कहानी
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कथाकार - कुबेर
जन्मतिथि - 16 जून 1956
प्रकाशित कृतियाँ
1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003जन्मतिथि - 16 जून 1956
प्रकाशित कृतियाँ
2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009
3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010
4 - कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011
5 - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्तीसगढ़ी लोककथाओं का संग्रह) 2013
प्रकाशन की प्रक्रिया में
1 - माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह)
2 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)
संपादित कृतियाँ
1 - साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010
2 - शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ’नव-बिहान’ 2010, 2011
पता
ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन - 491441
मो. - 94076 85557
Email - kubersinghsahu@gmail.com
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दादी! रियली, आप बहुत गंदी हो
दादी के हाथ से चाय का प्याला लेते हुए और बहुत इत्मिनान से दादी की जवानी को निहारते हुए, साथ ही साथ करीने से सजी हुई हाॅल के चारों ओर नजर घुमाते हुए सविता मेम ने दादी की प्रसंशा की - ’दादी ! आपको देखकर; आपके घर की अनुशासन, साफ-सफाई और व्यवस्था को देखकर किसे ईष्र्या नहीं होती होगी ? ..... भई ! चाहे औरों को हो, न हो, मुझे तो होती है। हर सामान अपनी जगह पर करीने से रखा हुआ और सजा हुआ है; चाहे किचन में हो, चाहे बेडरूम में हो, चाहे हाॅल में हो, किसी भी सामान को ढूँढने की जरूरत नही पड़ती होगी; हाथ बढ़ाओ और सामान हाथ में।’
’नो ! सविता मेम जी, ईष्र्या नहीं; ये सब तो अपनी-अपनी आदतें हैं, अपना-अपना तहजीब है, रहने और जीने का ढंग है; और यदि किसी की कोई बात अच्छी लगे तो उससे सीखना चाहिए, न कि ईष्र्या करनी चाहिए। समझ रही हैं न आप। आप अपने चारों ओर नेचर में झांक कर देखिये, उसके अनुशासन और उसकी तरतीबियती पर गौर कीजिये, आप हैरान रह जायेंगी। नेचर में हर चीज अपने-अपने नियमों का, तरतीबियती का, और डिसीप्लीन का पालन करते हुए नजर आयेगी। और यदि हम भी ऐसा करते हैं तो हम नेचर को ही सपोर्ट करते हैं न? और रह गई मुझसे ईष्र्या की बात, तो भाई! ये बात कुछ हजम नहीं हुई।’
हजम तो सविता मेम को नहीं हुआ, न तो दादी का यह उपदेश और न ही इस बेवा-बुढ़िया का, टीन एजर्स की तरह हमेशा सज-धज कर जवान दिखने और मटकते रहने की आदत। अपनी बला से; पर पड़ोसी-धर्म निभाना भी तो जरूरी है। कालोनी में घरों के अंदर, परदांे, के पीछे बीते चैबीस घंटों के दरमियान क्या कुछ घटता है, यह जानना भी तो जरूरी है, लिहाजा खुशामद करने की हद तक विनम्र होते हुए सविता मेम ने कहा - ’आप ठीक कहती हैं दादी, बिलकुल ठीक कहती हैं। क्या आपको नहीं लगता कि तहजीब और डिसीप्लीन की बहुत सारी बातें मैंने आप ही से सीखी है? पर सच मानिए अपनी उम्र से अभी भी आप, कम से कम बीस साल तो जरूर कम ही लगती हैं; इसका राज मैं अभी तक समझ नहीं पाई। ईष्र्या तो होगी ही न?’
जवाब में दादी ने जोरों का ठहाका लगाया और काफी देर तक लगातार हँसती रहीं। हँसते हुए वे बिलकुल युवतियों की तरह शरमा भी रहीं थी। शरम के मारे उसका गेहुँआ चेहरा कानों तक लाल हो गया था, और इस उम्र में भी भरी हुई और कसी हुई उनकी छातियाँ गाऊन के भीतर बुरी तरह उछल रही थी, जैसे चोली के अंदर कैद होकर रहना उन्हें पसंद न हो। दादी का यह रूप देखकर सविता मेम को, जिनकी छातियाँ तीस की अवस्था में ही आम के चूसे हुए छिलकों की तरह रसहीन हो चुके थे, सचमुच ईष्र्या होने लगी थीं। संयत होकर दादी ने ही बात आगे बढ़ाया - ’सविता मेम, आप भी बहुत मजेदार औरत हैं। मैं जानती हूँ, अच्छी तरह जानती हूँ कि कालोनी की सारी औरतें हमेशा, मेरे बनने-संवरने की काफी आलोचना करती हैं, और यह भी कि आप भी उन्हीं औरतों की ओर खड़ी हुई हैं। एम आई राईट?’
’अब तो आप ज्यादती कर रही हैं दादी। मजाक करने की सचमुच आप में गजब की सेंस है।’
’ओ. के. , सविता मेम जी ! मैं तो पुनर्जन्म की बातों को कोरा बकवास मानती हूँ , वर्तमान ही सच है। ईश्वर ने जिन्दगी दी है जीने के लिए, उत्सव मनाने के लिए; मनहूस सूरत बनाकर रोने-धोने और पास्ट-प्रेजेंट की शिकायत करते हुए जिन्दगी तमाम करने के लिए नहीं। उम्रदराज लोगों और विधवाओं को अच्छे लिबास नहीं पहनने चाहिए, मेकअप नहीं करने चाहिए, ऐसा कहने वाले साफिस्टीकेट लोगों से मुझे सख्त घृणा होती है। ये सब बातें मैं तो नहीं मानती। सब दकियानूसी बातें हैं। मैं तो कहती हूँ कि चेहरे से हमेशा जिन्दादिली, और एजाइलनेस टपकनी चाहिए। ... यही बातें मैं बेबी से भी कहा करती हूँ कि आपकी परर्सनैलिटी से झलकनी चाहिए कि यू आर अ सक्सैस परसन। एमन्ट आई राईट, मेम?’
’बिलकुल ठीक फरमाती हैं दादी आप। पर आज बेबी कहीं दिख नहीं रही हैं। और हाँ, जिस काम के लिए यहाँ आई थी, वह तो बिलकुल ही भूले जा रही हूँ मैं। आपने बेबी के लिए ट्यूटर ढूँढने के लिए कहा था, तीन-चार अच्छे लोगों के बारे में मैंने पता किया है। आपने किसी को तय तो नहीं किया है न?’
’थैंक गाॅड ! अगर ऐसा है तो आप नहीं जानती कि आपने मुझ पर कितना बड़ा अहसान किया है।’
’पर आपने यह नहीं बताया था कि किस प्रकार का टृयूटर चाहिए; लेडीस या जेंट्स।’
’आफकोर्स जेंट्स सविता मेम, ओनली जेंट्स।’
’पर बेबी जैसी किशोरी के लिए मैं तो आपको लेडी ट्यूटर की ही सलाह दूँगी दादी। यही तो उम्र होती है जब लड़कियाँ अक्सर बहक जाया करती हैं।’
’आई डोंट थिंक सो मेम। लेडी टुयूटर! नो, नेभर। इन कमजाद औरतों को मैं अच्छी तरह जानती हूँ। कमसिन लड़कियों को बहलाने और बिगाड़ने के मामलों में ये पुरूषों से मीलों आगे रहती हैं। सच मानो आप, लड़कियाँ जब तक खुद न चाहें, उनके अंगों को, खासकर कोमल और गुप्त अंगों को स्पर्श करने की, कोई भी पुरूष हिम्मत नहीं कर सकता। पर महिलाएँ? अपना महिला होने का फायदा उठाकर वे ऐसा बहुत आसानी से कर जाती हैं। समझी आप?’
’ओह, तो ये बात है?’
’दूसरी बात, इन कमबख्तों को घर जाने की बड़ी जल्दी रहती है। किसी को खाना बनाना होता है, किसी का बच्चा घर में अकेला पड़ा होता है, बच्चे को स्कूल के लिए तैयार करना होता है या फिर देर हो जाने पर पति से पिटने का भय रहता है।’
’आप बिलकुल ठीक कहती हैं दादी, पर हमारे भारतीय समाज में महिलाओं के लिए सबसे बड़ी मजबूरी भी तो यही है न।’
’और फिर पर्सनैलिटी में जिस एजाइलनेस की बात मैं अभी-अभी कर रही थी, वह इन लोगों में होता भी है?’
’क्यों नहीं हो सकता?’
’चलिए, ऐसा कोई मिल भी जाय; पर क्या बेबी उसे बर्दास्त कर पायेगी? सच कहती हूँ मेम, जितना इगो बेबी में है, उतना मैंने और किसी लड़की में नहीं देखा। सुंदरता के मामले में हो, इंटेलिजेंसीं के बारे में हो, फ्रैंकनेस के बारे में हो या एजाइलनेस के बारे में ही क्यों न हो, बेबी अपने से ऊपर किसी को बर्दास्त कर ही नहीं पाती। इसीलिए कहती हूँ मेम कि मुझे बेबी के लिए केवल और केवल जेंट्स ट्यूटर चाहिए। एम आई राईट मेम?’
’राईट, दादी परन्तु, मैं फिर भी जेंट्स ट्यूटर के पक्ष में नहीं हूँ । आप सही कहती हैं, जब तक औरत न चाहे, किसी भी मर्द में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह उसका स्पर्श कर सके। पर क्या यह भी सच नहीं है कि लड़कियों में, बेबी की ही तरह की चैदह-पंद्रह साल की अवस्था वाली लड़कियों में पुरूषों के प्रति आकर्षण सबसे अधिक होता है और पुरूषों को अपना शरीर सौंप देने की इच्छा भी सबसे प्रबल इसी उम्र में होती है?’
’बट मेम, बेबी भी तो नहीं चाहती न लेडी ट्यूटर।’
’यदि ऐसा ही है और जेंट्स ट्यूटर ही रखना है, तब तो ट्यूटर जरूर कोई उम्रदराज और रिटायर्ड आदमी होना चाहिए।’
’नो, नो मेम, मुझे, और बेबी को भी हताश-निराश और उदास लोग बिलकुल पसंद नहीं हैं। बच्चे जितना किताबों से सीखते हैं, उतना ही अपने टीचर के व्यक्तित्व से भी सीखते हैं। रह गई बहकने-बहकाने की बात, सेक्स के मामले में तो सारे मर्द एक जैसे ही होते हैं, उम्र चाहे जो हो। बल्कि बूढ़े लोगों से ही ज्यादा असुरक्षा रहती है। और मेम ध्यान रहे अच्छा टीचर वही होता है जो बच्चे को पूरी तरह कनविंस कर सके। और हाँ, आपने बेबी के बारे में पूछा था, इस समय वह अपनी सहेली से मिलने गई है, बस आती ही होगी।’
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बात तय हो गई। तय हुआ ट्यूटर बिलकुल वैसा ही है जैसा दादी चाहती थी, पचीस़-तीस का नौजवान, एजाइल, एनर्जेटिक, और गुडलुकिंग। आज से वह काम शुरू करने वाला है। समय तय हुआ है सुबह आठ से दस। दस बजे बेबी का स्कूल बस आता है। दादी ने बेबी को पहले ही तैयार कर दिया है, और अब वह खुद ड्रेसिंग टेबल पर जमी हुई हैं।
बेबी को आश्चर्य हुआ, पूछा - ’दादी, आप कहीं बाहर जा रही हैं?’
’नो।’
’फिर मेकअप क्यों कर रही हैं?’
’लड़कियों को हमेशा सभ्य, साफ-सुथरी और सलीके से रहना चाहिये, नहीं?’
’पर आप तो औरत हैं।’
’हर औरत पहले लड़की ही होती है। तुम क्या समझती हो, तुम कभी औरत नहीं बनोगी?’
’कैसे बनती है लड़कियाँ औरत?’
’जब शादी होगी, सब समझ जाओगी।’
’शादी होने से लड़कियाँ औरत बन जाती हैं?’
’शादी होगी, तुम्हारा हसबैंड तुम्हें अपने साथ ले जायेगा, तुम्हारे साथ सुहागरात मनायेगा और तुम औरत बन जाओगी।’
’कैसे?’
’अब बस भी करो, तुम्हारा टुयूटर आता ही होगा।’
’बताइये न, कैसे? आपके हसबैंड ने भी, आई मीन दादा जी ने भी आपके साथ सुहागरात मनाया था?’
’बहुत बदतमीज हो गई हो?’
बेबी ने मचलते हुए कहा - ’बताइये न?’
अब तो दादी भी रंग में आ गई। सोफे पर बैठ कर उन्होंने बेबी को गोद में ले लिया और कहा - ’ऐसे। रात कमरे में केवल तुम होगी और तुम्हरा पति होगा। वह तुम्हें अपनी गोद में बिठा लेगा, ठीक इसी तरह। फिर गुलाब की पंखुड़ियो के समान तुम्हारे इन गुलाबी-गुलाबी होठों पर अपना होंठ रख देगा, सिर्फ होठों को ही नहीं, वह तो तुम्हारे जीभ को भी चूसने लगेगा; ऐसे।
इसके बाद सुहाग रात में और क्या-क्या घटती हैं, बेबी को सारी बातें समझा दी दादी ने ’
’’नो, मैं उन्हें ऐसा नहीं करने दूँगी, हरगिज नहीं करने दूँगी।’
’पागल लड़की, जब तुम्हें भूख लगती है, खाने से खुद को रोक सकती हो क्या? नहीं न? यह भी तो एक भूख है; ऐसी भूख जिससे कोई बच नहीं सकता। और इसी में तो जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी, दुनिया के सबसे बड़े सुख का राज छिपा होता है। पर हाँ, ध्यान रहे, ऐसा सिर्फ और सिर्फ शादी के बाद; केवल अपने पति के साथ ही होना चाहिए। हिन्दुस्तानी लड़कियाँ अपना जिस्म केवल और केवल अपने पति को ही सौंपती है। एम आई राईट।’
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एक दिन की बात है, किसी कारणवश स्कूल नहीं लग पाया और बेबी को तुरंत लौट आना पड़ा। रास्ते में सारा समय वह प्लानिंग करती रही कि दादी को सरपराइज देने के लिए किस प्रकार दबे पाँव घर में प्रवष्टि होना है और कुछ ऐसा करना है कि दादी को हमेशा याद रहे।
पर सरपराइज होने की बारी तो अभी बेबी की थी। मेन गेट अंदर से बंद था, सो तो ठीक है, हो सकता है दादी सो रही हों, हालाकि अभी उनके सोने का वक्त हुआ नहीं है। पर ट्यूटर महोदय के जूते अभी तक यहाँ कैसे? बेबी के मन में सवालों और शंकाओं का बवंडर चलने लगे। अपनी चाबी से गेट का ताला खोलकर वह भीतर आई, अमूमन जिस सोफे पर बैठकर वह टी. व्ही. देखा करती हैं वह भी खाली पड़ी थी। किचन भी सूना था। मम्मी-पाप का बेडरूम, उनके जाने के बाद से ही हमेशा बंद रहता है; केवल साफ-सफाई के लिए दिन में एक बार सुबह खुलता है, और जहाँ अभी भी बाहर से ताला लटक रहा था। तो क्या दादी अपने बेडरूम में होंगी? ट्यूटर महोदय कहाँ होंगे? उन्होंने चुपके से दरवाजे को पुश करके देखा, नहीं खुला। की होल से कान लगाकर उन्होंने भीतर की आवाज सुनने का प्रयास किया। अजीब तरह की आवाजें आ रही थी। पर जाहिर था, ये आवाजें उन्हीं दोनों की थी। की होल में चाबी नहीं लगी थी, उन्होंने की होल से वही सारा दृश्य देखा जिसका वर्णन दो माह पहले ट्यूटर के आने से पहले दादी ने किया था। वह सोचने लगी - तो क्या दादी दोबारा औरत बन रही हैं?
हिन्दुस्तान की लड़कियाँ अपना जिस्म केवल और केवल अपने पति को ही सौंपती हैं, यही तो कहा था उसने, पर यह तो ट्यूटर है।
सवालों के दबाव में बेबी का दिमाग हैंग होने लगा। उसके अपरिपक्व मन ने कहा - कुछ भी हो, बेडरूम के भीतर जो भी हो रहा है, गलत हो रहा है।
बेबी चुपचाप सोफे पर पसर गई। उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, आँखें मुँदी हुई थी। मुँदी हुई आँखों में भी वही दृश्य चल रहा था जिसे अभी-अभी उसने की-होल से देखा था। दृश्य बदला। इस दृश्य में अब दादी नहीं हैं। दादी की जगह खुद बेबी आ गई हैं।
कुछ देर बाद दरवाजा खुला। वे दोनों बाहर आये। सोफे पर बेबी को देखकर दोनों की चीखें निकलते-निकलते बची। ट्यूटर महोदय ने अपनी राह ली। दादी अपराधियों की तरह चुपचाप खड़ी रहीं। बेबी ने मुँह बिचकाया और ड्रेस चेंज करने अपने कमरे में चली गई। उनकी आँखों में घृणा के भाव साफ-साफ झलक रहे थे।
बेबी का मन अब यहाँ बैठने को नहीं कर रहा था। वह बाहर जाने लगी। दादी ने पूछा - ’क्या हुआ?’
’मैंने सब देख लिया है। आप बहुत गंदी हो। मैं सविता आँटी से मिलने जा रही हूँ।’ बेबी ने कहा और तेजी से बाहर चली गई।
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दादी के चेहरे का रंग उड़ चुका था। जिन्दादिली, और एजाइलनेस की जगह वहाँ अब केवल क्षोभ और चिंता की मोटी परतें ही नजर आ रही थी। यह कि जाकर बेबी सविता आँटी को जरूर सारी बातें बता देंगी और देखते ही देखते बात पूरी कालोनी में फैल जायेगी।
उनकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। इस अंधेरे में जो दृश्य उभर रहे थे वे बड़े भयावह थे। कालोनी की सारी औरतें जुटी हुई थी और उसके प्रति लानतें भेज रही थी और सारे मर्द उसे भोगने की नीयत से ललचाई आँखों से लगातार घूरे जा रहे थे।
इन हालातों का क्या वह सामना कर पायेंगी?
दादी के मन ने कहा - करना तो पड़ेगा।
दूसरी सुबह ट्यूटर के आने से पहले ही दादी ने बेबी से यह कहकर कि वह दस बजे के बाद ही लौट पायेंगी, बाहर चली गई।
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दस बजे से बहुत पहले ही ट्यूटर महोदय स्टडी रूम से निकल आये। बाहर हाल में सोफे पर दादी बैठी हुई दिखी। दोनों की निगाहें मिली। निगाहों-निगाहों में ही कुछ बातें हुई, फिर वह चला गया।
दादी ने स्टडी रूम में जाकर देखा। बेबी अर्धनग्न हालत में डरी-सहमी बेड पर बैठी हुई है। उसके अंतर्वस्त्र और बेड रक्त से सने हुए हैं। वह दादी से नजरें नहीं मिला पा रही है।
दादी कुछ देर तक बेबी के चेहरे को निहारती रही और फिर एकाएक उसके चेहरे पर मुस्काने तैरने लगी।
बेबी का सहमा हुआ चेहरा भी अब खिल उठा। दादी से लिपटते हुए बेसाख्ता उसके मुँह से निकल पड़ा - ’रियली, आप बहुत गंदी हो।’
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कुबेर
भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
मो. 9407685557
भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
मो. 9407685557
सावन का अंधा
चाहे कुछ भी हो, कितना भी जरूरी काम निकल आए, प्रत्येक रविवार को वसु अपने दोस्तों से मिलने जरूर जाता है। उन मित्रों से, जिनका हृदय इतना विशाल और इतना उदार होता है कि सारी दुनिया उसमें समा जाय और जो फिर भी न भरे; दुनिया के पवित्रतम वस्तुओं से भी पवित्र, जिनसे मिलता है सच्चा प्यार और निःश्छल व्यवहार। ऐसे मित्रों से मिलने भला किसका मन आतुर न होता होगा?
आदत अनुसार उन्होंने अपनी बाइक उस दुकान के पास रोक दी जहाँ से वह हमेशा अपने मित्रों के लिए उपहार खरीदा करता है। दुकानदार मानो वसु की ही प्रतीक्षा कर रहा हो, दूर से ही उन्होंने वसु का जोशीला अभिवादन किया। मुस्कुराते हुए कहा ’’अहा! वसु जी आइये-आइये; आपको देखते ही पता नहीं क्यों, मन में एक विशेष उत्साह का संचार हो जाता है। मैंने आपका सामान पहले ही निकाल कर रख दिया है। चेक कर लीजिये, फिर मैं पैक कर देता हूँ। वसु ने भी दुकानदार से उसी मुस्कुराहट और उसी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।
धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उन्होंने सामानों की ओर देखा। हिसाब लगाया, प्रफुल्ल और प्रतीक को जो चाॅकलेट पसंद है, वह है। श्वाति और शुभ्रा की भी पसंदीदा चाॅकलेट रखा गया है। श्वाति और शुभ्रा का खयाल आते ही उन दोनों का चेहरा वसु की आँखों में उतर आया। पिछली बार विदा लेते समय उन दोनों ते बड़े भोले पन से मनुहार किया था - ’’वसु अंकल, अगले रविवार को क्या आप चाॅकलेट के बदले हमारे लिये गुड़िया ला देंगे?’’
ऐसे मनुहार पर तो दुनिया भी न्योछावर किया जा सकता है।
जब एक-एक पल की प्रतीक्षा पहाड़ के समान बोझिल और मन को तोड़ कर किसी दृढ विश्वासी व्यक्ति को भी निराशा के गर्त की ओर ढकेलने वाला होता है, पता नहीं प्रतीक्षा का एक सप्ताह उन बच्चियों ने कैसे बिताया होगा? सोच कर वसु का मन वेदना से भर गया। मन की वेदना को हृदय की स्वभावगत तरलता से नम करते हुए वसु ने कहा - ’’सेठ जी, दो बार्बी डाॅल भी रख दीजिये।’’
वसु ने सामानों को फिर चेक किया। बाकी बच्चों के लिए भी टाॅफियों का एक डिब्बा रखा हुआ है।
और रोहित के लिये?
रोहित सबसे अलग, सबसे ज्यादा मासूम और सबसे ज्यादा प्यारा बच्चा है। न तो कभी वह खिलौनों के लिए जिद्द करता है, और न मिठाइयों के लिए। उसे तो बस बाइक की सवारी चाहिये। वसु अंकल के पीछे बाइक पर बैठ कर परिसर का चक्कर लगाना उसका प्रिय शगल है।
रोहित सबसे अलग है इसलिये उसका गिफ्ट भी सबसे अलग होना चाहिये।
और आकाश?
सबसे छोट, सबसे प्यारा और सबका प्यारा आकाश। बाकी बच्चे तो केवल देखने में ही अक्षम हैं, पर आकाश?
आकाश चाहे देख न सकता हो, बोल न सकता हो, चल फिर भी न सकता हो, पर समझता तो सब कुछ है न? आँ.... करके और अपनी नन्हीं-नन्हीं ऊँगलियों को नचा-नचा कर अपनी बातें साफ-साफ कह तो सकता है न? वसु उसके इशारों को और उसके मन की एक-एक बात को अच्छी तरह से समझता है। वसु को संतोष हुआ, सामानों की इस छोटी सी ढेर में उसका भी पसंदीदा सामान है।
वसु ने अपनी जेब को टटोल कर देखा; वह लिफाफा भी सही सलामत मौजूद है, जिसमें उसने रोहित के लिये प्यारी सी एक कविता लिख कर रखा हुआ है। हाँ, रोहित के लिये, उसके जन्म दिन की बधाई की कविता, ब्रेल लिपि में।
वसु ने इत्मिनान की साँस ली।
सामानों को पैक करते हुए दुकानदार ने पूछा - ’’आज जल्दी जा रहे हैं आप?’’
वसु - ’’हाँ, मैं चाहता हूँ कि आज वहाँ होने वाले फंक्शन से पहले ही मैं अपने मित्रों से मिल आऊँ।’’
’’फंक्शन?’’
’’हाँ, आपको पता नहीं , शुलभा जी का आज वहाँ सम्मान हो रहा है?’’
’’अच्छा, शहर क्लब का चेयर परसन, नगर सेठ की पत्नी, जिसे हाल ही में समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, वही शुलभा जी न?’’
हाँ वही, अँधों में काना राजा। जिनके पति जिले भर के शराब ठेकों का मालिक है; और अनाथ, निःशक्त बच्चों की इस संस्था को, और इस तरह की अन्य संस्थाओं को भी, हमेशा लाखों रूपयों का दान दिया करता है। इसी से शायद कहावत बनी होगी; गऊ मार कर जूता दान।’’
’’क्यों क्या हुआ? शुलभा जी तो बराबर उन निशक्त बच्चों के बीच जाती रहती हैं। अखबारों में भी तो खूब छपता है।’’
’’सेवा करने के लिये नहीं भाई साहब, केवल फोटो खिंचवाने के लिये; जिन्हें अखबारों में छपवाकर वाहवाही लूटी जा सके, और जिसकी एवज में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया जा सके। आप क्या समछते हैं, वह उन बच्चों से प्यार करती है?’’
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जितनी अधीरता बच्चों से मिलने के लिये वसु के मन में रहता है, उससे कहीं ज्यादा अधीरता बच्चों के मन रहता है, वसु से मिलने के लिये। यद्यपि सारे बच्चे नेत्रहीन हैं, पर वसु की उपस्थिति को पता नहीं वे कैसे भांप जाते हैं? इस रहस्य को वसु अब तक नहीं समझ सका है। विचारों में इसी गुत्थी को सुलझााने का प्रयास करता हुआ वह असक्त विद्यालय की ओर जाने वाले मार्ग पर अपनी बाइक सरपट भगाए जा रहा है।
वसु सोच रहा था; यह दुनिया, जो इन बच्चों को और इन जैसे लोगों को असक्त, अपाहिज या विकलांग कहकर इनका तिरस्कार करती है, उपहास उड़ाती है, और दया की दृष्टि से देखती है, वह कितनी स्वस्थ है? क्या मिलता है इन बच्चों को इस दुनिया और इस समाज से, अपमान और घृणा के सिवाय? ईष्र्या, द्वेष, छल-प्रपंच, और दूसरों को हीन समझने वाली दुनिया के पास जो कुछ भी होता है; चाहे ममता, करूणा और प्रेम ही क्यों न हो, सब कुछ दिखावे के लिये ही तो होता है। दुनिया अगर इनके प्रति सेवा-भाव, ममता करूणा और प्रेम दिखाती भी है तो केवल अपना स्वार्थ साधने के लिये ही तो। और आखिर शुलभा भी तो इसी समाज का अंग है; इसी दुनिया में रहती है और खुद को सवस्थ-संपूर्णांग समझती हैं।
सोचते-सोचते वसु के मन में स्वार्थ और यश लोलुपता के आवरण में छिपा शुलभा देवी का चित्र और चरित्र, दोनों उभर आया।
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लगभग छः महीने पहले की घटना है; अगस्त का महीना था, संस्था में पौधारोपण का कार्यक्रम रखा गया था। कार्यक्रम का चीफ गेस्ट नगर की सुप्रसिद्ध समाज सेविका और शहर क्लब की चेयर परसन शुलभा जी थी। सप्ताह भर पहले से ही कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था। क्यों न हो, शुलभा जी के साथ नगर क्लब की तमाम पदाधिकारी, उनकी सहेलियाँ भी तो आ रहीं थी।
पौधारोपण का कार्यक्रम प्रातः दस बजे तय किया गया था। शुलभा जी की कृपा से एक दिन पहले ही रोपणी के पौधे आ चुके थे, और उन्हें रोपने के लिये संस्था परिसर में गड्ढे भी खोदे जा चुके थे। नहीं आई थी तों बस शुलभा जी और उसकी फौज।
बेहद प्रतीक्षा के बाद शुलभा जी का काफिला आया। प्राचार्य महोदय की सक्रियता देखते ही बनती थी। शुलभा जी की अहम को जरा भी स्पर्श करने का मतलब स्थानांतरण से लेकर निलंबन तक कुछ भी हो सकता था।
आते ही शुलभा जी ने प्राचार्य से दो टूक शब्दों में कह दिया था कि उनके पास समय नहीं है और किसी भी हालत में, दस मिनट में सारा काम निबट जाना चाहिये।
शुलभा जी की रूप-सज्जा, सुंदरता और रूतबा देखते ही बनता था। मंहगे परिधान और कीमती आभूषण से उनकी अमीरी सब पर भारी पड़ रहा था, पर साथ मे आई बाकी महिलाएँ भी किसी से कम नहीं थी। दुर्भाग्य यह था कि स्टाफ के कुछ सदस्यों के अलावा इस नजारे को देखने वाला वहाँ और कोई नहीं था। बच्चे यहाँ के देख नहीं सकते थे; वे देख सकते थे तो बस अपने मन की आँखों से, मन की सुंदरता को। महसूस कर सकते थे तो अपने हृदय की उदात्त भावनाओं से हृदय की उदात्त भावनाओं को और छू सकते थे तो बस अपनी आत्मा की पवित्रता से आत्मा की पवित्रता को।
शुलभा जी के पास ऐसा कुछ भी नहीं था।
तैयारियाँ चाक-चैबंद थी। रोपण हेतु खोदे गए प्रत्येक गड्ढे के पास रोपणी का पौधा लिये एक-एक छात्र तैयार खड़ा था। अतिथियों के नाम की पट्टिका युक्त ट्रीगार्ड भी गड्ढों तक पहुँचा दिये गए थे। रोपण के पश्चात् जल सिंचन हेतु हजारा लिए दूसरा व्यक्ति तैयार खड़ा था। हाथ धुलवाने के लिये मंहगे साबुन की टिकिया ट्रे में सजा कर फिर दूसरा व्यक्ति, तथा हाथ पोंछने के लिये भी स्वच्छ तौलिये का ट्रे लिये एक अन्य व्यक्ति तैयार खड़ा था।
शुलभा जी ने देखा, रोपण हेतु खोदे गए गड्ढों के आसपास रात में हुई बारिश के कारण कीचड़ हो गए हैं। कीचड़ देख कर उसकी नाक में सिलवटे पड़ गई। उचित जगह की तलाश करते हुए उनकी निगाहें कार्यालय के मेन गेट के पास की सूखी, पथरीली जमीन पर जाकर टिक गई। इससे अच्छी जगह उसे भला और कहाँ मिलती?
मुख्य अतिथि का इरादा भाँप कर प्राचार्य महोदय ने अपने कर्मचारियों को इशारा किया कि आॅफिस के गेट के पास पौधारोपण की तैयारी किया जाय। एक शिक्षक ने प्राचार्य के कान में कहा - ’’सर, वहाँ की जमीन तो पथरीली है और ऊपर रेत भी है।’’
प्राचार्य ने उसे बुरी तरह झिड़क कर चुप करा दिया।
आसपास की रेत की रेत को इकत्रित करके शुलभा जी को पौधरोपण कराया गया। पानी भी सींचा गया। हाथ हटाते ही पौधा एक ओर लुड़क गया।
शुलभा जी के रेत सने गंदे हाथ धुलवाए गये।
इस बीच शुलभा जी का कैमरामैन हर एक क्षण को बड़ी तन्मयता के साथ अपने कैमरे में कैद कर रहा था।
अगला कार्यक्रम था बच्चों से मिलने का। शुलभा जी ने बच्चों की ओर देखा, और इसी के साथ इन विकलांग बच्चांे के प्रति उसके मन का छद्म प्यार उसके चेहरे पर उतर आया।
शुलभा जी ने सोचा होगा - ये दृष्टिहीन बच्चे उसके इस भाव को थोड़े ही देख सकेंगे; पर उसे क्या पता, बच्चे उसके चेहरे को पहले ही पढ़ चुके थे।
बच्चे बहुत ही शालीन और अनुशासित ढंग से कतार में खड़े थे। अपने व्हील चेयर पर आकाश भी इस कतार में शामिल था। बच्चे अनुशासन का पालन करते हुए खड़े जरूर थे पर उनके चेहरों की भाव शून्यता अपनी कहानी स्वयं कह रहे थे। बच्चों के चेहरो पर वित्तृष्णा के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।
शुलभा जी बड़े प्यार से बच्चों से मिल रही थी। किसी के साथ हाथ मिला रही थी, किसी के सिर पर हाथ फेर रही थी तो किसी को गले लगा रही थी। उसका कैमरा मैन इन क्षणों को बड़ी तन्मयता के साथ अपने आधुनिक डिजिटल कैमरे में कैद कर रहा था।
उनका यह सारा प्रेम कैमरे के आन रहते तक ही था। कैमरा बंद होते ही उनकी असलियत एक बार फिर उसके चेहरे पर तैरने लगी। अपने हाथों को वह ऐसे झटक रही थी मानो भूलवश उन्होंने किसी गंदी वस्तु को छू लिया हो। हाथ धुलाने वाला पास ही खड़ा था, उन्होंने पहल की; तभी शुलभा जी के सहायक ने उसके कानों में कुछ कहा। नाक-भौंह सिकोड़ते हुए शुलभा जी ने आकाश की ओर देखा, उसके चेहरे पर घृणा की अनेकों गहरी रेखाएँ उभर आई; पर काम जरूरी था, करना ही होगा।
आकाश को गोद में लेकर फोटो खिंचवाना निहायत जरूरी था।
चेहरे पर फिर ममता का मुखौटा लगाकर शुलभा जी ने आकाश को गोद में लेने का प्रयास किया। आकाश ने पूरे मनोयोग से, चिल्लाकर अपनी असहमति जताई।
फोटो खिंच जाने के बाद शुलभा जी के मन की घृणा और क्रोध एक साथ फूट पड़ा। आकाश को उसके व्हील चेयर पर लगभग फेंकते हुए वह हाथ धोने के लिये आगे बढ़ गई।
यह सब देख वसु का हृदय क्रोध से उबल पड़ा। मन में आया कि मन और हृदय, दोनों से ही विकलांग इस महिला को तुरंत परिसर से बाहर जाने का रास्ता दिखा देना चाहिये; पर उसके अधिकार में कुछ न था।
वसु इस संस्था का नियमित कर्मचारी नहीं है, परंतु इन बच्चों से लगाव होने के कारण उन्होंने ब्रेल लिपि सीखी, संकेत की भाषा सीखी। वह इन बच्चों की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता है। संस्था के प्राचार्य ने वसु के इस मानवीय कर्तव्य के निर्वहन को सराहते हुए बच्चों से मिलने की उसे अनुमति दे रखी है। शुलभा जी से तकरार मोल लेकर वह अपने लिए इस परिसर का गेट हमेशा के लिए बंद नहीं करवाना चाहता था।
वसु ने शुलभा जी की तरह न तो कभी फोटो खिंचवाया और न ही प्राचार्य से किसी प्रकार का प्रशस्ति पत्र ही मांगा। उसे तो बस इन बच्चों से मिलना और उनके साथ खुशियाँ बाटना ही अच्छा लगता है।
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आज फिर वही सब कुछ होने वाला था। वह इस फंक्शन में किसी भी हालत में आना नहीं चाहता था। बच्चों की जिद्द और रोहित का जन्म दिन नहीं होता तो वह कदापि न आता। पर इसके लिए भी उसने रास्ता खोज लिया था; फंक्शन के पहले ही वह इन बच्चों से मिल कर लौट आयेगा।
वसु ने कई बार सोचा कि अचानक पहुँच कर हच्चों को सरपराइज किया जाय, पर अब तक वह सफल नहीं हो पाया है।
पहले उन्होंने सोचा था, बच्चे शायद आवाज से उन्हें पहचान जाते होंगे। पर नहीं, सरपराइज देने के लिये वह कई बार बिना कोई आवाज किये भी उनके बीच जाकर देख चुका है। पल भर देर से ही सही, वे पहचान जाते हैं। शायद बालों में लगाए गये तेल की गंध से पहचान जाते हों? उन्होंने बिना तेल के और तेल बदल कर भी इस शंका का निवारण कर लिया है। फिर उन्होंने सोचा, शायद बाइक की दूर से आती आवाज से वे पहचान लेते होंगे। हाथ कंगन को अरसी क्या? आज इसकी भी जाँच कर लिया जाय।
वसु ने बहुत पहले ही अपनी बाइक छोड़ दी। पैदल चल कर उसने संस्था में प्रवेश किया। फंक्शन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था। रोहित सभा स्थल से दूर, हाथ में वाकिंग स्टिक लिये सबसे अलग, सबसे दूर खड़ा हुआ था, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। दबे पाँव आकर वसु उससे कुछ दूरी पर खड़ा हो गया और उसके चेहरे पर उभर रहे भावों को पढ़ने का प्रयास करने लगा। क्षण भर बाद ही रोहित के चेहरे पर राहत और खुशी के मिलेजुले भाव तैरने लगे। उन्होंने पुकारा - ’’वसु अंकल?’
वसु अभी और परीक्षा लेना चाहता था, कुछ न बोला।
अब रोहित तेज कदमों से चलता हुआ आकर वसु से लिपट गया। कहा - ’’अंकल, आप बोलते क्यों नहीं, नराज हैं?’’
’’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू ।’’
अब तो बाकी दोस्त भी रोहित के पास आ गये और मिलकर ’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू’; गीत गाने लगे।
वसु ने कहा - ’’माय डियर, नाराजगी नहीं, सरपराइज, अंडरस्टैण्ड?’’
रोहित की खुशियों का ठिकाना न रहा।
वसु ने जन्म दिन की कविता रोहित के हाथ में रख दिया। पढ़कर रोहित पुनः वसु से लिपट गया। सभी मित्रों ने भी वह कविता पढ़ी -
’’मित्र! तुम सबसे अच्छे हो
हाँ मित्र!
इस दुनिया की सबसे अच्छी वस्तु से भी,
और तुम सबसे सुंदर भी हो
इस दुनिया की तमाम सुंदर वस्तुओं से भी।
मित्र!
तुम्हारा मन सबसे अधिक उजला है
चाँद-तारों से भी अधिक,
और तुम्हारा हृदय बहुत गहरा, बहुत विशाल है
आसमान और समुद्र से भी अधिक
क्योंकि -
ईश्वर ने अपने ही हाथों, पवित्र मन से
और सृजन के पवित्रतम पलों में तुम्हें बनाया है।
मित्र!
तुम दुनिया की हर कठिनाई को जीत सकते हो
क्योंकि -
दुनिया को बिना शिकायत के तुमने अपनाया है
दुनिया में तुमने केवल मित्र बनाया है।’’
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बधाई पत्र पढ़कर बच्चे फिर चहक उठे।
बिदा होने का समय आ गया। पता नहीं कि रोहित को क्या सूझा। उसने पूछ लिया - ’’अंकल, सावन का अंधा क्या होता है?’’
वसु के मन में आया, कह दे कि शुलभा जैसे लोग ही सावन के अंधे होते हैं; पर उसका मन राजी न हुआ। निष्कपट बच्चों के मन में दुर्भावना का बीज बोना उचित नहीं था। उन्होंने कहा - ’’बच्चों, गलत चीजों को देख कर भी जो नहीं देखता, वही सावन का अंधा होता है।’’
वसु के विदा होते ही सावन के अंधों का काफिला पहुँच गया।
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भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
मो. 9407685557
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पिन 491441
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गंध, खुशबू और बदबू
प्रातः के लगभग दस बजे थे। सड़कों पर सामान्य जिंदगी दौड़ने लगी थी। हाइवे के एक चैराहे पर मैं किसी की प्रतीक्षा में खड़ा था। पास ही चाय-भजिया की एक गुमटी थी। गुमटी का मालिक स्वयं चाय बनाने, भजिया तलने और साथ ही ग्राहकों को सर्व करने में व्यस्त था। यह उसके धंधे का समय था। एक महिला जो साफ-सुथरा कपड़े पहनी हुई थी और इतनी तो जरूर आकर्षक लग रही थी कि ग्राहकों का ध्यान पहली नजर में ही आकर्षित कर ले, एक कोने में उकड़ू बैठ कर मिर्च और प्याज काटने में तल्लीन थी। वह अपने काम में हद दर्जे तक निपुण लग रही थी। उनका पूरा ध्यान ग्राहकों पर था कि किसको क्या चाहिये, किससे कितना पैसा लेना है और यह भी कि कोई बिना पैसे दिए खिसक तो नहीं रहा है। प्याज की तीखी गंध की वजह से नाक के रास्ते बह कर आने वाले आँसू को वह बार-बार सुड़क भी रही थी। दस-ग्यारह साल की एक लड़की, जो अपेक्षाकृत छोटी साइज की मैली-सी फ्राक पहनी हुई थी, संभवतः जो किसी रईसजादी की उतरन हो, और इतनी तंग थी कि इस उम्र में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों को छिपा रखने में बिलकुल ही असमर्थ लग रही थी, जूठी प्लेटें और गिलास उठाने तथा धोने में व्यस्त थी। गुमटी के पीछे से शहर भर की गंदगी को समेट कर ढोने वाली नाली बह रही थी जिसके किनारे-किनारे कई तरह की और भी गुमटियाँ बनी हुई थी।
वह शहर की परिधि से लगा हुआ इलाका था।
हाइवे पर बेतहाशा दौड़ रहे वाहनों के इंजनों से निकलने वाली इंधन के धुएँ की गंध, होटल की कड़ाही में जलते हुए तेल और मसालों की खुशबू तथा नाले में बह रहे गंदे पानी से उठने वाली बदबू के भभोके, तीनों के सम्मिश्रण से एक अजीब तरह का दमघोंटू वातावरण बन रहा था। धूल का गुबार अलग से आँखों में जलन पैदा कर रहा था। वैसे यहां हर किसी की आँखें किसी न किसी वजह से जल रही होती है और दिल गुंगवा रहा होता है।
हमें न तो धूल दिखता है और न ही धुआँ। गंध, खुशबू और बदबू में फर्क करना तो हम कब का भूल चुके हैं। हमारी घ्राणेन्द्रियाँ बड़ी घटिया किस्म की होती जा रही हैं। हम बड़े साधारण लोग जो ठहरे। लेकिन हमारे एक प्रोफेसर मित्र हैं। उन्हें सब कुछ दिखता है। उनकी घ्राणेन्द्रि और अन्य इन्द्रियाँ एकदम उच्च गुणवत्ता वाली हैं। वे अंतर्दृष्टि, दिव्यदृष्टि और दूरदृष्टि संपन्न सिद्ध पुरूष हैं। अपनी इन्हीं दृष्टियों के बल पर वे वर्तमान, भूत और भविष्य सब ओर ताक-झांक कर लेते हैं। पड़ोसी और पर-पड़ोसी ही नहीं पूरे मुहल्ले की खबर रखते हैं। लोग इन्हें ’अधजले जी’ के नाम से जानते हैं।
अधजले जी की बड़ी विचित्र माया है। उनकी डाॅक्टर बनने की बड़ी इच्छा थी। डाॅ. टंगियानी, एम.बी.बी.एस.; एम.डी.; डी.सी.एच.; एस.एस.पी.डब्ल्यू उनके आदर्श थे। डाॅ. टंगियानी जी की इस लंबी-चैड़ी डिग्री में डी.सी.एच. तक की उपाधि तो सबके समझ में आती थी परंतु आगे की उपलब्धि एस.एस.पी.डब्ल्यू किसी की समझ में न आती थी। उनके डाॅ. मित्रों के लिए भी यह एक रहस्यमय उपाधि थी। इस उपाधि के संभवतः वे शहर ही नहीं, दुनिया भर में अकेले धारक होंगे और इसी के बल पर आज उनके पास क्या नहीं है?
विद्यार्थी जीवन में हमारे अधजले जी बड़े मेघावी थे। उनकी वह मेधा आज भी बरकरार है और इसी के बल पर वे एक दिन एस.एस.पी.डब्ल्यू. का रहस्य हल करने में कामयाब भी हो गए। तुरंत वे डाॅ. टंगियानी जी के क्लीनिक गए और चुपके से उनके कान में यह रहस्य उगल आए। सुनकर डाॅ. टंगियानी की टांगों की हालत, जो पहले अकड़ी-अकड़ी रहती थी, पतली होने लगी और वे अधजले जी के मुरीद हो गए।
फिर तो अधजले जी के मुँह में जब भी एस.एस.पी.डब्ल्यू की उबकाई आती, वे तुरंत डाॅ. अंगियानी जी के कानों में इसे उलट आते हैं।
बहुत मान-मनौवल और पूजा आरती के बाद एक दिन इस चेतावनी के साथ कि इस रहस्य को अन्यंत्र प्रकट करने का अंजाम बहुत ही बुरा होगा, उन्होंने मुझे एस.एस.पी.डब्ल्यू. का अर्थ बताया, ’सीधा स्वर्ग पहुंचाने वाला’।
अधजले जी का असली नाम लोग भूल चुके हैं। उसके इस निकनेम के अस्तित्व में आने की भी बड़ी दुखद कहानी है। बकौल उनके, पी.एम.टी. की परीक्षा में उनकी मेधा की, आरक्षण के गोबर दास ने हत्या कर दी और वहीं दफना कर कब्र के ऊपर लीपा-पोती भी कर दी। जितने भी ऐसे-वैसे थे सब डाॅक्टर बन गए। इसी विरह में हमारे ये साहब दिन-रात अपनी आँखें और दिल जला-जला कर अधजले जी हो गए हैं। कबीर दास ने यह पद जैसे इनके लिए ही लिखी हो -’’ मैं बिरही ऐसे जली कि कोयला भई न राख।’’
अधजले जी भी अपनी सनक के पक्के हैं। किसी भी हालत में डाॅक्टर बनना उनकी सनक है, अतः अब वे डाॅक्टर बनने के अहिंसक रास्ते अर्थात् साहित्य के रास्ते पर चल पड़े हैं। दिन-रात वे शोध कार्य में जुटे रहते हैं। उनके शोध का विषय है - ’’कवि प्रवर धुंधुआये जी के भविष्यकालीन काव्य में, धूप, धूल और धुएँ का भूत, भविष्य और वर्तमान के गंध, खुशबू और बदबू के साथ अंतर्संम्बंधों का मानव सभ्यता के उत्थान-पतन में योगदान: एक अनुशीलन।’’
स्नातकांत्तर के बाद अधजले जी दस वर्ष अपने गुंगुवाते हुए दिल की जलन को कम करने में खर्च कर डाले। दस वर्ष यह तय करने में बिता दिए कि उनके शोध के स्तर का साहित्यकार कौन हो सकता है। फिर दस वर्ष यह तय करने में लगा दिए कि उनके शोध का शीर्षक क्या हो ? डाॅ. टंगियानी जी की उपाधि से उन्हें अपने शोध का शीर्षक चयन करने में बड़ी सहायता और प्रेरणा मिली। अब वे विगत दस वर्षों से दिन-रात अपने शोध कार्य में डूब-उतरा रहे हैं। जब से मैं उनके संपर्क में आया हूं , मुझे भी डाॅक्टर बनने का कीड़ा काटने लगा है। अधजले जी मेरे लिये भी किसी विश्व कवि का चयन करने में लगे हुए हैं जिनके व्यंिक्तत्व और कृतित्व पर मुझे शोध करना होगा।
शोध जैसे जनहितकारी कार्य पर चिंतन करने के लिए हाइवे के इस चैराहे का वातावरण अधजले जी को खूब भाता है। वे रोज सुबह-शाम इसी गुमटी के पास हाइवे पर बने रपटे की जगत पर चाय की चुस्कियाँ लेते घंटों बैठे रहते हैं।
मैं उनका शागिर्द जो ठहरा। मुझे अधजले जी की ही प्रतीक्षा थी।
मेरे खाली दिमाग में अधजले जी के व्यंिक्तत्व व कृतित्व के क्रांतिकारी विचारों की धमाचैकड़ी मची हुई थी, तभी किसी के संबोधन से मेरा ध्यान टूटा। पच्चीस-तीस साल का एक आदमी, जिसे युवक कहने में मुझे आत्मग्लानि हो रही थी, सामने खड़ा था और कुछ अस्पष्ट से शब्द मेरी ओर उछाल रहा था। मेरा अनुमान सही था, वह मुझे ही संबोधित कर रहा था। पता नहीं, आत्मिक शक्तिक्षीणता या शारीरिक कमजोरी के कारण, उनकी आवाज होठों तक आते-आते कहीं गुम हो जा रही थी। शायद आत्महीनता से। मुझे लगा कि उनके अंदर की यह आत्महीनता उन लोगों को देख-देख कर पैदा हुई होगी जिनके पास करने को कुछ काम चाहे न हों पर होटलों-ढाबों और बाजारों की सजी-धजी दुकानों में खर्च करने के लिए ढेर सारे पैसे होते हैं।
इस देश में शायद भूख से उतने लोग नहीं मरते जितनी आत्महीनता से मरते हैं। हर आम आदमी किसी न किसी हीनता का शिकार है। स्वाभिमान का मुखौटा लगाकर यह और भी खतरनाक हो जाता है। यही हीनताजन्य-स्वाभिमान यहाँ के आम लोगों की राष्ट्रीय बीमारी है। नेताओं और धर्माचार्यों द्वारा परोसी जा रही भाषण, आश्वासन और प्रवचन रूपी साग-भाजी खा-खा कर सारा देश आत्महीनता के दलदल में धँसता चला जा रहा है। हमारी महान सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक परंपरा इसी आत्महीनता के बोझ से दब कर छटपटाये जा रही है।
यहाँ आम व्यक्ति चाहे आत्महीनता से मरे या आत्मग्लानि से, अधिकारियों, व्यापारियों और नेताओं को यह रोग कभी नहीं व्यापता।
मैंने उस व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक देखा। वह भी छटपटाता नजर आया। आत्महीनता के बोझ से दब कर झुका हुआ उसका सिर मुझे देश का सिर लग रहा था। भ्रष्ट्राचार के दमघोंटू वातावरण में जैसे उसका दम घुटा जा रहा था। उसके शरीर की हड्डियाँ उभरी हुई और पेट पिचका हुआ था। देश का भाग्य निर्माता सड़कांे पर भूखा मारा-मारा फिर रहा था। उसके इस हुलिये ने मुझे डरा दिया। डरा हुआ आदमी साहसी होने का दिखावा करता है। मैंने भी साहस बटोरकर उसे झिड़का - ’’क्या बात है?’’
अपनी आत्महीनता को पछाड़ते हुए उसने दो टूक कहा - ’’चाय पीना है, एक रूपिया चाहिए।’’
उनकी बेबाकी और बेबसी पर मुझे रोना आया। पर उसकी ईमानदारी का मैं कायल हो गया। चाय यहाँ एक रूपय में ही बिकती है। एकबारगी इच्छा हुई, दहाड़ें मार कर रोऊँ। पर किस बात पर? देश की युवा-पीढ़ी की अकर्मण्यता पर, देश की शिक्षा प्रणाली पर, सरकार की नीतियों पर या बढ़ती हुई भूखमरी और बेकारी पर।
फिर विचार आया, यहाँ पर लोग केवल मगरमच्छी आँसू बहाते हैं। दहाड़ें मार कर रोना हमारे राष्ट्रीय चरित्र के विरूद्ध है। क्यों न इसी मुद्दे पर सामने वाले को बढ़िया सा एक भाषण पिला दूँ। कहूँ - ’’चाय पियो, न पियो; पहले यह भाषण ही पी लो। पचपन साल से भाषण पी-पी कर पेट भरने वाले विचित्र प्राणी, चाय पीने की बात तुझे आज सूझी? इतनी हिम्मत तुझमें कहाँ से आई? आँख, कान, नाक सभी सलामत है, देश में फैल रही धूल, धुएँ और बदबू के प्रदूषण को सूंघ-सूंघ कर आत्मसंतुष्टि पाने वाले मूरख, अपनी महान परंपरा का निर्वाह क्यों नहीं करता? वादों, नारों और आश्वासनों की खुराक पर जिंदा रहने वाले, अब इससे पेट न भरता हो तो हाथ पैर तुम्हारे सलामत है, काम क्यों नहीं करता? मांगते हुए शर्म नहीं आती? कबीर दास ने क्या कहा है, सुना नही; ’मांगन मरन एक समाना’। मांगना है तो सरकार से मांग। रोटी मांग, कपड़ा मांग, मकान मांग, काम मांग, पद मांग, कुर्सी मांग, विधान सभा और संसद मांग। अरे कुछ तो मांग। मांगने से न मिले तो छीन कर हासिल कर’’ आदि,आदि.......।
मुझे पक्का विश्वास था कि मेरे भाषण शुरू करते ही वह चुपचाप खिसक जायेगा और मेरा एक रूपिया बच जायेगा। अपने इस तरकीब पर मुझे गर्व हुआ। भाषण शुरू करने जा ही रहा था कि अंर्तआत्मा से आवाज आई, यदि सामने वाला जरूरत से ज्यादा सहनशील और चालाक निकला और कहे - ’जनाब ! काम से डरता कौन है? दीजिये न काम। इसी की तो मुझे तलाश है’ तब तेरी क्या इज्जत रह जायेगी। क्या यह तेरे गाल पर तमाचा नहीं होगा?
इस तमाचे के लिए मैं तैयार नहीं था। अब मेरे विचार और व्यवहार एकदम सरकारी हो गए। सरकारी दिमाग बड़ा असरकारी होता है। ऐसे ही तमाचों से बचने के लिए सरकार कभी रोजगार दफ्तर, कभी नौकरियों का विज्ञापन और कभी बेरोजगारी भत्ते का झुनझुना दिखाती है।
मेरी अंर्तआत्मा भय से कांपने लगी। इस कल्पना से कि कहीं सामने वाला यह व्यक्ति अधिकार प्राप्त करने की मेरेे ही बताये तरकीब का (यद्यपि अभी तक मैंने उसे कुछ भी नहीं बताया था।) मेरे ऊपर ही प्रयोग न कर दे। मुझे अपना जेब कंटता हुआ और हाथ का थैला छिनता हुआ महसूस हुआ।
मैंने कांपते हाथों से एक रूपय का सिक्का निकाल कर चुपचापसे बचा लिया। उसे भाषण पिलाने की अपेक्षा यह रास्ता मुझे अधिक निरापद लगा।
वह युवक पैसे लेकर तेजी से भीड़ में कहीं विलीन हो गया। न तो उसने धन्यवाद के कोई शब्द कहा और न ही उसके चेहरे पर कृतज्ञता के भाव ही थे। मानों उसने अपना अधिकार छीन कर हासिल कर लिया हो।
क्या अधिकार छीनने की प्रक्रिया की शुरूआत ऐसे ही होगी?
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भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
मो. 9407685557
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क्या वह रघुनाथ नहीं था
बीस-पचीस साल पहले की बात है।
गड्ढों से अटी-पड़ी, कच्ची सड़क पर बुरी तरह हिचकोलें खाती और पीछे धूल का बादल छोंड़ती हुई बस अंततः भोलापुर के बस अड्डे पर आकर रुकी। बस का यह अंतिम पड़ाव था और इसे यहीं पर रात्रि विश्राम करना होता था। अशोक ने अपना सामान समेटा और नीचे उतर आया। सामान के नाम पर कंधे पर लटकाकर चलने वाले एक बड़े बैग के सिवा और कुछ न था।
नवंबर का प्रथम सप्ताह था और चार दिन बाद ही दीपावली का त्यौहार आने वाला था। नीचे उतरते ही ठंडी हवाओं का एक झोंका आया और बदन को कंपा गया। उसने अपना स्वेटर ठीक किया, मफलर कंसा और बैग को कंधे पर लटकाते हुए आस-पास का मुआयना किया। अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा, पर रात के अंधेरे की वजह से वह समय नहीं पढ़ पाया। उन्होंने अंदाजा लगाया, आठ से ऊपर तो हो ही गया होगा।
कुछ ही कदमों की दूरी पर विमला का पान ठेला था। कुछ समीप जाकर उसने पान ठेले की दीवार पर टंगी दीवार घड़ी के डायल पर कांटों की स्थितियाँ देखी। आठ बजकर पंद्रह मिनट हो चुके थे। गाँव-देहात के हिसाब से काफी रात हो चुका था। यहाँ से डेढ़-दो किलोमीटर सुनसान और जंगली रास्ते पर पैदल चलकर गाँव तक पहुँचना आसान काम नहीं था; तब तो बिलकुल भी नहीं जब कोई हमसफर भी न हो और रास्ते पर एक बरसाती नाला पड़ता हो जिसमें अभी भी घुटनों तक पानी बह रहा होगा; और एक मरघट पड़ता हो जहाँ महीने दो महीने में एक न एक चिता जरूर जलाई जाती हो, और जिसके बारे में भूत-प्रेत और ब्रह्म राक्षसों से संबंधित अनेक डरावनी कहानियाँ प्रचलित हो। उसे रघुनाथ पर क्रोध आया। हमेशा अपनी सायकिल लेकर सेवा में उपस्थित रहने वाले रघुनाथ ने आज अच्छा धोखा दिया था।
रघुनाथ उसी के गाँव का रहने वाला और उसके बचपन का मित्र है। अशोक पढ-लिखकर शिक्षक हो गया है परंतु रघुनाथ अपनी गरीबी की वजह से प्रायमरी से अधिक पढ़ नहीं पाया और गाँव में ही कृषि-मजदूरी करके अपनी आजीविका चलाता है। बहुत मेहनती, निडर और बहुत जिंदादिल इंसान है वह और बहुत रोचक बातें करता है। उसे पच्चीसों लोककथाएँ याद हैं। भूत-प्रेत की दसियों कहानियाँ भी उसे याद हैं। गाँव और आसपास की घटनाओं की अनेक रोचक संस्मरण भी याद हैं उसे। कहानियों और घटनाओं को प्रस्तुत करने का उनका अपना ही अंदाज है। अंदाज ऐसे कि कपोलकल्पित बातों को भी आप यथार्थ मानने के लिये मजबूर हो जायें। मजेदार इतनी कि हँस-हँसकर आप लोटपोट हो जायें। उसके साथ रहकर, उसकी बातें सुन-सुनकर कभी कोई बोरियत महसूस नहीं कर सकता। उनकी बातें सुनने के लिये तरसते हैं लोग। उनके साथ में होने से समय कैसे कटता है, रास्ता कैसे कटता है, पता ही नहीं चलता। पर आज अशोक को अकेले ही रास्ता तय करना था। उन्होंने बैग को कंधे पर लटकाया। गढ़माता मैया को मन ही मन स्मरण किया, छोटी सी यह यात्रा सकुशल पूरी हो जाय, इसके लिये मनौती मांगी और अंधरे, सुनसान, कच्ची सड़क पर गाँव की और चल पड़ा।
जंगल तो अब कट चुके हैं, जंगली जानवर के नाम पर अब तो एक लोमड़ी भी दिखाई नहीं देती; इनका कैसा डर? रह गई बात श्मशान से बाबस्ता लोगों के बीच प्रचलित भूत-प्रेत की घटनाओं की; सो ये भी निरा कपोलकल्पित बातें ही होती है।
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चलते-चलते अशोक को पिछली बार की बातों का स्मरण हो आया। एक बार जब ऐसे ही रात में रघुनाथ उसे लेने आया था तब उसने कह था - ’’अशोक गुरूजी, भूत-प्रेत का होथे जी? कोनों देखे हें का? सब बनावल बात ए।’’
अशोक ने कहा था - ’’पिछले साल भोलापुर की मंडाई के दिन मरघट्टी के सेमल पेंड़ पर रात भर टोनही ’बरती’ रही, भय के मारे गाँव का कोई भी आदमी उस दिन नाचा देखने जा नहीं सका था। तुम कहते हो कि ये सब कपोलकल्पित बातें हैं?’’
अशोक की बातें सुनकर एक लंबा ठहाका लगाया था और काफी देर तक हँसता रहा था रघुनाथ। अशोक ने कहा - ’’अबे फोकू इसमें इतना हँसने की क्या बात है? सब जानते हैं इस घटना के बारे में कि सेमल की पेड़ पर उस रात घंटे भर तक टोनही ’बरती’ रही, आग के गोले उसके मुँह से निकल-निकल कर टपकते रहे, और तू हँसता है?’’
’’अरे मितान, पेड़ तीर जा के भला कोनों देखिन का, कि का जिनिस ह बरत हे? दुरिहच् ले देख के वोला टोनही कहि दिन।’’ हँसते-हँसते रघुनाथ ने कहा था।
अशोक ने कहा था - ’’वाह! ऐसे बोल रहे हो कि केवल तुम ही इसकी हकीकत जानते हो?’’
रघुनाथ - ’’अउ नइ ते का?’’ और फिर टोनही ’बरने’ की इस घटना के पीछे की हकीकत जो उन्होंने बताई तो हँस-हँसकर अशोक का भी बुरा हाल हो गया था। दरअसल, उस रात लोगों को डराने के लिये इन्होंने ही सायकिल की एक पुरानी टायर को जलाकर पेड़ पर लटका दिया था।
अशोक ने कहा - ’’सो तो ठीक है। मेरे साथ भी एक अजीबोगरीब घटना घटी है। बताओ भला वह क्या था?’’
रघुनाथ ने आतुरता पूर्वक पूछा - ’’का ह?’’
अशोक ने अपने साथ घटित उस अजीबोगरीब घटना के बारे में बताना शुरू किया।
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जिस गाँव में मैं पदस्थ हूँ वहाँ शाला परिसर से लगा हुआ ही शिक्षकों के लिये क्वार्टर्स बने हुए है। आहाता विहीन इस परिसर के सामने की ओर खेल का बडा़ सा मैदान है, जहाँ शाला लगने के दौरान बच्चे खेला करते हैं। बाकी तीन ओर खेत और झाड़ियाँ हैं। दूरस्थ अंचल स्थित, पहुँच विहीन इस गाँव में तास की पत्तियाँ ही मनोरंजन का एकमात्र साधन होती हैं। मैं अविवाहित था, अतः रात्रि भोजन के बाद अन्य शिक्षक साथी मेरे ही क्वार्टर पर तास खेलने के लिये जुट जाते थे। सितंबर-अक्टूबर का महीना रहा होगा। एक तो आसमान में हल्के-हल्के बादल थे और अमावस की रात थी, अतः बाहर अंधेरा कुछ अधिक ही घना था। झाड़ियों की ओर खुलने वाली खिड़की के पास ही मेरा बिस्तर लगा हुआ था जिसमें बैठकर हम चार मित्र लालटेन की धुंधली रोशनी में तास खेल रहे थे।
तास की पत्तियों को व्यवसिथत करते हुए मैंने बिड़ी की गड्डी में से चार बीड़ियाँ निकालकर दियासलाई से सुलगाया और साथियों की ओर बढा़ दिया। हम सब बीड़ियों का कश लेने लगे। एक मित्र ने कहा - ’’अबे, तुम्हीं लोग पियोगे, मुझे नहीं दोगे?’’
मैंने कहा - ’’अबे, तुझे भी तो दिया हूँ , मजाक क्यों करता है।’’
लेकिन सच यही था कि उसने बिड़ी नहीं ली थी। हमें आश्चर्य हुआ कि आखिर वह चैंथी बिड़ी गई कहाँ? किसने ली?
हमारी दिनचर्या और आदतें रूढ़ होकर मशीनी हो जाती हैं। अगले दिन फिर वही महफिल सजी। मैंने फिर बिड़ी सुलगाई, लेकिन उस दिन मैं चैकन्ना था। बिड़ी बाँटते वक्त मैं बराबर निगरानी कर रहा था और कल वाली चालाकी को पकड़ना चाहता था। बाकी तीनों साथी इन बातों से बेखबर अपने-अपने पत्तों में व्यस्त थे। तभी एक हाथ पहाड़ी तरफ वाली खुली हुई खिड़की से अंदर आया। जाहिर था कि उसे भी बिड़ी चहिये थी। आश्चर्य के साथ मैंने खिड़की से बाहर खड़े उस आदमी की ओर ध्यान केद्रित किया। बाहर अंधेरा घना था और कमरे के अंदर जल रहे लालटेन की पीली, मद्धिम रोशनी में उस व्यक्ति को पहचानना संभव नहीं था। लेकिन सहसा उसके चेहरे पर जलती हुई दोनों आँखों को देखकर मैं एक बारगी कांप गया। मैंने उसके हाथ पर सुलगी हुई एक बिड़ी रख दी। बिड़ी लेकर वह हाँथ और जलती हुई दोनों आँखे गायब हो गई।
स्कूल के आसपास रात में किसी जिन्न की उपस्थिति की चर्चा गाँव में अक्सर होती रहती थी, और इसी भय के चलते अंधेरा घिरने पर लोग इधर आने से भय खाते थे; और अक्सर हम लोगों को भी इस संबंध में हिदायतें देते रहते थे। खिड़की के अंदर बिड़ी के लिये आया किसी का हाथ और बाहर उसके वेहरे पर जलती हुई दोनों आँखों को देख कर मेरे मस्तिष्क में उसी जिन्न का भय घर कर गया। मित्रों के अंदर भी यह भय व्याप्त न हो जाय, इसलिये उस वक्त इस घटना का जिक्र मैंने किसी से नहीं किया।
तथाकथित जिन्न के भय से उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया, यद्यपि रात में ऐसी-वैसी, और कोई घटना नहीं घटी। सुबह मित्रों से मिलने पर सबसे पहले मैंने इसी बात का जिक्र किया और एक दिन पहले बिड़ी गायब होने के रहस्य पर से परदा उठाया। मित्रों के चेहरों पर भय की रेखाएँ साफ दिखने लगी थी।
काफी सोच-विचार करने के बाद हम लोगों ने निर्णय लिया कि बात हम चारों के बीच ही रहे, इस घटना का जिक्र और किसी से न किया जाय, क्योंकि पहली बात - गाँव के लोग पहले ही इस स्कूल परिसर के आसपास इस तरह की घटना पर विश्वास करते आ रहे हैं, इससे उनका विश्वास पक्का हो जायेगा। अपने अंधविश्वास के चलते वे स्वभाविक रूप से भूत-प्रेत के अस्तित्व पर विश्वास करने वाले होते हैं इसीलिय इससे गाँव में दहशत फैलने में समय नहीं लगेगा। या फिर दूसरी बात - हो सकता है हमें डराने के लिये किसी ने शरारत किया हो; और यदि ऐसा हुआ तो हम सब उपहास का पात्र बनेंगे। कोई भी कदम उठाने के पहले घटना की हकीकत समझना जरूरी है।
घटना की हकीकत समझने के लिये अगली रात हम लोग पूरी तैयारी से बैठे। अन्य दिनों की तरह ही हमने खिड़की खोल दी। रोशनी की कमी को पूरा करने के लिये लालटेन की संख्या बढ़ा दी गई। जैसे ही मैंने बीड़ी जलायी, खिड़की से वह हाथ फिर अंदर आया। हम सबकी निगाहें खिड़की के बाहर खड़े उस व्यक्ति के चेहरे पर जम गई। काले खुरदुरे चेहरे के बीच उसकी जलती हुई आँखों को देखकर हमारे शरीर पर भय की झुरझुरी दौड़ गई, रोएँ खड़े हो गए। एक ने टाॅर्च उठा ली, परंतु मैंने उसे मना कर दिया। बिड़ी लेकर वह चला गया।
अब तो रोज इस घटना की पुनरावृत्ति होने लगी।
लगभग सप्ताह भर बाद की बात है। उस दिन हमारा एक साथी किसी काम से बाहर गया हुआ था और हम तीन लोग ही तास खेल रहे थे। सहसा हवा के झोंके की तरह वह आदमी खिड़की से होकर अंदर आया और चैथे साथी की जगह पर बैठ गया। सामान्य व्यक्ति इस तरह खिड़की से होकर अंदर नहीं आ सकता था क्योंकि उसके चैखटे पर लोहे की मजबूत सलाखें लगी हुई थी। उसके शरीर पर सफेद वस्त्र थे जो मटमैला हो गया था। आँखें रोज की तरह जल रही थी। इतना तो तय था कि वह मानव सदृष्य, कोई मानवेत्तर प्राणी था और कम से कम इस गाँव का रहने वाला नहीं था।
अब तक उसने हम में से किसी को भी किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुँचाया था अतः उसकी ओर से हमारे अंदर का भय काफी हद तक समाप्त हो चुका था फिर भी इस घटना के लिये हम में से कोई भी तैयार नहीं था और एक बार फिर हम सब अंदर तक कांप गए। डर के कारण हम बोल भी नहीं पा रहे थे। अगली बार उसे भी पत्ते बांटे गये। मैंने बीड़ी सुलगा कर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा - ’’आ गए काका?’’
मेरी बातों का उसने न तो कोई जवाब दिया और न ही उसके चेहरे पर किसी तरह के भाव ही आये। उस रात हमने अपना खेल जल्दी ही समेट लिया। वह व्यक्ति किसी से बिना कुछ कहे उसी खिड़की के रास्ते बाहर चला गया।
यद्यपि उसने अब तक हममें से किसी को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाया था, फिर भी इस तरह की घटना का जारी रहना उचित नहीं था। अगले दिन इस समस्या से निजात पाने के लिये हम लोगों ने काफी विचार-विमर्श किया।
निष्कर्श में जाहिर था कि वह कोई मनुष्येत्तर प्राणी ही था, पर स्वभाव से भला था। गाँव वालों के अनुसार कुछ साल पहले गाँव के किसी व्यक्ति की अचानक मौत हो गई थी। उसी की आत्मा आसपास भटकती थी। यह वही हो सकता था। अंतिम निष्कर्श यह निकला कि उसे बिड़ी पीने की आदत है और बिड़ी की चाह में हम तक आता है।
एक मित्र ने कहा - ’’उसे ताश का भी शौक है। आप लोगों ने शायद ध्यान नहीं दिया होगा, वह खिड़की के बाहर से ही हमें ताश खेलते हुए देखता रहता है।’’
एक मित्र ने उपाय सुझाया कि किसी तांत्रिक की मदद ली जाय और परिसर के चारों ओर मांत्रिक सुरक्षा कवच का घेरा बनवा दिया जाय।
मैं तांत्रिक के पक्ष में नहीं था क्योंकि स्कूल परिसर में इस तरह की हरकत से पढ़ने वाले बच्चों की मानसिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता और प्रशासन को इसकी भनक लगने से हम पर कार्यवाही भी हो सकती थी। अचानक मेरे मन में एक उपाय सूझी। मैंने कहा - ’’क्यों न आज हम उस व्यक्ति की समाधि पर बिड़ी का कट्टा और माचिस अर्पित करके हाथ जोड़ ले।’’
तीनों मित्र मेरे इस उपाय पर सहर्ष सहमत हो गए।
दूसरे ने कहा - ’’साथ में ताश की एक गड्डी भी रख देंगे।’’
इस सुझाव पर भी हम सब सहर्ष सहमत हो गए।
शाम को हमने ऐसा ही किया।
हमारी तरकीब काम कर गई। उस रात वह नहीं आया। हमने राहत की सांस ली।
एक मित्र ने तर्क दिया कि बिड़ी खत्म होने पर वह फिर आ सकता है इसलिये बिड़ी चढ़ावे का यह क्रम हमें बनाये रखना चाहिये।
उसका यह सुझाव भी मान लिया गया और रोज शाम उस समाधि पर बिड़ी और माचिस-चढ़ावे का क्रम शुरू हो गया।
एक दिन गाँव के किसी व्यक्ति ने हमें उस समाधि पर बिड़ी चढ़ाते हुए देख लिया। उसने इसका कारण पूछा। विवश होकर उस दिन हमने उसे पूरी घटना के बारे में बता दिया। बात गाँव भर में फैल गई और उस दिन से उस समाधि पर गाँव वाले भी बिड़ी-माचिस चढ़ाने लगे।
उसे हमने फिर कभी नहीं देखा।
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रघुनाथ अशोक की बातों को पूरे समय तक पूरी एकाग्रता पूर्वक सुनता रहा। घटना सुनाने के बाद अशोक ने पूछा - ’’बताओ भला! यह क्या है?’’
रघुनाथ ने कहा - ’’लोगन रघुनाथ ल गप्पी कहिथें। तंय ह कब ले गप मारे के शुरू कर देस?’’
अशोक ने कहा - ’’यह गप्पबाजी नहीं है, हकीकत है।’’
तब तक वे लोग घर पहुँच गये थे और बात वहीं अधूरी रह गई थी।
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बीच में पड़ने वाले नाले के पास पहुँच कर अशोक के विचारों का क्रम टूटा। अंधेरा पक्ष चल रहा था, अंधेरा घना था, परंतु उसके पास टार्च थी और उसे नाला पार करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। नाला पार करने के बाद अशोक पुनः यादों में खो गया।
रघुनाथ जब पिछली बार उसे गाँव से भोलापुर छोड़ने आया था तब उसने पूछा था - ’’अब तो दिवारी तिहार आने वाला हे, के तारीख के आबे बता दे रहा, तोला लेगे बर आ जाहूँ।’’
अशोक ने कहा था - ’’अबे गप्पू, देवारी तिहार अभी डेढ़ महीना बचा है। पर हाँ इस साल तिहार के दिन हम दोनों एक जैसे कपड़े पहनेंगे। नांदगाँव से लाऊँगा, तेरे लिये और मेरे लिये,, जींस और टी शर्ट, बिलकुल एक जैसा।’’
’’कपड़ा लाबे कि झन लाबे, मिठाई जरूर लाबे भई। नांदगाँव के मिठाई ह गजब सुहाथे।’’ रघुनाथ ने कहा था।
चलते-चलते अशोक ने बैग में टटोल कर देखा, कपड़े भी थे और मिठाइयाँ भी थी।
दूर से ही श्मशान में दहक रहे चिते की अंगारों को देख कर अशोक का मन खिन्न हो उठा। गाँव में आज फिर किसी की मौत हुई थी। भरी दीवाली में पता नहीं किस परिवार के ऊपर वज्रपात हुआ था। श्मशान के नजदीक पहुँचने पर चिते की दहकते अंगारों की पीली रोशनी में उसने देखा, बीच सड़क पर कोई आदमी खड़ा है। और नजदीक पहुँचने पर अशोक ने उसे पहचान लिया, वह रघुनाथ ही था। अशोक ने सोचा, किसी वजह से उसे लेट हो गया होगा और वह भोलापुर तक नहीं पहुँच पाया होगा। उसने राहत की सांस ली; घर पहुँचने पर माँ की डाँट से अब वह बच सकता था। रात में इस तरह अकेले आने पर अशोक को हमेशा माँ की डाँट खानी पड़ती थी। अशोक ने कहा - ’’अबे गप्पू, आज लेट कैसे हो गया? तेरी सायकिल कहाँ है? और तूने अपनी ये कैसी हालत बना रखी है। इतनी ठंड में केवल गमछा लपेट कर चला आया है।’’
उसने कोई जवाब नहीं दिया।
बिड़ी सुलगा कर अशोक ने उसकी ओर बढ़ दिया। उसने चुपचाप बिड़ी ले ली और कश खींचने लगा।
उसने फिर हाथ बढ़ाया। अशोक समझ गया, अब उसे मिठाई चाहिये थी। उसने टटोलकर बैग से मिठाईयों का डिब्बा निकाला। डिब्बा उसके हाथों में देते हुए उसने कहा - ’’अब कपड़े मत मांगना, वह तो तिहार कि दिन ही मिलेंगा।’’
चलते हुए अशोक ने कहा - ’’अब चलो भी, यहीं खड़े रहोगे।’’
उसने कुछ नहीं कहा और चुपचाप अशोक के पीछे-पीछे चलने लगा। उसकी चुप्पी पर आज अशोक को हैरत हो रही थी। चलते-चलते उससे उसने बहुत सारे सवाल पूछे कि जल रही चिता किसकी है? फसल कैसी है? पर उसने उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया। केवल अशोक ही बकबक किये जा रहा था और वह चुपचाप सुने जा रहा था। उसकी चुप्पी पर अशोक को गुस्सा आ रहा था। उसे डाँटने के लिये उसने अगल-बगल देखा। अशोक को आश्चर्य हुआ, पता नहीं वह कब और कहाँ गायब हो गया था।
घर पर अशोक की ही प्रतीक्षा हो रही थी। पहुँचते ही माँ की डाँट शुरू हो गई कि कितनी बार कहा है, रात-बिकाल अकेले मत चला करो।
अशोक ने कहा - ’’अकेला कहाँ था माँ, रघुनाथ लेने गया था न।’’
रघुनाथ का नाम सुनते ही माँ नरम हो गई। उसने कहा - ’’काबर लबारी मारथस रे बाबू, वो बिचारा ह अब कहाँ ले आही?’’
’’का हो गे हे रघुनाथ ल? अभी तो मोर संग म आइस हे।’’ अशोक ने कहा।
’’मरघट्टी म चिता बरत होही, नइ देखेस बेटा।’’ माँ ने लगभग रोते हुए कहा।
तो क्या वह चिता रघुनाथ की है? अशोक सहम गया। उसको सहसा विश्वास नहीं हुआ। कुछ देर पहले देखा हुआ उसका खुला बदन, मौन और भावशून्य चेहरे पर उसकी जलती हुई आँखें उसकी नजरों में कौंध गई। निढाल होकर वह कुर्सी पर पसर गया। आँखों से आँसू बहने लगे।
रघुनाथ के मरने की सारी कहानी माँ ने उसे सुना दी।
दूसरे दिन सुबह अशोक ने भारी मन से उसके लिये खरीदी गई जींस और टी शर्ट को बैग से निकाला और उसकी बुझ चुकी चिता के पास रख आया।
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भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
मो. 9407685557
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पिन 491441
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दो संतरे
उस साल इन्द्र देव की खूब कृपा हुई थी। ज्येष्ठ निकलने में सप्ताह भर बाकी था, तब बरसात शुरू हुई थी और अषाड़ का पहला पाख गुजर चुका था और बरसात उसी लय के साथ जारी थी। बरासात ने किसानों को खूब रुलाया था; धान बुआई का काम ले-दे कर पूरा हुआ था।
सुदूर वनांचल बीच; जहाँ की पहाड़ों से अनेक सोते और नाले जन्म लेकर बीच-बीच में छोटे-छोटे झरनों का निर्माण करते हुए आगे बढ़ते हैं, आपस में मिलते हैं और नदियों का रूप लेते हुए मैदानों तक पहुँच कर बड़ी नदी में परिवर्तित हो जाते हैं; एक गाँव है - मड़ावी टोला।
मड़ावी टोला के उत्तर पूर्व की ओर पहाड़ों का एक अटूट सिलसिला है। गाँव के दक्षिण-पश्चिम की ओर इन्हीं पहाड़ों से निकल कर एक बरसाती नाला बहता है जो कुछ ही दूर चल कर कोतरी नदी में जा मिलता है। नदी और नाले के बीच छोटा सा समतल और उपजाऊ कछार है, जहाँ मड़ावी टोला के लोगों की खेती बाड़ी है।
मड़ावी टोला आदिवासियों की बस्ती है। यहाँ के अधिकांश आदिवासी मड़ावी गोत्र के है और शायद इसी वजह से इस बसाहट का नाम मड़ावी टोला पड़ गया होगा। इसी गाँव में रहता है, हेड़मू मड़ावी, अपनी पत्नी, बेटा और बहु के साथ। हेड़मू मड़ावी कब का साठ पूरी कर चुका है, फिर भी उनका शरीर मजबूत है; दिन भर खेत में काम करता है। उनकी हमउम्र पत्नी भी उन्हीं की तरह स्वस्थ है और खेत में हमेशा उनके साथ बनी रहती है। हेड़मू परिवार की जरूरतें बहुत सीमित हैं। हेड़मू अपनी खेती-बाड़ी में हमेशा खुश रहता है। किसी बात का दुख नहीं है उसे। उनको, दुख है तो बस एक ही बात का; बेटे की शादी हुए दस साल बीत गए हैं पर उन्हें अब तक औलाद नहीं हुई है। चिंता इस बात की थी कि बंस आगे कैसे चलेगा और फिर किस बुजुर्ग का मन नाती-पोतों के लिये नहीं मचलता होगा? बैगा-गुनिया, तेला-बाती, झाड़-फूँक, दवा-दारू, सूजी-पानी सब करके देख लिया है। सब उदीम करके हार गया है हेड़मू मड़ावी। भगवान की मर्जी के आगे भला कोई क्या कर सकता है?
कछार में नाले से लगा हुआ, हेड़मू मड़ावी का आधा-पौन एकड़ का छोटा सा एक खेत है। खरीफ में वह खेत के एक हिस्से में कुलथी और मड़िया तथा बांकी में साठिया धान की खेती करता है। साठिया धान जल्दी पकता है और पानी भी कम लगता है। साठिया धान के बाद बंगाला, मिरी, भाटा, मुरई, गोभी की सब्जियाँ लगाई जाती हैं। खेत के एक कोने में कुछ ऊँची जगह पर उनका झाला है। झाला के खदर की छानी में रखिया, तुमा और कुम्हड़ा भी खूब फलते हैं। खेत में कटहर, आमा, जाम, लिंबू और संतरा के भी पेड़ हैं। अपने-अपने मौसम में ये भी खूब फलते हैं।
हेड़मू पत्नि सहित साल के बाराहों महीने और आठों पहर बाड़ी में ही रहता है। झाला ही उनका घर है। बहू-बेटे रोज कहते हैं कि दिन में तो ठीक है पर रात बाड़ी म न रहा करें। आखिर यह वनवास क्यों? पर हेड़मू किसी की सुनता कब है? कहता है - गाँव में रखा ही क्या है? जो जमीन पेट भरने के लिये अनाज देती है, वही तो माँ है, उसी का कोरा अच्छा लगता है। घर में पल भर रहने का मन नहीं करता। यहाँ पर खेत है, बाड़ी है, आमा, लिमउ, संतरा, केरा, जाम के भाई जैसे पेड़ हैं; उसी की सेवा-जतन में दिन कँट जाता है।
बेटा का पैर न तो घर में ठहरता है और न ही खेत में। पता नहीं दिन भर कहाँ-कहाँ भटकता रहता है? क्या कमाता है? कहाँ कमाता है? पर कमाता जरूर है। तभी तो घर-गिरस्ती चल रहा है।
बहू सोला आना है। सुबह होते ही वह भी खेत आ जाती है। दो-दो जगह चुल्हा जलाना उचित नहीं है। चुल्हा यहीं जलता है, सुबह का भी और सांझ का भी। दोनों समय का भोजन यहीं बनता है। सांझ के समय सास-ससुर को भोजन कराने के बाद वह रात-मुंधियार होते तक घर लौट जाती है। जिस दिन पति बाहर रहता उस दिन दोनों का भोजन भी वह सहीं से ले जाती है।
बहु की सेवा जतन से हेड़मू का मन सदा प्रसन्न रहता है। कहता है - ’’कोनों जनम के बेटी होही, सेवा करे बर आय हे।’’
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यहाँ से दो-तीन कोस की दूरी पर एक बड़ा गाँव है, जहाँ प्रत्येक सनीचर के दिन साप्ताहिक बाजार लगता है। मानपुर, मोहला, नांदगाँव, दल्ली, बालोद के लिए बस भी यहीं से पकड़ना होता है। वहाँ तक जाने का रास्ता हेड़मू के खेत की मेंड़ से ही होकर जाता है। दिन भर लोगों की आवाजाही लगा रहता है। गाँव के संगी-साथी हेड़मू से मिले बिना, राम-रमउवा किये बिना, चोंगी-माखुर पिए बिना आगे नहीं बढ़ते। पाँच-छ कोस के आस-पास के सभी गाँव वाले इसी बाजार में सौदा-सुलफ के लिये आते हैं। सब इसी रास्ते से होकर आते-जाते हैं। हेड़म बाड़ी को सब जानते हैं। हेड़मू को भी सब जानते हैं।
खेत और जंगल से जो भी उपज, जैसे - लाख, महुआ, चिरौंजी, इमली इन्हें मिलती है, आस-पास के सारे बनवासी, बाजार से उसके बदले में चहापत्ती, गुड़, नून, माखुर, और साबुन-सोडा बदल लाते है। बीसवीं सदी के अंतिम दिनों में भी वस्तुविनिमय का यह चलन अव्यवहारिक जान पड़ता है, पर फिर भी यह यहाँ चल रहा है क्योंकि बाहर से व्यापार करने के लिये आने वाले व्यापारी इसी के बलबूते तो मौज कर रहे हैं।
बाजार में नांदगाँव, दल्ली और बालौद तक के व्यापारी आकर यहाँ नमक, गुड़, सोने-चाँदी, कपड़े और बर्तन वगैरह की दुकानें लगाते हंै। पाँच साल पहले जो व्यापारी यात्री बस में एक चक्की गुड़ और एक टीपा तेल लेकर आता था, वह अब खुद की ट्रक और जीप से आता है।
बाजार करते-करते हेड़मू मड़ावी का अब चैथा पन आ गया है। चार-पाँच साल में इन व्यापारियों के पास इतना पैसा कहाँ से आ जा है? हेड़मू मड़ावी के लिये यह एक पहेली बना हुआ है। सब अपना-अपना भाग है, ज्यादा क्यों सोचे वह इस विषय पर?
भक्कल ऐसा नहीं मानता। वह सोचता है। इसीलिये कई बार वह इन व्यापारियों से उलझ चुका है। आज भी वह हेड़मू से कह रहा था - ’’ददा! आज तंय बाजार न जा। पानी-बादर के डर हे। चिखला-पानी में थक जाबे। का-का लाना हे बता दे, मैं ले आहूँ।’’
हेड़मू भक्कल का स्वभाव जानता है। पैदा किया है, पाल-पोस कर बड़ा जो किया है उसे। सोचता होगा, ’बुढ़गा आज फिर व्यापारियों के हाथों ठगा कर आयेगा।’ और फिर जवान है, इस उमर में घूमने-फिरने का मन भी तो करता होगा उसका। उनकी अपनी जरूरतें होंगी, बहू की जरूरतें होंगी, उसे कैसे बतायेगा वह? ठीक ही तो कहता है। आज वही जायेगा बाजार।
पर कहीं लखमू आ गया तो? लखमू हेड़मू का बचपन का साथी है। उमर बीत गई लखमू की, उसके बिना कभी वह बाजार नहीं जाता। आकर जिद्द करेगा। फिर तो वह उसे मना नहीं कर पायेगा, जाना ही पड़ेगा। बचपन का साथ छूटता है क्या? ठीक है, सौदा-सुलफ बेटा कर लेगा। पर संगवारी के साथ वह भी यूँ ही बाजार घूम आयेगा।
आधी रात से बरसात थमी हुई है। अब तो कहीं-कहीं से सूरज भी झांकने लगा है। लगता है आज मौसम खुला रहेगा। तब तो बाजार में खूब भीड़ होगी। दस नहीं बजा है, बजरहा लोग सिर पर सामानों की टोकरी लेकर और तुमा में पेज-पसिया धर-धरके बाजार जाने लगे हैं। हेड़मू झाला के अंदर माखुर बनाता हुआ खटिया पर बैठा हुआ है। आँखें रास्ते पर लगी हुई हैं। अपनों को देेेखकर, जान-पहचान वालों को देखकर, मन में उत्साह भर आता है। अब तक हेड़मू से कई लोग जय-जोहार कर चुके हैं, पर मन में अपेक्षित उत्साह नहीं दिख रहा है, चेहरे पर चमक नहीं है।
तभी कमरा-खुमरी धारी एक आदमी आता दिखाई दिया। चलने का ढंग देखकर हेड़मू ने दूर से ही उसे पहचान लिया। लखमू के सिवा भला वह और कौन हो सकता है?
बाड़ी का राचर हटाकर अंदर आते हुए लखमू ने आवाज लगाई - ’’मड़ावी पारा कोनों हव जी?’’
खाट पर बैठने की जगह बनाते हुए हेड़मू ने कहा - ’’आ भइया! आ। जोहार ले। तोर दरसन बर तो आँखीं मन ह तरसत तिहिन, जी जुड़ा गे।’’
लोटा में पानी रखकर पाँव पड़ते हुए बहु ने कहा - ’’गजब दिन म दिखेस ममा, ले गोड़ धो ले।’’
बहु की ममता भरी आवाज में अपने लिये ममा संबोधन सुनकर लखमू को माँ की याद आ जाती है। आसीस देते हुए कहा - ’’खुस रह दाई! खुस रह। आजी के दिन तो आय रेहेंव माता, कहाँ गजब दिन होय हे।’’
हेड़मू जब तक संगवारी की ओर माखुर की डिबिया बढा़ पाता, बहु गिलास में चहा लेकर आ गई। लखमू ने कहा - ’’ला न दाई, इही ह तो आजकाल के पेज आय। आज भउजी ह नइ दिखत हे?’’
’’है न ममा, बखरी म साग सिल्होत हे।’’ कहती हुई वह भी बाड़ी अंदर चली गई।
लखमू ने बहु को लक्ष्य करके हेड़मू से कहा - ’’बिहाव होय दस बरिस ले जादा भइगे। दवा-दारू सब करके हार गेस। अउ कतका आस करबे? बाबू के दूसर बिहाव नइ कर देस।’’
हेड़मू - ’’मोरो मन म अइसने बिचार आथे। फेर दुनों झन के मया-परेम ल देखथंव, सग बेटी ह नइ करतिस तइसन सास-ससुर के सेवा करइ ल देखथंव, तहाँ मोर हिम्मत ह हार जाथे। बहु आय फेर बेटी ले बढ़ के हे। भगवान ह नइ चीन्हे तउन ल का करही बिचारी ह। का गलती हे येमा वोकर? तहीं बता; ये ह कोनों तोर बेटी होतिस तब अइसने गोठ करतेस का तंय ह?’’
लखमू - ’’बने केहेस रे भाई, मंय तो तोर मन लेवत रेहेंव। भगवान के जइसन मरजी। पाप के भागी हम काबर बनबोन?’’
बहु तब तक बाड़ी से बंगाला, मिरी और धनिया तोड़ कर लौट आई। कहती है - ’’चटनी पीसत हंव ममा। मोहलाइन पान म अंगाकर रोटी रांधे हंव, खा लेहू तब जाहू।’’
लखमू सोचता है - हाथ से थापकर बनाई गई चाँवल के आटे की मोटी रोटी को मोहलाइन अथवा केले के कच्चे पत्तs से ढंक कर कंडे के अंगारे की धीमी आंच में पकाई जाती है तो ऐसे पके हुए अंगाकर के स्वाद का मुकाबला छप्पनभोग भी नहीं कर पाता। और फिर बनाने वाली है कौन? अपनी चतुर और गुनी दसमो बहु। साथ में गुड़ और बंगाले की चटनी हो जाय तो फिर और क्या पूछना; स्वाद कई गुना बढ़ जाता है।
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चार बजते तक बजरहा लोग अपने-अपने घर लौट आए। दो बजे से ही मौसम फिर गढ़ाने लगा था। दक्षिण की और से कालेजामुन के समान काले-काले बादल आसमान को ढँकने लगे थे। सांझ नहीं हुआ था पर सांझ के छ बजे के समान अंधेरा छा गया था। ऐसा बादर तो पहले कभी नहीं छाया था। आसमान की ओर निहारते हुए हेड़मू ने कहा - ’’आज तो बादर ह धरती म गिर जाही तइसे लागत हे।’’
भक्कल ने कहा - ’’ददा! आज तो तुमन घर चलो। नंगत पानी गिर जाही ते पुरा आ जाही। तुमन इहाँ छेंका जाहू। के दिन ले पूरा रही न के दिन ले। इहाँ कोन तुँहर सेवा-जतन करही?’’
बहु ने भी किलोली किया, भगवान का वास्ता दिया।
पर हेड़मू कब मानने वाला था। उसने कहा - ’’सालपुट तो पूरा आथे। नवा बात का हे? छेंकइच् जाबोन ते अभी रांधे-खाय के पुरती गत्तर ह चलत हे। तिपो के अलवा-जलवा खा लेबोन। सब जिनिस तो माड़े हे। फिकर काबर करथो?’’
’’झाला ह बूड़ जाही त कइसे करबे?’’
’’एको साल तो नइ बूड़े हे, एसोच् बूड़ जाही?’’
’’एसो जइसे पानी अउ कभू गिरे रिहिस हे?’’
बहू को सास-ससुर की ज्यादा चिंता है। लत्ते-कपड़े और सामानों की मोटरियाँ बनाकर उसने कहा - ’’चलो न ममा, जीव ह तुहँरे डहर लगे रही। काबर पेलियाही करथव?’’
’’कोनों किसम के फिकर झन कर बहू। ले जाव तुमन अब। पानी गिरने वाला हे।’’
हार मान कर भक्कल और दसमो बहु, दोनों डबडबायी आँाखों के साथ लौट आये। उनके घर पहुँचते ही रझरिझ-रझरिझ मुसलाधार बारिस शुरू हो गई। छानी-परवा एक हो गए। चारों ओर सफेदी छा गया। न पहाड़ दिखता था और न ही जंगल-झाड़ी दिखते थे। ऐसा लगता था मानों जंगल-पहाड़, पेड़-पौधे सब के सब अचानक गायब हो गए हों। गाँव के नाले में देखते ही देखते बाढ़ आ गई। घंटे भर की ही बरसात से बाढ़ का पानी नाले के किनारों की मर्यादा तोड़कर खेतों में बहने लगा। मानों बरसात नहीं हो रही थी बल्कि आसमान टूटकर कर धरती पर गिर रहा था।
भक्कल ने कहा - ’’कइसनो करके मंय ह बाड़ी जावत हंव। सियान मन ल धर के लाहूँ। अइसने पानी कहूँ गिरत रही त रात भर म कुछू नइ बाँचय। सियान मन ह कहिथें - हमर जनम नइ होय रिहिस तब बहुत साल पहिली अइसने पानी गिरे रिहिस, सात दिन अउ सात रात ल सरलग, कछार म बाँस भर पानी के धारी चले रिहिस हे। कछार के मेड़ खेत, सब एक हो गे रिहिस हे। रूख-राई सब बोहा गे रिहिस हे। गाँव के घला कतरो अकन घर-कुरिया ह बोहा गे रिहिस हे।’’ कहते-कहते भक्कल की आँखें छलछला गईं।
दसमो कुछ नहीं कह सकी। माँ-बाप के लिए उसकी भी चिंता कम न थी, पर उसे पति की भी चिंता थी। वह जानती थी कि पति जो भी कह रहा है, उसे कर पाना अब असंभव हो चुका है। कहाँ तो छाती-कमर इतना पानी में ही नाला पार करने में कई लोग बह चुके है; और अब तो उसमें दो-दो बांस पानी प्रचंड वेग से बह रहा है। उस पार जाना असंभव है। न डोंगा काम आ सकता है न मोरी। किसी तरह उस पार चले भी गए तो बुजुर्गों को लेकर वापस कैसे आया जायेगा? अनहोनी की आशंका से ही डर कर दसमों पति की छाती से लग गई।
तभी शरीर पर कमरा और कमरे के ऊपर सरकारी झिल्ली का मोरा लपेटे, सिर पर खुमरी लगाए, लाठी टेकता हुआ लखमू आ पहुँचा। उसे भी पता है कि हेड़मू नाले पार कछार में ही फंसा हुआ है। भावुकता और जवानी के जोश में भक्कल नाला पार करने की भूल न कर बैठे, इसी चिंता में; और बच्चों के मन को ढाढस भी तो देना है इसलिए भी, वह इस मूसलाधार बारिश में यहाँ तक चला आया।
बारिश में भींगते हुए भक्कल नाले तक जाकर कई बार लौट आया था। हर बार नाले का पानी गाँव की ओर और बढ़ आता था। नाले के किनारे पर खड़ा होकर उसने कई बार आवाज लगाई थी; यह जानने के लिए कि उधर सब खैरियत तो है? पर बारिश के इस शोर में उसकी आवाज वहाँ तक कैसे पहुँच सकती थी? अँधेरा होने से पहले तक उसे बाड़ी और बाड़ी में बना हुआ उसका झाला सुरक्षित दिख रहा था। भक्कल ने गढ़माता मैया को, तैतिस कोटि देवी-देवताओं को और अपने कुल देवी को कई बार याद किया, बदना बदी, दुआएँ मांगी। गाँव वालों ने भी गंगा मैया के प्रकोप को शांत करने के लिये, बाढ़ से गाँव को बचाने के लिए सोने-चाँदी सहित पंचधातु का मेल जल में प्रवाहित किये। उस रात न तो भक्कल से कुछ खाया गया और न ही दसमो से। रात भर उनकी निगाहें कछार की ओर लगी रहीं; बाड़ी में बने झाले की खैरियत टटोलती रहीं; पर रात के अँधेरे में कुछ भी दिख पाना संभव नहीं था।
चार पहर की रात चार युग की तरह बीता। सुबह होने तक बारिश थम चुकी थी पर इस दौरान बाढ़ ने सब कुछ लील लिया था। गाँव टापू बन चुका था। पूरा कछार बाढ़ में डूब चुका था। कछार के ऊपर से इतना पानी बह रहा था कि वहाँ के सारे पेड़ उसमें डूब चुके थे। भक्कल की पूरी दुनिया बाढ़ में बह चुकी थी।
तीन दिन बाद स्थिति सामान्य हुई। सब कुछ तहस-नहस हो चुका था। झाले का नामोंनिशान भी नहीं बचा था। दो दिन तक नाले के किनारे लगे, नीचे की ओर के गाँवों में बूढ़े-बूढ़िया की तलाश की जाती रही। सरकारी राहत दल ने भी साथ दिया, पर हाथ कुछ भी नहीं आया। कोतवाल के माघ्यम से थाने को सूचित कर दिया गया।
कुछ दिन बाद थाने से भक्कल का बुलावा आया। दूसरे थाने के अंतर्गत कई कोस दूर, नाले के किनारे झाड़ियों में उलझे हुए, एक पुरूष की और एक महिला की सड़ी-गली अवस्था में लाश पाई गई थी। शिनाख्त नहीं हो पाने के कारण शवों को दफना दिया गया था, लेकिन तहकीकात के लिये उनके वस्त्र इस थाने में भिजवाये गये थे। भक्कल से इन्हीं वस्त्रों की पहचान कराई गई। कपड़ों को देखते ही भक्कल पागलों की तरह रोने लगा।
घर आकर भक्कल ने सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार माँ-बाप का क्रिया-कर्म किया। उस दिन के बाद भक्कल ने कछार की ओर मुँह करके देखा भी नहीं।
बाढ़ ने धान के फसल को चैपट कर ही दिया था। पर क्वाँर का महीना लगते ही कछार में सब्जियों की बोआई-रोपाई का काम शुरू हो गया। लखमू ने भक्कल को कई बार समझाया कि जाने वालों के के लिये लोग जीना नहीं छोड़ देते। जिन्दा रहना पड़ता है; और जीने के लिये काम भी करना पड़ता है। सियान को बाड़ी से बड़ा लगाव था। बाड़ी का त्याग करने से उनकी आत्मा दुखी ही होगी। अच्छा होगा कि बाड़ी को फिर से आबाद किया जाय। पर भक्कल कुछ समझने के लिये तैयार ही नहीं था।
दीपावली का त्यौहर आया। नन्हें दीपकों से सब के घर रौशन हुए। पर भक्कल के घर का अँधेरा इतना घना था कि लाखों दीयों की रौशनी से भी वह दूर नहीं हो सकता था।
लखमू के बहुत समझाने-बुझाने और मान-मनौव्वल के बाद एक दिन भक्कल और दसमो रापा-कुदाल लेकर कछार आये। साथ में लखमू भी था। हेड़मू मड़ावी के भाई समान कटहर, आमा, जाम, लिंबू और संतरा के पेड़ अपनी-अपनी जगह पर कायम थे परन्तु फल किसी में भी नहीं लगे थे। मानो मालिक के लिये ये भी दुखी हो। आमा के फलने का अभी मौसम नहीं आया था। कटहर के फूलने का समय था। परन्तु इस मौसम में खूब फलने वाले जाम, लिंबू और संतरा के पेड़ों पर भी तो फल नहीं लगे थे। भक्कल और दसमो ने बारी-बारी से सभी पेड़ों के पास जाकर उनके पत्तों को, शाखों को और तनों को सहलाया। मानों माँ-बाप के स्पर्ष को अनुभव करना चाहते हों। फिर छः-सात फीट ऊँचे संतरे के पेड़ के पास आकर मेड़ पर दोनों बैठ गए। हेड़मू को रास्ते के किनारे आबाद इसी पेड़ से सर्वाधिक लगाव था। बाजार से खरीद कर लाये गये संतरे के फल से निकले बीजों से तैयार इस पेड़ में लगने वाले फल न तो संतरे के समान होते थे और न ही मौसम्बी के समान; पर स्वादिष्ट खूब थे।
बच्चों की उदासी को भांप कर लखमू भी वहीं पर आकर बैठ गया। भक्कल और दसमो की निगाहें पूरी तल्लीनता के साथ लगातार संतरे के इस पेड़ की शाखाओं और पत्तियों की ओर लगी हुई थी। मानों ही मानो माँ-बाप की आत्मा को इन पत्तियों के बीच तलाश रहे हों। दसमो अचानक चहक पड़ी। पति को झकझोरते हुए कहा - ’’ऐ! देख तो कतका सुघ्धर पाका-पींयर फर फरे हे।’’
भक्कल ने पत्नि की इशारा करती हुई ऊँगली का अनुशरण किया और उसे भी वह फल दिख गया। परन्तु चहकने बारी अब भक्कल की थी। उसी फल के पास कुछ ऊँचाई पर पीला पका हुआ पहले वाले से कुछ बड़ा एक और फल था जिसे उसने देखा था।
भैया-भौजी के जाने के बाद लखमू ने पहली बार बच्चों के चेहरों पर खुशी देखी थी। कहा - ’’काला देखथो रे भइ! हमला नइ देखाव।’’
’’दू ठन संतरा फरे हे कका, पाका-पाका, पींयर-पींयर।’’ दसमो ने कहा।
लखमू - ’’कहाँ? कते करा फरे हे?’’
भक्कल ने ऊँगली से इशारा करते हुए बताया - ’’वो देख, अंगरी के सोझ म।’’
परन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी वे फल लखमू को दिखाई नहीं दिये। लखमू ने सोचा - जंगल के अतका बेंदरा- भालू, चिरई-चिरगुन, रद्दा रेंगइया हरहा-खुरखा, कोनों ल ये फर मन ह नइ दिखिनं, मुही ल काबर दिखही? जउन मन ल दिखना रिहिस हे, वो मन ल दिख गे। कहा - ’’सियाना आँखी रे भइ, हमला तो नइ दिखे। टोर के देखाहू ते देख लेबोन।’’
भक्कल ने एड़ी के बल खड़ा होकर उन दोनों फलों को तोड़ लिया। हथेलियों पर रख कर कका को दिखाया - ’’ले देख, अब दिखिस।’’
लखमू को फलों में भैया-भौजी की आत्मा की उपस्थिति का अनुभव हुआ। हाथों में लेकर माथे से लगाया और लौटाते हुए कहा - ’’ये रद्दा म रोज पचासों झन आदमी रेंगत हें। जंगल के बेंदरा-भालू हें, चिरई-चिरगुन हें, कोनों ल नइ दिखिस। तुँहिच् मन ल कइसे दिख गे? सियान मन के आसिरवाद समझ के अपन-अपन फर ल तुमन खा लेव।’’
ऐसा ही किया गया।
संतरे के वे दोनों फल भक्कल के लिये खुशियों का सौगात लेकर आए थे। अगले साल की दीपावली आते तक भक्कल के घर का सारा अँधेरा मिट चुका था। कुल को रोशन करने वाला कुल का दीपक जो आ गया था।
हेड़मू मड़ावी की बाड़ी अब फिर आबाद हो गई है। बह गए झाले की जगह पर नया झाला बन गया है। सब्जी की नई क्यारियाँ बन गई हैं। क्यारियों में सब्जियाँ खूब फलती हैं। पेड़ों पर भी खूब फल लगते हैं। भक्कल और दसमो दोनों, अपने सुंदर-सलौने बेटे को झाला में चारपाई पर लिटा कर बाड़ी में खूब लगन के साथ काम करते हैं।
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भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
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मो. 9407685557
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