भूखमापी यंत्र
(काव्य संग्रह)
कुबेर सिंह साहू
प्रकाशक
साकेत साहित्य परिषद् सुरगी, जिला राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़
सर्वाधिकार: कुबेर सिंह साहू
प्रथम संस्करण: मार्च, 2003
द्वितीय संस्करण
मूल्य: 100 रू
प्रकाशक: साकेत साहित्य परिषद सुरगी, जिला राजनांदगाँव, छ. ग.
000
संभावनाओं की तलाशा में
[श्री कुबेर सिंह साहू प्रारंभ से ही संभावनाओं की तलाश करते नजर आते हैं, चाहे वह ’आम आदम’ में हो या ’काठ का आदमी’ में। वे संभावनाओं के कवि हैं। समकालीन हिंदी कविता ऐसी ही कविताओं से समृध्द हुई है।]
वर्तमान दौर में राजनीति ही सब कुछ है। देश और समाज इससे पूर्णतः प्रभावित है, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बदलते नैतिक मूल्य एवं सामाजिक सरोकार, सब पर राजनीति हावी है, चाहे वह भ्रष्टाचार हो, वोट की राजनीति हो, चाहे भूमण्डलीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नीति निर्धारण, यही कारण है कि आज राजनेताओं से लोगों का मोहभंग हो चुका है। इसके विपरीत साहित्यकारों के प्रति उनका विश्वास आज भी जीवित है। साहित्य में भी ’काव्य लेखन’ का अपना अलग स्थान है। आज यह कहना कि कविता की जरूरत नहीं है या कविता मर गई है, एक निरर्थक प्रलाप है। कविता कभी मर भी कैसे सकती है? जब तक इंसान में प्रेम, शांति, सहयोग और बंधुत्व का भाव कायम रहेगा। कविता एक ओर अपने देश, काल, परिवेश से स्वयं प्रभावित होती है तो दूसरी ओर इनमें इन्हें प्रभावित करने का साहस भी है। श्री कुबेर सिंह साहू का प्रथम प्रयास ’भूखमापी यंत्र’ इस तथ्य का गवाह है।
मैंने इस संग्रह में संकलित सभी 63 कविताओं का कई बार पठन किया है। प्रत्येक कविता के एक-एक शब्द से होकर गुजरा है और कह सकता हूँ कि ये कविताएँ कवि के जीवन-अनुभव की कविताएँ हैं। ’जाके पैर न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई’ की कहावत के अनुरूप ये कविताएँ भोगे यथार्थ की सच्ची अभिव्यक्ति हैं जो अन्याय, भ्रष्टाचार एवं शोषण के खिलाफ विद्रोह एवं संघर्ष के साथ ही आम आदमी के दुख दर्द एवं उस पर हो रहे जुल्म की पहचान कराने वाली है। दूसरी ओर ढोंग एवं पाखंड से पूर्ण समाजवाद, पूंजीवाद पर तीखे व्यंग्य भी है। ’सड़क शिराएँ’ की पंक्तियाँ इसके सबूत हैं -
इन्सानी मूल्यों की सीड़ियाँ चढ़कर,
टांगे जा रहे हैं,
समाजवाद की तख्तियाँ,
हस्ताक्षर हैं
जिस पर पूंजीवाद के।
संग्रह की कविताएँ आम आदमी के शोषण से लेकर मध्यवर्गीय जीवन की पीड़ा, हताशा, संत्राश, कुंठा एवं पूंजीवादी व्यवस्था के शोषणचक्र को भलीभांति उजागर करती हैं। सर्वहारा की पीड़ा को ’अंत में’ व्यंग्यात्मक स्वरों में यह कहना कि - हँसने रोने की मनाही है, अँधों बहरों और गूँगों की गवाही है।’ तो दूसरी ओर सुबह से शाम अपनी जिंदगी तमाम करने वाले मध्यवर्ग की पीड़ा ’त्रिभुज’ में दिखाई पड़ती है -
’जिसके तीनों बिंदुओं पर है,
क्रमशः घर,
आॅफिस और बाजार।’
समाजवाद के नाम पर देश की जनता को हमेशा बेवकूफ बनाने की साजिश का पर्दाफाश ’समाजवादी डंडा’ में दृष्टव्य है -
एक थका हुआ झण्डा ,
जिसके बीचों बीच घूम रहा है एक पहिया,
समाजवाद का।
आज हर आदमी भूखा है। कोई धन का, तो कोई पद का; कोई कीर्ति का तो कोई रोटी का। ’भूखमापी यंत्र’ में यथा नाम तथा गुण, इस दुनिया में रहने वाले भूखे-नंगे लोगों के अविराम शोषण की प्रक्रिया पर धारदार व्यंग्य नीहित है। अपने समय की चुनौतीपूर्ण भूमिका के निर्वहन हेतु कविता का कथ्य और शिल्प कितना परिवर्तित हो जाता है, यह ’भूखमापी यंत्र’ में देखा जा सकता है। श्री कुबेर सिंह साहू प्रारंभ से ही संभावनाओं की तलाश करते नजर आते हैं, चाहे वह ’आम आदम’ में हो या ’काठ का आदमी’ में। वे संभावनाओं के कवि हैं। समकालीन हिंदी कविता ऐसी ही कविताओं से समृध्द हुई है। ’जिम्मेदार कौन’ की इन पं्रक्तियों में कवि का अभीष्ट समाहित है -
दुनिया का दुख इतना बड़ा नहीं कि हरा न जा सके,
दुनिया का पेट इतना बड़ा नहीं कि भरा न जा सके।
निसंदेह यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं है कि कवि ने प्रगतिशीलता का छद्म आवरण नहीं ओढ़ा है। संग्रह की कविताएँ प्रगतिशील चेतना से संपन्न जनवादी कविताएँ हैं। कवि का यह तर्क कि यहाँ ’सब कुछ चलता है’ के नाम पर कब तक ’चुप’ रहोगे, तो दूसरी ओर शोषण के जंग को जीतने के लिए शक्तिशाली बनने का आह्वान किया है जो जन की एकता व संगठन पर निर्भर है।
आशा है इस संग्रह का पाठक वर्ग में स्वागत होगा। अशेष शुभकामनाओं के साथ.......
दिनांक: 30 मार्च, 2003
डाॅ. नरेश कुमार वर्मा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
शास. दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगाँव
(डाॅ. वर्मा वर्तमान में शास. गजानन अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा, छत्तीसगढ़ में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।)
अपनी बात
अपने इस प्रथम प्रयास को आपके हाथों सौंपते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। आत्मिक-अकुलाहट की अभिव्यक्ति हमेशा सहज व सरल नहीं होती, और तब तो बिलकुल भी नहीं जब सरोकार सच्चाई से हो। लेकिन यह भी सच है कि इसके लिए कविता से बढ़िया माध्यम और कुछ भी नहीं हो सकता था, चाहे इसमें जोखिम ही क्यों न हो। मैंने यह जोखिम उठाने का दुःसाहस किया है।
रोटी मनुष्य की पहली आवश्यकता है। रोटी की उपलब्धता ने आदमी को इन्सान बनाया है। भूखा मनुष्य पशुता की ओर प्रवृŸा होता है। उसके विचार और शक्तियाँ रोटी पर केन्द्रित और रोटी तक सीमित हो जाती हैं। विश्व के कुछ प्रतिशत लोग जिनका मनुष्यता से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है, जिन्हें मनुष्य को रोटी के लिए पशुवत लड़ते-झगड़ते, लहु-लुहान होते देख अपार सुख मिलता होगा और जो मनुष्य में विचारहीनता की स्थिति पैदा कर उन्हें अपना गुलाम बनाना चाहते हैं, षडयंत्र पूर्वक इनके हिस्से की रोटी पर कब्जा किए बैठे हैं। वे मनुष्य की भूख मापना चाहते हैं। यह स्थिति विकट, दुखद और विस्फोटक है। इससे मुक्ति हेतु संघर्ष अनिवार्य है। इस संघर्ष में समान-सहभागी बनकर मैंने अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाने का एक प्रयास किया है।
इस संग्रह की कविताएँ नब्बे के बाद लिखी गई है। कुछ लंबी कविताओं को छोड़कर शेष कविताएँ स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चुकी हैं। भाव, भाषा और शिल्प में विविधता लाने का प्रयास किया है। आशा है आप निराश नहीं होंगे।
दिनांक: 30 मार्च, 2003 कुबेर सिंह साहू
समर्पित
1
जिनकी वेदनाएँ
मूक-वाणी से निःस्सृत हो
बन जाते हैं आर्ष
जिनमें ओज है ऋचाओं-सा
उन्हीं के पद-युगलों में
नमन शम-शत।
0
2
उन्हें, जो दमित और शोषित जीवन जीते हैं
सर्वत्र
(तीनों कालों में)
फिर भी
संवेदनाएँ जिनकी जीवित हैं
स्पंदित हैं
काल-वक्ष में
हृदय-सा
0
अवसान
वे जीते हैं
जलते हुए दीपक की तरह
जिसका अस्तित्व ही होता है
संघर्ष हेतु
बुझते हैं भी तो
अंधेरे को चीर कर
क्या उनका अवसान संभव है?
0
आम आदमी
पिंजरा पसलियों का उभरा हुआ
काँपता हुआ हाथ असक्त
चलने में असमर्थ है
लाठी का तीसरा पैर जोड़ कर भी
देखो, तन पर कपड़े हैं-
या मकड़ी की जाली?
आम आदमी है यह
सीधा-सादा, भोला-भाला, सहिष्णु।
दिखाई देता है मुझे तो सर्वत्र
विगत राजतंत्रीय प्राचीर के भग्नावशेष
जिनकी दीवारों पर लगी है असंख्य खंूटियाँ
टंगी हुई है जिन पर वर्तमान के प्रजातंत्र
जैसे जर्जर तन पर तार-तार हुए कपड़े
उम्मीद नहीं थी जिसके
तार-तार हो जाने की इतनी जल्दी
और जर्जर खूंटियों की
इन कपड़ों को ढोते रहने की जिद
या मजबूरी?
मित्र!
मुझे तो नजर आते हैं
सिर्फ भग्नावशेषी प्राचीर
और तुम बातें करते हो आम आदमी की।
0
सड़कें और मुसाफिर
सड़कें, जो अचल थीं कल तक
अब दौड़ रही हैं, अप्रत्याशित वेग से।
राहगीरों को छोंड़ बहुत पीछे
अनंत की ओर
अप्रत्याशित वेग से।
मुसाफिर आहत-भ्रमित।
सड़कों के साथ इस दौड़ में
कुछ चलते हैं, सम्पूर्ण शक्ति लगाकर
कुछ चीखते हैं उन्मादवश
संपूर्ण आवेश के साथ।
पर सड़कों का वेग अप्रत्याशित है
सड़कें गर्वित हैं
मुसाफिर आहत है
क्या यह मानवता पर जड़ता की जीत है?
0
चुप
मैं चुप था
झूठी आशाओं
और अपनी कल्पनाओं की परिधि में बंद
खुश था।
जाने कितने अपमानों को सहते
सच्चाई का दम घुटते
और न जाने
क्या-क्या देखते-सहते
जैसे मैं निर्जीव
पत्थर का बुत था।
मैं चुप था
अपने ही हाथों अपनी आँखों को किए बंद
अपनी ही ऊँगलियों से
अपने ही कानों को किये बंद
जैसे मेरे होने का सत्य
मृगतुष्णा-सा झूठ था।
अब
चुप रहना नहीं
हक पाना एकमात्र लक्ष्य।
आशाएँ-कल्पनाएँ
अपमान-सम्मान
हर्ष-अमर्ष-अवसाद
और न जाने कितने वाद
सब कुछ निरर्थक
इन्सान और इन्सानियत
सत्य, एकमात्र।
मित्रों!
मेरा होना
न कभी झूठ था
न मैं पत्थर का बुत था
न मैं कभी खुश था।
यह अनुभूति
ये पीड़ाएँ
संचरित करवानी है
गगनचुंबी, जहर उगलती चिमनियों
और
भव्य प्रासादों की कक्षाओं तक।
0
शादी की तैयारियाँ
1: वर पक्ष
एक गुप्त पारिवारिक सलाह
आवश्यक सामग्रियों की सूची
जिसे खरीदना है
शादी के अवसर पर
प्रथम - केरोसिन आइल, एक टीन
द्वितीय - माचिस की एक डिबिया
और.............?
बस।
2: कन्या पक्ष
माँ-बाप के बीच
रहस्यमय खामोशियों का दौर
आँखों की जुबान मौन वार्ताएँ
नीलामी की तैयारियाँ
घर की
खुशियों की
शांति की
इज्जत की
प्यार की
ममता की।
और खरीदना है सिर्फ
एक पत्थर
रखने के लिए छाती पर।
3: बेटी की दशा
माथे पर बिंदी
हाथों में मेंहदी
आँखों में दहशत
होठों पर ताले
और कलेजा
मुँह में।
4: मुहल्ले का माहौल
फुलझड़ियाँ - बातों की
दुआएँ, सहानुभूति - दिखावे की।
दिल में? -
अटकलें,
संभावनाएँ
दुख कितना ?
सुख कितना ?
उत्पीड़न कितना ?
0
सांध्यकालीन रंग
1: गाँव के संदर्भ में
गोधूली बेला में
घोसलों की ओर लौटते पक्षी गण -
चहचहाते हुए।
धूल का बादल बनाते गऊओं का रेवड़ -
रंभाते हुए।
मजदूरों का मरियल-मटियल दल -
फैक्ट्री से निकलकर
सड़कों पर घसीटते
मिमियाते हुए।
2: शहर के संदर्भ में
संध्या के दो रंग
सूर्यास्त के समय का -
सिंदूरी आकाश
और रात्रि पूर्व का अर्ध-अंधकार
बटा हुआ क्रमशः
कारखानों की गगनचुंबी चिमनियों
और
झोपड़पट्टियों की
तंग, बदबूदार गलियों के बीच।
0
चरित्रवान
1
ऊँचाई?
अधिकारी हैं।
वजन?
वेतन हजारों में।
चरित्र?
दो बंगलें
एक मारूति
लाखों का बैंक बैलेंस
मात्र दो साल में।
वाह!
वे कितनें महान है?
बड़े चरित्रवान हैं।
2
ऊँचाई?
जन-प्रतिनिधि हैं।
वजन?
मंत्री हैं।
चरित्र?
गुंडों के सरगना थे
(अब सरकार के हैं।)
कई हत्याओं के
बलात्कार के भी कई मामले
पुलिस फाइलों में दर्ज थे
अब साफ हैं
जनहित के नाम पर बिलकुल बेदाग हैं
वाह!
राष्ट्र की ये शान हैं
इनसे ही तो देश महान है?
बड़े चत्रिवान हैं।
0
त्रिभुज
पहले मैं आम आदमी था
(यह मैं नहीं लोग कहते हैं)
और आज?
तीस साल बाद
जबकि लोग मुझ पर तरस खाते हैं
बेचारा कहकर बुलाते हैं
मुझे शक होता है
अपने आदमियत पर।
मैं लोगों से चीख-चीख कर पूछता हूँ
सचमुच!
आज का मैं बेचारा
कल आदमी था?
मेरे प्रश्न
निर्जीव दीवारों से टकराकर
लौट आते हैं -
वादियों की अनुगूँज की तरह
पर
अपनी स्निग्धता खोकर।
लोग मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं देते
अफसोस होता होगा उन्हें शायद
अपने पूर्व कथन पर?
पर
इस संक्रमण काल में दोस्तों
आपको मैं विश्वास दिला दूँ
कि
उस त्रिभुज के बाहर
मैं कभी निकल नहीं पाया हूँ -
शारीरिक और मानसिक रूप से;
जिसके तीनों बिंदुओं पर हैं
क्रमशः -
घर
आफिस
और बाजार।
0
उलझती रेखाएँ
सरल
समानांतर
आड़ी, तिरछी और वक्र रेखाएँ
उलझे हुए परस्पर
जिसमें से उभर-उभर आती है
प्रतिक्षण एक नवीन आकृति।
एक के बाद दूसरी
आकृतियों का उभरना और मिटना
(सिलसिलेवार घटना)
इसके पूर्व कि -
वांछित आकृति उभरती मैं देख पाता
व्याप्त हो जाता है घोर तमस
और वह पूर्ण परिवेश
जो सिनेमा हाल में हो जाता हे निर्मित
लाइट गुल हो जाने पर।
0
शिकायत
1: प्रेमी द्वारा
चक्षु-पथ से चली आती हो
हृदय में बस जाने के लिए
शिकायत बस इतनी-सी है
पग-आहट भी चुरा कर आए।
स्निग्ध मुस्कुराहटें,
नम हँसी
मलयानिल-सी मधु आगम
शिकायत बस इतनी-सी है
पत्तयों की मरमर भी चुरा कर आए।
सुमंद गंधवाही भी आने लगी
दिशाएँ खुलने लगी
घटाएँ छाने लगी
शिकायत बस इतनी सी है
भौरों से क्यों घिर कर आए?
जो झूठे हैं
(प्रेमिका की साफगोई )
आती हूँ, छा जाती हूँ, बरस जाती हूँ
सम्पूर्ण समर्पण-अंतर्मन से
चक्षुओं से नहीं,
हृदय से पूछिये
न कहिये फिर कभी -
कुछ चुरा कर आए।
0
गीतिका
उदासियों के घरे में भटकता है-
मन बार-बार जाने कहाँ उलझता है।
घुल जाती है स्मृतियाँ जाने कहाँ,
निर्झरिणी बन आँखों से क्यों झरता है।
किसी की आँखों में खो जाने का भ्रम,
किसी अयाचित से क्यों प्रतिबद्धता है?
विसंगतियाँ जाने झिपी थी कहाँ,
’कुबेर,’ आँखों से वही अब बरसता है।
0
यहाँ सब चलता है
अजी, सुनिए-
हमारी ये सड़कें
सड़कें हैं या पगडंडियाँ ?
या
कुपोषण ग्रस्त किसी युवा के
वक्ष पर उभरी-पसलियाँ ?
भाई सा‘ब
आप भी कमाल करते हैं
यहाँ आपकी कौन सुनता है ?
अरे! यह भारत है
यहाँ सब चलता है।
अजी! देखिये
हमारी सड़कों के जानलेवा ये गड्ढे
जैसे जर्जर तन पर कुष्ठ के घाव
या पुष्ट रक्त के भीतर
ल्यूकोमिया का फैलाव।
भाई सा‘ब
बस भी करिये
आपकी ये चिंताएँ यहाँ कौन देखता है?
अरे! यह भारत है
यहाँ सब चलता है।
0
औपचारिकता का छनना
मंहगाई की मुखियागिरी में
कटुता और स्वार्थता बची, बस
औपचारिकताओं के छनने से
रिश्तों की सरसता छन गई है।
सब्जियों के भाव हो
या किराने के भाव
गौ रूपी ग्राहकों के संग
साण्ड-सा बर्ताव
भाव पूछने की जिसने की ढिठाई
गत उसकी बन गई है।
बीवी का पहलू हो
या पड़ोसियों का अपनापन
दोस्तों की दोस्ती हो
या सगों का सगापन
बिन मांगे जब-जब मिले हैं
शाहादत की घड़ी बन गई है।
एक सी सड़कें, छतें एक सी
एक से बोल, चालें एक सी
एक से चेहरे, दरवाजें एक से
सेक्टरों का यह सममित रूप बड़ा मायावी है
बेटे का घर ढूँढते-ढूँढते
बाप की कमर तन गई है।
0
जिम्मेदार कौन
आज फिर सड़कों पर शोर उभरा
दहशत छाई
गोलियों की आवाजें गूँजी
बारूदी धुआँ छाई।
गोलियों की आवाजों के लिए
दिलों को बेधती सवालों के लिए
जिम्मेदार कौन ?
दुनिया का दुःख इतना बड़ा नहीं
कि हरा न जा सके
दुनिया का पेट इतना बड़ा नहीं
कि भरा न जा सके
कचरों के ढ़ेर में रोटी तलाशते
प्लेटें चाटते
फिर एक मौत हुई है
कल भी हुई थी
(कल भी होगी?)
मानवीय मूल्यों का उपहास करते
अमानुषिक सिलसिलों के लिए
जिम्मेदार कौन ?
एक पौधा तराशा न जा सका
पथरीली पहाड़ी भूमि पर
बेतरतीब, बेढंगा बढ़ता रहा
दूसरा सींचा न जा सका
मरूस्थल में एँठता रहा, जलता रहा
एक अँकुर उग आया है फिर
गरीबों की बस्ती में
खुरपी, फावड़ा, झौंहा
और कुदालों का भार ढोने के लिए
ऐसा होने के लिए
जिम्मेदार कौन ?
0
प्यार करो
सन्नाटे की भाषा में न बातें करो
प्यार करो, प्यार करो।
जवाबों की दुनिया
सवालों की दुनिया
घोटालों की दुनिया
दलालों की दुनिया।
दुनिया के अँदर की हजारों दुनिया में
एक और दुनिया
अपनों की हुआ करती है
भूल गए?
याद करो, याद करो।
0
आदमी कहाँ रहता है
दिल की हर धड़कन का
चेहरे की रंगत के साथ रिश्ता है कुछ ?
आँसुओं के आगे अब
कहकहों का स्याह पर्दा टँगा रहता है।
आँसू भी अपने हों, कहकहे भी अपने हों
अपनों के बीच अपनों की बातें हों
दहशत से मुक्त कुछ रातें हों
मानवता परिभाषा से मुक्त हो
उनकी न बातें हों
वादों से जो घिरा रहता हो।
गलियों में, सड़कों में, बाजारों में,
रात को टिमटिमाते सितारों में
भीड़ में, बागों की बहारों में
वादों, विवादों और तकरारों में
ढूँढते-ढूँढते थक गया
आदमी कहाँ रहता है?
0
दृष्टिकोण
आवश्यकता नहीं है
पुनः परिभाषित करने की
फूलों और तितलियों के
आपसी संबंधों को
भौंरों और पराग कोषों के
आपसी रिश्तों को
फूलों की निष्कपट मुस्कान
और काँटों की
रूखी संवेदनहीन कटाक्षों के मध्य
आदिम अनुबंधों को ।
स्वयं परिभाषित इन संबंधों को समझने
चाहिये एक संवेदनशील हृदय
नितांत मानवीय-करुणा
और
स्वतंत्रता की चाह से
भरा हुआ।
0
अस्तित्व-बोध
जबसे आदमी के ऊपर
सवार हो गया है उसका ओहदा
या उसका वर्ग
या उसकी जाति
तब से आदमी
आदमी नहीं रहा।
और
तब से हवा भी हवा नहीं रही
रह गया है, बस
कहीं तूफान
तो, कहीं आँधी।
0
आखिर क्यों
लोग लड़ते हैं
सिर्फ एक बूँद पानी के लिए
एक इंच जमीन के लिए
और
कमरे में बंद आसमान के लिए।
सारे समुद्र
सारी पृथ्वी
और
पूरे ब्रह्मांड के लिए
वे क्यों नहीं लड़ते ?
0
बांस
बांस !
तू बहुत सीधा-सादा है
बिलकुल उन लोगों की तरह
जिन्हें लोग आम आदमी कहते हैं।
इतना सीधा कि-
मत्री, अधिकारी, व्यापारी या कोई भी
तुम्हारी जड़ें काट सकता है
अपना स्वार्थ साध सकता है
बगैर रोक-टोक
निर्बाध-निर्विरोध।
वे इसे परंपरा समझते होंगे
(क्या तुम भी ऐसा ही समझते हो ?)
शायद तुम जानकर भी अनजान हो
न जाने किस मजबूरी में ?
या तुम सचमुच अनजान ही हो?
अपने अँदर छिपे
उस परम शक्तिशाली चिंगारी से
जिसने जन्म दिया है
अब तक की सारी सभ्यताओं को
ओर जो जलाकर राख भी कर सकता है
स्वार्थ के सारे तत्वों को
व्यवस्था के सारे मकड़जालों कोे
और
शोषक के सारे चूषकों को
जो बंधक बना कर रखे हुए हैं
तुम्हारी स्वतंत्रता और स्वाभिमान को।
तुम इतने सीधे, इतने अनजान क्यों हो?
ऐसा ही शापित था वानर हनुमान भी
पर उसकी शक्ति जाग उठी थी
सिर्फ एक व्यंग्य वाक्य से ही
और उसने जला डाला था लंका को।
परंतु तुम्हारी शापमुक्ति इतना सरल नहीं है
व्यंग्य वाक्य और सारे प्रचलित तरीके
बेअसर हो चुके हैं ।
मात्र एक ही तरकीब है
तुम्हारी शापमुक्ति का
और उसे मैं अंजाम देना चाहता हूँ
यह कि -
तुम्हारे ही जिस्म के दो फाँक कर
आपस में रगड़ दूँ
और पलभर में
चमक उठेगी वही चिन्गारी
जो सदियों से छिपी हुई है तुम्हारे अँदर
जिसकी परम आवश्यकता है आज
शोषक व्यवस्था को जलाने के लिए।
0
नज़रिया
तुम्हें चाँद में
अपनी प्रेमिका का हँसता-खिलता
और
अपनी सुंदरता पर इठलाता
चेहरा नज़र आता होगा।
पर पँद्रह दिनों के आवर्त पर
दिखने वाले इस चाँद में
मुझे तो ऐ दोस्त !
गरीब की थाली की
वह रोटी नज़र आती है
जो दिन भर कमरतोड़ मेहनत के बाद भी
नियमतः एक जून नांगे के बाद
दूसरे जून ही
हाथ लग पाती है।
यूँ तो हर आदमी
आँखों से ही देखता है
पर दोष आँखें का नहीं
पेट का है
जो आदमी का
नज़रिया बदल देता है।
0
अब तुम मेरी बन जाओ
अब तुम मेरी बन जाओ।
व्यथित-विकल तन-मन की ताप-संताप मिटाने,
युग-युग से तृषित हृदय की चिर प्यास बुझाने,
मैं चातक-याचक अंक तुम्हारे आया हूं
तुम शरद की शीतल,धवल,स्निग्ध चांदनी बन जाओ।
अब तुम मेरी बन जाओ।
स्वर्ग-सुख अक्षुण्ण जहाँ, चिर-यौवन,मादक रस-सिक्त जहाँ।
रीते न अधर-चषक कभी , बीते न मधुर, मादक रजनी जहाँ।
सोया रहूँ, खोया रहूँ ,उड़ता रहूँ,उलझा रहूँ उस स्वप्न लोक में मैं,
तुम स्वप्न लोक-सी सुंदर , सुमधुर ,सहज सृष्टि बन जाओ।
अब तुम मेरी बन जाओ।
0
तुम कौन हो
तुम कौन हो?
कभी अपनों की तरह,
कभी गैरों की तरह मिलती हो।
कभी पतझड़ सी नीरस,
कभी बहार-सी खिलती हो।
तुम कौन हो?
मधु-सी मीठी कभी,
अमृत बरसाती-सी लगती हो।
हृदय को बेधती कभी,
चक्षु-बाण चलाती-सी लगती हो।
तुम कौन हो?
मधुर सपनों में सुख देती,
कभी सुख, सपनों से हर लेती हो।
साँसों की स्पंदन में बसती, कभी
प्राण-वायु-सी लगती हो।
तुम कौन हांे?
रहस्य लोक की अनसुलझी रहस्य,
कभी अनबूझ पहेली-सी लगती हो।
महाशून्य-सा प्रश्न,
कभी बचपन की सहेली-सी लगती हो।
तुम कौन हो?
कलाकार की कल्पना हो ?
या साकार होती कोई सुकृति हो।
सुख-दुख की अनुभूति कराती,
ऋतुओं, पर्वों, रस-भावों से सिक्त प्रकृति हो?
तुम कौन हो?
0
जंग जीतने के लिए
जंग जीतने के लिए बलशाली हमें बनने होंगे।
पाँच नहीं, पचास धमाके और अभी करने होंगे।
लड़ाई याचना से नहीं, ताकत से जीती जाती है।
निर्बल पर दया, दोस्ती बराबर से की जाती है।
सी. टी. बी. टी. का जवाब ऐसे ही देने होंगे।
गद्दारी की कटार, हिमालय की छाती में जाकर देख।
मक्कारी के मकड़जाल, केशर की वादी में जाकर देख।
कातिलों, मक्कारों के हाथ अब काँटने ही होंगे।
हर थाली में रोटी, सिर के ऊपर छत होगा।
तन पर कपड़े,माथे पर खुशियों का अक्षत होगा।
मेहनतकश हाथों को भी, अब काम दिलाने होंगे।
जंग जीतने के लिए बलशाली हमें बनने होंगे।
0
उन्हें पहचानों
उन्हें पहचानों -
जिन बादलों के कोरों का रंग रक्ताभ हो चला है
उन्हीं बादलों ने छिपाया होगा
नई सुबह की सूरज को।
जिन बिजलियों की तोंदें गुब्बारों की तरह फूलकर
जांघों पर पसरी होंगीं
उन्हीं की चकाचैंधों ने पचाया होगा
नई सुबह की किरणों को।
जिस मौसम की आँखों में पशुता की चमक
होठों पर कुटिलता, जबान पर कूटता होगी
उसी की बेरूखी ने चूसा होगा
धरती को तृप्त करने वाली पावस की बूँदों को।
0
जिंदगी
चारों ओर हँसती, खेलती, चहकती यह जिंदगी है
चूंकि है-
इसीलिए यह सअर्थ है।
कहीं दौड़ती, कहीं चलती,
कहीं रेंगती और घसीटती यह जिंदगी है
चूकि सचल है-
इसीलिए यह सजग है।
जिंदगी पूरी नहीं होती
सिर्फ मेरी चाह और तुम्हारी आकांक्षा से
जरूरी है स्वयं इसकी इच्छा भी
इसीलिए यह सबल है।
जिंदगी वह अंतराल ही नहीं
जो होती है जन्म और मृत्यु के बीच
जिंदगी हिसाब है हर एक धड़कन का
जन्म और मृत्यु का
इसीलिए यह इतिहास भी है।
0
होने का अर्थ
मैं हूँ, तुम हो, हम हैं।
ये नदिया, झरने, ताल-तलैया हैं
पहाड़ पेड़ और चहकती-चिरैया हैं
मिट्टी की सौंधी-सौंधीं खुशबू लिए पुरवैया है
इसीलिए मैं हूँ, तुम हो और हम हैं।
ये घर-परिवार और पड़ोसी हैं
भाई-भाभी, चाचा-चाची और मौसी हैं
अपनों-परायों की दुनिया है
सिर्फ इसीलिए मैं हूँ, तुम हो और हम हैं।
ये दर्द और ये प्यार हैं
करुणा का यह संसार है -
जो सदियों से जीवन का आधार है
इसीलिए और सिर्फ इसीलिए
मैं हूँ, तुम हो और हम हैं।
0
संभावनाओं की तलाश
आओ !
तलाशें, भविष्य के गर्भ में छिपे
संभावनाओं के अँकुरों को
जो एक कतरा छाँव बनेगा
तपती दुपहरी में झुलसते
पसीनों से तरबतर
अनगिनत मेहनतकशों के लिए।
आओ !
खोलें, भविष्य के गर्भ में बंद
संभावनाओं के दरवाजों को
जिसके पार होगा विस्तृत कर्म क्षेत्र
अनगिनत बेकाम हाथों के लिए।
आओ !
मुक्त करें, भविष्य की सींखचों में कैद
संभावनाओं के सूरज को
जो, नंग-धड़ंग, चिथड़ों में लिपटे
मौसम की मार सहते,
और
घोर तमस से डरे-सहमें घरों के अंदर
लायेगा एक नई सुबह।
0
कर्तव्यनिष्ठ
वे कर्तव्यनिष्ठ
ईमानदार और जिम्मेदार अधिकारी हैं
अपना कर्तव्य बखूबी निभाते हैं
सरकारी योजनाओं को चमकाने
उस पर नियमित
निष्ठापूर्वक
ईमानदारी और जिम्मेदारी से
सफेदी का राजा
चूना लगाते हैं।
0
होली है
होली है भाई होली है, बुरा न मानो होली है।
मंहगाई की ये पिचकारी,सरकारी हँसी-ठिठोली है।
दिन घूरे के बहुर गए
ताले किस्मत के खुल गए
विश्व बैंक की गंगा जल से
उसने किस्मत धो ली है।
रोगी जब से आया है
हाय-हाय चिल्लाया है
मर्ज बराबर बढ़ता जाए
ज्यों-ज्यों खाई गोली है।
नेता-गंुडा, चोर-सिपाही
हा हा हा हा,ही ही ही ही
बड़ी पुरानी, बड़ी टिकाऊ
मित्रों, ये हमजोली है।
0
मजबूरियाँ
हाय !
तुम्हारी यह दरियादिली
और हमारी ये मजबूरियां
तुम्हारी मुस्कुराहटों का हम
इस्तेकबाल भी कर नहीं पाते हैं।
तुमने तो पलकें बिछा दी
राह-ए-इश्क में,
जंजीरों से बंधे कदम ही मेरे
उठ नहीं पाते हैं।
आपकी चाक्षुविक आमंत्रण, अभिसार-अभिसंधियां
अलौकिक-स्नेहिल आभा,
मेरी अभीप्साएं ही,
हाय-
खिल नहीं पाते हैं।
0
शाकाहारी घोषणा-पत्र
संबंध आदियुगीन
राजतंत्रीय व्यवस्था से आपतंत्रीय व्यवस्था तक
राम-राज्य से लेकर आप-राज्य तक
चलता रहा सब कुछ नियति-नियंत्रित
अचानक एक दिन गजब हो गया
एक बड़ा अजूबा हो गया।
सारे मच्छर जैसे रक्त से विरक्त हो गए
छोड़ दुनियादारी ईश्वर-भक्त हो गए
नैतिकता के राही हो गए
प्रेम के पुजारी हो गए
सस्वर-समवेत सबने की उद्घोष महान
जान ले सारा जहान -
आज से हम सब शाकाहारी हो गए
खून किसी मजलूम के अब न चूसेंगे
महामारी के परजीवी शिराओं में अब न ठूसेंगे
’विश्वासं फलदायकं’ ,
इस आप्त वाक्य का जनता विश्वास करे
सदियों पुरानी परंपरा का निर्वाह करे।
’विश्वासं फलदायकं’, विश्वास करो ?
हाथ पर हाथ घरे बैठे रहो
न मुँह चलाओ न हाथ-पैर
सिर्फ अपना दिल जलाओ
अपनी सदियों पुरानी परंपरा की पींगें और बढा़ओ।
विश्वास करना तुम्हारी आदत है
तुम्हारी परंपरा, तुम्हारी विरासत है
विश्वास तो तुम्हें करना ही होगा
सदियों पुरानी अपनी परंपरा ढोना ही होगा।
मनुष्य ने अपनी परंपरा निभाई
अपनी सज्जनता (या धर्मभीरुता) दिखाई
आसमान की ओर ललचाई आँखों से देखता रहा
कहीं से कोई मरहम, न कोई राहत आई।
नेता-नुमा मच्छरों से सदन पुनः भर गया
इंसानियत मर गई, विश्वास छला गया।
नेता-नुमा मच्छरों की बातों पर
जब तक विश्वास करते रहोगे
तुम्हारी संतति छलती रही है
छलती रहेगी
सदन रक्त पिपासुओं से भरती रही है
भरती रहेगी।
0
सपनों में
सपनों पर कोई प्रतिबंध नहीं
चाहे जितना, देखिये और दिखाईये
हम हिन्दुस्तानी हैं,
अपनी किस्मत पर इतराइये।
हम सौदागर हैं सपनों के
सपने बुनते ओर बेचते हैं
आश्वासनों की नींव पर
सपनों का महल बनाते हैं
वादों के आक्सीजन
और
सपनों की खुराक से
पूरा देश पालते हैं।
0
ओ मेरी कविता
ओ मेरी कविता!
मैं चाहता हूँ
तुम रहो अपने समस्त गौरव
अपनी समस्त अलंकरणों
और अपने समस्त आयुधों के साथ
मेरी स्मृतियों में।
मैं रखूँगा तुम्हें सहेज कर
अपनी आत्मा की तरह।
ओ मेरी कविता! तुम श्रृँगार हो
निसंदेह,
किसी नायिका के रूप-दर्प की हुँकार हो
पर, समय प्रतिकूल है
मौसम की नीयत ठीक नहीं
हवा में तैर रही कामुकता की सड़ांध है
स्वार्थपरक, नैतिकता-विहीन और दृष्टिहीन
आनुशासन का मुखौटा लगाए
सुंघियाते, गुर्राते यहाँ सारे जन्मांध हैं।
ओ मेरी कविता !
अभी रहने दो, श्रृंगार के सारे उपादान
सारे उपमेय और सारे उपमान
कोमल-कमनीय चेष्टाएँ
सुर,लय,ताल और संगीत की धाराएँ।
दारूण निर्धनता की धुँध
और-
भयावह हिंसक-अनाचार की धुएँ से दूषित पवमान।
रहने दो अभी सारी शाष्त्रीयता
करना है तुम्हें रणभूमि में आज
आयुध संधान।
ओ मेरी कविता!
आहों में बड़ा असर होता है
यह सच है?
तो आओ आह्वान करें समवेत आहों का
ताकि
उजाड़े गये हों जिनके घोसलें
जलाए गए हों जिनकी झोपड़ियाँ
जल रहे हों जिनके पेट
और धधक रही हों जिनकी आत्माएँ
कह सकंे उनके प्रति सांत्वना के दो बोल -
कि हमनें भी जलाई है
अपनी आत्मा।
0
ओ चिड़िया
ओ चिड़िय! जरा रहम कर
अब की बार छोड़ दे
मेरी झोपड़ी के ऊपर किसी कोनें में
अपने लिए घोसला बनाने
और अपनी दुनिया बसाने का विचार
(या जिद्द)।
मैं एक लाचार
भारत के अनजाने गांव में जन्मा
सरकारी स्कूल में -
अ - अमीर
ग - गरीब
भ - भय, भूख, भ्रष्टाचार की भीड़ में खड़ा
ग - गर्त से
अ - की अट्टालिकाओं के सपने देखता
अ और भ के बीच की दूरियाँ मिटाता
गहराइयों को पाटता।
ओ चिड़िया !
तुमसे एक विनती है -
छोड़ दे मेरी झोपड़ी के ऊपर घोसला बनाने
और अपनी दुनिया बसाने का विचार
मेरे आँगन में फुदक-फुदक कर नाचने
और अपने सर्वत्र बोधगम्य भाषा में
जीवन का नव-गीत गाने का विचार।
अरी,
ओ चिड़िया !
तलाश ले कोई और ठिकाना
जिन जंगलों और जिन पेड़ों पर
तुमने बनाए हैं घोसलें
बसाई है अपनी दुनिया
उसकी परिणति क्या हुई ?
तुम्हें पता है ?
तुम्हें पता है,
वे सारे उजाड़ दिए गए हैं।
0
उसे हवा दो
यह नेता है (?)
यह वही तथाकथित नेता है
जो.............
सावधान !
बंद कर दे
सारे रास्ते और सारे दरवाजे
अब की बार न जाने पाए यह पुनः
राजधानी की ओर।
और इनके चारों ओर ये सारे इनके चमचे हैं
इनके मुँह पर जनतंत्र के जो नारे हैं
दरअसल ऊपर से चिपकाए गए छिलके हैं
जिसके नीचे कुछ भेड़िये,
कुछ कुत्ते,
कुछ आदमखोर शेर और चीते हैं
जो केवल इन्सानों का खून पीते हैं।
आपके घर-आँगन, और गाँव को
खेत-खलिहानों और बाजारों को
बदल देगें ये अभयारण्यों में।
सावधान !
ये ऐसा कुछ करने का दुःसाहस कर पाए
बंद कर दो इन्हें सलाखों के पीछे।
और
इन सबने खेल ली है अपनी-अपनी पारियाँ
अब आपकी पारी है
अँगारा अभी ठंडा नहीं हुआ है
बाकी अभी चिंगारी है
इसे हवा दो,
इसे हवा दो,
इसे हवा दो।
0
माडर्न आर्ट
आज का आदमी अमूर्त है -
एकदम प्याज की तरह
या सियार की तरह
शातिर और धूर्त है।
आज का आदमी बड़ा स्मार्ट है
जैसे कोई माडर्न आर्ट है
जिसके सारे अंग और सारे उपांग
करते हुए व्यतिरेक परस्पर अधिकार क्षेत्रों का
दिखते उटपुटांग।
पैरों का जोड़ा कूल्हे पर नहीं
सिर के किसी हिस्से से उगता है
परस्पर विरोधी दिशाओं की ओर चलता है
एक पूरब की ओर ,
दूसरा पश्चिम की ओर बढ़ता है।
हाथ कमर पर उगे हुए हैं
अपने कर्तव्यों से रूठे हुए हैं
उठाते नहीं अब ये
हल, हँसिया, हथौड़ा, फावड़ा या बेलचा
और न तलवार
पड़े रहते हैं बेबस
या करते हैं अत्याचार।
दिमाग पेट के पास गिरवी है
और पेट
फैल कर हो गया है वयाप्त सारे अंगों में
या हर अंग का हो गया है
अपना-अपना पृथक पेट।
माडर्न आर्ट होने का यह बड़ा गोरखधंधा है
न छाती है न कंधा है
बड़ा नाजुक इसका जंघा है
आँख-कान की क्या जरूरत है ?
उस कलाकार की इस कला पर
बड़ी हैरत है, बड़ी हैरत है।
0
अमीबा
वह संघर्षशील है।
उसने काफी संघर्ष किया
बड़ा कठिन जीवन जिया
अपने जीवन के अनमोल पचास वर्ष
अपना बचपन, अपना कैशोर्य,
और जवानी जैसे स्वतः-क्षत
और वह सब कुछ जो नहीं था समिधेय
जैसे सम्मान, संबंध, व्यवहार और परिवार
आचार और विचार
उसने होम कर दिया।
उसने संघर्ष किया
स्वयं से, परिवार से, समाज और दुनिया से
जाने अनजाने, कितनों से
लड़ाई लड़ी सच्चे योद्धा की तरह
उसने लड़ाई जीती भी, सच्चे योद्धा की तरह
और बचाया स्वयं को,
पाई सर्वोच्च उपलब्धियाँ।
उसने बनाया स्वयं को
एक योद्धा से एक विजेता
अ-वेत्ता वेत्ता
और प्रात कर ली सत्ता।
ईश्वर ने उसे मनुष्य बनाया था
मनुष्य और संघर्ष में बड़ा निकट, बड़ा विकट
बड़ा मधुर और आत्मीय संबंध होता है।
शायद उसे स्वयं का मनुष्य होना
मनुष्यता के लिए संघर्ष करना
दोनों स्वीकार्य न थे
ईश्वर का यह कृत्य उसे पसंद न था।
वह ईश्वर को क्षमा नहीं करेगा
क्योंकि बहुत सारे लोग,
जो न तो मनुष्य की तरह होते हैं
जो न तो हँसते हैं न रोते हैं और न संघर्ष करते हैं
या तो षडयंत्र करते हैं, या सोते हैं
नशे में होते हैं या शासन करते हैं
जिंदगी को व्यसन की तरह खर्च करते हैं
उसे भी क्यों न बनाया गया
बहुत सारे इन्हीं लोगों की तरह ?
अब उसकी भी पहचान है
अलग जीवन,
अलग दुनिया और अपनी शान है।
अपनी इसी दुनिया में वह कर लेता है संपन्न
अपने जीवन की सारी क्रियाएं
और कर लेता है पूरी
अपने जीवन की सारी आवश्यकताएँ
जैसे सृष्टि का प्रथम
और संभवतः अंतिम एक कोशीय आदिम जीव -’अमीबा’।
क्या वह अब आदमी से अमीबा बन गया है?
0
आधुनिकता के निए
मैं चाहता हूँ जीने में यथार्थ और यथार्थ में जीना
फटे हुए पलों को मर-मर कर सीना
मीठे-कड़ुए और तिक्त जीवन-रस पीना।
पर संस्कार और आदतंे भी बड़ी चीज हैं
वाहियात, गिलगिली और गलीज हैं
जैसे -
यह सोंचने की आदत कि मेरे आस-पास,
मेरे विचारों के आहाते में और मेरी आँखों के सामने
मेरे सिवा और काई न हों।
और हों तो बहुत नीचे, बहुत पीछे
हाथ जोड़े और आँखें मींचे
जैसे उपस्थित होता है कोई
अपने मालिक या अपने बाॅस के सामने।
जैसे -
दिल को दीवार पर पेंटिंग की तरह लटका कर
सजा कर रखने की परंपरा
ताकि जब हम मिल रहे हों अपनों से
तो इसे टूटने के खतरे से बचाया ज सके।
ताकि जब हम मिल रहे हों परायों से
तो इसे जुड़ने की भावुकता से बचाया जा सके।
दिग्भ्रमित हवाओं से
शब्दों की मिलावट से
बेमेल चेहरों की बनावट से
प्रदूषित कानूनी जमावट से
नीयत में घुल चुकी बदबुओं से
और सफेदपोश बाबुओं से
फेर कर मुँह
निष्काम कर्म की छद्म चादर ओढ़कर
आगे की ओर खिसका जा सके।
और इस तरह आधुनिक समाज में
आधुनिक की तरह जिया जा सके
जो न हो अपने पास
उसके होने का दिखावा किया जा सके।
भाई मेरे !
इससे अधिक और क्या हुआ जा सकता है
कि आदमी को जो नहीं होना चाहिए
उसके होने के लिए
आदमियत खोया जा सकता है।
0
आह्वान
दुनिया के वैज्ञानिकों, आओ !
उस प्रमेय को पुनः ढूँढें
जिसकी निष्पत्ति होती है मानवता।
उस सूत्र को भी खोजें
जिसकी सहायता से हल होते हैं
शँाति प्रक्रिया की गुत्थियाँ
और बनते हैं समृद्धि के इमारत।
और अंत में
उस मृतप्राय कारखाने को पुनः चालू करें
जहाँ से उत्पादित होते हैं - मनुष्य
सिर्फ मनुष्य।
दुनिया में
कहते हैं दो तरह के मुल्क होते हैं -
पहला विकसित
और दूसरा विकासशील
इसे यूँ भी कह सकते हैं
दुनिया में दो तरह के मुल्क होते हैं -
पहला नोट वाले
और दूसरा पेट वाले।
नोट वालों के पास न पेट है न दिल है
उनके पास है एक अदद दिमाग -
कंप्यूटर वाला
और है दुनिया के सारे सुख।
और पेट वालों के पास होते हैं
केवल ऐंठती हुई,
कुलबुलाती हुई अंतड़ियाँ
जिसमें ठूँस-ठूँस कर भरे होते हैं
दुनिया के सारे भूख।
दुनिया के बेराजगार लोगों
तुम नाहक दुखी होते हो
तुम इसलिए दुखी हो न
कि तुम्हारे पास पैसे नहीं है
सुख खरीदने के लिए।
और पैसे इसलिए नहीं है
क्योंकि तुम्हें व्यापार करना नहीं आता
और तुम्हें व्यापार करना इसलिए नहीं आता
क्योंकि तुम्हें प्यार करना नहीं आता
या यूँ कहें
कि तुम्हें प्यार का व्यापार करना नहीं आता।
जिस दिन तुम यह हुनर सीख लोगे
सच कहता हूँ बहुत सुखी हो जाओगे
क्योंकि
औरों को रास्ते में भटकते
और खुद को राजधानी में पाओगे।
0
मैं सोचता हूँ
मैं सोचता हूँ कई बार
कई-कई बार
ढूँढता हूँ स्वयं को
पाकर भी कई-कई बार
खोता हूँ स्वयं को।
या किसी भयानक निर्जन बीहड़ में
हिंसक पशुओं के बीच
अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत
निहत्था, निरुपाय, निरीह, निपट अकेला
विकट
व्याकुल प्राण लिए
बिलकुल अकेला।
या
अंतरिक्ष की कल्पनातीत ऊचार्दयों में
अस्तित्व तलाशता
ढूँढता चिर-यौवन
अचर-सुख-सहचर।
गहन-तम-गह्वर से घिरता
निःशब्द-चीख, चीखता
अस्तित्वहीन,
गुरुत्वहीन
बिलकुल अकेला।
मैं सोचता हूँ या देखता हूँ सपने
जीवन को सुलझाने,
सुलझनों को बचाने
कई बार,
कई-कई बार।
0
काठ का आदमी
फैला दूर-दूर तक अनंत आकाश
न क्षितिज, न मेघ, न पक्षी, न पतंगे
न गाँव, न ठाँव,
न देश, न प्रदेश, न प्रकाश।
घोरतम तम ,
कुछ नहीं आस-पास
दूर-दूर तक फैला अंतरिक्ष,
अनंत आकाश।
रजकण एक,
अनंत अंतरिक्ष के कोने में
टिमटिमाते नक्षत्रों के बीच
तलाशता-सा अपना अस्तित्व।
नियति कक्ष अपना
यायावर-सा रात काटने
ढूँढता हो जैसे कोई ठिकाना।
ममता का प्यासा,
किसी आँचल में मुँह छिपाना
थाह लेता शायद एक अणु वायु की
एक बूंद जल की अवगाह लेता
टिक सकता हो पग जहाँ
कोई क्षुद्र ग्रह ही अनजाना
पर मिल जाता अपना स्वत्व।
न बूँद भर जल,
न अणु वायु की एक
केवल आकुलता-व्याकुलता
और घोरतम तम।
कुछ नहीं,
कुछ भी नहीं आस-पास
दूर-दूर तक फैला अंतरिक्ष,
अनंत आकाश।
रजकण,
जिसके है अनंत पर
अनंत हाथ, अनंत पैर
अनंत संवेदिकाएँ, अनंत जिह्वाएँ
व्यर्थ सब निष्प्राण-सा पर।
रक्त समस्त शिराओं का मिलाकर भी
समस्त प्राणशक्ति जुटाकर भी
हिल नहीं पाती तनिक जिह्वा
नहीं दे पाता गति
हाथ-पैर और पर को।
अनंत ऊँचाईयों से गिरता
आधारहीन अंध, घोरतम अंध
सघन वन आच्छादित उपत्यिका मध्य
महाकाल की मुखगुहा-सा
अंध, घोरतम अंध।
किसी महागह्वर-विवर में
अपने अस्तित्व के लिये आकुल-व्याकुल
असंख्य फौलादी जंजीरों से जकड़ा
प्राणहीन हो गया हो जैसे प्राण
पूर्णतः निशक्त, संज्ञाहीन।
क्रूर चेहरे अनगिनत
मुखौटे भयावह नित नये बदलते
परस्पर बधाइयाँ देते
सोम मद में मद
हा.-हा....हा-हा.......
आ..हा..हा ..............।
देखो ये स्वतंत्र हैं।
ये स्वतंत्र हैं
जीने के लिए नहीं
मरने के लिए
हाथ हमारे ही इनके जीवन-तंत्र है
निसंदेह ये स्वतंत्र हैं।
ये रेवड़ हैं भेड़-बकरियों के
मिमियाते, घिघियाते परस्पर धकियते
जिंसों से भरी बोरियों की छल्लियाँ हैं
भीगी बिल्लियाँ हैं
समय जलधि में खाते गोते
कागज की किश्तियाँ हैं।
पिंजरों में बंद,
परखचे उड़े-परों वाले ये तोते हैं
परिपाटियों ने सिखाया जिन्हें रटना
बात-बात पर,
पल-पल टुकड़ों में बटना
और बहेलिए की जालों में फंसना।
इनकी तोता रटंत जारी है, कि -
हम स्वतंत्र हैं,
हमारा अतीत महान है
हम अहिंसा और सत्य के पुजारी हैं।
उधर क्रूर मुखौंटों का अट्टहास जारी है
रक्तवर्ण नेत्रों से रक्त रश्मियाँ प्रकीर्णित
आक्रान्त दशों दिशाएँ,
दशों दिगंत
आदमखोर आदिम पँजे अनंत।
अंधेरे मे तैरते हुए,
काष्ठ के मानवों को लपकते हुए
लपलपाते जीभ और
वितृष्णा के अँगारों-सा
रक्तवर्ण नेत्र लिए
उभरते हैं कंक्रीटी प्रासादों के जंगल
चिमनियों के दंगल
खो गया जिसके मध्य,
अनंत अँधेरे में -
आलोक अन्वेषक
अनंत पग, अनंत पर,
और अनंत कर वाला वह रजकण।
ऊँचे प्रासादों के लिए
कालिख उगती
काली-काली चिमनियों के लिए
रक्त-चर्म का मानव सिर्फ रजकण है
रसहीन किये जा चुके फल है
उनकी विलासता के हल है,
और उधर
प्रासादों से टपकते आभिजात्य के दंभ हैं
चूषकों के कटीले स्तंभ हैं।
मूर्ख!
साँप जहर
और चिमनियां कालिख ही उगलेंगे
उन प्रासादों के चैखटों से
नैतिकता के जनाजे ही निकलेंगे।
कंक्रीटों के जंगल में,
चिमनियों के दंगल में
रोटियां नहीं
कानून जरूरी है
जिसे मनवाना उनकी
और मानना इनकी मजबूरी है।
रोटियाँ जरूरी होंगी तुम्हारे लिए
तुम्हारी संतति के लिए
कुकुरमुत्ते-से उग आए
इन झोपड़पट्टियों के लिए
बदबूदार तंग गलियों के लिए, और
कचरे की ढेरों पर
भिनभिनाते हुए मक्खियों के लिए।
कानून जरूरी है -
उनकी और इनकी दोनों की मजबूरी है
उनके खेलने के लिए, इनके खाने के लिए
उनके बनाने के लिए, इनके ढोने के लिए
उनके नचवानेके लिए इनके नाचने के लिए
उनके जम्हाने के लिए, इनके गाने के लिए।
उन्हें छुड़ाने के लिए, इन्हें फंसाने के लिए
उनके खेलने और इन्हें बहलाने के लिए।
कानून जरूरी है -
ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर
गढ्ढ़ों-उभारों से अटी सतहों पर
समानता का मुलम्मा चढ़ाने के लिए
न्याय का तंत्र जताने के लिए
जरूरत, वक्त-बेवक्त
उनके मगरमच्छी आँसू बहाने के लिए
उनके रूठ जाने पर मनाने के लिए
कानून जरूरी है
उनकी और इनकी दोनों की मजबूरी है।
कानून तो सत्ताधीशों की चाल है
रिआया के कन्धों पर रखी
बंदूक की नाल है
स्वर्ग सुख पैदा करने की चाल है
उनके तमाचे, इनके गाल हैं।
यहाँ यही तो कमाल है
हर जगह दाल में काला
या चुपके-चुपके गलती दाल है
वे मालामाल और ये फटेहाल कंगाल हैं।
0
वातायन सब खोल दो
वातायन सब खोल दो।
स्मित मुख
दुख में सुख
हिल-मिल, सब मिल
गले मिल, बोल मीठे दो, बोल दो।
शोणित प्रवाहित शिराओं में सबके लाल
मानव हृदय विशाल
जीतता आया अब तक काल
कटुता क्यों लेता मोल
अब, जब जीत चुके हम काल?
कर नियंत्रित भाव उबाल
भाव-द्रुम रोप दो।
चार रत्न सुंदर
गिरिजा, गुरूद्वारा, मस्जिद, मंदिर
भारत एक अजिर
एक-सी संस्कार
काल सरिता प्रवाह
फिर अतिवाह
समता-विषमता एक रंग घोल दो।
बहा एक शीतल समीर
हर ले जो पीर
करता आलोकित पथ को
देता अमोल प्रज्ञा जग को
भारत की यही रीत
जग को लिया जीत
टूटे दिल जोड़ दो।
यह क्या कुविचार?
भाई पर असिवार?
कहाँ सोया-खोया मन निर्विकार
भारत एक परिवार
जन-मन में मंत्र-नव फूँक दो।
वातायन सब खोल दो।
0
सड़क -शिराएँ
मेरे प्यारे देश की शिराएँ, क्षतिग्रस्त सड़कें
जगह-जगह से टूटी, चोटग्रस्त
जहाँ से रिसती हैं
असँख्य जन की दमित इच्छाएं
प्रगति की संभावनाएँ
रक्त की तरह जो तरल-तप्त थीं
अब थक्कों की शक्ल में
शिराओं को रु़द्ध किए हुए
घाव, जो न तो रिसता है, न दुखता है
केवल छलता है
अनजाने सुख की ओर
निरर्थक संकेत करता है।
सड़कें
जिसमें हैं पग-पग पर जानलेवा गढ्ढे
आदमी के स्तर को नापते हुए पैमाने
बड़े-बड़े उभार
आदमी की ऊँचाई को नकारते हुए।
सड़कें
जिसमें हैं गतिमान प्रगति के चक्र
अलक्ष्य भविष्य की ओर, परिणाम से बेखबर
आम आदमी को छोड़ पीछे, बहुत पीछे।
सच तो यह है मित्रों !
इन गढ्डों को पाटने की कोशिशें जारी है
युद्ध स्तर पर,
रोज-रोज पाटे जा रहे हैं
बेजुबान लोगों की हकों-स्वत्वों से
फिर भी बरकरार हैं ये गढ्डे
नित नये शक्ल अख्तियार करते हुये।
इन सड़कों के जान लेवा उभार
और कुछ नहीं मेरी उभरी हुई पसलियाँ हैं
जो रौंदे जा रहे हैं रोज
मारूति-ओम्नी के सख्त टायरों के द्वारा।
इंसानी मूल्यों की सीढ़ियाँ चढ़कर
टांगे जा रहे हैं
समाजवाद की तख्तियाँ
जिस पर हस्ताक्षर है पूंजीवाद के।
तब्दील हो चुके हैं जो अब रक्त कैसर में
जिसके जिम्मेदार हैं
स्वयं अपने ही चिकित्सक
जो भरकर थैले अपने मौन हैं
बगुले की तरह
रोज-रोज नये-नये जख्म और टांकते हुए।
आप जानते हैं ये कौन हैं?
हां, आप जानते हैं ये कौन हैं
लेकिन आप फिर भी मौन हैं।
0
मूल की तलाश
मेरा मन तुच्छ,
मद-नद में उतराता गया भूल
कहां मेरा मूल?
अति विस्तृत उन्नत विश्व विशाल कल्पनातीत
आकाशगंगाएँ अति अतीन्द्रिय
जिसमें स्थित सौर मंडल कई अकूल
कहाँ मेरा मूल?
एक ग्रह धरा, शस्य भरा
लता-द्रुम-कुंजों से हराभरा
अनंत संभावनाएँ छिपाए हेमगर्भा
करती अभिसार, प्रकृति प्राकार
देती आंमंत्रण, आ! मानव मन
खेल मेरे संग हो निर्विकार।
विलास-उल्लास,
वैभव-विभा-दर्प मानव अमूल
कहाँ तेरा मूल ?
कुत्सित मानव मन,
करुणा-वेदना, प्रेम, शाँति तज
जैसे हो गया अज?
करता प्रकृति का तिरस्कार
खिला कृत्रिम फूल
मद-नद में उतराता गया भूल
कहाँ उसका मूल ?
प्रकृति लुटाती सुरभित सौरभ अमोल
मानव! अपने कब्र में वातायन खोल
हाँ! कब्र तेरा हृदय निकेत
जिसमें तू पड़ा अचेत
प्रेरित भावना असुरक्षा की मन में भरा
सहमा-सहमा, डरा-डरा
चारों ओर गढ़ लिया कुलिश-खोल
सहज, हुआ दुर्लभ, तुझे सौरभ अमोल
मन में नव द्वार खोल।
0
वाद कितने सार्थक
मैं कुरूप
गतिमान ब्रह्माण्ड नित परिवर्तित
धरता नित नूतन रूप।
मैं मानव
गढ़ता नित नए वाद, रखने गति-साम्य
मेरा परिवर्तन लघु-वृतकार
फिर-फिर आता उसी द्वार
हर बार मैं जाता हार
कानों में गूँजता वही ललकार
प्रकृति का विद्रूप
धरता नित नूतन रूप।
मेरा परिवर्तन वादों से घिरा
पूँजीवाद, साम्यवाद,
अपरिभाषित समाजवाद
हुए जिनकी शिराएँ रूद्ध
वादों में स्वयं घिरा, अचलता का प्रतिरूप।
व्यक्ति स्वातंत्र्य के कितने तंत्र?
नित मुझको करते जाते परतंत्र
मेरे अपने नीड़
मेरे अपने पीड़
मेरा अपना सर्वस्व
मेरा ही है अखिल विश्व
बातों का हवाई किला बनाने की कला -
मैंने जब से सीखा है
मेरा सर्वस्व रीता है
न करूणा न वेदना
न हृदय का धड़कना
मैं किसी का कुछ नहीं
मेरा कुछ किसी का नहीं
प्रतीक स्वतंत्रता के या परतंत्रता के?
टूटों को जोड़ने के लिए
आवश्यकता नहीं किसी वाद
या किसी तंत्र की
स्वच्छता केवल मानव मन की।
0
अंधेरे का श्रृंगार
इन्द्रजाल का माया जाल
लगता है
समस्त दिशाओं में
हो गया है व्याप्त।
बहुत सारी बहुमूल्य,
अत्याज्य,
चिर-परिचित चीजें
जिससे होती थी हमारी पहचान,
हमारी उपस्थिति परिभाषित,
हमारी दुनिया सुभाषित,
हो गए हैं लुप्त
जैसे -
सुविचारों से भरी हुई मानसिकता
परंपराओं में जीवित पारस्परिकता
गलत को गलत कह सकने की स्वभाविकता
सत्य के साथ चलने की आकुलता।
अंधेरे के चेहरे का श्रृंगार-
और कब तक करते रहेंगे हम?
पाखंड, उत्पीड़न का दंभ
और कब तक भरते रहेंगे हम?
0
आयातित आदर्श
हम चाहते हैं-
दुनिया में एक साथ
बहुत कुछ अघटित
घटते हुए देखना।
साथ-साथ चलते हुए
सबसे बतियाते और सबको धकियाते हुए
सबसे आगे निकल जाना
खोना कुछ भी नहीं
और सब कुछ पा जाना।
हम चाहते हैं-
उन फसलों की खेती काँटना
जिसे हमने नहीं बोया
उस बोझ के भार से दब कर बेतहाशा हाँफना
जिसे हमने नहीं ढोया।
मरूस्थल में बस्ती बसाकर
समुद्र की गहराई मापना
मुर्दों के बीच
जीने की तरकीबें बाँटना।
हम चाहते हैं-
चाँदी के पैमाने से
भूखे पेट की गहराई मापना
आयातित आदर्शों के मलबे से
असमानता की खाई पाटना।
0
वर्षान्त बेला
रीता!
एक और वर्ष बीता
पल-पल बढ़ता काल-चक्र
कभी सरल, कभी वक्र
कितने अरमानों के अवसान
मेरा क्या अवदान?
पीता !
अभिलाषाओं के पय
एक और वर्ष बीता
खोने का दुःख?
पाने का सुख?
विस्तृत अति विशाल नद के अवार
बहता मध्य जीवन प्रसार
हुआ न एकाकार
गिरता-उठता काल संग
एक और वर्ष बीता।
जीवन-कल का निष्प्राण प्रवाह
खटते जाने का क्रम, कैसा अवगाह ?
यांत्रिक ध्वनि करता अवकीर्ण
करता हृदय विदीर्ण
बीत जएगा एक और वर्ष
क्या इसका हर्ष ?
कैसा अमर्ष ?
बीता !
मिस कितने सुंदर जीवन के
ले उधार जग-जीता
एक और वर्ष बीता।
0
आदमी नहीं बंदर होगा
चलता रहा सब कुछ निर्बाध, निःशंक, निर्भय
आधुनिकता और अभ्यता का अतिप्रवाह
तो दुनिया न सिर्फ इतनी प्रदूषित हो जाएगी
इतनी सँकरी हो जाएगी
कि मनुष्यता उसमें उलझ कर रह जाएगी।
ईश्वर के कई नामों में से
सिर्फ तीन रह जाएँगे
बस्तियां मंदिर, मस्जिद
या चर्च में रूपांतरित हो जाएँगे
हो जाएँगे बटवारे दिशाओं के
धर्म अलग-अलग हवाओं के।
धरती ही नहीं ,
जल ही नहीं,
चांद और सूरज के लिए भी
लड़ाइयां लड़ी जाएंगी
ऋचाओं और आयतों की जगह
जुनूनी इबारतें पढ़ी जायेंगी।
मर्यादा के आँचल में तब
आधुनिकता का खंजर होगा
औरत महज औरत होगी
पुरूष महज पुरूष होगा
आदमी तब आदमी नहीं,
फिर वही बंदर होगा।
0
आधुनिक होने के लिए
अब हम एकदम आधुनिक हो गए हैं
आधुनिकता की सीमा लांघ
उत्तर-आधुनिक हो गए हैं।
अब हम न सिर्फ उस डाल को ही काँटते हैं
जिस पर बैठे होते हैं
बल्कि उस रास्ते गढ्ढे भी खोदते हैं
जिससे हम रोज गुजर रहे होते हैं।
पड़ोसियों के घर के ही सामने नहीं
अपने घर के सामने भी खंदक खोदते हैं
बंदरों के हाथों उस्तरा सौंपते हैं।
कानों को नहीं
अब अँधों को राजा बनाते हैं
सामने वाले की अंधानुकरण करते हुए
हम भी अपने सारे कपड़े उतारते हैं।
0
शक्तिशाली बनों
शक हो सकता है मुझे मेरे होने पर
आत्मा-परमात्मा के अलौकिक संबंधों पर
पर मैं पूर्ण आश्वस्त हूँ कि -
दबाया जाता रहा है
और दबाया जाता रहेगा,
दुर्बल
अपने बल प्रदर्शन हेतु
शक्तिशाली द्वारा।
स्वयं को यूँ न छलो -
यह कहना
कि निर्बल के लिए भगवान होता है
केवल आत्म-प्रवंचना,
आत्म-पीड़न है
या
अपनी दुर्बलताओं को ढँकने के लिए
अवगुंठन है।
सच तो यह है, कि -
शक्ति का पर्याय ही परमात्मा है
शाक्तिशाली बनों।
0
संघर्ष
नारों का उत्तर नारों से ही दिया जाय ?
या भारवाही और श्वानों की जाति विशेषण से
आवश्यक पार्थक्य हेतु
मध्यस्थता स्वीकार ली जाय
कुछ हृदय की, कुछ मस्तिष्क की
और क्षण भर सोचें
मौन की परिभाषा।
मशीनी शोर का हिस्सा न बन जाए
नारों भरी जिंदगी
और आदिम सभ्यता की ओर न धकेल दे,
मशीन न बन जाए चलता फिरता आदमी।
विकल्पों से भरी दुनिया में
सारे विकल्प समाप्त नहीं हो गये
अब भी शेष है उपमाएँ कई
जिसे पहनाया जाना है
पृथ्वी के अंतिम व्यक्ति को
और राज्यारोहण का पर्व मनाया जाना है
क्योकि
तब न होगा कोई
कलुषित वैभव के प्राचीर शेष
न होगा कोई
उस अंतिम व्यक्ति का कौर छीनने वाला।
जारी रहने दो संघर्ष
नारों से नहीं, प्राणों से।
0
रक्त-तप्त ईंटें
सभ्यता से दूर
सभ्यता की आधारशिला का निर्माण
नदियों के कछारों में
चिलकती, तपती दुपहरी में
बनती हैं रक्त-तप्त ईंटें
और पकता है जहां दिन-रात
कोमल किसलय-सा
बाल-श्रमिकों का देह
ईंट की भट्ठियों में ईंट की तरह।
बचपन की मासूमियत
घरौंदों के निर्माण की सरस-सरल लालसाएँ
धूल-धूसरित रसा-पथ पर
सत्वर वेग से पहिया दौड़ाने का चरम आनंद
परी कथाओं को जिज्ञासित हृदय
सब कुछ झोंक दिया जाता है
ईंट की इन भट्ठियों में ईंधन की तरह
जो निस्सृत होते रहता है निरंतर
धुआँ बनकर चिमनियों से
ढंक लेता है जो अंतरिक्ष को
सभ्यता पर विद्रूप करता
काले अक्षरों से लिखा एक इतिहास
बाल-श्रमिकों का मधुर हास।
0
शब्द
शब्दों को शब्द ही रहने दें।
नैसर्गिक प्रांजलता लिए
जीवन की चंचलता लिए
जीवन-गीत गाने के लिए
सद्य-उद्भित सरिता-सी बहने दें
शब्दों को शब्द ही रहने दें।
शब्दों पर शहद का लेप करें ?
या लेप रहित मीठे शब्द गढ़ें
शब्दों को शिष्ट मुखौटा दें ?
या अर्थ-यथार्थ के ताने-बानें बुनें
शब्दों को शब्द ही रहने दें।
मौन की भाषा समझें जरा
प्रकृति की पहेलियाँ-गूढ़ भी समझें जरा
विहग-वृंद की संगीत-सरिता बहने दें
लता-विटप,
वन-सरिता भी कुछ कहती हैं
कहने दें
शब्दों को शब्द ही रहने दें।
0
अंत में
और अंत में
अंत के विषय में
सिर्फ अटकलें, संभावनाएँ, कल्पनाएँ।
अंत !
अत्यंत निकट है
समय विकट है
महिमा मंडित गर्वोन्मत्त पाखंड है
दुराचार का चक्र नित्य, सत्वर अखंड है
अनैतिकता के मुख पर जय-दर्प है
शिष्टता में छिपा घृणित कंदर्प है
हँसने रोने की मनाही है
अँधों, बहरों और गूंगों की गवाही है।
अंत !
चाहे अभी दूर है
अवसर भी भरपूर है
पर तय कुछ भी नहीं
सिर्फ क्षय है
तय इतना कि अंत ही बस तय है।
अंत में,
वरण जिस पथ का करना है
फूल उस पथ पर बों लें
समय शेष है, आदमी अब तो हो लें।
हृदय का कोई कोना सुकोमल रहने दें
करुणा की धारा बहने दें
औपचारिकता न हो बस संबंधों का प्यार
मनुष्यता को चहिए
थोड़ा सा दुलार।
0
समाजवादी डंडा
पालतू पशुओं का रेवड़
जो खो चुकी है अपनी चेतना
अपनी शक्ति, अपना स्वाभिमान
और शासित है एकमात्र डंडे से चरवाहे की।
बन चुका है अब उसके नियति का अभिन्न अंग
डंडे के इशारे पर थिरकना।
चरवाहा अपनी कला में निपुण
सफलता की नित नई सीढ़ियाँ लाँघता
आश्वस्त,
अपने डंडे पर गर्वित।
चरवाहे की आस्था है समानता पर
इसीलिए
पराए फसल पर मुँह मारने वाले
सीधी राह चलने वाले
सींगों वाले और बिना सींग वाले
समान हैं सभी
समान रूप से गिरता है सबके पीठ पर
चरवाहे का एकमात्र वही करामाती डंडा
जिस पर उसकी आस्था है
समानता से अधिक।
डंडा,
चरवाहे की आस्था का प्रतीक
लहराता हुआ जिसके दूरस्थ सिरे पर
एक थका हुआ झंडा
जिसके बीचों-बीच घूम रहा है एक पहिया
समाजवाद का
जिसे रेवड़ न पढ़ सकता है
न समझ सकता है
केवल सह सकता है
बेढंगा समाजवादी डंडे की मार।
चरवाहा अब चरवाहा नहीं
स्वामी है रेवड़ का
समाजवादी डंडे के बल पर।
0
गाँव
यह गाँवों का देश है
देश तो आगे बढ़ गया
पर
गाँवों का रेंगना अभी शेष है।
गाँवों में आज तक तीन चीजें यथावत हैं
इस ओर सवर्णों का मुहल्ला
उस ओर दलितों का टोला
बीच में तालाब है
जिसमें उमड़ रही पीढ़ियों से
रूढ़ियों का सैलाब है।
गाँव की उम्र में से
कहने को तो आधी सदी गुजर गई है
पर समस्याएँ यथावत
यथास्थान रह गई हैं
गाँव देश का आँगन नहीं कोना है
सदियों से सूना-सूना है
बस!
एक यही तो रोना है
राजधानी रोशनी से नहाई हुई
यहाँ अँधेरों का बिछौना है।
0
सवाल
कुछ देर पहले वहां कुछ लोग जुटे थे
रोजमर्रा से त्रस्त
लगभग टूटे,
उखड़े खूंटे थे।
तभी शायद वहां कुछ अतिरिक्त घट गया था
जिसके भय से
मजमा छंट गया था।
परंतु
सारे, क्षण भर में ही
अपने सामान्य पर उतर आए थे
अपने जिगर और आपनी आत्मा का
कुछ हिस्सा कुतर आए थे।
सवाल पर अब भी शेष है
इस अतिरिक्त का कर्ता कौन है?
यद्यपि
वहां लोगों की बड़ी आवाजाही थी
पर अंधों और बहरों की गवाही थी।
0
भूखमापी यंत्र
गरीबी की रेखा हमने खींच ली
बहुत अच्छा हुआ
उन्हें उनकी औकात बताते-बताते
हमने अपनी औकात बता दी।
आओ!
पुण्य (न्यायसंगत) का एक काम और करें
एक भूखमापी यंत्र बनाएं
भूकम्पमापी,
तापमापी,
सी. टी. स्कैनर
या ऐसे ही अन्य यंत्रों की तरह
और पता करें कि -
किसकी भूख ज्यादा है?
या
ज्यादा खतरनाक है?
पगडंडी की या जनपथ की
गाँव की या राजधानी की
भोपाल-दिल्ली की या कालाहांडी की?
पता करने के लिए नितांत जरूरी है
एक भूखमापी यंत्र की।
0
भीड़ को तंत्र बनाइये
कविता को शास्त्र नहीं, शस्त्र बनाइये।
मरते हुओं के लिए एक बूंद रक्त बनाइये।
ठंड से ठिठुर कर भिखारी कोई न मरे,
तन ढंकने के लिए एक अदद वस्त्र बनाइये।
भीड़ को तंत्र बनाइये।
खुद को स्वतंत्र बनाइये।
रोटी को खिलौना नहीं,
जीने का मंत्र बनाइये।
0
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें