मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

कहानी

घट का चैंका कर उजियारा  

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हिन्दू पंचाग के अनुसार वह कार्तिक का महीना था, और उजले पाख की चैदहवीं तिथि थी। चैदह दिन पहले ही दीवाली मनाई गई थी। नंदगहिन काकी के घर उत्सव का माहौल था। आमंत्रित  रिस्तेदार, भाई-भतीजे, जान-पहचान वाले, सुख-दुख में साथ देने वाले, सभी जुटे हुए थे। बेटी-दामाद, नाती-नतनिनें सभी आए हुए थे। सुबह सात बजे ही घर की छानी पर पोंगा रख दिए गये थे। पोंगा बजाने वाले से काकी ने साफ-साफ कह दिया था कि भजन के अलावा और किसी प्रकार का गाना नहीं बजाना है।

घर के नाम पर मिट्टी की दीवारों से बने, सामने की ओर बरामदे में खुलने वाले दो कमरे हैं। घर में जब कोई मांगलिक काम संपन्न होना हो तो घर की साफ-सफाई लिपाई-पुताई तो जरूरी होता है। दीवारों को अभी, दीवाली के समय, सफेद छुई मिट्टी से पोता गया था, पीली छुई मिट्टी से खुंटियाया गया था। चमक अभी भी कायम है; फिर भी नेग के लिये पीली छुई मिट्टी खुंटियाने का रस्म निभाया गया है। कच्चे फर्स को गोबर लीपा गया है।

घर के सामने बहुत बड़ी खाली जगह है जिसे गोबर से लीप कर चिकनाया गया है। काफी बड़ा शामियाना लगाया गया है। एक कोने में रसोई बन रहा है। दार-चाँउर, नून-तेल, लकड़ी-फाटा  आदि, की जिम्मेदारी सुकवारो काकी ने ले रखा है। सुकवारो काकी और नंदगहिन काकी की मिताई गाँव में प्रसिद्ध है। दोनों हम-उम्र हैं, एक ही साल गौना होकर आई हैं इस गाँव में।

बेटी और दामाद, दोनों, मेहमानों और आमंत्रितों के स्वागत सत्कार में जुटे हुए हैं। सब काम ठीक-ठाक निबट रहा है, फिर भी नंदगहिन काकी को बड़ी चिंता है, कहीं जग हँसाई न हो; बार-बार कबीर साहेब से दुआ मांग रही है - ’हे साहेब! मोर लाज ह अब तोरेच् हाथ म हे। सहित रहिबे।’

इसी साल, अषाड़ की बात है। एक दिन सांझ के समय नंदगहिन काकी खेत से लौटी, और आते ही खाट पर पसर गई। सोई तो उठ नहीं पाई। बदन दर्द से टूट रहा था, और तवे के समान तप भी रहा था। घर भर का कंबल-कथरी ओढ़ कर भी वह लदलद-लदलद कांप रही थी। घर में और कोई होता तो कुछ करता। सुकवारो का ध्यान आया, दो घर छोड़कर उनका घर है; पर वहाँ तक भी जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। अपने अनुभव से उसने समझ लिया था कि यह मलेरिया का प्रकोप है।

अंदर, रसोई में बहू रात का भोजन बनाने में व्यस्त थी। पोते को गोद में लेकर सुकवारो काकी आंगन में टहल रही थी। मन बेचैन हुआ जा रहा था; आखिर नंदगहिन को आज क्या हुआ, अब तक नहीं आई? जिंदगी में कभी, कोई ऐसा दिन बीता है, जब इस समय वह मिलने न आती हो? सोचते हुए वह बाहर, गली में निकल आई। निगाहें गली के उस ओर मुड़ गई जिधर नंदगहिन का घर पड़ता है।गली के दोनों ओर कतार में घर बने हुए हैं। सबकी छानी  में से सफेद-नीले रंग के घुँए की लकीरें निकल रही थी। रात का भोजन बनाने का समय जो था; पर नंदगहिन के घर की छानी से बिलकुल भी धुँआ नहीं उठ रहा था। सुकवारो की चिंता और बढ़ गई,। मन में कुछ अनहोनी का अहसास होने लगा और दिल की धड़कनें तेज हो गई। महिलाओं का दिल कोमल और कमजोर तो होता ही है। तेज कदमों से उसने नंदगहिन के घर की राह ली।

दरवाजे पर पहुँते ही उसने आवाज लगाई - ’नंदगहिन गोई?’

दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, और हाथ के हल्के दबाव से ही खुल गया। घबराई हुई सुकवारों ’नंदगहिन गोई’ की आवाज लगाते हुए घर के अंदर तक आ गई, जहाँ पर नंदगहिन की खाट पड़ी होती है। चादर-कथरियों में लिपटी सोई और बुरी तरह काँपती-कराहती नंदगहिन को देखकर सुकवारो की घिघ्धी बंध गई। दिल जोरों से धड़कने लगा। आँखें डबडबा गईं। आँचल के कोर से बह आए आँसुओं को पोंछते हुए कहा - ’’तोला का हो गे मोर बहिनी? कइसे लागत हे? काबर सुते हस?’’

तेज बुखार की हालत में भी नंदगहिन सचेत थी, पैरों की आहट से सुकवारों के आगमन को भांप गई थी, कहा - ’’कुछू नइ होय हे मंडलिन, मलेरिया बुखार कस लागत हे। घंटा दू घंटा म उतर जाही।’’

पर सुकवारो कहाँ मानने वाली थी। डाॅक्टर बुलाने के उसने तुरंत अपने किसन बेटा को भेज दिया। एक अकेली बेचारी नंदगहिन, बेटी है जो अपने ससुराल में रहती है, यहाँ कौन हे नंदगहिन का उसके सिवाय?

गाँव के झोला झाप डाॅक्टर का इलाज शुरू हुआ। सप्ताह भर तक दोनों समय इंजेक्शन लगाए गये। टाॅनिक दी गई, गोलियाँ खिलाई गई, पर बुखार नहीं गया। गाँव के बैगा-गुनिया लोगों से झाड़-फंूक भी कराया गया, नंदगहिन फिर भी ठीक नहीं हुई। बेटी-दामाद दोनों दूसरे दिन सुबह से ही सेवा-जतन में जी-जान से जुटे हुए थें। अब तो इन्हें भी चिंता होने लगी; बीमारी बढ़ती ही जा रही थी। गाँव के झोला छाप डाॅक्टर ने जवाब दे दिया।

गाँव की नर्स बाइग् और सुकवारो काकी कब से जिद्द कर ही थी कि इसे तुरंत राजनांदगाँव के बड़े अस्पताल में भरती कर देना चाहिये। आखिर उन्हीं का सलाह काम आया।
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दो दिन तक खून, पेशाब और कई तरह के जांच किए गये। तीसरे दिन सिस्टरों ने बताया कि मलेरिया का असर दिमाग तक पहुँच गया है। पीलिया और टाॅयफाइड अलग है। तुरंत खून चढ़ाना पड़ेगा, फिर भी अब केवल ऊपर वाले का ही सहारा है।

ऊपर वाले की ही कृपा थी कि नंदगहिन बच गई। और अब तो वह टंच भी हो गई है। जन्म से ही चुलबुली और हँसमुख स्वभाव की नंदगहिन, पाँव घर में कब थिराते हैं? पुराना रेवा-टेवा फिर शुरू हो गया। दामाद खोज-खबर लेते रहता है। बेटी बराबर आती-जाती रहती है, चिंता हुई कि बदपरहेजी में और कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाय? एक दिन उन्होंने कहा -  ’’दाई, अब तोर गत्तर खंगत आ गे हे। चल हमर संग। संग म रहिबे। इहां घर के सिवा अउ का रखे हे?’’

नंदगहिन निरक्षर है तो क्या हुआ, स्वाभिमानी है, दीन-धरम का उसे खयाल है, मान-मयार्दा की सीमाओं को भी अच्छी तरह पहचानती है; कहा - ’’तुंहला खाली घर भर नजर आथे मोर बेटी-बेटा हो। बने कहिथव। घर म का रखे हे। आज हे, काली नइ रहही। फेर ये गांव म मोर सुख-दुख के बंटइया मोर संगी जहुंरिया हें। सबर दिन के संगवारी खेत-खार, नंदिया-तरिया, रुख-राई, धरसा-पैडगरी हें। मोर खरतरिहा के आत्मा हे। पुरखा मन के नाव-निसानी हे। इही अंगना म मोर डोला उतरे रिहिस। अब इहिंचेच ले मोर अरथी घला उठही। बेटी-बेटा हो, अपन घर, अपन देहरी, अपन गांव, अपन देस, अपनेच होथे ग। कइसे ये सब ल छोड़ के तुंहर संग चल देहूं? अउ फेर सुकारो बहिनी के राहत ले इहां मंय अकेला नइ हंव। तुहंर अतकेच मया मोर बर गजब हे।’’  

माँ की भावनाओं को समझते हुए बेटी ने कहा - ’’दाई, तंय बने कहिथस। फेर एक बात अउ हे। तंय बीमार रेहेस। बांचे के आसा नइ रिहिस। मंय कबीर साहेब ल बदना बद परे रेहेंव कि हे साहेब, मोर दाई ल एक घांव बचा दे, तुंहर चांैका आरती कराहूँ। साहेब ह मोर बिनती ल सुन लिस। अब वचन पूरा करे परही।’’

भावविभोर होते हुए नंदगहिन काकी ने कहा - ’’तुंहर सेवा अउ साहेब के किरपा से मंय नवा जनम धरे हंव बेटी। जउन बदना बदे हस, वोला पूरा करे म देरी झन कर। केहे गे हे कि काल करे सो आज कर।’’

इस तरह कार्तिक शुदी चैदस के दिन चांैका आरती का होना तय हुआ था। और नियत तिथि के अनुसार आज नंदगहिन काकी के घर इसी की तैयारियाँ चल रही है।
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दस बजते-बजते महंत साहेब अपने दीवान और आधा दर्जन चेले-चपाटियों के साथ पहुँच गए। साहेब को स्वच्छ और सुंदर आसन पर बिठया गया। महंत साहब का चरण पखारने के पश्चात् पूरे परिवार सहित नंदगहिन काकी ने चरणामृत पान किया, आरती उतारा गया।

महंत रामा साहेब का नाम कौन कबीर-पंथी नहीं जानता होगा। बहुत बड़े साधक हैं, बड़े ज्ञानी और तत्वदर्शी हैं, बीजक के एक-एक अक्षर की बड़ी विषद् व्याख्या करते हैं, जाने-माने प्रवचनकार हैं। पर उतने ही बड़े कर्मकाण्डी और नेम-धरम मानने वाले भी हैं। जिसके गले में कंठी न बंधा हो उसके हाथ से कुछ भी ग्रहण नहीं करते। नल और बोरिंग के पानी को हाथ भी नहीं लगाते; मोटर-पंपों में चमड़े, रबर या प्लास्टिक का वायसर जो लगा होता है। केवल नारियल के रेशे की रस्सी और धातु की बाल्टी से खींचा गया कुँए का पानी पीते है; प्लास्टिक की रस्सी-बाल्टी से खींचा हुआ नहीं। 
 
दामाद को पहले ही ताकीद किया जा चुका है, पूरी व्यवस्था इसी के अनुरूप की गई है।

साथ मे आये हुए सारे चेले-चपाटी खंजेरी बजा-बजाकर निर्गुनिया भजन गाने में मंस्त हैं। दीवान साहब चैंका पोतने में लगे हुए हैं। दामाद ने दी गई सूची के अनुसार, बाजार से खरीद कर लाने वाला सारा समान बड़े से एक झोले में पहले ही दीवान साहब को सौंप दिया है। पान, सुपारी, नारियल, खारिक-बादाम सहित सभी प्रकार के मेवे, कपड़े, कपास, तेल, घी, आटा सब है। थाली, लोटा, कोपरा, आम और केले की पत्तियाँ जैसे कई सामान अब भी जुटाए जाने हैं, इस काम में दामाद स्वयं लगा हुआ है; पता नहीं कब, किस सामान की जरूरत पड़ जाय?

अब की बार तेल मंगाया गया। कांच की बड़ी सी, सुंदर सी चैकोर शीशी में तेल लेकर नंदगहिन काकी स्वयं हाजिर हो गई। रख कर लौटने ही वाली थी तभी महंत साहब की वाणी सुनकर वह ठिठक गई।

महंत साहब पूछ रहे थे - ’’क्या लेकर आई हो माई?’’

’’तेल ताय साहेब।’’

’’किसमें लाई हो?’’

’’सीसी म तो लाय हंव साहेब।’’

’’किस चीज की शीशी है?’’

’’रस्ता म परे रिहिस हे साहेब। बने दिखिस त ले आयेंव। चार साल हो गे। मंय अपढ़, का जानंव, का के होही?’’

घुड़कते हुए महंत साहब ने कहा - ’’माई! तुम केवल अपढ़ ही नहीं हो, मूर्ख और अज्ञानी भी हो। खुद का धरम तो नाश कर ही रही हो, गुरू को भी धर्मभ्रष्ट करने पर तुली हुई हो। दारू की बोतल में तेल देती हो?’’

दारू की बात सुनकर और गुरु को क्रोधित देखकर नंदगहिन काकी सिर से पांव तक कांप गई। हिम्मत जुटा कर बोली - ’’बने कहिथव साहेब। हम मूरख, अज्ञानी; दारू मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन साहेब। आप मन गुरू हव, ज्ञानी-धियानी हव, तउन पाय के जानथव।’’

यद्यपि नंदगहिन काकी ने ये बातें बड़ी सहजता, सरलता और विनीत भाव से कही थी, परंतु महंत साहब को चुभ गई। शरीर क्रोध से कांपने लगा। कहा - ’’अरी पापन! एक तो पाप करती है, ऊपर से गुरू का अपमान करती है।’’

’’दारू ह नसा करथे कहिथें साहेब। चार साल हो गे, ये सीसी के तेल ल खावत, गोड़-हाथ म चुपरत। हमला तो आज ले नसा नइ होइस। तुंहला तो देखेच म नसा हो गे तइसे लागथे?’’

नंदगहिन काकी का जवाब सुन कर महंत साहब से कुछ कहते नहीं बना, परंतु क्षोभ और अपमान के आवेग में वह उठ खड़ा हुआ। शरीर क्रोध से जला जा रहा था।

गुरू का यह विकराल रूप देखकर नंदगहिन काकी सिर से पांव तक कांप गई। सोच रही थी, ’हे भगवान! पता नहीं किस जनम में कौन सा पाप किया था कि भरी जवानी में पति को खोया, सारी जिंदगी दुख भोगा। अब गुरू को नाराज करके अपना परलोक भी बिगाड़ लिया।’ आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। उसे अपनी दुनिया में अँधेरा ही अँधेरा दिखने लगने लगा। गुरू की शरण में जाने से ही भला हो सकता है। गुरू के पांवों में गिर कर बिलखते हुए कहा - ’’हे गुरू, मंय जनम भर के पापिन, तुंहर अपमान करके अउ पाप म बूड़ गेंव। मोर तो चारों खूंट अंधियारेच अंधियार हे। पाप ल छिमा करो साहेब।’’

महंत साहब का क्रोध अब शांत हो चुका था। काकी के इस आत्म समर्पण ने उनके शुष्क हृदय को भावों की तरलता से भर दिया। आँखें नम हो गई। कहा - ’’माई! उठो। तुम पापन नहीं हो। पाप तो मेरे अंदर भरा हुआ था। पाप के अंधकार में तो मैं डूबा हुआ था। कबीर साहब ने कहा है  - ’अहंकार अभिमान विडारा, घट का चैंका कर उजियारा।’ तुम्हार घर और तुम्हारा घट तो उजियारे से जगमगा रहे हैं। अहंकार का अंधियारा तो मेरे अंदर छाया हुआ था जिसे तुमने दूर कर दिया। तेरी देहरी में आकर तो मेरे सारे पाप ही  धुल गए। तुम्हारे रूप में आज मैंने गुरू को पा लिया है।’’
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भोढ़िया, पोस्ट - सिंघोला
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
मो. 9407685557

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