्म है। व्यवसाय का अर्थ है - खरीद-फरोख्त और लाभार्जन। खरीदी-बिक्री और धनार्जन। शिक्षा धन अर्जन का नहीं ज्ञान अर्जन का क्षेत्र है। शिक्षा का आधार ज्ञान है और ज्ञान खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं, यह तो केवल बाँटने की चीज है। ज्ञान बाँटने से कम नहीं होता, बढ़ता ही है। परंतु बाँटने के लिए हमारे पास कुछ तो हो। बाँटने के लिए मेरे पास कुछ तो होना चाहिए। मेरे पास यदि बाँटने के लिए कुछ नहीं है तो मैं बाँटूगा क्या? शिक्षा का उद्देश्य है बच्चों को सिखाना। यदि मैंने कुछ सीखा नहीं है तो बच्चों को सिखाऊँगा क्या? इसके लिए मुझे कुछ अर्जित करना पड़ता है। इसके लिए मुझे तैयारी करनी पड़ती है। जिस दिन मैं तैयार होकर जाता हूँ उस दिन ही मैं बाँट पाता हूँ और बच्चों को कुछ सिखा पाता हूँ। उस दिन मुझे सचमुच आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है क्योंकि तब मैंने अपना धर्म निभाया है। शिक्षण मेरा धर्म है, विद्यालय मेरा मंदिर और बच्चे मेरे लिए साक्षात ईश्वर हैं।

मित्रो! शिक्षण का अर्थ पढ़ाना नहीं, सिखाना है। हमें इस अवधारणा को ईमानदारी और सच्चे मन से स्वीकार करना होगा। बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल नहीं आते हैं, वे सीखने के लिए आते हैं और आप वहाँ उन्हें पढ़ाने के लिए नहीं हैं, उन्हें सिखाने के लिए हैं। पढ़ाना और सिखाना, दो भिन्न और मौलिक बातें हैं। पढ़ाने के लिए किसी खास विधि की आवश्यकता नहीं है परंतु बिना किसी खास विधि के आप बच्चों को कुछ नहीं सिखा पायेंगे। सिखाने की विधियों का अनुसंधान आपको ही करना होगा। इसके लिए आपको प्रतिदिन, प्रति कालखंड और प्रतिक्षण सतत ’निरीक्षण और प्रयोग’ की प्र्रक्रिया से गुजरना होता है। हर विद्यार्थी स्वयं में विलक्षण होता है क्योंकि हरेक के पास कोई न कोई ऐसी प्रतिभा अवश्य होती है जो केवल उसी के पास होती है, अन्य किसी दूसरे के पास नहीं होती है। आपको उसके इस विशिष्ट प्रतिभा को पहचनना होगा क्योंकि इसके बिना उस बच्चे को सिखाने की न तो आप उस खास विधि का अनुसंधान कर पायेंगे, न ही उसे कुछ सिखा पायेंगेे और न ही उसके साथ आप न्याय कर पायेंगे। 

अपनी विलक्षण प्रतिभा और रचनात्मकता के साथ हर विद्यार्थी एक जिज्ञासु के रूप में आपके समक्ष बैठा है। आपका कर्तवय है कि आप उस विद्याार्थी के अंदर की उस विलक्षण प्रतिभा को पहचानें और उसे निखारने में उसकी सहायता करें। कक्षा में बच्चों को, उसे अपनी रचनात्मक कौशल का उपयोग करने का अवसर आपको देना होगा ताकि उसका उपयोग वह सीखने की प्रक्रिया में कर सके। आपके सामने सीखने के लिए बैठा हुआ बच्चा पत्थर की कोई प्रतिमा नहीं है, एक जीता-जागता इंसान है, जिसका हृदय मानवीय संवेदनाओं से और जिसका मस्तिष्क अनंत जिज्ञासाओं से भरा हुआ है। उसका अपना एक व्यक्तित्व है, उसके अंदर आत्मसम्मान, आत्मगौरव और आत्माभिव्यक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। उसकी संवेदनाओं, उसकी जिज्ञासाओं और उसकी रचनात्मकता का उपयोग उसे सिखाने की प्रक्रिया में आप कर सकें, ऐसा कौशल और ऐसी तकनीक आपके पास जरूर होनी चाहिए। आपको उसके आत्मगौरव और आत्मसम्मान की भावना को सुदृढ़ करने के लिए उसे महत्व और सम्मान देना चाहिए। बच्चे अपनी जिज्ञासाओं को शांत कर सके इसके लिए उन्हें कक्षा में प्रश्न करने का अवसर, प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलना चाहिए। बच्चे अपने आप को अभिव्यक्त कर सकें इसके लिए उन्हें बोलने का अवसर दिया जाना चाहिए। बच्चों के रचनात्मक कौशल का उपयोग उनके सीखने की प्रक्रिया में हो इसके लिए जरूरी है कि कक्षा में आप उन्हें सक्रिय रखें और उन्हें सक्रिय रहने का अवसर निर्मित करें।

बच्चों के अंदर सीखने की अपार क्षमताएँ होती हैं जो उनके अंदर की रचनात्मक कौशल और जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण होता है। परिवार में माता-पिता आपने विकसित होते शिशु को मम्मी-पापा, भाई, बहन, चाचा, चाची, दादा जैसे गिनेचुने शब्द ही सिखाते हैं परंतु तीन साल की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते उस शिशु के द्वारा अर्जित शब्द भंडार की प्रचुरता और विभिनन विषयों और विभिन्न क्षेत्रों में उसके द्वारा अर्जित ज्ञान का भंडार हमें आश्चर्यचकित करता है। यह सब उसे किसने सिखाया? उसने कहाँ से सीखा? सीखा या अर्जित किया? अधिकांश चीजे बच्चे अपने अनुभव और अपनी रचनात्मक कौशल से ही सीखते हैं। इसके लिए उन्हें अधिकाधिक अवसर मिलना चाहिए। कक्षा में आप उसे अवसर प्रदान करें।

आप परमाणु की नाभिकीय विखण्डन की प्रक्रिया के बारे जानते हैं कि कैसे एक विखंडित परमाणु के द्वारा पैदा हुई ऊर्जा दूसरे परमाणुओं को विखंडित करता चला जाता है और पलभर में पूरा द्रव्य विखंडित होकर अपार ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। बच्चों के ज्ञानार्जन और सीखने की प्रक्रिया नाभिकीय विखंडन की श्रृँखला की तरह ही होती है। आपके द्वारा बच्चों को दिया गया एक ज्ञान, आपके द्वारा सिखाया हुआ एक शब्द उसके अंदर ज्ञान और शब्द भंडार का विस्फोट करता चला जाता है।

यदि मेरा नाम कुबेर सिंह साहू न होकर केवल कुबेर ही होता, कुबेर नाथ या कुबेरकांत, या ऐसा ही कुछ दूसरा होता, तब भी आज मैं ऐसा ही होता जैसा कि अभी हूँ। परंतु यदि मैं शिक्षक नहीं होता तो जैसा मैं अभी हूँ वैसा मेरा होना संभव नहीं था। मित्रो! पुनर्जन्म में मेरा विश्वास नहीं है, परंतु वास्तव में ऐसा होता होगा तो, किसी विवशता के चलते शिक्षक बननेवाला यह कुबेर ईश्वर से प्रार्थना करता है उसका पुनर्जन्म एक शिक्षक के रूप में ही हो।

एक शिक्षक के रूप में आप विशिष्ट  व्यक्ति हैं और आपसे भी अधिक विशिष्ट हैं आपके विद्यार्थी, इस बात को आप महसूस करें। बच्चों को सिखाने के लिए आपका विशिष्ट होना, आपकी तैयारियों का विशिष्ट होना बेहद जरूरी है। सिखाने का आधार सिर्फ अनुशासन ही नहीं प्रेम भी होना चाहिए। आपके अंदर शिक्षा और छात्रों के प्रति जितना अधिक प्रेम और समर्पण का भाव होगा आप उतने ही अच्छे शिक्षक बन पायेंगे। किसी भी क्षेत्र में कामयाब होने के लिए पहली अनिवार्यता समर्पण का भाव और अपने काम के प्रति प्रेम का होना है। और प्रेम के विषय में  कबीर ने कहा है -
’’प्रेम न बारी ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय। 
राजा परजा जिस रुचे, सीस देय लेइ जाय।।’’
धन्यवाद।

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