गीतिकाएँ
1
हर कहीं बस यही तो हुआ है।
जुनून है, नफरत का धुआं है।
0
मजहब भी भटका-सा लगता है,
सियासत ने उसे जब से छुआ है।
0
वह जायका अब जीने में कहां,
कड़ुवाहट जाने कहां से चुआ है।
0
हंसता-खेलता घर उजड़ने लगा,
लगाई किसने यह बद्दुआ है।
0
लूट,जनता को जिसने तिजौरियां भरी,
बन बैठा वही आज अगुआ है।
000
2
खामोशियों का सिलसिना टूट जाए तो कोई बात बने।
बातों का सिलसिला चल जाए तो कोई बात बने।
गले तो मिल लिये हमने-तुमने बहुत,
अब दिल भी मिल जाए तो कोई बात बने।
चेतावनियों से उनके हौसले और भी बुलंद होते हैं,
अब अमल भी हो जाए तो कोई बात बने।
अच्छी दोस्ती हममें तो कभी हो न सकी,
अच्छी दुश्मनी ही हो जाए तो कोई बात बने।
सियासत की रोटियां ही सिकती रही है अब तक,
मोहब्बत की भूख भी लग जाए तो कोई बात बने।
नफरत की आंधियों से प्यार का गुलशन उजड़ा है,
इन्सानियत की हवा भी चल जाए तो कोई बात बने।
000
3
दिल ही मंदिर-मस्जिद के दर हैं।
काबा-काशी में क्यों भटकते मगर हैं।
सिर है कि सिजदे में झुक जाये भी,
यह पेचीदगी कि रखती अदावतें नजर हैं।
हर सुबह, हर शाम है पयाम-ए-अमन,
बीच चैराहे पर कैसी यह गदर है।
इन्सानों की बस्ती में बसना आया किसे?
बसने वाला हर शख्स यहां तंग नज़र है।
जन्नत, आबे-हयात की बातें करने वालों,
क्यों लब्जों में तल्खि़यां इस कदर है।
000
4
यह महफिल है मोहब्बत की, कोई ज़ालिम यहां न आए।
मोहब्बत में मरने वाले आएं, जीने वाले यहां न आएं।
शराब भी है, शबाब भी है मयस्सर, इस महफिल में,
दाग़ लगने का हो डर जिसे दामन में, यहां न आए।
खत्म हो जाते हैं रास्ते हर मज़हब के यहां पर,
शौक हो जिसे सफ़र का वह मुसाफ़िर यहां न आए।
गया न लौटकर फिर इस महफिल में आने वाला कोई,
जन्नत और जहन्नुम का हो फिक्र जिसे, यहां न आए।
न ऋचाओं के बंधन यहां, न आयतों की पाबंदियां हैं,
पाबंदियों में जीने वाला कोई शख़्स, यहां न आए।
महज इन्सान और इन्सानियत के चोले बिकते हैं यहां,
मज़हब के लबादे ओढ़ने वाले, ’कुबेर,’ यहां न आए।
000
5
जिंदगी कट जाए सफ़र में तो अच्छा है।
हमसफर मिल जाए सफ़र में तो अच्छा है।
मोहब्बत की बातों से दिल बहल तो जाता है,
यादें बन जायें तुम्हारी तल्खियां तो अच्छा है।
गम मिले या ख़ुशियां मिलें, अपनों से मिले,
जो भी मिले अपनो से मिले तो अच्छा है।
कयामत का पल हो अगला पल, क्या पता?
हो तमन्नाएं इसी पल पूरी तो अच्छा है।
ज़िंदगी एक तिजारत हो हमें गंवारा नहीं,
मुफ़लिसी में भी जीना पड़ जाए तो अच्छा है।
000
6
यारों की रहनुमाई में, खुद से बिछड़ गए हैं।
मंज़िल की तलाश में, कारवां से बिछड़ गए हैं।
सर्द पानी की बूदें उछलकर पड़ना था,
जलती हुई शमा के शीशे तड़क गए हैं।
क़िस्मत ने गिराया था आसमां से हमें,
बदक़िस्मती कहिये, खजूर में अटक गए हैं।
उनकी दगा या अपनी बदक़िस्मती कहिये,
जो भी हो, पैरों तले की जमीन खिसक गए हैं।
नूर-ए-नज़र हर जिगर का कोई कैसे हो,
उनकी आंखों में अब ’कुबेर’ खटक गए हैं।
000
7
जिंदगी जी नहीं जाती, जिया जाता है।
ज़हर पी नहीं जाती, पिया जाता है।
रातों से अदावत कर ली है अब मैंने।
याराना पैमानों से बढ़ा जाता है।
तुम्हारी दुनिया में रोशनी बिखर जाये,
यक़ीनन इसी वास्ते मेरा दिल जला जाता है।
बरसात अब बेमानी हो गई मेरे लिये,
हर बूंद सावन की प्यास बढ़ा जाता है।
बेवफ़ाई दुनिया में मेरे ही साथ हुई?
या मोहब्बत में हर वफा ही छला जाता है।
000
8
भूल जाउं किसे, किसे याद रखूं।
तुम्हीं बताओ, अब क्या करूं।
तुम होती तो खु़दा से लड़ लेता,
टूट चुका हूं, ख़ुद से भी कैसे लड़ू।
तुमनें तो तोड़ डाली सारे बंधनें,
मुश्किल मुझे, कैसे यह मोह तोड़ूं।
यहीं आस-पास मेरे मन के है तू,
मिलने की आस भला क्यों छोड़ूं ?
000
9
उदासियों के घेरे में भटकता है
मन बार-बार जाने कहां उलझता है।
घुल जाती हैं स्मृतियां जाने कहां ?
निर्झरणी आंखों से क्यों झरता है।
किसी की आंखों में खो जाने का भ्रम,
किसी अयाचित से क्यों प्रतिबद्धता है।
विसंगतियां जानें छिपी थी कहां ?
आंखों से वही मुसल्सल बरसता है।
000
10
ज़ख़्म देने अपनों को, कितने यहां सामान हैं।
कौन किसका दर्द पूछे, यह तो कब्रिस्तान है।
किसी ने लूटा हमें, हमें यह शिकायत थी,
आज हमने जाना, चमन क्यों वीरन है।
खू़न का आख़िरी क़तरा तक पीने की तरकीबें,
सब देखे यहां, बाक़ी रहा अब क्या अरमान है।
दिल नाजुक होता है, जुमला यह तारिखी हुई,
अब तो हर दिल यहां, पत्थर और चट्टान है।
000
11
दोस्तों, तेल देखिये और तेल की धार देखिये।
क़िस्मत ही नहीं, मंहगाई की मार देखिये।
चुनावी वादों की हक़ीक़त अब किसी से छिपी नहीं,
फिर भी चुनाव दर चुनाव हमारा ऐतबार देखिये।
ग़रीब की ग़रीबी और अमीर की अमीरी दोनों बढ़ी,
समाजवाद में पूंजीवाद का यह व्यापार देखिये।
धोबी का कुत्ता घर का रहा, न घाट का,
बेरोज़गार बेटे के प्रति घर का व्यवहार देखिये।
जुबां पर अपनापे का मिठास और दिल में कड़ुवाहट,
आदमी से आदमी का आधुनिक प्यार देखिये।
बच्ची से बलात्कार और नई दुल्हन का दहन,
ताज़ा अख़बार में आज का समाचार देखिये।
000
12
तुमको जीवन-गीत बना लूं।
हार को अपनी जीत बना लूं।
जुदाई में ज़िंदगी क्यों सिसके,
तनहा जीने की रीत बना लूं।
गमों से मुंह फेरकर क्यों बैठूं ,
पीर को क्यों न प्रीत बना लूं।
जिंदगी तो जीने के लिये है,
क्यों न इसे मनमीत बना लूं।
000
13
घटते हुए कपड़े देखो, फ़ैसन की हवा है।
बढ़ते हुए घोटाले देखो, फैसन की हवा है।
कानून और अपराध समानुपाती हुए,
बढ़ते हुए रोग देखो, सर्जन की दवा है।
इधर हत्या, उधर लूट, वहां बलात्कार,
सियासी मैदान से सुनो, तफसरा रवां है।
लफ़्फ़ाज़ी सैलाबो से जीना हराम हुआ,
रोके नहीं रुकता, वादों का कारवां है।
झूठ बोलने में उनकी महारत तो देखो,
नेताजी शत-प्रतिशत, तो मंत्रीजी सवा है।
000
14
जय नेता, जय मंत्री, जय चोर देवा।
दौलत की भोग चढ़े, गुंडों की सेवा।
गुरू मिले, योगी मिले और मिले साधू ,
राम नामी चादर ओढ़ खाए रोज कलेवा।
अपराधी, बलात्कारी, हत्यारे और हरामी,
नेताओं की फौज में, रोग जानलेवा।
कंगला को बंगला मिले, लोभी को लक्ष्मी,
दलालों की दाल गले, मतलबी को मेवा।
मंत्रियों की मन की बातें, अफ़सरों की चालें,
नेताओं के नेत्र बसे जैसे कामदेवा ।
000
15
इधर कुआं तो उधर खाई है।
यहां सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं।
सच की थाली में सूखी रोटी,
झूठ की थाली में रसमलाई है।
जनता बन कर फांके क्यों करें,
नेता बनेंगे, कमाई ही क माई है।
आधा भाई को मिला, आधा भतीजे को,
जनाब, अंधों ने जो बंटवाई है।
किसी की पतलून फटे या किसी की धोती,
धोबी पछाड़ वाली यहां की धुलाई है।
बहुत हो गया अब, चुप न रह,
’कुबेर’ इसी में तेरी भलाई है।
000
16
अंधेरा बहुत है, उजाला लाओ यारों।
दिये कम हैं, दिल जलाओ यारों।
वहम ही सही,जीने का सहारा तो है,
हक़ीक़त यूं सामने न लाओ यारों।
उनकीे गेसुओं के साये अब मुमकिन नहीं,
तपिश बहुत है, क़फन ओढ़ाओ यारों।
नजरों के तीर अब मयस्सर कहां ?
तीखे नश्तर ही दिल में चुभाओ यारों।
होठों के जाम अब छलकेंगे नहीं,
गम के प्यालों में डूब जाओ यारों।
’कुबेर’ की दास्तां कौन सुनेगा यहां ?
उनकी बेवफ़ाई के गीत गाओ यारों।
000
17
कौन सी रोटी खाकर इतने मोटे हो गए।
गोल-मटोल, बिन पेंदे के लोटे हो गए।
कल तक बाज़ार जिनके मजबूत थे,
सिक्के, वही आज खोटे हो गए।
ऊंची-ऊची कुर्सी के बड़े-बड़े हक़दार,
कुर्सी मिलते ही, कितने छोटे हो गए ?
चेहरे पर चेहरे इतने चढ़े, कि -
चेहरे ही अब मुखौटे हो गए।
ख़ुदग़र्ज़ी में इतने गिरे ’कुबेर’ कि -
गधे बाप और कुत्ते बेटे हो गए।
000
18
तुम मुझे इन्कार करती हो।
ज़रूर, मुझसे प्यार करती हो।
बेरुखी से मुंह फेरने वाली,
छिपकर क्यों दीदार करती हो।
माना, तुम हमसफ़र नहीं, पर -
राह वही अख़्तियार करती हो।
फूलों से गुफ़्तगूं तो बहाना है।
मेरा ही इंतिज़ार करती हो।
ये अंगड़ाई,ये आहें,इत्तिफ़ाक़ नहीं,
बेक़रारी का इज़हार करती हो।
000
19
न घरों में अमन, न गलियों में सुकून है।
दिलों में छाया कैसा यह जुनून है ?
अपने ही आंगन में लुटने का डर,
पहरेदारों के मुंह लगा जो ख़ून है।
ग़रीब को लंगोटी भी मिलती नहीं,
सपना हुआ कुरता और पतलून है।
जुड़ने से पहले टूटने का खतरा,
कैसी महूरत ? कैसा शगुन है ?
हर मोड़ पर लुटेरे, चैराहों पर रहजन,
कहीं अपराधी, कहीं नेता, कहीं परचून है।
लुटा-आदमी दहशत में, अपराधी बेख़ौफ,
भइया, इस देश का, ऐसा ही क़ानून है।
000
20
तुम्हारी आंखों ने हमें बताया है।
रात भर किसी ने (तुम्हें) जगाया है।
यादों की तपिश का क्या कहिये ?
ख़्वाहिशों ने जी भर जलाया है।
ज़िंदगी तो ज़ुदाई में गुज़री तमाम
मौत ने शायद उन्हें मिलाया है।
मोहब्बत बड़ा बेदर्द निकला ’कुबेर’,
पल भर हंसाया, उम्र भर रुलाया है।
000
21
जीने का बहाना कोई ढ़ूंढ़ा जाये।
दोस्ती मौत से कर लिया जाये।
दुनिया जीने के लिये काफ़ी नहीं,
इश्क इससे क्यों किया जाये।
माना, तब्दीलियां ज़रूरी है बेहतरी के लिए,
रवायतों से पर इस क़दर, क्यों बंधा जाये।
जीना है, तो अपनी शर्तों पर जियें,
जिंदगी उधार की क्यों जिया जाये।
जन्नत की सौगात ’कुबेर’ क्यों मांगे ?
लोगों की दुआएं ही बस लिया जाये।
000
22
चांद चाहने वाले दाग से न डर।
प्यार करने वाले आग से न डर।
जमाना हमें मिलने न देगा कभी,
सदा देने वाले आवाज़ से न डर।
माज़ी और मुक़द्दर को जाना किसने,
अंज़ाम चाहे जो हो, आगाज़ से न डर।
दिल के टुकड़े हज़ार होंगे यहां,
पत्थरों के शहर में फ़ौलाद से न डर।
दुनिया फूलों की राह नही
चलने वाले, हालात से न डर।
बुलबुल की राह रोकने वाले बहुत हैं,
कांटों से न डर, सैयाद से न डर।
000
23
किस-किस से लड़ें जमाने में।
आशियां बनाएं, चलो वीराने में।
ज़नाजे़ से भी उठकर चले आयेंगे,
असर हो यदि बुलाने में।
मोहब्बत के मालिक ग़रीब नहीं होते,
क्या रखा है दुनियावी ख़ज़ाने में।
मोहब्बत की आंधी कभी रुकती नहीं,
रोक ले, इतनी ताकत नहीं ज़माने में।
प्यार की सदा गूंजेगी एक दिन ज़रूर,
जोर चाहे जितनी लगा लो दबाने में।
000
24
जंगल की क़ानून को और कब तक सहें हम।
इंतिहा हो गई ज़ुल्म की, और कब तक सहें हम।
शेर की खाल ओढ़कर बहुत डराया उसने,
गधे की हक़ीक़त से अंजान कब तक रहें हम।
इंसानों का खून पीना उनकी फ़ितरत में है,
इन आदमख़ोरों को ज़िंदा कब तक रखें हम।
इनके प्यार में महज़ नफ़रत छिपी रहती है,
ज़हरीली हंसी का इस्तेक़बाल कब तक करें हम।
आश्वासनों और वायदों से कभी पेट भरते नहीं,
सपनों की दुनिया में सोते कब तक रहें हम।
जु़ल्म सहकर जीना भी कोई जीना है ’कुबेर’,
ज़िंदगी के नाम पर मौत कब तक ढोते रहें हम।
000
25
अंधेरे की चेहरे का श्रृंगार कब तक करोगे ?
रोशनी ऐसे आती नहीं, इंतिज़ार कब तक करोगे?
दबे को दबाये जाने का ज़बरदस्त चलन है यहां,
अपनी बेबसी का इज़हार कब तक करोगे ?
फ़रीश्तों का मुखौटा लगाने वाले बिचैलियों,
इंसानी जज़्बातों का व्यापार कब तक करोगे ?
हवाओं में नफरत का ज़हर घोलने वालों,
क़ौम की सेहत को बीमार कब तक करोगे ?
मज़लूमों की आहों से डरना भी सीखो ’कुबेर’,
ख़ुदाओं को पहचानने से इंकार कब तक करोगे ?
000
26
सूरज कहीं पर भी बिकता नहीं।
रोशनी बदचलन भी तो होती नहीं।
बिक जाए गुलाबों की डालियां मगर,
ख़ुशबुएँ क़ैद कहीं भी तो होती नहीं।
माँ भी मिल जाये पैसों से मुमकिन मगर
ममता कभी, कहीं भी तो बिकती नहीं।
सजती है बहुत हुस्न की मंडियाँ, मगर
इश्क़ की मंडियाँ कहीं भी तो सजती नहीं।
000
1
हर कहीं बस यही तो हुआ है।
जुनून है, नफरत का धुआं है।
0
मजहब भी भटका-सा लगता है,
सियासत ने उसे जब से छुआ है।
0
वह जायका अब जीने में कहां,
कड़ुवाहट जाने कहां से चुआ है।
0
हंसता-खेलता घर उजड़ने लगा,
लगाई किसने यह बद्दुआ है।
0
लूट,जनता को जिसने तिजौरियां भरी,
बन बैठा वही आज अगुआ है।
000
2
खामोशियों का सिलसिना टूट जाए तो कोई बात बने।
बातों का सिलसिला चल जाए तो कोई बात बने।
गले तो मिल लिये हमने-तुमने बहुत,
अब दिल भी मिल जाए तो कोई बात बने।
चेतावनियों से उनके हौसले और भी बुलंद होते हैं,
अब अमल भी हो जाए तो कोई बात बने।
अच्छी दोस्ती हममें तो कभी हो न सकी,
अच्छी दुश्मनी ही हो जाए तो कोई बात बने।
सियासत की रोटियां ही सिकती रही है अब तक,
मोहब्बत की भूख भी लग जाए तो कोई बात बने।
नफरत की आंधियों से प्यार का गुलशन उजड़ा है,
इन्सानियत की हवा भी चल जाए तो कोई बात बने।
000
3
दिल ही मंदिर-मस्जिद के दर हैं।
काबा-काशी में क्यों भटकते मगर हैं।
सिर है कि सिजदे में झुक जाये भी,
यह पेचीदगी कि रखती अदावतें नजर हैं।
हर सुबह, हर शाम है पयाम-ए-अमन,
बीच चैराहे पर कैसी यह गदर है।
इन्सानों की बस्ती में बसना आया किसे?
बसने वाला हर शख्स यहां तंग नज़र है।
जन्नत, आबे-हयात की बातें करने वालों,
क्यों लब्जों में तल्खि़यां इस कदर है।
000
4
यह महफिल है मोहब्बत की, कोई ज़ालिम यहां न आए।
मोहब्बत में मरने वाले आएं, जीने वाले यहां न आएं।
शराब भी है, शबाब भी है मयस्सर, इस महफिल में,
दाग़ लगने का हो डर जिसे दामन में, यहां न आए।
खत्म हो जाते हैं रास्ते हर मज़हब के यहां पर,
शौक हो जिसे सफ़र का वह मुसाफ़िर यहां न आए।
गया न लौटकर फिर इस महफिल में आने वाला कोई,
जन्नत और जहन्नुम का हो फिक्र जिसे, यहां न आए।
न ऋचाओं के बंधन यहां, न आयतों की पाबंदियां हैं,
पाबंदियों में जीने वाला कोई शख़्स, यहां न आए।
महज इन्सान और इन्सानियत के चोले बिकते हैं यहां,
मज़हब के लबादे ओढ़ने वाले, ’कुबेर,’ यहां न आए।
000
5
जिंदगी कट जाए सफ़र में तो अच्छा है।
हमसफर मिल जाए सफ़र में तो अच्छा है।
मोहब्बत की बातों से दिल बहल तो जाता है,
यादें बन जायें तुम्हारी तल्खियां तो अच्छा है।
गम मिले या ख़ुशियां मिलें, अपनों से मिले,
जो भी मिले अपनो से मिले तो अच्छा है।
कयामत का पल हो अगला पल, क्या पता?
हो तमन्नाएं इसी पल पूरी तो अच्छा है।
ज़िंदगी एक तिजारत हो हमें गंवारा नहीं,
मुफ़लिसी में भी जीना पड़ जाए तो अच्छा है।
000
6
यारों की रहनुमाई में, खुद से बिछड़ गए हैं।
मंज़िल की तलाश में, कारवां से बिछड़ गए हैं।
सर्द पानी की बूदें उछलकर पड़ना था,
जलती हुई शमा के शीशे तड़क गए हैं।
क़िस्मत ने गिराया था आसमां से हमें,
बदक़िस्मती कहिये, खजूर में अटक गए हैं।
उनकी दगा या अपनी बदक़िस्मती कहिये,
जो भी हो, पैरों तले की जमीन खिसक गए हैं।
नूर-ए-नज़र हर जिगर का कोई कैसे हो,
उनकी आंखों में अब ’कुबेर’ खटक गए हैं।
000
7
जिंदगी जी नहीं जाती, जिया जाता है।
ज़हर पी नहीं जाती, पिया जाता है।
रातों से अदावत कर ली है अब मैंने।
याराना पैमानों से बढ़ा जाता है।
तुम्हारी दुनिया में रोशनी बिखर जाये,
यक़ीनन इसी वास्ते मेरा दिल जला जाता है।
बरसात अब बेमानी हो गई मेरे लिये,
हर बूंद सावन की प्यास बढ़ा जाता है।
बेवफ़ाई दुनिया में मेरे ही साथ हुई?
या मोहब्बत में हर वफा ही छला जाता है।
000
8
भूल जाउं किसे, किसे याद रखूं।
तुम्हीं बताओ, अब क्या करूं।
तुम होती तो खु़दा से लड़ लेता,
टूट चुका हूं, ख़ुद से भी कैसे लड़ू।
तुमनें तो तोड़ डाली सारे बंधनें,
मुश्किल मुझे, कैसे यह मोह तोड़ूं।
यहीं आस-पास मेरे मन के है तू,
मिलने की आस भला क्यों छोड़ूं ?
000
9
उदासियों के घेरे में भटकता है
मन बार-बार जाने कहां उलझता है।
घुल जाती हैं स्मृतियां जाने कहां ?
निर्झरणी आंखों से क्यों झरता है।
किसी की आंखों में खो जाने का भ्रम,
किसी अयाचित से क्यों प्रतिबद्धता है।
विसंगतियां जानें छिपी थी कहां ?
आंखों से वही मुसल्सल बरसता है।
000
10
ज़ख़्म देने अपनों को, कितने यहां सामान हैं।
कौन किसका दर्द पूछे, यह तो कब्रिस्तान है।
किसी ने लूटा हमें, हमें यह शिकायत थी,
आज हमने जाना, चमन क्यों वीरन है।
खू़न का आख़िरी क़तरा तक पीने की तरकीबें,
सब देखे यहां, बाक़ी रहा अब क्या अरमान है।
दिल नाजुक होता है, जुमला यह तारिखी हुई,
अब तो हर दिल यहां, पत्थर और चट्टान है।
000
11
दोस्तों, तेल देखिये और तेल की धार देखिये।
क़िस्मत ही नहीं, मंहगाई की मार देखिये।
चुनावी वादों की हक़ीक़त अब किसी से छिपी नहीं,
फिर भी चुनाव दर चुनाव हमारा ऐतबार देखिये।
ग़रीब की ग़रीबी और अमीर की अमीरी दोनों बढ़ी,
समाजवाद में पूंजीवाद का यह व्यापार देखिये।
धोबी का कुत्ता घर का रहा, न घाट का,
बेरोज़गार बेटे के प्रति घर का व्यवहार देखिये।
जुबां पर अपनापे का मिठास और दिल में कड़ुवाहट,
आदमी से आदमी का आधुनिक प्यार देखिये।
बच्ची से बलात्कार और नई दुल्हन का दहन,
ताज़ा अख़बार में आज का समाचार देखिये।
000
12
तुमको जीवन-गीत बना लूं।
हार को अपनी जीत बना लूं।
जुदाई में ज़िंदगी क्यों सिसके,
तनहा जीने की रीत बना लूं।
गमों से मुंह फेरकर क्यों बैठूं ,
पीर को क्यों न प्रीत बना लूं।
जिंदगी तो जीने के लिये है,
क्यों न इसे मनमीत बना लूं।
000
13
घटते हुए कपड़े देखो, फ़ैसन की हवा है।
बढ़ते हुए घोटाले देखो, फैसन की हवा है।
कानून और अपराध समानुपाती हुए,
बढ़ते हुए रोग देखो, सर्जन की दवा है।
इधर हत्या, उधर लूट, वहां बलात्कार,
सियासी मैदान से सुनो, तफसरा रवां है।
लफ़्फ़ाज़ी सैलाबो से जीना हराम हुआ,
रोके नहीं रुकता, वादों का कारवां है।
झूठ बोलने में उनकी महारत तो देखो,
नेताजी शत-प्रतिशत, तो मंत्रीजी सवा है।
000
14
जय नेता, जय मंत्री, जय चोर देवा।
दौलत की भोग चढ़े, गुंडों की सेवा।
गुरू मिले, योगी मिले और मिले साधू ,
राम नामी चादर ओढ़ खाए रोज कलेवा।
अपराधी, बलात्कारी, हत्यारे और हरामी,
नेताओं की फौज में, रोग जानलेवा।
कंगला को बंगला मिले, लोभी को लक्ष्मी,
दलालों की दाल गले, मतलबी को मेवा।
मंत्रियों की मन की बातें, अफ़सरों की चालें,
नेताओं के नेत्र बसे जैसे कामदेवा ।
000
15
इधर कुआं तो उधर खाई है।
यहां सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं।
सच की थाली में सूखी रोटी,
झूठ की थाली में रसमलाई है।
जनता बन कर फांके क्यों करें,
नेता बनेंगे, कमाई ही क माई है।
आधा भाई को मिला, आधा भतीजे को,
जनाब, अंधों ने जो बंटवाई है।
किसी की पतलून फटे या किसी की धोती,
धोबी पछाड़ वाली यहां की धुलाई है।
बहुत हो गया अब, चुप न रह,
’कुबेर’ इसी में तेरी भलाई है।
000
16
अंधेरा बहुत है, उजाला लाओ यारों।
दिये कम हैं, दिल जलाओ यारों।
वहम ही सही,जीने का सहारा तो है,
हक़ीक़त यूं सामने न लाओ यारों।
उनकीे गेसुओं के साये अब मुमकिन नहीं,
तपिश बहुत है, क़फन ओढ़ाओ यारों।
नजरों के तीर अब मयस्सर कहां ?
तीखे नश्तर ही दिल में चुभाओ यारों।
होठों के जाम अब छलकेंगे नहीं,
गम के प्यालों में डूब जाओ यारों।
’कुबेर’ की दास्तां कौन सुनेगा यहां ?
उनकी बेवफ़ाई के गीत गाओ यारों।
000
17
कौन सी रोटी खाकर इतने मोटे हो गए।
गोल-मटोल, बिन पेंदे के लोटे हो गए।
कल तक बाज़ार जिनके मजबूत थे,
सिक्के, वही आज खोटे हो गए।
ऊंची-ऊची कुर्सी के बड़े-बड़े हक़दार,
कुर्सी मिलते ही, कितने छोटे हो गए ?
चेहरे पर चेहरे इतने चढ़े, कि -
चेहरे ही अब मुखौटे हो गए।
ख़ुदग़र्ज़ी में इतने गिरे ’कुबेर’ कि -
गधे बाप और कुत्ते बेटे हो गए।
000
18
तुम मुझे इन्कार करती हो।
ज़रूर, मुझसे प्यार करती हो।
बेरुखी से मुंह फेरने वाली,
छिपकर क्यों दीदार करती हो।
माना, तुम हमसफ़र नहीं, पर -
राह वही अख़्तियार करती हो।
फूलों से गुफ़्तगूं तो बहाना है।
मेरा ही इंतिज़ार करती हो।
ये अंगड़ाई,ये आहें,इत्तिफ़ाक़ नहीं,
बेक़रारी का इज़हार करती हो।
000
19
न घरों में अमन, न गलियों में सुकून है।
दिलों में छाया कैसा यह जुनून है ?
अपने ही आंगन में लुटने का डर,
पहरेदारों के मुंह लगा जो ख़ून है।
ग़रीब को लंगोटी भी मिलती नहीं,
सपना हुआ कुरता और पतलून है।
जुड़ने से पहले टूटने का खतरा,
कैसी महूरत ? कैसा शगुन है ?
हर मोड़ पर लुटेरे, चैराहों पर रहजन,
कहीं अपराधी, कहीं नेता, कहीं परचून है।
लुटा-आदमी दहशत में, अपराधी बेख़ौफ,
भइया, इस देश का, ऐसा ही क़ानून है।
000
20
तुम्हारी आंखों ने हमें बताया है।
रात भर किसी ने (तुम्हें) जगाया है।
यादों की तपिश का क्या कहिये ?
ख़्वाहिशों ने जी भर जलाया है।
ज़िंदगी तो ज़ुदाई में गुज़री तमाम
मौत ने शायद उन्हें मिलाया है।
मोहब्बत बड़ा बेदर्द निकला ’कुबेर’,
पल भर हंसाया, उम्र भर रुलाया है।
000
21
जीने का बहाना कोई ढ़ूंढ़ा जाये।
दोस्ती मौत से कर लिया जाये।
दुनिया जीने के लिये काफ़ी नहीं,
इश्क इससे क्यों किया जाये।
माना, तब्दीलियां ज़रूरी है बेहतरी के लिए,
रवायतों से पर इस क़दर, क्यों बंधा जाये।
जीना है, तो अपनी शर्तों पर जियें,
जिंदगी उधार की क्यों जिया जाये।
जन्नत की सौगात ’कुबेर’ क्यों मांगे ?
लोगों की दुआएं ही बस लिया जाये।
000
22
चांद चाहने वाले दाग से न डर।
प्यार करने वाले आग से न डर।
जमाना हमें मिलने न देगा कभी,
सदा देने वाले आवाज़ से न डर।
माज़ी और मुक़द्दर को जाना किसने,
अंज़ाम चाहे जो हो, आगाज़ से न डर।
दिल के टुकड़े हज़ार होंगे यहां,
पत्थरों के शहर में फ़ौलाद से न डर।
दुनिया फूलों की राह नही
चलने वाले, हालात से न डर।
बुलबुल की राह रोकने वाले बहुत हैं,
कांटों से न डर, सैयाद से न डर।
000
23
किस-किस से लड़ें जमाने में।
आशियां बनाएं, चलो वीराने में।
ज़नाजे़ से भी उठकर चले आयेंगे,
असर हो यदि बुलाने में।
मोहब्बत के मालिक ग़रीब नहीं होते,
क्या रखा है दुनियावी ख़ज़ाने में।
मोहब्बत की आंधी कभी रुकती नहीं,
रोक ले, इतनी ताकत नहीं ज़माने में।
प्यार की सदा गूंजेगी एक दिन ज़रूर,
जोर चाहे जितनी लगा लो दबाने में।
000
24
जंगल की क़ानून को और कब तक सहें हम।
इंतिहा हो गई ज़ुल्म की, और कब तक सहें हम।
शेर की खाल ओढ़कर बहुत डराया उसने,
गधे की हक़ीक़त से अंजान कब तक रहें हम।
इंसानों का खून पीना उनकी फ़ितरत में है,
इन आदमख़ोरों को ज़िंदा कब तक रखें हम।
इनके प्यार में महज़ नफ़रत छिपी रहती है,
ज़हरीली हंसी का इस्तेक़बाल कब तक करें हम।
आश्वासनों और वायदों से कभी पेट भरते नहीं,
सपनों की दुनिया में सोते कब तक रहें हम।
जु़ल्म सहकर जीना भी कोई जीना है ’कुबेर’,
ज़िंदगी के नाम पर मौत कब तक ढोते रहें हम।
000
25
अंधेरे की चेहरे का श्रृंगार कब तक करोगे ?
रोशनी ऐसे आती नहीं, इंतिज़ार कब तक करोगे?
दबे को दबाये जाने का ज़बरदस्त चलन है यहां,
अपनी बेबसी का इज़हार कब तक करोगे ?
फ़रीश्तों का मुखौटा लगाने वाले बिचैलियों,
इंसानी जज़्बातों का व्यापार कब तक करोगे ?
हवाओं में नफरत का ज़हर घोलने वालों,
क़ौम की सेहत को बीमार कब तक करोगे ?
मज़लूमों की आहों से डरना भी सीखो ’कुबेर’,
ख़ुदाओं को पहचानने से इंकार कब तक करोगे ?
000
26
सूरज कहीं पर भी बिकता नहीं।
रोशनी बदचलन भी तो होती नहीं।
बिक जाए गुलाबों की डालियां मगर,
ख़ुशबुएँ क़ैद कहीं भी तो होती नहीं।
माँ भी मिल जाये पैसों से मुमकिन मगर
ममता कभी, कहीं भी तो बिकती नहीं।
सजती है बहुत हुस्न की मंडियाँ, मगर
इश्क़ की मंडियाँ कहीं भी तो सजती नहीं।
000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें