शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

अस्वभाविक कथानकों वाला कहानी संग्रह

                  
               



पुस्तक का नाम - जेठ की धूप (कहानी संग्रह)
कहानीकार - डाॅ. रामचंद्र यादव
प्रकाशक - वातायन, फ्रेजर रोड, पटना, 800001
पृष्ठ - 96
मूल्य - 100 रू.

’जेठ की धूप’ डाॅ. रामचंद्र यादव की कहानियों का संग्रह है, जिसमें 1986 (सात भर सोना) से लेकर अक्टूबर 2011 (गौरैया) तक की अवधि में लिखी उनकी चैबीस कहानियाँ संग्रहित हैं। पच्चीस वर्ष की इस लंबी अवधि में भी डाॅ. यादव की संग्रहित कहानियों की भाषा व शिल्प में किसी प्रकार का विकास नजर नहीं आता। एक कथाकार के रूप में यह उनकी विफलता है।

संग्रह की कहानियों को स्पष्टतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में उन दो तिहाई कहानियों को रखा जा सकता है जिनमें कहीं न कहीं, चाहे सेवानिवृत्त हो या कार्यरत, एक प्रोफेसर (या शिक्षक) अवश्य उपस्थित है, और जिसकी वजह से ये सभी कहानियाँ किसी एक ही कथानक का विस्तार प्रतीत होती हैं। प्रोफेसर समाज का बौद्धिक वर्ग होता है। किसी भी कहानी मंे इस वर्ग की उपस्थिति से पाठक एक गंभीर और वैचारिक कथानक की अपेक्षा करता है। ’अपनी रोटी’ कहानी की प्रोफेसर डाॅ. सरोज के अलावा पाठक की इस अपेक्षा को किसी और कहानी का दूसरा प्रोफेसर पूरा नहीं कर पाता। ’अपनी रोटी’ कहानी मंडल कमीशन के रिपोर्ट आने पर महाविद्यालयों में भड़की हिंसा पर आधारित है। कहानी के प्रोफेसरों के बौद्धिक दिवालियेपन की हद तो तब हो जाती है जब ’ढलते सूरज का दर्द’ कहानी के प्रोफेसर कल्पनाथ,, जिसकी प्रसिद्धि एक सुलझे हुए शिक्षक की है,, जिसके दो बड़े पुत्र भी प्रोफेसर हैं,, अपने तीसरे पुत्र कर्मशील की पढ़ाई और अपनी आर्थिक बदहाली को ठीक करने के लिये उसकी शादी किसी समृद्ध परिवार में करना चाहता है जिससे दहेज की रकम से समस्या का हल हो सके। एक सुलझे हुए प्रोफेसर की यह दकियानूसी सोंच अपनी विडंबना स्वयं प्रगट करती है। उनका तर्क देखिये - ’’...  ऊपर से जो चाहो मिलेगा। पैसे की तंगी समाप्त और उसकी पढ़ाई देश में क्या विदेश में भी हो सकती है।’’

संग्रह की अन्य कहानियों के प्रोफेसर भी ऐसे ही हैं।

इसके विपरीत दूसरे वर्ग में उन कहानियों को रखा जा सकता है जिनमें प्रोफेसर अनुपस्थित हैं। इस वर्ग की कहानियाँ अधिक प्रभावशाली और स्वभाविक बन पड़ी हैं। ’अलगू राम’, ’गंगिया बोल उठी’ ’परख’ ’चाक’ और ’मजबूरी की मजदूरी’ इसी वर्ग की कहानियाँ हैं जो बदलते आधुनिक भारतीय समाज के समक्ष आदर्श भी प्रस्तुत करते हैं और उसकी सच्चाई का बयान भी। ये कहानियाँ भारतीय समाज के शोषित और दमित वर्ग द्वारा, अपनी पीड़ा और उत्पीड़न से मुक्ति  के लिये, शोषकों के विरूद्ध उठ खड़े होने की कहानी है, जो किसी हद तक पाठक की बौद्धिक और वैचारिक विषय की मांग को भी पूरा करने में सक्षम हैं।

जिस प्रकार से रस, छंद और अलंकार पद्य की कला पक्ष के लिये आवश्यक हैं उसी प्रकार गद्य का कला पक्ष उसकी भाषा-शैली और संवाद से निखरता है। आलोच्य संग्रह के संवाद (कथोपकथन)   की भाषा न तो पात्रों के अनुकूल हैं और न ही प्रभावोत्पादक। ’जेठ की धूप’ कहानी के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा भारती के इस संवाद को देखिये - ’’सर! मुझे अब तक जानकारी नहीं थी कि शिक्षा पाना इस देश में  इतना कठिन है। मुझे क्या मालूम कि यहाँ दो तरह के स्कूल हैं। एक पैसे वालों के लिये और दूसरे आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर छात्रों के लिये। आजादी के पहले तो अंग्रेज कहा करते थे भारत वासियों के लिए कि ये उनके बोझ हैं, इन्हें ढोना असंभव है। लेकिन आज भी, जब हम गोरों के पशुवत व्यवहार से मुक्त हैं, हमारे देश में हमें बाबुओं से मुक्ति नहीं मिल पाई। सरकार तो स्कूल काॅलेज चलाती है, खर्च भी धन कुबेर की तरह करती है, लेकिन परिणाम शून्य के बराबर है। कहने को तो घंटी बजती है, टीचर वर्ग में आते हैं और फिर जाते हैं। सिर्फ खाना पूरी होती है, ऐसे स्कूलों में सुनती हूँ सिर्फ गरीब के नंगे-भूखे बच्चे ही जाते हैं। शायद इसलिये उनके प्रति शिक्षकों को कोई कर्तव्य बोध नहीं है।’’

’बस्ते का बोझ’ कहानी में आठ साल के आकाश का यह संवाद देखिये -

आकाश ने अपनी बात समेटते हुए दादा को यह कह कर चकित कर दिया - ’’लेकिन आज इस देश में मेरी तरह लाखों-करोड़ों बच्चे हैं जिनके लिए रोटी की समस्या है और वे इन कान्भेन्ट स्कूलों तक किसी भी सूरत में नहीं पहुँच पाते, लेकिन मेरी समझ में मोटी रकम देकर भी इन स्कूलों में सिर्फ बस्ते का बोझ ही ढोना पड़ता है। ये सुविधा संपन्न बच्चे क्या हमारे समाज के काम आयेंगे या अपनी संपन्नता के आतंक से देश-दुनिया में अशांति फैलायेंगे? मुझे तो लगता है झूठे ज्ञान का प्रभाव इन बच्चों को अज्ञानी ही बनायेगा लेकिन मैं तो सही मनुष्य ही बनना चाहता हूँ।’’

इस तरह के संवाद न सिर्फ कहानी के कथानक को अस्वाभाविक बनाते हैं, बल्कि कहानी के शिल्प में कृत्रिमता भी पैदा करते हैं। आठ साल के बच्चे का यह संवाद न सिर्फ दादा जी को बल्कि किसी भी  पाठक को चकित कर सकता है। संग्रह इसी तरह के अस्वभाविक संवादों से भरा पड़ा हैं।

’जेठ की धूप’ कहानी में जेठ के महीने में स्कूल लगना बताया गया है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, जेठ में हमारे देश में गर्मी की छुट्टियाँ चल रही होती हैं। आज देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हो चुका है और बच्चों को किसी भी तरह की सजा देना अपराध की श्रेणी में आता है। भारती को जेठ की धूप में दिन भर खडा रखने वाले शिक्षक को क्या यह पता नहीं है। इन बातों को यदि ध्यान रखा गया होता तो निसंदेह ये कहानियाँ श्रेष्ठ कहानियाँ हैं।

अब संग्रह की कहानियों की भाषा पर ध्यान दीजिये -

’सच्चो की माँ ने धीरे से उनके कान में फुसफुसाया।’ (जमानत) कान में क्या कोई जोर से भी फुसफुसाता है?

’अगर घर के बाहर मैं खेत में मजूरी के लिये न निकलूँ तो मेरे घर वाले तो भूखे ही पानी पीकर सो जायेंगे।’ (परख)
खेतों में मजूरी के लिये घर से बाहर तो निकलना ही पड़ेगा न। ’अगर मैं मजूरी के लिये न निकलूँ तो मेरे घर वाले भूखे ही सो जायेंगे।’ इतना लिखना क्या पर्याप्त नहीं होता?

इस तरह के भाषायी दोषों से भी संग्रह भरा पड़ा है। कथाकार द्वारा इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाना आश्चर्यजनक है।
इन सबके बावजूद संग्रह पठनीय है तथा ’अलगू राम’, ’गंगिया बोल उठी’ ’परख’ ’चाक’ और ’मजबूरी की मजदूरी’ जैसी कहानियाँ पाठक की संवेदना को छूने और जागृत करने में सक्षम हैं। पुस्तक की छपाई तो अच्छी है लेकिन बाइंडिंग कमजोर है।
000
कुबेर सिंह साहू  
व्याख्याता
शासकीय उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी
वार्ड 28, राजनांदगाँव, (छ.ग





कृति - मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा 

(छत्तीसगढ़ी गजल संग्रह)

शायर - मुकुंद कौशल
प्रकाशक - वैभव प्रकाशन, रायपुर
संस्करण - प्रथम, 2012
मूल्य - रू. 100/-

अध्यात्मिकता से प्रारंभ होकर, समकालीनता का निर्वहन करते हुए श्रृँगार को अंज़ाम देने वाले मुकुंद कौशल की ग़ज़ल संग्रह ’मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा’ की छत्तीसगढ़ी ग़ज़लों को पढ़कर मन में सुखद अनुभूति होती है।

काया के का गरब करत हस, जब तक चले चला ले,
एक्केदारी घुर जाही, ये काया हवै बतासा।
(ग़ज़ल क्र. - 1, पृ. 10)

धरे कांसड़ा ऊपर बइठे, तेकर ग़म ल का पाबे,
जिनगी के गाड़ा ल वो हर, कोन दिसा मा मोड़ दिही।
(ग़ज़ल क्र. - 5, पृ. 13)

ये गरीब के कुरिया संगी, वो दाऊ के बाड़ा है।
ये मन सूतै लांघन वोती, चाँऊर गाड़ा-गाड़ा हे।
इन्कर अँधियारी कुरिया के चिमनी घलो बुता जाथे,
उन पोगराए हें अँजोर ल, ये कइसन गुन्ताड़ा हे।
(ग़ज़ल क्र. - 21, पृ. 29)

बादर अइसन छाए लगिस।
सुरता उन्कर आए लगिस।
मन झूमे-नाचे कौशल,
माँदर कोन बजाए लगिस।
(ग़ज़ल क्र. - 48, पृ. 56)

यह सुखद अनुभूति उसी तरह की होती है, जैसे दुश्यंत कुमार की ’साये में धूप’ को पढ़कर होती है; अतः यहाँ पर ’साये में धूप’ की संक्षिप्त चर्चा जरूरी है।

गजल की ताकत और नफासत के विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। परंतु इतना तो तय लगता है और यहाँ ऐसा लगने में कोई अतिशयोक्ति भी नहीं होगी, कि इसे यह ताकत और नफासत उर्दू से मिलती है। उर्दू के अतिरिक्त दिगर भाषा से इसे ऐसी ताकत और नफासत मिलना मुश्किल है। यही वजह है कि ग़ज़ल ने जो ख्याति उर्दू में अर्जित किया है, अन्य भाषाओं में नहीं। इस कथन के विरोध में आप बेशक ’साये में धूप’ को सामने ला सकते हैं, परंतु ऐसा करने से पहले ’साये में धूप’ को पुनः पढ़कर देख लीजिये। और नहीं तो इसकी सबसे बेहतरीन और सर्वाधिक मक़बूल ग़ज़लों और शेरों को पढ़कर देख लीजिये। जैसे -

आज यह दीवार परदे की तरह हिलने लगी,
शर्त मगर यह थी कि बुनियाद हिलनी चाहिये।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं था,
मेरी कोशिश थी कि सूरत बदलनी चाहिये।

यहाँ दीवार, बुनियाद, मक़सद, और सूरत की जगह भित्ति, नींव, उद्देश्य और परिस्थिति जैसे शब्द रखकर देख लीजिये। हंगामा के बदले में तो कोई दूसरा शब्द सोचा भी नहीं जा सकता।

’साये में धूप’ को चाहें हम हिन्दी की गजल मानते रहें हैं, पर इसकी लोकप्रियता में हिन्दी का कोई बड़ा योगदान नहीं दिखता। इसकी लोकप्रियता इसकी विषयवस्तु और दुश्यन्त कुमार की शिल्पगत कुशलता में निहित है। आम आदमी अपने हक की जिन बातों को, या अपने मन के जिन आक्रोशों को व्यक्त नहीं कर पाता है; उन्हीं सारी बातों को शायर ने अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया है। ज़ाहिर है, संग्रह को पढ़ते वक्त आम पाठक स्वयं को, स्वयं के आक्रोश को, अभिव्यक्त करता हुआ महसूस करता है। इस संग्रह की ग़ज़लों में कही गई बातें उन्हंे अपनी ही बातें प्रतीत होती है। इस तरह दुश्यन्त कुमार ने ’साये में धूप’ के माध्यम से जानता की आवाज को ही बुलंद किया है और यही बात इस संग्रह की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है।

विषयवस्तु के स्तर पर यही बात मुकुंद कौशल की छत्तीसगढ़ी में लिखी ’मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा’ की ग़ज़लों पर भी लागू होती है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद; इसके लिये, और यहाँ की सवा दो करोड़ जनता के लिये, ’अमीर धरती के गरीब लोग’ उक्ति प्रचलित हुई।  इस उक्ति ने छत्तीसगढ़ का किसी तरह भला किया होगा, इसमें संदेह है। छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना एक आदिवासी राज्य के रूप में की गई थी। यहाँ आदिवासियों और पिछड़ों की संख्या लगभग बराबर है।  अनुसूचित जातियों की भी बड़ी संख्या यहाँ निवास करती है। जाहिर है, शुरू से ही यहाँ की जनता आर्थिक, शैक्षिक और धार्मिक शोषण का शिकार होती रही है। आजादी के बाद भी यही सूरत बनी रही। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कुछ उम्मादें जगी थी, परन्तु गैर छत्तीसगढ़ियों के द्वारा आज इस अमीर धरती के अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों, जिन्हें यहाँ के लोग बड़े जतन से, सहेजकर रखे हुए थे, को लूटने की होड़ मची हुई है। इन्हीं विषयों को, इन्हीं सारी बातों को, मुकुंद कौशल ने बड़ी खूबी और धारदार तरीके से अपनी ग़ज़लों का विषय बनाया है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है -

राज बनिस ते राज करे बर, बाहिर ले मनखे आवत हें,
हम मर-मरके चूल्हा फूँकेन, चुरे-पके म सगा हबर गे।
साहेब, बाबू, नेता जुरमिल, नाली-पुलिया तक खा डारिन,
गरूवा मन बर काहीं नइये, मनखें सब्बो चारा चरगें।
(ग़ज़ल क्र. - 18, पृ. 26)

भुँइया महतारी के जेमन, खुद ला समझिन मालिक,
आज उही मन हो गे हावैं, अपने घर मा दासा।
का गोठियावौं कौसल मैं हर, भुँइया के दुख पीरा,
भूख मरत हे खेती अउ, तरिया मरे पियासा।
(ग़ज़ल क्र. - 2, पृ. 10)

बने फायदा हावै संगी, राजनीति बैपार मा।
इही पाय के सबो झपाथें, ये पूरा के धार मा।।
ये कइसन सरकार हवै, का अइसन ल सरकार कथैं?
हमरे बिजली बेच के हमला, राखत हें अँधियार मा। 
(ग़ज़ल क्र. - 4, पृ. 12)

यहाँ कहना न होगा कि राजनीति की बाढ़ में झपाने वाले लोग कौन हैं और कहाँ के हैं। बिजली निश्चित ही यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों और समृद्धि का प्रतीक है।

छत्तीसगढ़ बनने के बाद छत्तीसगढ़ियों का सपना किस कदर चूर-चूर हुआ है, यह शेर उसी की बानगी प्रस्तुत करता है, -

सुने रेहे हन छत्तीसगढ़ म, सूरूज नवा अवइया है,
खोजौ वो सपना के सूरूज, कोन दिसा म अटक गइस।
(ग़ज़ल क्र. - 20, पृ. 28)

पूरी तरह छत्तीसगढ़ी में लिखी गई मुकुंद कौशल के इस ग़ज़ल संग्रह ने छत्तीसगढ़ी भाषा के सामथ्र्य को भी स्थापित किया है। संप्रेषणीयता की ताकत और नफासत के मामले में मुकुंद कौशल की ये छत्तीसगढ़ी ग़ज़लें उर्दू गजलों से किसी भी माने में कम नहीं है। इस मामले में छत्तीसगढ़ी भाषा हिन्दी से बीस ही साबित हुई हैं। हाना छत्तीसगढ़ी भाषा की जान है। संग्रहीत ग़ज़लों में न सिर्फ हाना का स्वभाविक प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी सम्प्रेषणीयता बढ़ी हैं, अपितु शायर ने ऐसे नये-नये प्रतीकों और उपमानों का प्रयोग किया है, जिससे पाठक चमत्कृत हुए बिना नहीं रहता।

चिमटत हावै जूड़ हवा,
अगहन बइठे पाँव पसार।
संझा बेरा सूरूज ल,
खांद म बोहे चलिन कहार।
(ग़ज़ल क्र. - 47, पृ. 55)

जब देखौ तब गावत रहिथे,
पुरवाही त हवै भजनही।
डहर रेंगइया संसो झनकर,
पाँव रहत ले सौ ठन पनही।
(ग़ज़ल क्र. - 37, पृ. 45)

इसमें कोई संदेह नहीं है कि -
कौसल के संदेश लिखाए, मया-दया के पाती ल,
मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा, गाँव-गली अमरावत हे।
(ग़ज़ल क्र. - 42, पृ. 50)

लेकिन लगता है कि शायर को छत्तीसगढ़ी संस्कृति का पूर्ण ज्ञान नहीं है। अपने पहले ग़ज़ल संग्रह में उन्होंने बैल को सोहई पहनाया था -

पीरा कांछन चघे, साँट लेवय जिनगी के मातर मां,
सुख संग दुख के बइला ल, तैं घलो सुहई पहिराए कर।
(छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल, द्वितीय संस्करण, पृ. 29)

इसी तरह की अक्षम्य गलतियाँ मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा में भी हुई हैं।

आँखीं फारे सबके आगू जे हर जादा अँइठे ते,
एक चरू दारू ला पीके, घेरी-बेरी गोड़ धरै।
(ग़ज़ल क्र. - 8, पृ. 16)

यहाँ चरू में दारू पीने की न तो परंपरा है और न ही चरू का उपयोग किसी पैमाने के लिये ही किया जाता है। इसका उपयोग मांगलिक कार्यों में किया जाता है।

जुच्छा चूरी होगे जब ले, एक बनिहारिन मोटियारी,
(ग़ज़ल क्र. - 9, पृ. 17)

यहाँ जुच्छा चूरी कहने की परंपरा नहीं है; अपितु जुच्छा हाथ, या खाली हाथ ही कहा जाता है।
कांड़ बंधाये डोरी धर के ढेंकी म उत्ता-धुर्रा, 

ओरम-ओरम के अपन धान ल छरिन तहाँ ले भगवान।
(ग़ज़ल क्र. - 3, पृ. 11)

ढेंकी में धान कूटने वाले कार्य कुशलता और सहारे के लिये डोरी को मयार में बाँधते हैं, कांड़ में नहीं। इसी तरह धान को कूटा जाता है, छरा नही जाता। छरना क्रिया मेरखू, चाँवल या दाल के लिये किया जाता है। छरना का अर्थ होता है, पाॅलिश करना।

खरही ल राखे रहिथे रखवार असन,
ब्यारा के रूँधना ला राचर कहिथें।
(ग़ज़ल क्र. - 8, पृ. 16)

रूँधना और राचर, दानों ही अलग-अलग चीजें है। रूँधना को कहीं भी राचर नहीं कहा जाता।

शायर से ये गलतियाँ चाहे अनजाने में हुई हों, पर भविष्य में ये गलतियाँ छत्तीसगढ़ की संस्कृति की गलत जानकारियाँ प्रस्तुत करेंगी। इस तरह की गलत जानकारी देने के लिये किसी भी लेखक या कवि को कभी माफ नहीं किया जाना चाहिये।
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कुबेर सिंह साहू  
व्याख्याता
शासकीय उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी
वार्ड 28, राजनांदगाँव, (छ.ग)
Mo 9407685557





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